लीलावती की बेटियाँ : विज्ञान की मणि थीं अन्ना मणि

आभा सुर

अन्ना मणि का लालन-पालन त्रावणकोर रियासत के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। त्रावणकोर कभी दक्षिण भारत की एक रियासत हुआ करती थी। आज इसे हम केरल के नाम से जानते हैं। आठ भाई-बहनों में सातवें नम्बर पर पैदा हुई अन्ना का जन्म 1913 में हुआ था। उनके सिविल इंजीनियर पिता कई इलायची बागानों के मालिक थे। मणि परिवार परम्परागत तौर पर सीरियन क्रिश्चियन से सम्बंधित था लेकिन अन्ना के पिता जीवनपर्यन्त अनीश्वरवादी बने रहे।

यह उस जमाने के लिहाज से एक आम उच्च वर्गीय पेशेवर परिवार था, जहां लड़कों की परवरिश बचपन से ही ऊंची नौकरी के लिए की जाती थी, जबकि लड़कियों को अच्छे घर में शादी के लिए तैयार किया जाता था। लेकिन अन्ना मणि को यह राह मंजूर नहीं थी। वह बपचन से ही किताबों में डूबी रहतीं थीं। आठ वर्ष की होते-होते उन्होंने स्थानीय पब्लिक लाइब्रेरी में मौजूद लगभग सभी मलयाली किताबें पढ़ डालीं और ग्यारह वर्ष तक समूची अंग्रेजी किताबें। अपने आठवें जन्मदिन पर उन्होंने परिवार की ओर से उपहार के बतौर दिए गए हीरों के कर्णफूलों को ठुकरा दिया। इसकी जगह उन्होंने इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका का सेट लेना पसंद किया। किताबों की दुनिया ने उनके लिए नए विचारों के द्वार खोले और उनके भीतर सामाजिक न्याय के लिए गहरी प्रतिबद्घता के बीज बो दिए, जिनसे आगे चलकर उनके जीवन को आकार व हौसला मिला।

1925 में त्रावणकोर का वाइकोम सत्याग्रह अपनी चरम सीमा पर था। यहां रहने वाले सभी जातियों और धर्मों के लोगों ने एक स्थानीय मंदिर के पुजारियों के खिलाफ असहयोग आंदोलन छेड़ दिया था। इन पुजारियों ने मंदिर के बगल से गुजरने वाली सड़क को दलितों के लिए प्रतिबंधित करने का फरमान जारी किया था। आंदोलन का ताप पूरे देश में महसूस किया गया और महात्मा गांधी इस नागरिक अवज्ञा आंदोलन को समर्थन देने स्वयं वाइकोम पहुंचे। सत्याग्रह का नारा- ‘सभी लोगों के लिए एक जाति, एक धर्म और एक ईश्वर’तमाम प्रगतिशील नागरिकों को एकजुट कर रहा था। उन्होंने मांग की कि सभी जातियों के हिन्दुओं को रियासत के सभी मंदिरों में प्रवेश की इजाजत मिले। इस सत्याग्रह ने, और खास तौर पर गांधी जी के आगमन ने आदर्शवादी अन्ना के बाल मन पर गहरी छाप छोड़ी।

आगामी वर्षों में, राष्ट्रीय आंदोलन के परवान चढ़ने और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा पूर्ण आजादी को अपना लक्ष्य घोषित करने के साथ-साथ अन्ना मणि राष्ट्रवादी राजनीति की धारा में खिंचती चली गईं। हालांकि वह किसी आंदोलन विशेष में शामिल नहीं हुईं, लेकिन उन्होंने अपने राष्ट्रवादी विचारों के पक्ष में सिर्फ खादी पहनना शुरू कर दिया। गहरी राष्ट्रवादी भावना के परिणामस्वरूप वह निजी स्वतंत्रता की घनघोर हिमायती बन गईं। किशोरावस्था में ही घर बसा लेने के अपनी बड़ी बहनों के रुख के विपरीत अन्ना ने उच्च शिक्षा पूरी करने का फैसला दिया। इस फैसले का घर में न तो खास विरोध हुआ न ही किसी ने उन्हें प्रोत्साहित किया।
Daughters of Lilavati: Anna Mani was the gem of science

अन्ना मणि डाक्टरी पढ़ना चाहती थीं, लेकिन जब वह संभव नहीं हुआ तो उन्होंने भौतिक विज्ञान में पढ़ाई जारी रखने का फैसला किया। इस विषय में उनका दखल अच्छा था। अन्ना मणि ने मद्रास (अब चेन्नई) के प्रतिष्ठित प्रेसिडेंसी कॉलेज के फिजिक्स ऑनर्स कोर्स में दाखिला लिया। 1940 में, कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के एक साल बाद उन्हें इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की ओर से सी़वी़ रमन की प्रयोगशाला में शोधकार्य करने के लिए ग्रेजुएट छात्रवृत्ति मिल गई। अन्ना मणि ने यहां हीरों और मणियों की स्पेक्ट्रोस्कोपी पर काम किया। उन दिनों रमन की प्रयोगशाला हीरों के अध्ययन में डूबी हुई थी, क्योंकि क्रिस्टल डायनामिक्स पर एक अन्य प्रमुख भौतिकविद मैक्स बॉर्न के साथ और हीरों की संरचना पर कैथलीन लॉन्सडेल के साथ रमन के गहरे मतभेद थे। रमन के पास उस समय भारत और अफ्रीका से जुटाए तीन सौ से ज्यादा हीरों का विशाल संग्रह था और उनका हर छात्र हीरों के किसी न किसी आयाम पर काम कर रहा था।

अन्ना मणि ने अलग-अलग किस्म के तीस से ज्यादा हीरों के फ्लुओरोसेंस, एबजॉप्र्सन तथा रमन स्पेक्ट्रम के अलावा उनकी ताप निर्भरता व पोलराइजेशन प्रभावों का अध्ययन किया। उनके प्रयोग बेहद लम्बे और कष्टसाध्य थे- क्रिस्टलों को तरल हवा के तापमान पर रखा जाता था और कुछ हीरों की स्फुरदीप्ति इतनी कम थी कि फोटोग्राफिक प्लेट में उनका स्पेक्ट्रम रिकॉर्ड करने में 15 से 20 घंटे का समय लगता था। अन्ना मणि प्रयोगशाला में कई-कई घंटे बिताया करती थीं। कभी-कभी काम करते-करते पूरी रात निकल जाती। 1942 से 1945 के बीच उन्होंने हीरों व मणिक्यों की स्फुरदीप्ति पर अकेले दम पर पांच शोधपत्र प्रकाशित किए। 1945 में उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय में अपना शोध प्रबंध जमा किया और उन्हें इंग्लैंड में इंटर्नशिप करने के लिए सरकार की ओर से छात्रवृत्ति के लिए चुन लिया गया।

इसके बावजूद, अन्ना मणि को पीएच़डी़ डिग्री से वंचित कर दिया गया। उस जमाने में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के शोध छात्रों को मद्रास विश्वविद्यालय से पीएच़डी़ की डिग्री मिलती थी। विश्वविद्यालय का तर्क था कि अन्ना मणि के पास चूंकि एम़एससी़ की डिग्री नहीं है, इसलिए नियमानुसार उन्हें पीएच़डी़ नहीं मिल सकती। विश्वविद्यालय ने इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि अन्ना ने भौतिकी तथा रसायन विज्ञान में ऑनर्स की परीक्षा उत्तीर्ण की है। यहीं नहीं, उन्होंने अपनी अंडर ग्रेजुएट डिग्री के आधार पर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में ग्रेजुएट स्टडीज के लिए छात्रवृत्ति प्राप्त की है। आज भी उनका पूरी तरह से तैयार पीएच़डी़ शोध प्रबंध अन्य ढेर सारे स्वीकृत शोध प्रबंधों के बीच रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट के पुस्तकालय में जस का तस रखा हुआ है। देखकर पता नहीं लगता कि इस पर अन्ना मणि को पीएच़डी़ डिग्री नहीं मिल पाई थी। उधर, अन्ना मणि को विश्वविद्यालय के इस फैसले पर लेश मात्र भी रंज नहीं हुआ। न ही उन्होंने इसे अपने प्रति अन्याय के रूप में लिया। पीएच़डी़ डिग्री से इन्हें इस तरह अन्यायपूर्वक वंचित कर दिए जाने से उनके जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ा।

रमन की प्रयोगशाला में अपना शोधकार्य पूरा करने के बाद जल्द ही वह इंग्लैंड के लिए रवाना हो गईं। हालांकि वह भौतिक विज्ञान में ही आगे शोध करना चाहती थीं, लेकिन उन्हें मौसम वैज्ञानिक उपकरणों पर काम करना पड़ा। उस वक्त उनके लिए सिर्फ इसी क्षेत्र में छात्रवृत्ति उपलब्ध थी।
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1948 में अन्ना मणि आजाद भारत में वापस लौटीं। उन्होंने पुणे स्थित भारतीय मौसम विभाग में काम करना शुरू किया। यहां अन्ना मणि को विकीरिण उपकरण निर्माण का प्रभारी बनाया गया। अपने लगभग 30 वर्ष के कार्यशील जीवन में वायुमंडलीय ओजोन सहित अनेक शीर्षकों पर उनके कई शोधपत्र प्रकाशित हुए। 1976 में वह भारतीय मौसम विभाग के उप महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुईं। इसके बाद रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट में वापस लौट आईं और तीन साल तक यहां विजिटिंग प्रोफेसर के बतौर काम करती रहीं।

अन्ना मणि ने दो किताबें भी लिखीं- द हैंडबुक फॉर सोलर रेडिएशन डेटा फॉर इंडिया (1980) और सोलर रेडिएशन ओवर इंडिया (1981)। इसके अलावा उन्होंने भारत में पवन ऊर्जा सम्बंधी कई परियोजनाओं पर काम किया। बाद में, बेंगलुरु के एक औद्योगिक उपनगरीय इलाके में उन्होंने एक छोटी सी कंपनी स्थापित की, जो हवा की रफ्तार और सौर ऊर्जा की पैमाइश करने वाले उपकरणों का निर्माण करती थी। अन्ना मणि मानती थीं कि भारत में पवन व सौर ऊर्जा के उत्पादन व विकास के लिए देश के विभिन्न इलाकों में सौर प्राप्ति व हवा के मिजाज की पर्याप्त जानकारी बेहद जरूरी है। उन्हें उम्मीद थी कि उनके द्वारा निर्मित उपकरणों की मदद से इस जानकारी को हासिल करना आसान हो जाएगा।

पर्यावरण सम्बंधी मसलों से उनके जुड़ाव और रुचि के बावजूद अन्ना मणि ने खुद को कभी पर्यावरणवादी नहीं माना। उनके मुताबिक ऐसे लोग हमेशा चक्कर काटते रहते हैं। अन्ना एक जगह पर रुककर काम करना पसंद करती थीं।

अन्ना मणि को अपने जीवन और उपलब्धियों को लेकर जरा भी गुमान नहीं था। वह इस बात को भी कतई भाव नहीं देती थीं कि उन्होंने ऐसे दौर में भौतिकविज्ञान में उच्च स्तरीय शोधकार्य किया, जब उंगलियों पर गिनी जा सकने लायक संख्या में ही लड़कियां इस विषय की ओर रुख करती थीं। उन्होंने अपनी राह की मुश्किलों और महिलाओं के साथ होने वाले भेदभावों को रोशनी में बदल दिया। वह उस लैंगिक पहचान की सख्त मुखालफत करती थीं, जो महिलाओं की प्रतिभा व संभावना को कैद कर देती है और स्त्री व पुरुष की बौद्घिक क्षमताओं की असमानता की झूठी वकालत करती है।

इसमें कोई हैरत नहीं कि अन्ना मणि सफलता की ऐसी मिसाल हैं जिसके सपने बहुत थोड़ी औरतें देख पाती हैं। उन्होंने अपने सीमित सांस्कृतिक अवकाश का अतिक्रमण किया और न केवल अपने लिए एक कमरा या प्रयोगशाला का निर्माण किया बल्कि अपनी खुद की समूची वर्कशॉप, एक मिनी फैक्टरी खड़ी कर डाली।
(अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय)
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