बचनदेई : गरीब परम्परा की अमीर गायक

दाता राम पुरोहित

अपने देश में हाशिये पर धकेली गई लोक गायकी की कलाकार बचनदेई  ने 4 नवम्बर 2013 को दून अस्पताल में दम तोड़ दिया। बीमारी और बीमारी के खर्चे के जुगाड़ से संघर्ष करते हुए उन्होंने टेलीफोन पर कहा ‘‘पुरेत जी, मेरी बचने की गुंजाइश नहीं है, आप से हमारा साहचर्य अच्छा रहा। ज्यादा नहीं बोल पाऊँगी, ईश्वर आपका भला करे”। इससे पहले जब सी.एम.आई. हॉस्पिटल में उनसे मिलने गया था तब वे आई. सी. यू. में थीं और आक्सीजन का मास्क पहने थीं, सिर्फ मेरी तरफ नजर डाल पाई थीं।

बचनदेई पिछले तीन सालों से सांस की बीमारी की शिकायत करती आ रही थीं। 2010 में उत्तरकाशी के माघ मेले में शिरकत करने शिवचरण, बचनदेई और उनकी पोती जब जा रहे थे तो चिन्यालीसौड़ में मेरे मित्र डॉ. कुकरेती ने उनकी अच्छी तरह जाँच कर दवाइयाँ भी दी थीं। फिर उसी वर्ष उन्हें जब गिरिदूत स्टूडियो में चैती गीत की रिकार्डिंग के लिए भेजा तो बचनदेई को महन्त इन्द्रेश अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। साँस की तकलीफ के बावजूद बचनदेई ने स्टूडियो में गीत गाये थे।

सन् 1948 में टिहरी जिले के असेना गाँव के मोलू जी और शिवदेई के घर में जन्मी बचनदेई का विवाह 1961 में दोणी, हिन्दाव के शिवचरण से हुआ। परिवार की रोजी-रोटी का आधार शिव-पूजा, नृत्य और गायन था। पहाड़ की सामाजिक व्यवस्था में बेड़ा जाति को दलितों के बीच भी जाति की सीढ़ी पर चौथा या पाँचवाँ स्थान मिला था। किन्तु खेती के अनुष्ठानों में ये कलाकार ढोली के दर्जे तक पहुँचते थे। कला की सीढ़ी पर बेड़ा जाति के लोग सीढ़ी के सबसे ऊपर खड़े दिखते हैं किन्तु आर्थिक स्तर पर ये लोग अपने संरक्षकों के द्वारा दिये जाने वाले डड्वार या चैती पसारा (गायन और नृत्य पर दिये जाने वाला अनाज) पर ही आश्रित थे।

गाँवों में होने वाला बर्त का खेल तो बेड़ा जाति के पुरुषों को बलि का बकरा ही बना देता था। 15 दिन के उत्सव के अन्त में एक बेड़ा पुरुष को पहाड़ के ऊँचे ढाल से नीचे ढाल तक एक से तीन किमी. लम्बी रस्सी पर फिसलना पड़ता था। इस क्रिया में आधे मामलों में फिसलने वाला बेड़ा सन्तुलन बिगड़ जाने से बीच में ही उछलकर गिर जाता और चकनाचूर हो जाता, ऐसे फिसलने वाले बेड़े के जीवन की कीमत का अग्रिम भुगतान हो जाता। कभी-कभी बेड़े की पत्नी को सोने की नथ दे दी जाती थी। रस्सी पर चढ़ने से पहले बेड़े को बकरी का मुकुट और कफन की तरह सफेद वस्त्र पहना दिये जाते, यह प्रतीक था बलिदान के बकरे का। इस अनुष्ठान से खरीफ की फसल अच्छी होती थी। इस अवसर पर होने वाले नृत्य, गीतों और नाटकों को ‘औसर’के नाम से जाना जाता था।

इसी तरह का दूसरा अनुष्ठान था ‘लांग’, जिसमें एक लम्बे से बाँस के डंडे को खड़ा कर उसके चारों ओर नृत्य और नाटक शुरू कर देते थे। अनुष्ठान के पन्द्रहवें दिन इस डंडे की चोटी पर पेट टिकाकर देवी-देवताओं, प्रधान और राजा के लिए एक बेड़ा, फिरकियाँ लगाता था : ‘भूमिदाल को खण्ड बाजे, प्रधान को खण्ड बाजे’। इसके अतिरिक्त शिव मन्दिरों में नव संवत्सर, वैसाखी, उत्तरायणी, और नवरात्र के अवसर पर औसरों का आयोजन होता था। इन आयोजनों में सारे क्षेत्र के बेड़ा कलाकार एकत्र होकर 16 राधाखण्डी रास, 15 हास्य नाटिकाएँ, शिव के गीत एवं नृत्य प्रस्तुत करते थे।
Bachandei: Rich singer of poor tradition

इसके अतिरिक्त भी चैत्र मास में गाँव-गाँव और आँगन-आँगन जाकर चैती नृत्य गीत ‘चैती पसारा’गाते थे। किसी क्षेत्र में बड़ा देव अनुष्ठान हो या रुद्रप्रयाग के नरभक्षी से भयमुक्त होने के लिए (1918-1926) पौड़ी के पादरी द्वारा मेले आयोजित किये गए हों, बेड़ा कलाकार मेला स्थल पर पहुँचकर घटना पर गीत लिखते थे और उसे गाते थे। 1950 में सतपुली की बाढ़ में बहने वाली गाड़ियों और ड्राइवरों की घटना पर बेड़ा कलाकारों ने गीत लिखा:

द्वी हजार आठ भादौ का मास
सतपुली मोटर बौगिन खास

इतिहास की हर घटना पर बेड़ा कलाकारों की नजर होती थी- मामा द्वारा भानजे के खिलाफ षड्यंत्र और हत्या, अनाथ बच्चों की हत्या, प्रेमी- प्रेमिकाओं की अनूठी कहानी, गंगोत्री में आई सौ साल पुरानी बाढ़ ‘‘चूड़ी लाइ काँच लै माई, चूड़ी लाई काँच, गंगा माई का मैत लै माई बादलों की लांच रे”, 1970 की बेलाकूची की बाढ़, श्री देव सुमन, विल्सन की गरारी, गोरखा आक्रमण, रिखोला लोदी, वंचू बर्त्वाल, भीम बर्त्वाल, राजा मानसाही, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री, गंगा, यमुना, भागीरथी और असंख्य अन्य व्यक्तियों, घटनाओं और भू-दृश्यों पर इन बेड़ा कलाकारों ने गीत लिखे। बचनदेई और शिवचरण इस सम्पूर्ण विरासत को संजोये हुए थे।

प्रसिद्ध बेड़ा गायक मौलूराम और शिवदेई के भिलंगना घाटी में स्थित असेना गाँव में जन्मी बचनदेई ने अपने दादा सेवादारी और दादी विजणादेवी की गोद में बैठते-बैठते संगीत की आधी विरासत हृदयंगम कर दी थी। राधाखण्डी रास के नृत्यों की कठिन कोरियोग्राफी बचनदेई को  दौणी (ग्यारह गाँव- हिन्दाव) के कलाकार पति शिवचरण से मिली। दौणी गाँव में बेड़ा कलाकारों की ऐतिहासिक परम्परा थी। शीघ्र ही बचनदेई राधाखण्डी रास (नृत्य-नाटिकाओं) के  रंगमण्डल में शामिल हो गईं। उस परम्परा से उसने भडौली और औसर के गीत सीखे। अपने पति के साथ कई ‘लांग’ और‘बर्त’अनुष्ठानों में भाग लिया। इन अनुष्ठानों में उनके पति की जिन्दगी दाँव पर लगी रहती थी। ‘देवी कालिंका की कृपा से मेरा सुहाग बना रहा’बचनदेई कहती थी। अपनी दादी विजणादेवी से बचनदेई ने रामलीला गायन, रागिनी गान, ब्रह्मानन्द के भजन, चैती गीत, मांगल, राधाखण्डी, पाण्डवलीला, राजदरबारी और होली गायन सीखा। इसके साथ ही अपने मायके में ही जागर, बाजूबन्द और लामण भी सीखे।

बचनदेई के दादा सेवादारी एवं दादी विजणा देवी टिहरी नरेश के दरबार में राज-दरबारी और होली गायन के लिए नियुक्त थे जिन्हें क्रमश: रु. 10/- एवं रु. 5/- प्रतिमाह की पेंशन मिलती थी। इनके पिता मौलूराम पास के ही गाँव बडौन (ढुंगमेन्दार) में रामलीला में हारमोनियम बजाने एवं चौपाई, बहरे, तबील इत्यादि गायन का कार्य करते थे। इन्हीं के साथ बचनदेई भी बचपन से ही गायन एवं वादन करती थीं। पतिगृह जाने के बाद दोणी के पड़ागली गाँव में बर्त अनुष्ठान में औसर गाने का अवसर मिला। आवाज की गूँज, उच्चतारता (High Pitch) और मधुरता ने उन्हें सबके आकर्षण का केन्द्र बना दिया। शिवचरण और बचनदेई की जोड़ी, जो देखने में भी खूबसूरत थी धीरे-धीरे पूरे टिहरी जिले में लोकप्रिय होने लगी। इसकी खबर राज परिवार तक भी पहुँची और नरेन्द्र नगर के राजमहल में इन्हें गायन के लिए बुलाया जाने लगा।  राजवंशी किशोर सिंह के घर पर तो आठवें दशक तक यह जोड़ी प्रतिवर्ष होली गायन के लिए जाया करती थी।

चैत्र माह के नवरात्र की पहली ही तिथि को दोणी गांव के कालिंका मन्दिर में इस जोड़ी का गायन प्रारम्भ हो जाता था।

जागे जुग धर्मनाद, जागे पयाल बासुकी
जागे बरमा कू बेद, क्षेत्री कू खांडू (तलवार)
जागे चैत्र की कूल्वंत, जागे सरस्वती की कूल्वंत
जागे कन्यागत कू मैहन्यूं मैत की धियाण
आशीष करी आवे, आशीष दी जावे।
शिवचरण और बचनदेई का काल्ािंका देवी के लिए स्वरचित गीत था-
आस काटी घास देवी कालिंका।
ग्यार गौं का बीच देवी कालिंका।
दोणी गौ निवास देवी कालिंका॥

बचनदेई की आवाज विलक्षण थी। पंचम सुर में गाने वाली ऐसी गायिका कभी-कभी जन्म लेती है। उच्चतारता के बावजूद उसकी आवाज में मधुरता और कसक थी। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली में हुए नाटक ‘साधुनाम क्षेत्रपाल कुंवर’की गायकी में बचनदेई के स्वर ने पूरे पे्रक्षागृह में सन्नाटा फैला दिया था। उनकी गायकी में माइक की आवश्यकता नहीं होती थी। श्रीनगर में अप्रैल 2013 में जीवन की आखिरी मंचीय प्रस्तुति में अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद भी बचनदेई की पिच वही थी।  उत्तराखण्ड के दर्शकों के विस्तृत परिदृश्य में बचनदेई 1995 में देहरादून में हुए कौथिक-95 से उभरी। उनकी आवाज का जादू सभी दर्शकों पर छा गया, जिनमें एक मैं भी था। 1996 में नैनीताल में डॉ. आर.एस. टोलिया द्वारा आयोजित सेमिनार में इन दोनों ने प्रस्तुति दी।
Bachandei: Rich singer of poor tradition

इस मेले के तुरन्त बाद अनिल स्वामी ने श्रीनगर में बेड़ा कलाकारों का एक उत्सव आयोजित करवाया जिसमें बचनदेई के नेतृत्व में राधाखण्डी रास की प्रस्तुति हुई। 1998 में विद्याधर श्रीकला श्रीनगर की ओर से दोणी गाँव में एक कार्यशाला आयोजित की गई। उसी क्रम में 1999 में श्रीकला द्वारा एक नाट्य कार्यशाला आयोजित की गई जिसमें दो नाटक ‘साधुनाम क्षेत्रपाल कुँवर’एवं ‘पाँच भाई कठैत’तैयार किये गये। नाटकों का निर्देशन श्रीश डोभाल ने किया जिनके सहयोग से दोनों नाटक भारत रंग महोत्सव 2001 में प्रस्तुति के लिए चुने गये। बचनदेई ने इन नाटकों में न केवल पार्श्वगायन किया अपितु ‘साधुनाम कुँवर’में जिया राणी का अभिनय भी किया। इनकी आवाज से प्रभावित होकर नाट्य विद्यालय के निदेशक रामगोपाल बजाज इनसे मिलने मंच के पीछे आये।

सन् 2002 में संगीत नाटक अकादमी दिल्ली द्वारा चण्डीगढ़ में आयोजित वृहद्देशीय संगीत सम्मेलन में बचनदेई एवं शिवचरण ने अपनी गीत प्रस्तुति दी। अब बचनदेई राष्ट्रीय मंचों पर दिल्ली, मुम्बई, चण्डीगढ़, देहरादून में प्रस्तुतियाँ देने लगीं। सन् 2006 में रीच संस्था देहरादून ने इन्हें विरासत सम्मान से नवाजा। इस बीच बी.बी.सी. की गंगा फिल्म में भी इस जोड़े ने गायन किया। उन्हें गढ़वाल सभा देहरादून, माघ मेला उत्तरकाशी इत्यादि कई संस्थाओं ने सम्मानित किया। संस्कृति विभाग उत्तराखण्ड के लिए हिमांशु आहूजा ने इनके होली गीतों का विस्तृत अभिलेखन किया। 2013 में बचनदेई को जिन्दगी का अन्तिम सम्मान ‘‘हिमालयी नाद सम्मान” श्रीनगर के कलाकारों ने दिया।

बचनदेई को एक लोक कलाकार की तरह देखना होगा। इतिहास के सोपान पर उनकी एक सतत व्यावहारिक आवश्यकता थी ताकि समाज इनके गीतों तक पहुँचे। गढ़वाल सभा ने उनको 5000/- की मदद की और संस्कृति विभाग ने बचनदेई की पिछली छूटी हुई पेंशन रिलीज कर दी। आर.के़. सिंह ने ऑक्सीजन की एक मशीन का पैसा स्वीकृत करवाया किन्तु जब तक मशीन आती, बचनदेई चल बसी। बचनदेई का जीवन अन्य बेड़ों की तुलना में काफी आरामदेह रहा किन्तु आम पहाड़ी की तुलना में अभावों से भरा रहा। इस बात की अनुभूति मैं 1995 से आज तक करता रहा हूँ।

दुख इस बात का है कि बचनदेई अभावों में जीवित रही। इससे बड़ा दुख इस बात का है कि उनकी विरासत को हम अभिलेखित नहीं कर पाये। लोककला एवं संस्कृति निष्पादन केन्द्र, गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर के माध्यम से मैंने ऐसे कलाकारों को अभिलेखित करने एवं अकादमिक सम्मान देने की शुरूआत कर दी थी किन्तु एक कुलपति के विवेकहीन निर्णय ने इस अभियान को धमाके से उड़ा दिया। कलाकारों का यह समाज अनुष्ठानों के बिना जी नहीं सकता था। समाज का सामाजिक-आर्थिक ताना-बाना बदलने से ये कलाकार पीछे छूट गये। इनकी आजीविका छिन गई। हम इन कलाकारों को ‘आउटडेटेड’समझकर बॉलीबुड के गीतों की चकाचौंध में खो गये। बेड़ा कलाकारों की अकूत विरासत को हमारे निष्ठुर समाज ने मरने के लिए छोड़ दिया। बिना कहीं अपनी निशानी छोडे़ गिरिराज, सिरधारू, सिलाल, शिवजनी, और अन्त में बचनदेई भी चली गईं। इस प्रकरण और अन्य कई प्रकरणों से स्पष्ट हो जायेगा कि हमारे समाज की सांस्कृतिक और कलात्मक समझ और बोध कितना कमजोर है। मंच पर होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों को ही संस्कृति समझने वाले हमारे मंत्री और संत्री हमारी सांस्कृतिक जड़ता के प्रतीक हैं। बचनदेई जीवन और मृत्यु के संघर्ष से गुजर रही थीं। उनकी आर्थिक मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। रीच संस्था के आर. के़. सिंह और लोकेश ओहरी जरूर सूर्या अस्पताल में 10000/- लेकर आये।

एक दृश्य बार-बार मेरी आँखों के आगे उभरता है: 1998 में विरासत देहरादून के दौरान होटल के कमरे में मैने बचनदेई और शिवचरण से ‘सदेई’गायन की प्रार्थना की। सदेई पहाड़ के दो अनाथ बच्चों की दुखभरी कहानी है जिसे उत्तराखण्ड में कहीं-कहीं गोरीछना की कहानी के रूप में भी जाना जाता है। अनाथ बच्चों के सामने उनके घर और आंगन का बंटवारा चाचा-ताऊ  लोग अपने लिए करने लगते हैं, इस दृश्य को गाते हुए दोनों गायक फूट-फूट कर रोने लगे। मैंने इसी गीत को 2001, 2005 में फिर गवाने की कोशिश की किन्तु फिर वही भावुकता। अन्त में 2006 में मैं इस गीत को आदि से अन्त तक सुन सका।

बचनदेई जैसे दर्जनों कलाकार आज भी हमारे बीच जीवित हैं। हमें उन्हें सम्मान देना है और अपनी विरासत को संजोने के लिए अभिलेखित भी करना है। फैक्टार में किया गया निवेश 2 से 5 साल में रिटर्न देने लगता है। संस्कृति में किया गया निवेश 200 से 500 साल बाद रिटर्न देता है। इतना धैर्य हममें है? आठवीं सदी में शंकराचार्य द्वारा स्थापित बद्रीनाथ- केदारनाथ, गंगोत्री- यमुनोत्री का फल ऐसा है कि चारधाम यात्रा से 20 लाख लोग पलते हैं। 15वीं 16वीं सदी में लखनऊ दरबार द्वारा प्रोत्साहित कत्थक, तबला वादन और हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत लाखों लोगों को सम्मानजनक रोजगार देता है। संस्कृति के निर्माण से संस्कार, संस्कारों से अनुशासन, अनुशासन से शान्ति और सामाजिक शान्ति से विकास होता है।

इसके विपरीत संस्कृतिहीन समाज हिंसा और अराजकता की प्रयोगशाला बन जाता है।
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