किताबें : आन्दोलन का दस्तावेज

उमा भट्ट

राजकमल प्रकाशन से 2012 में प्रकाशित इस पुस्तक का नाम है- एक और नीमसार: संगतिन आत्ममंथन और आन्दोलन। इसकी लेखिकाएं हैं- ऋचा सिंह और ऋचा नागर। इन्हें डायरीनवीस कहा गया है क्योंकि पुस्तक डायरी शैली में लिखी गई है। इस रचनाकर्म में सहयोग दिया है सुरबाला वैश्या तथा रीना पाण्डे ने। इससे पूर्व 2004 में इन्हीं लेखिकाओं की पहली पुस्तक आई थी- संगतिन यात्रा : सात जिन्दगियों में लिपटा नारी विमर्श। उसके लेखन में कुल नौ संगतिनें सम्मिलित थीं, जिनके संस्थाओं में काम करने के अनुभव और समाज और स्त्री से जुड़े चुनौती भरे प्रश्नों को अपने जीवन के अनुभवों से जोड़कर जांच पड़ताल की गई थी। तब संगठन बना था संगतिन। परन्तु 2004 से 2011 तक इसी संगठन ने जो संघर्ष किया, वह एक और नीमसार में सामने आया है। संगतिन महिला संगठन था परन्तु महिलाओं, दलितों, किसानों, मजदूरों को साथ लेकर उनके सवालों पर संघर्ष करते हुए उसने संगतिन किसान मजदूर संगठन का रूप ले लिया।

नीमसार अर्थात् उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले का नैमिषारण्य जहाँ प्राचीन काल में ऋषि-मुनि एकत्र होकर इतिहास-पुराण की कथाएं सुना-सुनाया करते थे। वही ऋचा और ऋचा ने मनुष्य की संघर्ष गाथा को रचा और सुनाया है- एक नये नीमसार में।

किताब के पहले खण्ड में 25 दिसम्बर 2004 को यह डायरी शुरू होती है और 15 अप्रैल 2011 तक का संघर्षनामा इसमें अंकित है। यह डायरी किसकी है? किसने लिखी है? संगतिन यात्रा की ही तरह इसमें भी सामूहिक लेखन है। लेखिकाद्वय की अलग पहचान नहीं है। डायरी होते हुए भी इसमें निजी कुछ नहीं है। यह एक प्रकार से संगतिन किसान मजदूर संगठन की डायरी है- उसके बनने, आगे बढ़ने, संघर्ष और उस बीच उठे सवाल ही इसमें मुख्य हैं। किताब का उपशीर्षक संगतिन आत्ममंथन और आन्दोलन इसकी विषय वस्तु को स्पष्ट कर देता है।

दूसरे खण्ड का शीर्षक आलोचना, आत्ममंथन और आन्दोलन है। इसमें पहले खण्ड में जो आन्दोलन है, उसी से जुड़े हुए तमाम सवालों का विश्लेषण किया गया है। किसी भी आन्दोलन में तरह-तरह के भागीदार होते हैं। संगतिनों की दृष्टि उन पर पड़ी है, जो संगठन के भीतर मजबूती से खड़े तो रहते हैं पर चुप, खामोश रह जाते हैं। उनकी खामोशियों के पीछे हमारे समाज में सामन्तवाद की बहुत गहरे में धंसी जड़ें भी हैं। पद्मिनी बिना हाथ जोड़े किसी से बात नहीं कर पाती।……होश संभालने के साथ ही हाथ जोड़कर बात कहने का जो सिलसिला चला तो आज तक टूटा नहीं…..इन जुड़े हाथों के इतिहास को समझे बिना पद्मिनी की मुट्ठी की ताकत को पहचानना सम्भव नहीं। (पृष्ठ 79) खामोशियों, चुप्पियों का बहुत बारीक विश्लेषण यहां किया गया है। उनको समझने के लिए और उन्हें अपने संगठन की ताकत बनाने के लिए समाज में व्याप्त दमन और शोषण की कई कहानियां इस किताब में सामने आई हैं। इसके लिए छोटी-छोटी बातों को अनदेखा न करके उन्हें समझने की कोशिश की गई है। व्यक्तिगत जीवन में किये गये संघर्षों को यहां सामूहिक संघर्षों के साथ जोड़ा गया है। एक प्रकार से व्यक्तिगत संघर्ष को सामूहिक संघर्ष की ताकत बनाने की कोशिश की गई है। बनवारी, सुनीता, पद्मिनी, माया, रामप्रकाश, टामा ऐसे ही लोग हैं जो चुप्पी से निकलकर नेतृत्व में आये हैं। नारीवाद और स्त्रियों के मुद्दों का सटीक विश्लेषण भी यहाँ पर किया गया है।
Books: Document of the movement

संगठनों के भीतर का द्वन्द्व बहुत जटिल होता है ओर संगठनों के टूटने-बिखरने का कारण भी बनता है। संगतिनों की इस यात्रा में इन बातों पर खूब बहस-मुबाहसा हुआ है। दो तरह का संघर्ष किसी भी संगठन के सामने आता है। एक तो अपने अधिकारों के लिए जहां मुख्य लड़ाई केन्द्रित है। दूसरा लड़ने वालों के बीच परस्पर संगठन की सीमाओं के भीतर। नीमसार में दोनों तरह के संघर्ष दिखाई देते हैं। प्राय: संगठन पहली लड़ाई लड़ते हैं और जीत या हार हासिल करते हैं। दूसरी को अनदेखा कर देते हैं, पर यहां ऐसा नहीं किया गया है। संगतिन किसान मजदूर संगठन में बाहरी संघर्ष और आत्मसंघर्ष दोनों साथ-साथ चले हैं। बेबाकी से उसपर बातें हुई हैं। यह आत्ममंथन ही संगठन को जिन्दा रखने में सहायक होगा।

एक और नीमसार के संघर्ष में नेतृत्वकारी व्यक्ति पहले गैरसरकारी संगठन में काम करते रहे। उससे बाहर निकलकर उन्होंने एक स्वायत्त संगठन का रूप लिया जो एक महिला संगठन था। परन्तु फिर उसने अपना विस्तार किया और महिला संगठन से आगे बढ़कर किसान मजदूर संगठन के रूप में उभर कर सामने आया है। यह एक सैद्घांतिक प्रश्न भी है। एनज़ी़ओ़ के रूप में आप समाज की लड़ाई नहीं लड़ सकते और महिला संगठन भी महिला मुद्दों तक सीमित होते जा रहे हैं। 5 दिसम्बर 2005 की डायरी में लिखा गया है- संगतिन संस्था की रचना भले ही महिला मुद्दों को ध्यान में रखकर हुई हो लेकिन आज जो संगठन उभर रहा है, उसमें विकास की राजनीति से लेकर जाति, वर्ग और लिंग भेद के तमाम मुद्दों पर महिलाओं के नेतृत्व में सैकड़ों पुरुष साथी आवाज उठा रहे हैं। नहर संघर्ष से जुड़े कई साथियों को लग रहा है कि ऐसे महत्वपूर्ण मोड़ पर संगतिन की परिभाषा पर संजीदा होकर पुनर्विचार करने का वक्त आ गया है। किसान, मजदूर, स़्त्री सबके प्रश्नों को लेकर संघर्ष करते हुए विचारधारा का प्रश्न भी उठ खड़ा होता है, जो इस पुस्तक में वर्णित संघर्ष यात्रा में स्पष्ट होता नहीं दिखाई देता।

संगतिन की सदस्यों के सामने दोनों प्रश्न थे। एक – रोजी-रोटी का संघर्ष, जिसके लिए वे एनज़ी़ओ़ से जुड़ीं। दूसरा- समाज में काम करने के लिए निकलनेवाली महिलाओं पर जो पारिवारिक और सामाजिक दबाव बनते हैं, उनसे जूझने के लिए भी उन्हें लड़ना था। अत: रोजी-रोटी के संघर्ष के साथ-साथ सामाजिक बदलाव की लड़ाई भी वे छोड़ नहीं सकती थीं। 4 जनवरी 2006 की डायरी कहती है- सुरबाला के घर में इस बात को लेकर हंगामा मचा कि यह भला कैसा काम है जिसमें पूरी रात रजबहा के किनारे चलते हुए बिता दी जाए? संगठन से जुड़ी नेतृत्वकारी महिलाओं का इस तरह के तनावों से आए दिन साबिका पड़ रहा है। जब-जब कोई महिला साथी अपनी और संगठन की ताकत के बलबूते समाज को अपनी लड़ाई और अपने अस्तित्व का बोध कराती है तब-तब उसके घरों की दीवारें हिलती ही हैं। किस तरह ये लड़ाइयां सामाजिक बदलाव की भूमिका तय करती हैं, यह इस टिप्पणी से जाहिर होता है – साथियों में यह विश्वास मजबूत हुआ है कि यदि हम समाज में सबको बराबरी देने की बात करते हैं तो मर्दों व औरतों का साथ बैठ कर सामाजिक बदलाव की प्रक्रियाओं पर चर्चाएं चलाना एक बुनियादी कदम है। (डायरी, 8 नवम्बर, 2007) स्त्रियों की तरह जाति का भी प्रश्न है। पदयात्राएं शुरू हुईं तो सभी वर्णों के लोग साथ थे। जिस भी गांव में पहुंचते, सवर्ण या दलित किसी के भी घर में खाना बनता। कुछ साथियों को इसमें आपत्ति होने लगी तो फिर जाति को लेकर बहस चली और नहर में पानी लाने का संघर्ष जातिवाद के खिलाफ भी खड़ा हो गया। लोग समझने लगे कि संगठन से जुड़ना है तो जातिभेद छोड़ना होगा।
Books: Document of the movement

लोगों के बीच रहकर बात-बहस करके, बैठकें, पदयात्राएं, अध्ययन, रैलियों के जरिये अन्तत: तय किया गया कि इस्लामनगर रजबहा (नहर) में पानी लाने के मुद्दे को उठाया जाय। सोलह बरस से नहर सूखी पड़ी है। सिल्ट सफाई का काम प्रतिवर्ष होता है लेकिन महज कागजों में। सिल्ट सफाई के काम के लिए नरेगा के तहत काम कराने की बात उठी लेकिन उसमें भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार नजर आने लगा। जॉब कार्ड बनाना, फोटो खींचना, मजदूरी देना, हर बात के लिए साथियों को संघर्ष करना पड़ता। और जब गांव के लोगों के साथ धरना प्रदर्शन किया जाय तो अधिकारी यही कहते हैं – आप लोग इतनी सारी जनता के साथ आकर तमाशा क्यों करते हैं? 15 फरवरी 2007 की डायरी में लिखा है – गरीब मजदूरों का इकट्ठे होकर अपना हक मांगना सबको तमाशा लगता है, लेकिन बन्द कमरों के भीतर चलने वाले उन तमाशों का क्या, जिनके सहारे उन्हीं मजदूरों का हक मारा जाता है? जब जनता इन बन्द दरवाजों के पीछे चल रही हरकतों को उजागर करने के लिए बाहर खड़ी होकर आवाज लगाने लगती है तब उस ललकार को कभी तमाशा तो कभी बेवकूफी करार कर दिया जाता है।

लोकतंत्र में किस तरह नौकरशाही जनता के हकों को मार रही है, यह जॉब कार्ड बनाने के  संघर्ष से पता चलता है। अब 2013 में माना जा रहा है कि मनरेगा में धांधली हुई। जब हो रही होती है तब कोई स्वीकार नहीं करता।…. लेकिन प्रश्न है कि कानून के अन्तर्गत सरकारी योजनाओं को लागू करने के मामले को लेकर घेराव ओर प्रदर्शन करने की जरूरत क्यों? जो अधिकारी नित नियम कायदों की बात करते हैं, वही लगातार नियमों की अवहेलना क्यों करते हैं? (डायरी, 13 जुलाई, 2007)

नियम कानून बने हैं, उनका लाभ गरीबों को मिले, यह तो नहीं होता लेकिन नियम कानूनों को लागू करवाने के लिए ही जेहाद छेड़ना पड़ता है, उन अधिकारियों के आगे जो उनका पालन करवाने के लिए ही तैनात किये जाते हैं। नरेगा के तहत यदि काम न दिया जाय तो बेरोजगारी भत्ता दिये जाने का नियम है पर उसे प्राप्त करने की लड़ाई कितनी विकट हो सकती है, यह एक और नीमसार से पता चलता है। अन्तत: बेरोजगारी भत्ता भी मिला। यह संगठन के लिए दूसरी बड़ी सफलता थी। पहली सफलता थी नहर में पानी आना। देखा जाय तो दोनों ही कोई समस्याएं नहीं थीं। समस्याएं भ्रष्टाचारी शासन तंत्र द्वारा खड़ी की गई थीं, जिनके खिलाफ जनता को लम्बा संघर्ष करना पड़ा। इस जीत के बाद भी लगातार सतर्कता बरतनी पड़ेगी। वरना फिर नहर सिल्ट से भर जाएगी और नरेगा या मनरेगा के तहत न काम मिल सकेगा और न बेरोजगारी भत्ता। परन्तु संगतिन किसान मजदूर संगठन इस जीत को सकारात्मक रूप में लेता है- पूरी लड़ाई ने हमें बहुत कुछ सिखाया और नई शुरूआतों की नींव रखी। जहां साथियों ने अपने ही द्वारा रची जनशक्ति को पहचाना, वहीं उन्होंने आन्दोलन को चलाने के लिए आर्थिक मजबूती की जरूरत भी महसूस की। बेरोजगारी भत्ता मिलने के साथ ही साथियों ने अपने भुगतान का तीन से पांच प्रतिशत अंश संगठन को सहयोग के रूप में देने का निश्चय किया और इस तरह संगठन का अपना कोष शुरू हुआ। इसके अलावा संगठन के साथियों ने एक अनाज बैंक बनाने का अभूतपूर्व फैसला लिया – धरने और सम्मेलन में उपयोग के बाद बचा लगभग दस क्विंटल राशन अनाज बैंक के रूप में रख दिया गया ताकि जरूरतमन्द साथियों को उनके कठिन दिनों में भूखा न रहना पड़े- जब उनके घरों में राशन का जुगाड़ हो, तब वह अनाज बैंक को वापस कर दें ताकि उन्हीं की तरह कोई दूसरी जरूरतमन्द साथी उस अनाज का उपयोग कर सके।  (डायरी, 24 फरवरी, 2009)

संघर्ष के इस दौर में सबके लिए साथी शब्द का प्रयोग किया गया है, चाहे स्त्री हो या पुरुष। बार-बार भूखे पेटों और रोजी-रोटी की बात उठाई गई है। व्यवस्था परिवर्तन के सवाल को सरल शब्दों में समझाया गया है। यहां संगतिन, किसान और मजदूर सब संघर्ष यात्रा में एक हैं। उनके द्वारा एक समवेत लड़ाई लड़ी गई है। किताब की भाषा अपनी सुन्दरता से बार-बार ध्यान खींचती है। एक उदाहरण देखा जाय- कड़ाके की ठंड है और बत्ती घण्टों के लिए गुल है। मिश्रिख की उसी धर्मशाला के एक अंधेरे कमरे में हम सब एक पेट्रोमैक्स के इर्द-गिर्द शालों और रजाइयों में सिकुड़े बैठे हैं। कुछ ऐसे कठिन सवाल मुंह बाए खड़े हैं कि हम सब बार-बार खामोशियों में सिमट जाते हैं। (26 दिसम्बर, 2004)। लीक से हटकर संगतिनों की अमरीका यात्रा को किसी दूसरी पुस्तक के लिए मुल्तवी रखा जाता तो भी अनुचित न होता।

संगतिन किसान मजदूर संगठन का सपना सीधा-सादा है – साथियों के लिए रोजी-रोटी, उनके स्वाभिमान और अस्तित्व की गरिमा की रक्षा, उनके बच्चों के लिए एक ऐसा भविष्य जो जीवन की उमंग जगाए रखे। लेकिन इस व्यवस्था के रहते क्या यह सीधा सादा सपना एक अन्तहीन लड़ाई बने बिना सम्भव हो पायेगा ? यह खुला सवाल न केवल जनसंगठनों के सामने है बल्कि उन सबके आगे है जो आम लोगों की आंखों में सपनों के पलने की बुनियादी जरूरत में विश्वास रखते हैं।

जनता की लड़ाई लड़ने वाले सभी साथियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण तथा पठनीय पुस्तक है।

एक और नीमसार – ऋचा सिंह और ऋचा नागर।
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन प्रा.लि.
1बी नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110 002, मूल्य : 250, पृष्ठ 168
Books: Document of the movement
उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika
पत्रिका की आर्थिक सहायता के लिये : यहाँ क्लिक करें