आत्मकथांश : बरसात के दिन

ओमप्रकाश वाल्मीकि     

बरसात के दिन नर्क से कम नहीं  थे। गलियों में कीचड़ भर जाता था, जिससे आना-जाना कठिन हो जाता था। कीचड़ में गंदगी भरी रहती थी, जो बारिश रुकने के बाद गंधियाने लगती थी। मक्खी-मच्छर तो ऐसे पनपते थे जैसे टिड्डी दल।

घर से बाहर निकलना दूभर हो जाता था। हाथ-पैर गंदगी से भर जाते थे। पाँव में खारवे हो जाते थे। पैर की उँगलियों के बीच की जगह लाल-लाल चकत्ते उभर जाते थे। उन खारवों में एक बार खुजली शुरू होती तो फिर रुकने का नाम ही नहीं लेती थी।

महीनों रास्तों में कीचड़ और पानी भरा रहता था। पानी से निकलकर ही स्कूल जाना पड़ता था। हमारी बस्ती के इर्द-गिर्द जोहड़ ज्यादा थे। उनका पानी गलियों में भर जाता था।

बस्ती में एक कुँआ था। चंदा इकट्ठा करके कुँए को पक्का बना लिया गया था। कुएँ की जगत और मुंडेर काफी ऊँची थी। फिर भी बरसात के दिनों में कुएँ के पानी में लंबे-लंबे कीड़े हो जाते थे। उस पानी को पीना मजबूरी थी। तगाओं के कुँए से पानी लेने का हमें अधिकार नहीं था।

1962 के साल में खूब बारिश हुई थी। बस्ती में सभी के घर कच्ची मिट्टी से बने थे। कई दिन की लगातार बारिश ने मिट्टी के घरों पर कहर बरपा दिया था। हमारा घर जगह-जगह से टपकने लगा था। जहाँ टपकता, वहीं एक खाली बर्तन रख देते थे। बर्तन में टन-टन की आवाज आने लगती थी। ऐसी रातें जाग-जागकर काटनी पड़ती थीं। हर वक्त एक डर बना रहता था- कब कोई दीवार धसक जाए।

कभी-कभी अचानक ही छत में कोई बड़ा सुराख हो जाता था, जिसे बंद करना बहुत कठिन काम होता था। कच्ची मिट्टी के मकानों की गीली छत और दीवार पर चढ़ना किसी खतरे से कम नहीं होता था।

ऐसी ही एक मूसलाधार बारिश की रात में हमारे घर की छत में एक सुराख हो गया था। छत पर चढ़ने का काम मुझे सौंपा गया, क्योंकि परिवार में सबसे कम वजन मेरा ही था। तेज बारिश, अँधेरी रात में कुछ सूझ नहीं रहा था। पिताजी के कंधे पर पाँव रखकर मैं छत पर चढ़ गया था। पिताजी नीचे खड़े मेरा मार्गदर्शन कर रहे थे, ‘‘संभल के मुंशी जी, पैर जमा के…. छत पर मत जाणा…. दीवाल की तरफ ही रहणा।”
Autobiography: Rainy Day

कहानी चूहड़े की

कुछ बिरली साहित्यिक कृतियाँ ही ऐसी होती हैं जो बिना किसी लागलपेट के, बिना कोई शोरशराबा किये, बिना किसी साहित्यिक अथवा शाब्दिक कलाकारी की बैसाखियों का सहारा लिए और बिना किसी भी तरह की अतिरंजना के पाठकों को अंदर तक हिला देती हैं, सहमा देती हैं, झकझोर देती हैं और ठिठककर सोचने को मजबूर कर देती हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि (1950-2013) की आत्मकथा जूठन, जिसे लेखक स्वयं अपनी ‘व्यथा कथा’ कहते हैं, एक ऐसी ही कृति है जो हिलाती-सहमाती-झकझोरती-ठिठकाती तो है ही, यह प्रत्येक संवेदनशील-सहृदय पाठक को आत्मग्लानि से भर देती है- आत्मग्लानि कि वह भी उस सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा है जो, लेखक के शब्दों में, ‘‘बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति असंवेदनशील भी।” लेखक अपनी कहानी शुरू करने से पहले कहते हैं, ‘‘इस प्रक्रिया में ऐसा बहुत कुछ है जो लिखा नहीं गया या मैं लिख नहीं पाया। मेरी सामथ्र्य से बाहर था। इसे आप मेरी कमजोरी मान सकते हैं।” इस मजबूरी, असमर्थता और संकोच के बावजूद- जो कि बिना कुछ कहे, अपने आप में, जातियों की बेड़ियों में जकड़े हमारे ‘‘क्रूर और अमानवीय” समाज के ऊपर एक अत्यन्त तल्ख टिप्पणी भी है- जूठन के प्रत्येक पृष्ठ में इतना कुछ है जो नश्तर की तरह चुभता है और भारतीय वर्ण-तंत्र को कुछ ऐसी बेबाकी से अनावृत कर देता है कि इसे एक अत्यन्त सशक्त और विश्वसनीय सामाजिक दस्तावेज कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

जूठन एक आत्मकथा होने के साथ-साथ कहानी है उस पिता के संकल्प की जो अपने छोटे बेटे (जिसे वह प्यार से ‘मुंशी जी’पुकारता है) से हरदम कहता है, ‘‘पढ़ लिखकर अपनी ‘जाति’सुधारो।”; यह कृति उस माँ की दृढ़ता की कथा भी है जो अपने लाड़ले के लिए ‘‘साफ शब्दों में” घोषणा कर देती है, ‘‘ओमप्रकाश यह काम (सुअर काटना) नहीं करेगा।” और जो अपमानित किये जाने पर, टोकरी में इकट्ठा की गयी जूठन बिखेरकर, अपमानित करने वाले व्यक्ति से कहती है, ‘‘इसे ठाके अपने घर में घर ले। कल तड़के बारातियों को नाश्ते में खिला देणा…..’’ इस पु़स्तक में एक ओर ऐसे शिक्षक हैं जो दलित छात्रों के साथ जानवरों की तरह व्यवहार करने में अपनी शान समझते हैं, ऐसे भूस्वामी हैं जो दलितों से बेगार कराना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं, तो दूसरी तऱफ वह भाभी भी है जो अपना एकमात्र गहना, चाँदी की एक पाजेब, अपनी सास अर्थात लेखक की माँ को देकर कहती है, ‘इसे बेचकर लाल्ला जी का (स्कूल में) दाखिला करा दो।’यह इस समाज की गलीज स्थितियों से छुटकारा पाने की कोशिशों की जीवन्त मिसाल है। कृति की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लेखक अपनी पहचान को कि वह चूहड़ा जाति से है, कहीं छिपाते नहीं है। छिपाकर अभिजात्य समाज में जगह नहीं बनाना चाहते लेकिन इन सबसे बढ़कर जूठन  उस ‘लाल्ला’की पीड़ा, असहायता, बेबसी, घुटन, आक्रोश, साहस, हौसले, और ऊँची उड़ान का प्रेरणादायक और मर्मस्पर्शी ब्यौरा है जिसने जिन्दगी की शुरूआत तो महज़ एक ‘‘चूहड़े के” के रूप में की थी किन्तु जिसके निधन से साहित्यिक जगत को अपूरणीय क्षति हुई है।

ओमप्रकाश वाल्मीकि को उत्तरा परिवार की श्रद्धांजलि।                    

मधु जोशी

मेरे एक हाथ में बड़ा-सा मिट्टी का ढेला था। दूसरे हाथ से सुराख को ढूँढ रहा था, अँधेरे में। पिताजी लगातार बोल रहे थे, ‘‘मुंशी जी, मिला गढ्ढा….’’ आखिर सुराख ढूँढने में मैं सफल हो गया था। ढेला रखकर उसे बंद कर दिया था।

सुराख बंद करके वापस लौटना मुश्किल हो गया था। तेज बारिश में आँखें खुल नहीं पा रही थीं। पिताजी की आवाज का अंदाज करके मैं धीरे-धीरे वापस आ रहा था कि अचानक पाँव फिसल गया। क्षणभर को लगा कि मैं हवा में हूँ लेकिन उस अँधेरे में भी पिताजी की अनुभवी आँखों ने मुझे देख लिया था, और मैं उनकी मजबूत पकड़ में आकर सँभल गया था।

मेरी चीख सुनकर माँ भी बाहर आ गई थी। लेकिन मुझे सुरक्षित देखकर आश्वस्त हो गई थी। मैं ठंड से काँप रहा था। मुझे कपड़े से पोंछकर माँ ने चूल्हे के पास बैठा दिया था।

उस रात हमारी बैठक का एक हिस्सा गिर गया था। माँ और पिताजी एक पल के लिए भी नहीं सोए थे। बस्ती में कई मकान गिर गए थे। लोगों के चीखने-चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं। पिताजी ने बाहर निकलकर ऊँची आवाज में पूछा था, ‘‘मामू…. सब ठीक तो है।” उधर से मामू की आवाज भी उतने ही जोर से आई थी, ‘‘ठीक है…. पिछवाड़े की कोठरी गिर गई है।”

सुबह होते ही बस्ती में भगदड़ मच गई थी। हर कोई सुरक्षित जगह की खोज में निकल पड़ा था। बारिश अभी भी जारी थी। बचे-खुचे मकान किसी भी समय गिर सकते थे।
Autobiography: Rainy Day

पिताजी सुबह होते ही तगाओं की तरफ चले गए थे। वे जल्दी ही वापस लौट आए थे। आते ही बोले, ‘‘जल्दी करो….. मामराज की बैठक खुलवा दी है।” माँ ने जल्दी-जल्दी जरूरी चीजें समेट ली थीं। और हम लोग घर का सामान सिर पर रखे बारिश में भीगते हुए मामराज तगा की बैठक में आ गए थे। मामराज की बैठक बरसों से बंद पड़ी थी। उसका कोई इस्तेमाल नहीं होता था। दीवारों का प्लास्टर तक उखड़ गया था। फिर भी वह पनाह सुरक्षित थी।

मामराज तगा की बैठक में हमने सामान रखा भी नहीं था कि हमारे पीछे-पीछे तीस-चालीस जन और आ गए थे। बाकी लोग कहीं दूसरी जगह चले गए थे। देखते ही देखते बैठक भर गई थी। चारों तरफ सामान-ही-सामान पड़ा था। खाने-पकाने के बर्तनों के साथ जरूरत भर की चीजें थीं। बाकी सब वहीं छोड़-छाड़कर आ गए थे।

इतने लोग एक ही बैठक में समा गए थे। सबसे बड़ी समस्या थी, चूल्हा जलाने की। ईंधन किसी के पास नहीं था। जो था वह बारिश में भीग गया था।

तगाओं के घरों से उपले माँग-माँगकर चूल्हे जलाए गए थे। बैठक में एक साथ आठ-दस चूल्हे बन गए थे। चूल्हे क्या, बस, तीन ईंटों को जोड़कर चूल्हा बन गया था। किसी-किसी को ईंट भी नहीं मिली थी तो ढूँढ-ढाँढकर पत्थर ही जुटा लिये थे। चूल्हों से उठते हुए धुँए ने बैठक का नक्शा ही बदल दिया था। उस धुएँ में साँस लेना भी मुश्किल था। मर्दों की मंडली बैठक के बरामदे में जमी हुक्के गुड़गुड़ा रही थी। औरतें चूल्हों से जूझ रही थीं। बच्चों की चीख-पुकार ऐसी थी कि कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था।

साँझ होते ही बैठक में अँधेरा गहरा गया था। दीया किसी के पास नहीं था। न ही कहीं कोई ढिबरी या लालटेन थी। चूल्हों में जलती उपलों की आग अँधेरे से लड़ने का असफल प्रयास कर रही थी। ऐसे वातावरण में आपसी रंजिशें भूलकर बस्ती के लोग एक छत के नीचे आ गए थे। जिसके पास जो था उसे बाँटकर खाना चाहते थे।

उस रात माँ ने चने उबाले थे नमक डालकर। यही था रात का हमारा खाना। उस रात उन चनों में जो स्वाद था, जो संतुष्टि थी, वैसी संतुष्टि मुझे पाँच सितारा होटलों के खाने में भी नहीं मिली।

उस रात किसी चूल्हे पर कोई सब्जी या दाल नहीं पकी थी। रोटी, प्याज और नमक। इससे आगे किसी के पास कुछ भी नहीं था।

अगले दिन सुबह से लेकर दोपहर तक कोई चूल्हा नहीं जला था। बरसात ने फाकों की नौबत पैदा कर दी थी। जीवन जैसे पंगु हो गया था। लोग गाँव भर में घूम रहे थे, कहीं से कुछ चावल-गेहूँ मिल जाए तो चूल्हा जले। ऐसे दिनों में उधार भी नहीं मिलता। दर-दर भटककर कई लोग खाली हाथ आ गए थे। पिताजी भी खाली हाथ ही आ गए थे। उनके चेहरे पर बेबसी थी। सगवा प्रधान ने अनाज देने की शर्त भी रख दी थी। अपने किसी लड़के को सालाना नौकर रख दो, बदले में जितना अनाज चाहो, ले जाओ।
Autobiography: Rainy Day

पिताजी चुपचाप वापस आ गए थे। लेकिन माँ को मामराज तगा के घर से कुछ सेर चावल मिल गए थे जिससे थोड़ी राहत मजसूस की थी, हम सभी ने। कई रोज बाद भरपेट खाने का सिला बना था। माँ ने चावल उबालने के लिए चूल्हे पर एक बड़ा-सा बर्तन चढ़ा दिया था। उसमें चावल तो कम थे, लेकिन पानी ऊपर तक भर दिया था। चावल उबलने की महक पूरी बैठक में भर गई थी। छोटे-छोटे बच्चे ललचाई नजरों से चूल्हे की ओर देख रहे थे।

चावल उबल जाने पर पानी अलग कर लिया था। उस पानी के दो हिस्से कर लिए थे माँ ने। एक हिस्से को छौंककर दाल की तरह बना लिया था और दूसरे हिस्से में से सभी बच्चों को एक-एक कटोरी चावल का पानी पीने के लिए दे दिया था। इस उबले चावल के पानी को माँड़ कहते थे। यह माँड़ हम सबके लिए किसी दूध से कम नहीं था। जब भी चावल बनते थे, सभी खुश हो जाते थे, गर्म-गर्म माँड़ पीकर शरीर में स्फूर्ति आ जाती थी।

बस्ती के पास जुलाहों के घर थे। शादी-विवाह के मौकों पर जब उनके घरों में दाल-चावल बनते थे, तो हमारी बस्ती के बच्चे बर्तन लेकर माँड लेने दौड़ पड़ते थे। फेंक दिया जाने वाला माँड़ हमारे लिए गाय के दूध से ज्यादा मूल्यवान था।

कई बार जुलाहे डाँट-फटकार कर भगाने की कोशिश भी करते थे। लेकिन बच्चे बेशर्म होकर खड़े ही रहते थे। माँड पीने का लालच उन्हें डाँट-फटकार से ज्यादा प्रिय था।

माँड में नमक मिलाकर पीने से अच्छा लगता था। यदि कभी-कभार गुड़ मिल जाता था तो माँड़ का स्वाद लजीज हो जाता था। माँड़ पीने की यह आदत किसी शौक या फैशन की देन नहीं थी। अभावों और फाकों से बचने की मजबूरी थी। फेंक देने वाली चीज हमारी भूख मिटाने वाली थी।

एक बार स्कूल में मास्टर साहब द्रोणाचार्य का पाठ पढ़ा रहे थे। मास्टर साहब ने लगभग रुआँसा होकर बताया था कि द्रोणाचार्य ने भूख से तड़पते अश्वत्थामा को आटा पानी में घोलकर पिलाया था, दूध की जगह। द्रोण की गरीबी का दारुण नक्शा सुनकर पूरी कक्षा हाय-हाय कर उठी थी। यह प्रसंग द्रोण की गरीबी को दर्शाने के लिए महाभारतकार व्यास ने रचा था।

मैंने खड़े होकर मास्टर साहब से एक सवाल पूछ लेने की धृष्टता की थी। अश्वत्थामा को तो दूध की जगह आटे का घोल पिलाया गया और हमें चावल का माँड़। फिर किसी महाकाव्य में हमारा जिक्र क्यों नहीं आया? किसी महाकवि ने हमारे जीवन पर एक भी शब्द क्यों नहीं लिखा?

समूची कक्षा मेरा मुँह देखनी लगी थी। जैसे मैंने कोई निरर्थक प्रश्न उठा दिया हो! मास्टर साहब चीख उठे थे, ‘‘घोर कलियुग आ गया है… जो एक अछूत जबान जोरी कर रहा है।’’

उस मास्टर ने मुझे मुर्गा बना दिया था। पढ़ाना छोड़कर बार-बार मेरे चूहड़े होने का उल्लेख कर रहा था। उसने शीशम की एक लंबी-सी छड़ी किसी लड़के को लाने का आदेश दिया था।

”चूहड़े के, तू द्रोणाचार्य से अपनी बराबरी करे है….. ले तेरे ऊपर मैं महाकाव्य लिखूँगा….’’ उसने मेरी पीठ पर सटाक-सटाक छड़ी से महाकाव्य रच दिया था। वह महाकाव्य आज भी मेरी पीठ पर अंकित है। भूख और असहाय जीवन के घृणित क्षणों में सामंती सोच का यह महाकाव्य मेरी पीठ पर ही नहीं, मेरे मस्तिष्क के रेशे-रेशे पर अंकित है।

अश्वत्थामा के प्रतिशोध की ज्वाला मैंने अनेक बार अपने भीतर महसूस की है, जो मेरी बेचैनी को बढ़ा देती है।

बरसों-बरस चावल के माँड़ से बनी सब्जी खाकर अपने जीवन के अंधेरे तहखानों से बाहर आने का संघर्ष किया है। माँड़ पी-पीकर हमारे पेट फूल जाते थे। भूख मर जाती थी। यही गाय का दूध था हमारे लिये, यही था स्वादिष्ट भोजन भी। यही था दारुण जीवन जिसकी दग्धता में झुलसकर जिस्म का रंग बदल गया है।

साहित्य में नर्क की सिर्फ कल्पना है। हमारे लिए बरसात के दिन किसी नारकीय जीवन से कम न थे। हमने इसे साकार रूप में जीते-जी भोगा है। ग्राम्य जीवन की यह दारुण व्यथा हिन्दी के महाकवियों को छू भी नहीं सकी। कितनी बीभत्स सच्चाई है यह।
Autobiography: Rainy Day
जूठन से साभार
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