संस्कृति : रंग, खुशबू और हरियाली 

गीता गैरोला       

चौमास मास का महीना, धारों-धार बरसात  की झड़ी लगी है। चार दिनों से सूरज का मुँह नहीं देखा। चौंदकोट पट्टी में एकेश्वर का डांडा, सामने दिखती सन्तूधार की सर्पीली सड़क और दूर तक फैला अमेली का घनघोर जंगल- घने कोहरे में लुका-छिपी खेल रहे हैं।

कोहरा कभी नयार नदी से सफेद रुई सा उड़ता हुआ पूरे चौन्दकोट, कफोल स्यूँ को ढक देता है और कभी एकेश्वर के बांज के जंगल से घनी सफेद रुई सी परतें आसपास के गाँवों को ढक लेती हैं। हल्की कालिमा लिए हरियाली और उसके बीच उठते कोहरे के बड़े-2 फाये। मैं अपने छज्जों के किनारे खड़ी कोहरा पकड़ने की कोशिश करती हूँ। तभी एक बड़ी धुँए की लकीर हमारे घर के अंदर घुसने लगती है। सिलदी का पहाड़, नयार की घाटी घुप्प सफेदी से ढके हैं। मेरा मन इन फाहों के ऊपर उड़ने को मचलने लगता है।

भीगा-भीगा उदास मौसम है। मेरी माँ, छोटी चाची और बड़ी चाची, झंगोरा-कोदा रोप कर रोज भीगी ठिठुरती हुई घर आती हैं। इन दिनों गीले कपड़े सूखने का नाम नहीं लेते। दूसरे दिन खेत में जाते समय सूखे कपड़े घर में सहेज कर पहले दिन के गीले कपड़े पहनकर ही जाती हैं। उनके पास बदलने को बस दो या तीन धोतियाँ ही है। मडुवा और झंगोरा जितना बारीक अनाज होता है, उसकी गुड़ाई-निराई उतनी ही मुश्किल होती है। बोते समय उसका बारीक बीज ज्यादा गिरता है। इसलिए बहुत घना उग जाता है। बरसात शुरू होते ही फसल की गुड़ाई के साथ छटाई करनी जरूरी होती है। दोनों अनाजों के पौधों की छटाई घनघोर बरसात में होती है। भीगे कपड़े और झुककर गुड़ाई करने में पहाड़ी औरतों की कमर थक जाती है। इन दिनों बैठकर गुड़ाई नहीं कर सकते। बरसात के कारण मिट्टी गीली रहती है। कमर झुकाकर छाता कैसे पकड़ेंगी। झुककर दोनों हाथों से तो गुड़ाई, छटाई करनी होती है, बारिश से बचने के दो ही उपाय होते हैं। बोरे का तिकोन चुंगटा बना कर सिर से कमर तक ढक दें या रिंगाल और मालू के पत्तों से बनी गोल बिना छड़ी की छंतोली पीठ पर रख कर काम करें। भीगना तो होता ही है। गीली फसल, गीली मिट्टी और घनघोर बारिश। घुप्प कोहरे के बीच रुक-रुक कर होती बारिस में मंडुवे तथा झंगोरे की छटाई, गुड़ाई करने खेत में जाते समय दादी मुझे अपने साथ चलने के लिए मेरी बहुत खुशामद करती। उसे अकेले बुरा लगता होगा, इसलिए दादी के साथ कई बार मैं  भी खेत में चली जाती। दादी ने एक छोटा सा बोरा बिछा कर, छाता ओढ़ा के मुझे किनारे पर एक सूखी सी जगह में बैठा दिया। मेरे सामने जलता उपला रख दिया। ऐसी बरसात में गीले उपले से बस धुआँ निकलता है। धुँए के कारण बरसाती कीड़े, मकोड़े नहीं काटते। दादी कहती है, घनघोर कोहरे में अकेले गुड़ाई करते उदास लगता है। मुझे साथ ले जाकर मुझसे बातचीत करती रहती है।

हमारे खेत के नीचे वाले चौथे खेत से गाने की आवाज आ रही है। गीत की धुन बहुत उदासी भरी है।
मैंने दादी से पूछा – इतना मीठा गीत कौन गा रहा है।
सुरेश की ब्वारी पवित्रा, दादी ने बताया।
तुझे ऐसा नहीं लगता कि वो गाते-गाते रो भी रही है, मैंने कहा।

हाँ बाबा, रो रही होगी जरूर बेचारी। अपनी माँ की याद आ रही है उसे। एक तरफ दादी के हाथ मिझान से काम करते जाते दूसरी तरफ वह मेरी बातों का जवाब देती जाती। ऐसे कोहरे में जब चारों तरफ सफेद फाहों के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता, बेटियाँ ससुराल में अपने मायके को बहुत याद करती हैं।

मैं ठहरी एक नम्बर की बातूनी। उस उमर में मेरी जिज्ञासाओं का कोई ओर-छोर नहीं था। कई बार मेरी कच-कच से दादी चिढ़ जाती, चुप लबरा छोरी, जब देखो तब कचर-कचर। जो तुझे ले जायेगा, चार दिनों में ही फेर देगा। नाक कटायेगी हमारी। मेरे बात करने से दादी की नाक कैसे कटेगी मेरे लिए यह भी एक बड़ी जिज्ञासा थी। फिर भी मैंने अपनी आदत से मजबूर हो कर पूछा, तुझे भी याद आती है अपने मायके की। हाँ, आती है। क्यों नहीं आयेगी। हे राम, मेरा मैत  तो सेरों  का मुलुक है। वहाँ थोड़े न लगाते हैं ऐसे कोदा, झंगोरा। एक बार जमकर सेरों में धान रोपा और बस काटने ही जाते हैं खेतों में। ऐसा बज्जर तो इसी मुलुक में पड़ा। बेटी, बहुएँ दिन-रात खेतों में ही पड़ी रहती हैं और मिलता क्या है मोटा अनाज। हमारे मुलुक में तो बारीक जीरी  का खुशबू वाला भात खाते हैं। दादी अपने मायके की याद में खो-सी गई। पर तू तो बूढ़ी हो गई है। कितने साल हो गये तेरे ब्याह को। तब भी अपने मुलुक को याद कर रही है। यहीं रहती है तू हमारे मुलुक में, तब भी हमारे मुलुक को गाली क्यों दे रही है? अब तो ये तेरा मुलुक हो गया। मैंने भी पलटवार किया।
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हाँ बाबा, ऐसा ही होता है औरत का जीवन। कहाँ उगी, कहाँ रोपी गई पराई मिट्टी में पराया पानी। बिना खाद के ही पनपना पड़ता है औरतों को 12 वर्ष में आ गई थी इस गाँव में। पता नहीं, कितने साल हो गये अपने मैत नहीं गई पर वो जीरी के भात का स्वाद और मैत की याद कहाँ भूली अब तक। अपनी जन्मभूमि, अपनी मिट्टी कौन भूलता है। अच्छा दादी, ये बता तुझे अगर खुद (याद) लगती है तो तू भी गाती है ऐसे ही गीत! मैं बोली। हाँ बाबा, पहाड़ की सब औरतें गाती हैं। गायेंगी नहीं तो रहेंगी कैसे पराये मुलुक में, पराये लोगों के बीच।

उनका गीत कौन सुनता है दादी। वो किसी दूसरे को सुनाने के लिए नहीं गाती बेटा, वो अपने आप को सुनाती है। ये जंगल-पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सब उनकी पीड़ा के साक्षी होते हैं। जंगलों, खेतों में गाये गीत ही उनको जीवित रखते हैं। पेड़-पौधों की हरियाली, फूलों के रंग और खुशबू सब औरतों के गाये गीतों से ही बनते हैं। मुझे आश्चर्य हुआ। अच्छा, अगर औरतें गीत गाना बन्द कर देंगी तो पइयां, मेलू (पेड़ों के नाम) पर फूल नहीं खिलेंगे? पत्ते हरे नहीं होंगे? पर दादा जी तो कहते हैं, फूलों के रंग और पत्तों का हरापन सूरज उन्हें देता है। मेरी बात सुनकर दादी धीरे से मुस्करायी। लाटी छोरी, रंग और हरापन सूरज देता है पर चमक और खुशबू औरतों के गीतों से आती है। सच्ची बोल। सौं (कसम) खा धौं, मैंने सच्चाई को और पुख्ता करने की कोशिश की। दादी फौरन बोली, भै का सौं (भाई की कसम)। और उस दिन जो दादी ने भाई की कसम खाकर जीवन की एक सच्चाई मेरे सामने रखी थी, जीवन की आखिरी सांस तक इस सच्चाई की कौंध मेरे साथ ही रहेगी।

अच्छा दादी, तू मुझे सुना न एक गीत। शायद दादी को गीत गाने का मन हो रहा होगा। अपने भूले बिसरे बंधुओं की याद करके वह गीत गाकर अपना मन हल्का करने लगी।

जौ बैण्यून सारी रोल्यूं कू पाणी
ऊ  बैणी ह्वीना राजों की राणी
जौ बैण्यून काटी डाड्यूं कू घास
ऊ  बैणी गैन राजों का पास
केकू बाबा न मिडिल पढ़ाई
केकू बाबा न राठ व्यबाई
राठ्यूँ की बोली बीगेन्दी नी च
आलू, झंगोरू, कुटेन्दू नी च
बाबा न खाई राठ्यूँ की रोटी
बाबा न बोली वखि देण बेटी
बाबा न खाई रूप्पा चार सौ
वी चार सौ की मेरी जेठी बौऊ
वी चार सौ की मेरी जेठी बौऊ
बाबा जी नी हुय्यां तेरी मौऊ

(जो अनपढ़ बहने बहुत दूर के गदेरों से पानी लाती हैं तथा ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से घास काटती हैं उन बहनों का ब्याह राजाओं के साथ हुआ। क्यों मेरे बाबा ने मुझे आठवीं पास कराया और बहुत दूर-दराज राठ के बीहड़ इलाके में 400 रु. लेकर मेरा ब्याह कर दिया और उसी चार सौ रुपये से मेरी भाभी को खरीद लाये। वहाँ की बोली-भाषा मेरी समझ में नहीं आती। झंगोरा तथा मडवे की रोटी मुझसे खायी नहीं जाती। बाबा तेरा परिवार कभी न बढ़े)

गीत की आवाज के गीलेपन से मुझे लग रहा था कि दादी गाते-गाते रो रही है। पहाड़ों की हजारों औरतों के आंसू बारिष के साथ मिलकर फसलों को ऐसे ही सींचते आये हैं। इन्हीं आंसुओं के स्वाद से लाल चावल, मंडुवे की गहथ भरी रोटी और झंगोरे की खीर का स्वाद सबसे अनोखा होता है। प्रवासी भै-बंदों को यही स्वाद पहाड़ों से जोड़ के रखता है। मरेी माँ कहा करती थी, मैं पहाड़ी खाना खिला कर अपने बच्चों को जीभ के स्वाद के रास्ते पहाड़ से जोड़कर रखूँगी। सच कहती थी माँ। मेरी रसोई में आज भी अक्सर पहाड़ी खाने की खुशबू आती रहती है। मेरा बेटा हॉस्टल से घर लौटने पर सबसे पहले मूली की थिच्वाणी, भात-फाणा और गहथ की भरी रोटी, उड़द की दाल वाली पकोड़ी और तिल, भांग की चटनी माँगता है। मैंने भी ठीक अपनी माँ की तरह अपने बेटे की जीभ में पहाड़ी स्वाद पनपाया। कम से कम खाने के बहाने ही वह अपनी जड़ों से जुड़ा रहेगा। गढ़वाली शब्दों का उच्चारण करता रहेगा। कौन जाने, रोजी-रोटी की तलाश उसे कहां-कहां उड़ा ले जायेगी। कौन जाने हरी पहाड़ी ककड़ी का हल्दी डला, पीला रायता और गहथ की भरी रोटी के बहाने गाँव की ओर लौट जाएँ। आज की पीढ़ी का पहाड़ की तरफ लौट कर ना आना ही तो सबसे बड़ा दर्द है।

दादी ने इतने दर्दीले सुर से गीत गाया कि मैं भी रोने लगी।

मुझे सिसकता देख दादी ने लाड़ किया। न न बाबा, रोते नहीं। हरी-भरी सारी (खेतों) में आछरी (परी) घूमती हैं। रोने से वे किसी पर भी चिपट जाती हैं। चुप हो जा।

ये गीत किसने बनाया दादी, मैंने नाक छिनकते हुए कहा।

कुजाण (पता नहीं), बाबा। होगी कोई पहाड़ की दुखियारी बेटी। उसके बाबा ने उसे दूर मुलुक में चार सौ रुपये लेकर ब्याह दिया। उन्हीं चार सौ रुपयों से अपने लिए बहू ले आये। तभी तो वह गीत में अपने बाप को गाली देती है कि तेरी मौ (वंश) कभी न हो, तुमने मेरा बुरा किया।

लड़की के बाप ने अपनी बेटी क्यों बेच दी। उसके बाबा ने उसकी शादी में चार सौ रुपये क्यों लिए दादी। मेरे प्रश्न खत्म होने पर नहीं आते। और दादी को काम करते मन बहलाने के लिए साथ मिल जाता है। जब कभी वह अपनी मनस्थिति के कारण मेरी बातों का जवाब देने में आनाकानी करती, मैं उसे घर जाने की धमकी देती। सौ बहाने करती। कभी कहती, मुझे कीड़े काट रहे हैं। कभी कहती, मुझे नींद आ रही है। परंतु अक्सर वह मेरे प्रश्नों का जवाब बहुत मिझांन से देती।

बेटा, हमारा पहाड़ बहुत गरीब है। गरीब बाप के पास बेटी के ब्याह में चार मेहमानों को खिलाने के लिए रुपये कहाँ से आयेंगे।

इसलिए लोग बेटी की शादी के खर्च के लिए लड़के वालों से पैसे लेते पर सभी ऐसा नहीं करते। कुछ लोग दान की शादी भी करते हैं। अरे बाबा, हमारे पहाड़ में लोग अपने लड़के के लिए बहू के साथ एक बौल्या (मजदूर) भी लाते हैं। पहाड़ की हर औरत खेती कमा के घास, लकड़ी काट कर सारी जिदंगी बाप का कर्जा ही तो चुकाती है।

मैं डर गई। तू ऐसा मत करना दादी। मैं पहाड़ में ब्याह नहीं करूँगी। मुझे घास काटना नहीं आता। मैंने अपनी व्यथा फौरन दादी के सामने रखी। न-न बाबा, हम तो अपनी लाड़ी को खूब पढ़ायेंगे, लिखायेंगे। बड़ी साहब बनेगी तू तो। एक बात जरूर याद रखना बेटा, हमारा गाँव हमारी जन्म भूमि है। तुम चाहे कहीं भी जाओगे, जड़ें यहीं रहेंगी। हमें पूरी जिन्दगी कुछ कर्ज चुकाने होते हैं। माँ के दूध का कर्ज और जन्म भूमि का कर्ज। पढ़ने-लिखने के बाद रहना पहाड़ में ही। इसे छोड़ कर मत जाना बाबा।

यहाँ पर ठंडी हवा है, ठंडा पानी है। देशों में थोड़ई होते हैं बुरांस, फ्योंली के फूल। वे तो बस पहाड़ में ही होते हैं न। दादी ने पहाड़ी होने का लालच दिया। तब कौन जानता था कि हम सब पढ़-लिख कर प्रवासी हो जायेंगे। हम पहाड़ में नहीं रहेंगे पर जियेंगे हमेशा पहाड़ों को ही। हमारा जिया बचपन बस याद बन कर रह जायेगा। जन्मभूमि का कर्ज चुकाने की याद कहाँ है हम सबको। हम तो रोजी-रोटी की तलाश मैं भटक कर हलकान हुए जाते हैं।

दादा-दादी के लाड़-प्यार के साथ दिये लोक-ज्ञान की परम्परायें भूली-बिसरी यादें ही रह जायेंगी। अब औरतों ने गीत गाने बंद कर दिये तभी तो बाँज के पल्लवों में चमकीली हरियाली नहीं दिखती। बुरांस के गुच्छे छोटे हो गये। फ्योंली के फूल इक्के-दुक्के खिलते हैं। गाड़-गदेरे सूख गये। पन्देरे-धारे कहीं नीचे धरती में समा गये। काफू नहीं बासते और काफल मे रस नहीं है। पर पहाड़ी औरतों के पहाड़ से दु:ख तो वही हैं। दु:ख नहीं बदले तो गीत भी जरूर निकलते होंगे? कहां बिला गई औरतों के गीतों से निकली महक? तो क्या वे गीत अब पेड़ों को हरियाली और बुरांस को रंग नहीं देते? जंगलों-खेतों में काम करते वेदना भरे गीतों की स्वर लहरियां कहाँ खो गईं।
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