घरेलू मोर्चे पर जूझती घरेलू सहायिका 

इन्दु पाठक

संगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिक श्रम शक्ति के सबसे कमजोर तबके में सम्मिलित होने के साथ ही किसी भी प्रकार के कानूनी, आर्थिक व राजनीतिक संरक्षण के अभाव में अपनी माँगों को सशक्त ढंग से उठा सकने की क्षमता से भी वंचित रहता है। नगरी क्षेत्र में घरेलू सेविकाओं के रूप में कार्यरत महिलाओं को भी इसी श्रेणी में सम्मिलित किया जा सकता है, जिनके सामाजिक-आर्थिक योगदान को न तो कोई मान्यता प्राप्त है और न ही श्रम कानूनों के निर्माण में इस वर्ग के हितों को ध्यान में रखा जाता है। यह वर्ग एक तरह से अदृश्य कार्य-शक्ति का हिस्सा माना जाता है जिसका प्रमुख कारण यह है कि इनका कार्य क्षेत्र मुख्यत: लोगों का ‘घर’होता है तथा राज्य व राजकीय संस्थान ‘घर’को ऐसे कार्यक्षेत्र के रूप में मान्यता नहीं देते जिसमें उसके नियमों को लागू किया जा सके।

भारत में कार्यरत महिला समूह का एक बड़ा हिस्सा घरेलू कार्यों में संलग्न महिलाओं का ही है। ‘नेशनल डोमेस्टिक वर्कर्स मूवमेंट’ के अनुसार पूरे देश में अनुमानत: 20 मिलियन व्यक्ति घरेलू सेवक के रूप में कार्यरत हैं जिनमें से 90 प्रतिशत सेवक 12 से 75 आयु वर्ग के बच्चे व महिलाएँ हैं। घरों में कार्यरत इन लोगों में से अधिसंख्य नगरी क्षेत्रों में ही केन्द्रित होते हैं। इन घरेलू सेविकाओं का एक स्पष्ट समूह तब दिखाई देने लगा जब नगरी क्षेत्र के एकाकी परिवारों की शिक्षित महिलाओं ने आर्थिक उपार्जन हेतु घर के बाहर कार्य करना प्रारम्भ किया। इस स्थिति में उन्हें घर के कार्यों में सहायता तथा उनके कार्य के घण्टों के दौरान छोटे बच्चों की देखभाल के लिए घरेलू सहायिका की आवश्यकता हुई तथा उनकी यह आवश्यकता निम्नतम आर्थिक वर्ग की महिलाओं के लिए रोजगार का एक साधन बन गयी। आज घरेलू कार्य उन लोगों के लिए एक स्वाभाविक कार्यक्षेत्र बनता जा रहा है जिनमेंं कोई विशिष्ट कुशलता व शैक्षिक योग्यता का अभाव है।

प्रस्तुत लेख को नैनीताल नगर में घरेलू सेविकाओं के रूप में कार्यरत कुछ महिलाओं से बातचीत के आधार पर तैयार किया गया है। इस संदर्भ में यद्यपि प्रत्यक्षत: दस महिलाओं से ही चर्चा की गई परन्तु उनके माध्यम से उनकी परिचित अनेक अन्य महिलाओं की स्थिति भी ज्ञात की गई। इस चर्चा के दौरान अनेक महत्वपूर्ण व दिलचस्प तथ्य उभरे। नैनीताल एक छोटा नगर है, जहाँ की अधिसंख्य जनता मध्यम या निम्न मध्यम आर्थिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। डेढ़-दो दशक पहले तक यहाँ घरेलू सहायिका रखने का चलन बहुत कम था। मुख्यत: कार्यरत महिलाएँ, उनके कार्य के घंटों के दौरान छोटे बच्चों की देखभाल के लिए इन महिलाओं को नियुक्त करती थीं। परन्तु आज स्थिति में परिवर्तन आया है। अब वे महिलाएँ भी अपनी सुविधा के लिए घरेलू सहायिका रखती हैं जो कि पूर्णकालिक गृहिणी हैं। ये महिलाएँ घरों में बरतन-कपड़े धोने, झाड़ू-पोछा, कार्यरत महिलाओं के छोटे बच्चों की देखभाल, नवजात शिशु व उसकी माँ की मालिश, सब्जी काटने, आटा गूँथने व कहीं-कहीं पूरा खाना बनाने जैसे कार्यों में संलग्न है। आजकल छोटे-छोटे बच्चों को उनके स्कूल तक छोड़ना व वहाँ से वापस घर तक छोड़ने के कार्य में भी कुछ महिलाएँ संलग्न हैं।

इस प्रकार इन कार्यों के माध्यम से समाज के कमजोर तबके की अनेक महिलाओं को रोजगार के अवसर प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार का कार्य मुख्यत: अनुसूचित जाति की महिलाएँ ही कर रही हैं, परन्तु अब आर्थिक स्थितियों के दबाव में कुछ सवर्ण महिलाओं की सहभागिता भी इन कार्यों में देखी जा रही है। कुछ ऐसी महिलाएँ भी घरों में कार्य करती देखी गयीं जिनके पति स्थायी सरकारी नौकरी (मुख्यत: चतुर्थ श्रेणी) में कार्यरत हैं परन्तु पति की शराब की लत के चलते नियमित आमदनी होते हुए भी वे अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए घरों में कार्य करने को बाध्य हैं।

यद्यपि इस प्रकार से कार्यरत अधिकांश महिलाएँ अनुसूचित जाति की हैं, परन्तु जातीय स्तर पर आधारित विषमता व विभेद का इन्हें स्पष्टत: सामना नहीं करना पड़ता। रसोई के अन्दर कार्य करने की उन्हें स्वतंत्रता है तथा कहीं-कहीं तो वे घरों में खाना बनाने का कार्य भी कर रही हैं।
Domestic helper struggling on the domestic front

घरेलू सेविका के रूप में कार्यरत अधिकांश महिलाएँ प्रवासी हैं जो कि मुख्यत: सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों से 15-20 साल पहले यहाँ आयी थीं। पहाड़ों की सीमित क्षेत्र की खेती से सालभर का अनाज प्राप्त करना कठिन होता था तथा नकद आमदनी का कोई स्रोत नहीं था। इन महिलाओं ने दैनिक मजदूरी में लोगों के खेतों में फसल काटने, निराई-गुड़ाई व पशुओं के लिए घास काटने का कार्य भी किया है। इस कार्य में यद्यपि इन्हें दैनिक मजदूरी के रूप में 120 से 160 रुपये तक प्राप्त हो जाते थे। चूँकि यह कार्य ‘मौसमी’था, अत: अन्य दिनों में नगद  आमदनी की समस्या बनी रहती थी। धीरे-धीरे इन्होंने लोगों के घरों में कार्य करना प्रारम्भ किया और अब यही कार्य इनका रोजगार बन गया है। इन्हीं के शब्दों में ‘अब काम की कोई कमी नहीं है?’ बड़े शहरों या महानगरों की भाँति इन महिलाओं को कार्य की प्राप्ति हेतु किसी प्लेसमेंट एजेन्सी का सहरा नहीं लेना पड़ता। किसी परिचित द्वारा दिये गये परिचय के आधार पर ही ये कार्य प्राप्त करती हैं तथा बाद में अपनी गारण्टी पर अपनी परिचित अन्य स्त्रियों को भी घरेलू कार्य दिलवाती हैं। ये महिलाएँ पूर्णत: अंशकालिक आधार पर कार्य कर रही हैं। एक घर में बँधकर कार्य करना इन्हें पसंद भी नहीं है। इन महिलाओं से की गयी चर्चा के दौरान जो मुख्य बिन्दु उभरे वे इस प्रकार हैं-

ये प्रतिदिन लगभग 7-8 घंटे कार्य करती हैं तथा 6-7 से 8-9 घरों में कार्य कर लेती हैं। इस कार्य के आधार पर वे प्रतिमाह कम से कम 2500 व अधिकतम 3500 रुपये अर्जित कर लेती है। इस व्यक्तिगत नकद आमदनी ने उनमें अत्यधिक आत्मविश्वास उत्पन्न किया है। इनमें से अधिकांश महिलाएँ प्रतिमाह 200 से 500 रुपये तक बचत भी कर लेती हैं। अधिकांश के बैंक खाते हैं तथा पोस्ट आफिस सावधि जमा योजना के माध्यम से 100-200 से 400-500 रुपया प्रतिमाह तक बचत भी कर रही हैं। नियोक्ता द्वारा उन्हें दी जाने वाली धनराशि का एक हिस्सा इनके बचत खाते में डाल दिया जाता है। यह स्थिति बचत के प्रति इनकी जागरूकता को दर्शाती है।

नौकरी से प्राप्त प्रत्यक्ष आमदनी के साथ-साथ अप्रत्यक्ष रूप से भी इन्हें कई लाभ प्राप्त हुए हैं। एक का मत था ‘पहले एक ही पेटीकोट-साड़ी धोनी-सुखानी पड़ती थी, परन्तु अब इतने पुराने कपड़े मिल जाते हैं कि अपनी जरूरत पूरी होने के बाद, मैं गाँव जाकर भी कपड़े बाँट आती हूँ।’त्योहार आदि में साड़ी-स्वेटर के रूप में नया कपड़ा भी इन्हें प्राप्त होता है।

इनमें से अधिकांशत: यद्यपि स्वयं शिक्षित नहीं हैं परन्तु अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति ये जागरूक हैं। प्राय: सभी के बच्चे स्कूल, कालेज व विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं या कर चुके हैं। एक महिला परेशानी उठाकर भी अपने बेटे को अंग्रेजी माध्यम के प्राइवेट स्कूल में शिक्षा दिला रही हैं। इन परिवारों की अनेक बेटियाँ निरन्तर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुई हैं। कुछ ने अपनी बेटियों को बी़एड़ भी करवाया है। ज्ञात हुआ है कि इन परिवारों में शिक्षा के प्रति लड़कियाँ अधिक जागरूक हैं।

घरेलू सहायिका का कार्य कर रही सभी महिलाएँ विवाहित थीं। अविवाहित लड़कियों को घरों में झाड़ू-बर्तन का कार्य करते हुए नहीं देखा गया।

यद्यपि इनकी आर्थिक स्थिति को किसी भी रूप में मजबूत नहीं माना जा सकता, परन्तु इन्होंने धीरे-धीरे अपने प्रयास से घर में गैस व अन्य रसोई के उपकरण, टी़वी़ आदि खरीदा है। मोबाइल फोन भी प्राय: सभी के पास है। यह और बात है कि वह प्राय: रीचार्ज नहीं रहता है। एक महिला ने तो अपने प्रयासों से एक कमरे का पक्का मकान बनवाया है।
Domestic helper struggling on the domestic front

अपने कार्यस्थल की दशा से इनमें से अधिकांश महिलाएँ सन्तुष्ट हैं। गाली-गलौच व यौन उत्पीड़न जैसी समस्याओं की किसी ने चर्चा नहीं की। सर्दियों में अधिकांश घरों में गरमपानी की व्यवस्था रहती है। यद्यपि सभी लोग चाय-नाश्ता नहीं कराते परन्तु कुछ घर ऐसे अवश्य हैं जो कि इन्हें नियमित रूप से चाय पिलाते हैं।

इनकी स्वास्थ्य दशा अच्छी नहीं कही जा सकती। निरन्तर पानी के कार्य में लगे रहने के कारण हाथ-पैरों की खराब दशा, पीठ दर्द, एनीमिया आदि से अधिकांश महिलाएँ पीड़ित देखी गयीं। आये दिन सरकारी अस्पताल में भर्ती होना, इन्जेक्शन लगवाना व ग्लूकोज चढ़वा लेना ही इनकी बीमारियों का तात्कालिक समाधान है। इतना समय व संसाधन इनके पास नहीं है कि ये अच्छी तरह  अपना इलाज करा सकें।

चुनौतियाँ

सामान्य धारणा यह है कि कानूनी संरक्षण के अभाव में घरेलू सहायिकाएँ अपने अधिकारों को प्राप्त नहीं कर पातीं। शारीरिक-मानसिक प्रताड़ना व यौन उत्पीड़न जैसे व्यवहारों का इन्हें सामना करना पड़ता है। व्यापक राष्ट्रीय सर्वेक्षण से प्रमाणित हुआ है कि अच्छी कार्यदशाओं व पर्याप्त वेतन का आश्वासन देकर इस कार्य के लिए महिलाओं व बच्चों का व्यापार भी किया जाता है।

परन्तु इस क्षेत्र में ऐसे उदाहरण नहीं मिले हैं। यहाँ कार्यरत अधिकांश महिलाएँ निकटवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों से आयी हैं तथा यहाँ अपने परिवार के साथ रह रही हैं। स्वयं पर्वतीय क्षेत्र की होने के कारण वे यहाँ की स्थितियों से पूर्णत: परिचित हैं। इन महिलाओं को असली चुनौती प्राप्त हो रही है, अपने स्वयं के घर से। लगभग शत-प्रतिशत महिलाओं के पति शराब का सेवन करते हैं। ये महिलाएँ जिन्होंने परिवार की आर्थिक सहायता करने व पति के सहयोग के लिए यह कार्य शुरू किया था, आज अपने परिवार की मुख्य उपार्जक हो गयी हैं। कइयों के पति घरेलू जिम्मेदारियों से पूर्णत: मुँह मोड़ चुके हैं। अधिकार  के नाम पर वे अपने को परिवार के ‘कर्ता’की भूमिका में मानते हैं परन्तु कर्तव्य निर्वाह के संदर्भ में ‘कर्ता’इन महिलाओं को ही बनना पड़ रहा है। इनके पति तो केवल सहायक की भूमिका में रहते हैं, वह भी तब जब उनका मन हो। घर का किराया, राशन पानी, बच्चों की फीस, सामाजिक व्यवहारों का निर्वाह आदि प्राय: सभी तरह के दायित्वों का निर्वाह इन्हें स्वयं करना पड़ता है। ऐसा नहीं है कि इनके पति कमा नहीं रहे हैं। ये नाव चलाकर, होटल व दुकानों में कार्य कर ठीक-ठाक कमा भी लेते हैं। परन्तु इनकी प्राथमिकता इनका घर-परिवार नहीं बल्कि अपनी स्वयं की आवश्यकता व विशेषकर शराब की लत को पूर्ण करना है। इन परिवारों के पुरुष अपनी शराब की लत को पूरा करने में इतना व्यय कर देते हैं, जितना उनकी पत्नियाँ कई घरों में कार्य कर अर्जित करती हंै। शराब पीकर गाली-गलौच करना आम बात है। कभी-कभी पत्नी पर हाथ उठाना भी वे अपना अधिकार समझते हैं। इनके कार्य करने के पश्चात् इनके पतियों का जिम्मेदारी विहीन होना इनकी प्रमुख चुनौती है। दोनों मिलकर परिवार को एक अच्छी आर्थिक स्थिति प्रदान कर सकते थे, परन्तु पति के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार से इनकी स्थिति ‘जस की तस है’।

एक स्थिति यह भी देखी गयी कि ये महिलाएँ गैर उत्पादक कार्यों में अपनी आमदनी के अनुपात में अत्यधिक व्यय करती हैं। शादी-विवाह, नामकरण, नाते-रिश्तेदारों के आने पर टीका-शगुन आदि सामाजिक व्यवहारों का अनिवार्यत: निर्वाह करना तथा इसमें अपनी हैसियत से बहुत अधिक व्यय करना इनके लिए अत्यन्त सामान्य है। इस हेतु अपने नियोक्ताओं से कर्ज लेना और प्रतिमाह वेतन से थोड़ा-थोड़ा कटवा कर कर्ज को चुकता करना इनकी आदत सी बन जाती है। यही कारण है कि इनमें से अधिकांश महिलाएँ ऋणग्रस्त हैं। कर्ज की यह रकम 500-1000 से लेकर 5000-6000 रुपये तक भी हो सकती है। कर्ज शादी- विवाह, त्योहार, जन्म-मृत्यु जैसे अनुत्पादक अवसरों की आवश्यकता के लिए ही लिया जाता है।

इनमें से कुछ महिलाएँ अत्यधिक कर्मठ व पुरुषार्थी नजर आयीं। अच्छे स्कूल में बच्चे की शिक्षा के लिए उत्सुकता, उनकी उच्च शिक्षा तथा बी़एड. जैसी व्यावसायिक शिक्षा हेतु वे पूरा प्रयास करती हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि यह सब उनके स्वयं के बूते ही संभव हो रहा है। पति का लेश मात्र भी सहयोग उन्हें प्राप्त नहीं है। कुछ महिलाएँ कई लोगों के राशनकार्ड इकट्ठा कर गेहूँ-चावल का पूरा इन्तजाम कर लेती हैं। एक महिला स्थानीय स्तर पर व्यवस्था न होने पर राशन की दुकान से गेहूँ लेकर भवाली जाकर पिसवाती थी। उसका कहना था कि तब भी आटा बाजार से सस्ता पड़ता है।

घरेलू काम करने वाली इन महिलाओं के लिए ‘साप्ताहिक’जैसा कोई नियमित अवकाश नहीं होता। हाँ, बड़े त्योहारों पर ये स्वत: अवकाश पर रहती हैं। बीमारी या अन्य परेशानी में अवकाश लेने पर इनके पैसे नहीं काटे जाते परन्तु लम्बा अवकाश लेने के कारण, कुछ घरों में इन्हें नौकरी से हटाया भी गया है। यद्यपि इनका कोई औपचारिक संगठन नहीं है परन्तु एक क्षेत्र में कार्य कर रही महिलाओं में पारस्परिक ‘बहनापा’देखा गया है। यदि किसी महिला को कार्य से हटा दिया जाता है तो उस क्षेत्र की अन्य महिला उसके स्थान पर कार्य करने को तैयार नहीं होती, यह भी देखा गया कि यदि किसी को परेशानी में थोड़ा लम्बा अवकाश लेना पड़ता है तो कोई अन्य ऐसी ही महिला उसके काम को संभाल लेती है, जिससे उसका कार्य छूटे नहीं।
Domestic helper struggling on the domestic front

यद्यपि यह सच है कि यह वर्ग ऐसे अलाभदायक क्षेत्र में कार्यरत है, जहाँ किसी भी प्रकार का कानूनी व वैधानिक संरक्षण उन्हें प्राप्त नहीं है। परन्तु नैनीताल जैसे छोटे नगर में सामाजिक-कानूनी सुरक्षा के अभाव में भी नियोक्ताओं से अच्छे सम्बन्धों के चलते नकद आमदनी के अलावा अनेक अन्य अप्रत्यक्ष सुविधाओं का प्राप्त होना इनके लिए लाभदायक है। नकद आमदनी ने जहाँ इनमें आत्मविश्वास उत्पन्न किया है, वहीं प्राप्त अप्रत्यक्ष सुविधाओं ने उनके जीवन स्तर को थोड़ा ऊपर अवश्य उठाया है। एक महिला का कहना था कि पहले चप्पल-धोती नहीं होते थे, भूखे भी सोना पड़ता था परन्तु अब स्थिति अच्छी है।

इनकी चुनौतियाँ मुख्यत: दो प्रकार की हैं। पहला अनुत्पादक कार्यों व परम्पराओं के निर्वाह में हैसियत से अधिक व्यय करना तथा इसी कारण लगभग हमेशा ऋणग्रस्त रहना। इससे भी बड़ी चुनौती है इनके पतियों की दायित्वहीनता, गैरजिम्मेदाराना व्यवहार तथा शराब की लत। घर से बाहर निकल कर कार्य करना, न सिर्फ इन्हें आर्थिक सहारा प्रदान करता है, वरन् उन्हें घर के अशान्त वातावरण से कुछ समय के लिए छुटकारा भी दिलवाता है।

इस असंगठित क्षेत्र में आज लाखों की संख्या में महिलाएँ कार्यरत हैं। नैनीताल जैसे छोटे शहर में भी अन्दाजन कुछ सौ महिलाएँ तो इस क्षेत्र में रोजगार प्राप्त कर ही रही हैं और यह वर्ग एक सार्थक समूह के रूप में उभर रहा है। इनकी दशा सुधारने, इनकी स्थिति मजबूत करने व एक निश्चित दिशा देने में स्वयंसेवी संस्थाएँ व गैर सरकारी संगठन महत्वपूर्ण व उपयोगी भूमिका का निर्वाह कर सकते है। छोटे-छोटे ‘स्वयं सहायता समूहों’में इन्हें संगठित कर न सिर्फ इनकी आर्थिक स्थिति को अधिक मजबूत किया जा सकेगा, बल्कि ये अपने कार्य क्षेत्र व घर के अन्दर से प्राप्त हो रही चुनौतियों का भी अधिक अच्छी तरह सामना कर सकेंगी।
Domestic helper struggling on the domestic front
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