घरेलू कामकाजी महिलाएँ
प्रभात उप्रेती
हम पहाड़ से हल्द्वानी शहर में नये- नये आये थे। पत्नी ने हमेशा अपने ही हाथों घर का काम किया। पर अब उम्र के साथ स्वास्थ्य ठीक न होने से एक झाडू-पोछा-बर्तन मांजने वाली रख ली। चालीस वर्षीय सविता तीव्र बुद्धि की ईमानदार स्वाभिमानी महिला है। बंगाली परिवार से है पर शादी उसने एक पूरब के आदमी से की है। शादी से पहले वह खेती का काम करती थीं। आर्थिक तंगी से ही घरेलू काम का धंधा शुरू किया। आज बारह साल काम करते हो गये हैं। पति रिक्शा चलाते हैं। अच्छे भले इंसान। हमें खुशी हुई थी कि हमारी काम वाली समझदार, संवेदनशील, साफ काम करने वाली है। मैंने उससे पूछा- बंगाली गाना आता है तो वह खिलखिला कर हँसी और कहने लगी- अब कहाँ…. गाना़….? गाने-वाने सब गुम हो गये हैं …. और उसने एक नि:श्वास ली और पोछा लगाने लगी। उसके पोछा लगाने के अंदाज में मुझे ऐसा लगा जैसे वह बहुत-सी यादों को भी पोछा लगा रही है।
और फिर एक दिन सुबह-सुबह मैं सैर से आया तो देखा कि वह खामोश सीढ़ियों में बैठी है। इतने सवेरे तो वह हमारे यहाँ आती नहीं। मेरी पत्नी ने मुझे इशारे से अलग बुलाया और कहा उनके पति ने उन्हें बहुत मारा है और वह अक्सर पीकर रात को मार पिटाई करते हैं। वे चाहती हैं कि मैं कुछ करूं। मैं असमंजस में पड़ गया। मैं क्या कर सकता हूँ। उन्होंने मुझसे कहा कि पुलिस में आपके पहचान के होंगे आप जरा उसे धमकवा दीजिए। अब पुलिस, कानून, धमकाना ये सब कुछ ऐसी चीज हैं कि इसका इस्तेमाल आम हिंदुस्तानी ’मरता क्या न करता’की स्थिति में ही करता है। ‘अदालत, थाने, जेल मैं न जाऊ’यह हर हिंदुस्तानी आदमी की ईश्वर से दिली प्रार्थना होती है। वहाँ गये तो जिन्दगी भर की वाट लग गई। गांधी जी ने पुलिस, वकील, बीमारी का होना आत्माहीन राज्य का चरित्र माना था।
खैर, यह तय हुआ कि उनके आदमी को बुलाया जाय। पति को बुलाया गया, समझाया गया, पतिदेव ने न पीने की तौबा की और बात फिर आई-गई हो गई। तीन-चार महीने तक कोई वारदात न हुई। सविता ने भी खुश हो कर मेरी पत्नी से कहा- साहब ने जादू कर दिया है, अब वह नहीं पीता है। कभी पीता भी है तो हल्ला-हंगामा नहीं करता। चुपचाप सो जाता है़….। मुझे भी अपनी काबिलियत पर गर्व हुआ कि आखिर मास्टर हूँ, मुझ में समझाने का दम है। पर तीन महीने बाद फिर वही दृश्य। गुमसुम-सी वह बैठी थी। मुंह-हाथ सब सूजे हुए। वही मार पिटाई़….। अबके वह दृढ थीं कि अब उसे पुलिस से पिटवाना है और अब साथ नहीं रहना है। काम करती हूं, उसी से अपने बच्चे पाल लूंगी। 35 वर्ष की उम्र में उसके छ: बच्चे हैं, जिनमें पांच लड़कियों की शादी भी हो गयी है। उनके बोलने में दर्द था। एक विवशता का अहसास। खैर पुलिस थाने गये। समाख्या की एक कार्यकर्ती भी साथ चली। पुलिस के सामने उन्होंने कहा-वैसे तो बहुत अच्छे आदमी हैं पर जब पी लेते हैं तब गड़बड़ हो जाता है। इतना सब होने पर भी अपने पति को दोष नहीं दे रही थीं। पुलिस वालों ने मजे ले-ले कर उससे सवाल पूछे। अपनी खाना पूर्ति करने के लिए एक बार उसके घर गये। वह नहीं मिला तो फिर कभी लौट के वहाँ नहीं गये। यह सब भी तब हुआ जबकि पहचान से काम लिया गया।
समय बीत गया। सिलसिला चलता रहा। कभी पति उत्पात में आता है और कभी शांत हो जाता है। वह अपने को एडजेस्ट कर रही थीं। जब निर्मल बाबा का करिश्मा चल रहा था- वह कह रही थी कि निर्मल बाबा की कृपा से ठीक हो गये हैं। उसका पति पीना छोड़ने की दवाइयाँ खा रहा है। बहुत महंगी दवा हैं। पीना छुड़वाने वाली संस्थाएँ भी महंगी हैं फिर भी जिन्दगी चल रही है। कभी गुस्सा, कभी मारपीट, कभी प्यार ….। अब उनकी बारह साल की बच्ची भी स्कूल छोड़ कर काम करने लगी है। मैं प्रश्न पूछता हूँ कि स्कूल क्यों छोड़ा? तो वह चुपचाप झाडू़ लगाती हुई, एक निश्चित उत्तर को सर झुकाये बतला देती है। मां ने कहा काम नहीं करायेंगे तो खायेंगे क्या? सविता कहती हैं, कोई भी इस पेशे में मजबूरी से है। कौन मां-बाप चाहेंगे कि बच्चे ये काम करें?
शहरों में मध्यमवर्गीय खाते-पीते परिवार के लिए आज फ्रिज, टीवी, मोबाइल से ज्यादा घर में झाड़ू-पोछा-बर्तन मांजने-बच्चे देखने के लिए एक कामकाजी महिला की अनिवार्यता है। यह अन्य उपकरणों की तरह विलासिता नहीं, जीवंत आवश्यकता है। अरस्तू ने घरेलू उपकरण के रूप में दास को जीवंत उपकरण कहा था। आज की घरेलू काम करने वाली महिलाएँ कुछ-कुछ अरस्तू का जीवंत उपकरण लगती हैं। हालांकि वे दास नहीं हैं, फिर भी उनके काम करने के पीछे जो स्थिति है, वह उनकी मजबूरी की दास्तां है।
domestic working women
घरेलू कार्य करना एक गृहिणी के लिए ही कोई गरिमा वाला काम नहीं है तो उनके लिए क्यों होगा? पर मध्यमवर्ग की इस आवश्यक विवशता के कारण गरीबी से किसी तरह जूझने का हौसला भी वह उन्हें देता है। पहले की अपेक्षा अब उनकी स्थिति में सुधार आया है। उनके अंदर मान का पुट भी आया है। उन्हें संबोधन भी उपभोक्ता द्वारा अच्छे ढंग से किया जाता है। नये उम्र के बच्चे उन्हें काम वाली आंटी कह कर पुकारते हैं, पर आम भाषा में उन्हें कामवाली कहा जाता है। मुझे याद है कभी कोई पहाड़ी सम्भ्रांत दिल्ली या लखनऊ जाता था तो पहाड़ से गहत, भट्ट लाने के साथ ही यह मांग भी उससे की जाती थी कि जब आप पहाड़ जायेंगी तो हमारे लिए एक पहाड़ी नौकर ला देना। यानी नौकर की जरूरत घरेलू काम के लिए समृद्घ लोगों में थी। पर अब आम मध्यमवर्गीय आदमी के लिए भी कामकाजी लोग चाहिए और शीघ्र ही नयी रोशनी में यह व्यवसाय घरेलू नौकर से इन घरेलू कामकाजी महिलाओं के हाथ में आ गया है। यह सारे भारत में हुआ है। एक अनुमान है कि अकेले हल्द्वानी में एक हजार महिलाएं इस घरेलू काम से जुड़ी हैं। सारे उत्तराखंड में यह कार्यकर्ती लगभग बीस से तीस हजार होंगी। उत्तराखंड के लगभग सभी शहरों में किसी न किसी तरह से इनकी उपस्थिति है। इनकी यूनियन सम्भंवत: देहरादून में छोड़ कर कहीं नहीं है। अभी नेताओं की नजर इस वोट बैंक पर नहीं गयी। कामकाजी महिलाओं का मतलब है, पैसा दो और छुट्टी पाओ। वैसे भी आजकल विश्वसनीय घरेलू नौकर नहीं रहे, फिर उन्हें तनख्वाह दो, खाना खिलाओ, और भी झंझट हैं। हत्याओं, चोरी व छोटे -मोटे अपराधों के कारण मध्यमवर्गीय समाज घरेलू नौकर वाली व्यवस्था से डर गया है। घरेलू कामकाजी महिलाओं का यह नया वजूद पेशेवर है, लाभप्रद है। पति-पत्नी दोनों के नौकरी में होने के कारण भी इस व्यवस्था ने तेजी से कदम बढ़ाया है।
महिलाओं के भी नौकरी में जाने के कारण बच्चों को देखने के लिए कैचअप का निर्माण भी इस घरेलू आवश्यकता के कारण शुरू हुआ, पर दाई की तरह के इस पेशे ने जो गरिमा पायी, वह झाड़ू-पोछा का पेशा नहीं ले पाया। यह कार्य निम्न दृष्टि से देखा जाता है। निरानब्बे प्रतिशत कामकाजी महिलाओं ने बतलाया कि वे यह कार्य विवशता से कर रही हैं। इसका कारण सबसे पहले गरीबी है, अधिक बच्चे और उनके पालन-पोषण की समस्या है। इन कामकाजी महिलाओं में लगभग सत्तर प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हैं। बहुत सी महिलाएँ पति की मृत्यु होने से इस पेशे में आती हैं। उदाहरणार्थ पार्वती (बदला नाम) का इस क्षेत्र में आने का कारण बहुत मार्मिक है। वह आज चालीस साल की है। उसके पति का दुर्घटना में देहांत हो गया था। रिश्तेदारों ने जमीन-जायदाद छीन ली। मजबूरन शहर आ कर इस पेशे में आना पड़ा। वह कभी निम्न मध्यमवर्गीय महिला थी।
ये महिलाएं औसतन एक दिन मेें पांच घंटे से लेकर दस घंटे तक काम करती हैं। कम से कम पांच घर और अधिक से अधिक दस घरों में तक काम करती पायी गयीं। एक घर में काम करने में कम से कम एक घंटा व अधिकतम लगभग दो घंटे लगते हैं। काम का सिलसिला सुबह सात बजे से शाम पांच बजे तक का होता है। अगर पति-पत्नी नौकरी में है तो उनके घर ये महिलाएं सुबह ही काम करती हैं या पांच बजे बाद। यह लगभग दो हजार से पांच हजार तक कमाती हैं। झाडू -पोछा के अलग-अलग रेट हैं। कहीं-कहीं वे खाना भी बनाती हैं। कामवालियों में अधिकतर महिलाएँ गांव से हैं जो गांव की गरीबी से परेशान हो कर शहर आ गयी हैं। विशेष कर पहाड़ी शहरों में पहाड़ की महिलाओं ने ही मोर्चा सम्भाला है। हल्द्वानी में बंगाली महिलाएं भी काफी हैं।
नौकरी पेशा महिलाओं के अतिरिक्त घरेलू मध्यमवर्गीय महिलाओं को कामवाली रखने की विवशता इसलिए भी है कि बढ़ती उम्र के साथ विभिन्न बीमारियों के कारण उनसे काम नहीं हो पाता। फिर घर में पोछा लगाना, बर्तन साफ करना नयी पीढ़ी की बहुत-सी महिलाओं में इज्जत का सवाल भी बन गया है जबकि एक फीजियोथैरेपिस्ट डाक्टर कहते हैं कि पोछा लगाना ऑर्थाराइटिस व बहुत सी बीमारियों के लिए कारगर व्यायाम है। प्रसव के बाद पेट कम करने के लिए यह बहुत मुफीद व्यायाम है।
बहुत सी कामवालियों ने काम की अधिकता के कारण अपनी बच्चियों का स्कूल छुड़ा कर उन्हें इस काम में लगा दिया है। एक कामवाली से बार-बार यह कहने पर कि अपने बच्चों को पढ़ाओ, उसके पति बोले- बाबूजी हमारे आसपास बच्चे बहुत पढ़ कर बेकार बैठे हैं। हमारे सभी रिश्तेदारों में तो हमारी लड़की ही कमाती दिख रही है़…। कामकाजी महिला की शादी में भी अच्छी मांग है और अगर ये पढ़ लेंगी तो फिर ये काम कभी नहीं करेंगी।
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वरिष्ठ कामकाजी महिला सुंदरी जो आज लगभग पैंसठ साल की सेवानिवृत्त, कामवाली हैं, का कहना है कि पहले घरों में बहुत बुरा व्यवहार होता था। कुछ गलत होने पर पैसे भी काट लिये जाते थे पर अब ऐसा नहीं होता। एक महिला अपनी काम वाली से संतुष्ट है। महिला बोल नहीं पाती। उसको प्यार से लाटी ही कहा जाता है। आग लगने के एक हादसे में उसकी आवाज चली गयी। वह मनोयोग से छ: कमरों वाले मकान के बड़े-बड़े कमरों का झाडू-पोछा करती है और किचन गार्डन के लिए खाद भी ले आती है। वह उसे एक हजार रुपया मासिक देते हैं और दिन का खाना।
एक उपभोक्ता महिला कहती हैं कि काम वाली बबाल टलाई करती है। कुछ कहो तो काम छोड़ देने की धमकी देती है। हमारी मजबूरी है उसकी धौंस है़….। दोनों के बीच ग्राहक-उपभोक्ता का घपला है जिसमें एक दूसरे के प्रति शिकायत स्वाभाविक है। ग्राहक-उपभोक्ता दोनों वैसे भी संतुष्ट नहीं रहते। परिवार वाले अधिक से अधिक काम लेना चाहते हैं,काम वाली कम से कम समय देना चाहती है ताकि वह और घरों में जा सके।
कमला देवी नेपाली मूल की है। पढ़ी-लिखी नहीं है। उम्र 43 वर्ष है, उसके चार बच्चे हैं। 16 साल की उम्र से काम शुरू किया था। पति राजगिरी करते हैं। एक ही घर में काम करके पांच सौ रुपया कमाती है। उनका कहना है, वैसे उनको घरेलू काम के लिए बहुत परिवार वाले कह रहे हैं पर मजदूरी में 200 रुपया रोज भी मिल जाता है तो महीने में पांच हजार मिल जाते हैं। यहां दिन भर काम करके महीने में ज्यादा से ज्यादा तीन हजार मिलेंगे। इसलिए एक जगह काम करके ही वह संतुष्ट है। काम के घंटे करीब दस घंटे हो जाते हैं। इसमें घर का काम अलग है। बच्चे पढ़ते हैं। घर वाले नहीं चाहते कि वह इस काम को करे। जहां तक परिवार वालों का व्यवहार है कभी अच्छा होता है, कभी बुरा। एक बार मालिक ने मोबाइल पर फोन किया। मेरा मोबाइल ऑफ था। इस पर वह दूसरे दिन नाराज हो गये कि मोबाइल स्विच आफ रखती है। वह चाहेंगी कि बच्चे इस काम को न करें। पति शराब नहीं पीते हैं लेकिन काम के प्रति उनका रवैया मूड पर निर्भर करता है। बच्चों में एक की टीवी की दुकान है, एक टैंट हाउस में काम करता है, एक पढ़ता है। काम करने के बाद अपने लिए समय नहीं मिलता।
घरेलू काम करने वाली महिलाओं का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। रक्त की कमी, हाथ पांव, कमर में दर्द, गठिया आम है। पानी में काम करने से होने वाली बीमारियां भी आगे चल कर हो जाती हैं। ये महिलाएँ कुपोषण का शिकार हैं। अस्सी प्रतिशत महिलाओं को पोछा लगाने से कमर में दर्द की शिकायत है। हाथ फटना तो आम है। घर में अपने परिवार को भी सम्भालना कठिन होता है। सविता का कहना है वह सुबह तीन बजे उठ जाती है। घर में खाना बना कर ढक कर रख आती है। फिर वह दिन में दो बजे घर जाती है। पति को खाना खिला कर फिर काम पर जाती है। इस तरह सुबह छ: बजे से शाम पांच बजे तक वह अपने घरेलू झाडू-पोछा में लगी रहती है।
उनके काम को इनके घर वाले भी प्रशंसित नही करते। कभी-कभी वह उसे छोड़ने को कहते हैं। एक काम वाली कहती हैं मेरे बच्चे बार बार कहते हैं, मम्मी यह काम छोड़ो। हमें शर्म आती है। आपके कारण हम लोगों के बीच ढंग से नहीं रह पाते तो मैंने कहा- ठीक है, मैं छोड़ देती हूं। तुम फिर कैसे पढोगे? इस पर सब चुप हो गये। पांच हजार कमाती हूं। उसी से घर चलता है। पति पीता रहता है। कालांतर में जब उसके बच्चे काम में लग गये तो उसने काम छोड़ दिया। विवाह में भी इस तरह का काम बाधा बनता है पर कहीं सहायक भी होता है।
गीता देवी ने अपने पति के मरने पर ही यह काम सम्भाला और लगभग दस साल से वह काम में हैं। आज अठावन की उम्र है। उन्होंने बर्तन मांज कर ही अपने बच्चे पाले। एक लड़की को एम.ए., बीएड कराया। लड़के को बी़एस़सी कराया। अब हाथ में गठिया हो गया है। उंगलियां टेढ़ी-मेढ़ी हो गयी हैं फिर भी एक परिवार में अभी भी काम करती हैं। बच्चों ने कहा, अब बर्तन मत मांजो। पर वह कहती हैं, उस परिवार के प्रति मेरा दायित्व है। उन्होंने मुसीबत के समय हमारी मदद की। जब हम भूखे मर रहे थे, उन्होंने ही मुंह में रोटी दी। उनका कहना है उनके बीमार रहने पर उनकी बच्ची जो पढ़ती थी वह भी बर्तन मांज आती थी। उनके बच्चे उनके दर्द को समझते थे, इसलिए कभी इस तरह का काम करने में उनको शर्म नहीं आयी। वह उन्हें मां से ज्यादा भगवान मानती हैं।
दीपा बिष्ट 31 साल की हैं। कक्षा पांच तक पढ़ी है। उनके तीन बच्चे हैं। रानीखेत की रहने वाली हैं। पति बिजली का काम करते हैं। दस-ग्यारह साल की उम्र से काम करना शुरू किया। तीन जगह काम करती हैं। काम के घंटे कुल पन्द्रह हैं। अपने लिए कोई समय नही हैं वह कहती हैं कि यह पेशा इज्जत वाला नहीं है। बच्चे कभी भी इस काम को नहीं करना चाहेंगे। कितना ही कमा लो, इस पेशे को हीन दृष्टि से देखा जाता है। ज्यादातर लोग मजबूरी में इस पेशे में आते हैं। उनके पति शराब पीते हैं पर यह जरा सुकून है कि पीकर हंगामा नही मचाते। खुद के लिए कोई समय नहीं मिलता। उनका स्वास्थ्य खराब है। बच्चेदानी में समस्या है। डाक्टर कहता है, ऑपरेशन नहीं कराओगे तो कभी भी कुछ भी हो सकता है। पर उसके लिए दस हजार रुपये चाहिए जो उनके पास नहीं हैं। मालिक लोग उसके स्वास्थ्य के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं लेते। जहां वह रहती हैं, उसका मकान मालिक कोई वेतन नहीं देता। बस इतना है कि रहने को सर्वेंट क्वार्टर दिया है और दिन भर कोई न कोई काम करवा ही लेते हैं। लगता है, वह उसे खाली नहीं देखना चाहते।
मधु के पति पेंटर हैं। वह भी इस काम को मजबूरी मानती हैं। बच्चों की पढ़ाई के लिए करना पड़ता है। वह तीन घरों में काम करती हैं। पांच सौ रुपया माह कमा लेती हैं। कहती है, वैसे तो काम सिर्फ झाड़ू-पोछा-बर्तन है, इसलिए उसके अनुसार वेतन ठीक है और काम करने के लिए जो घर मिले हैं, वे मुझे अच्छे मिले हैं उनका व्यवहार अच्छा है। अटक-बिटक मदद भी अलग से कर देते हैं। परिवार वालों की मनाही नहीं है। सब सहयोग करते हैं। बड़ी बेटी सिडकुल में नौकरी करती है। अब बच्चे काम पर लग जायें, उनकी शादी हो जाय तो यह काम बंद कर दूंगी। वैसे घर-घर जाना, बर्तन-भांडे मांजना खुद को भी अच्छा नहीं लगता पर मजबूरी है। पांच सौ ही सही, वही काफी हैं। साढे़ आठ बजे से साढे़ बारह बजे तक काम पर जाती हूं। रही काम करने से बीमारी की बात, वह तो बिना काम के और ज्यादा होती है। ऐसी कोई तकलीफ नहीं है।
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बाईस वर्षीया युवती माधुरी चार जगह काम करती है। कहती हैं कि यह काम भी अच्छा क्यों नहीं हो सकता? इसमें क्या बुराई है? लोगों को जरूरत है, हम उनकी जरूरत पूरी कर रहे हैं। सारे व्यापार में यही तो होता है। बस, ढंग से इसे चलना चाहिए। यूनियन भी बने, पर उसमें राजनीति का खतरा है। वह पति या बच्चों का अपने काम में दखल देना पसंद नहीं करतीं। घरों में काम के व्यवहार के लिए कहती है कि यह सब अपने पर निर्भर करता है। न दबने दो, न दबाओ। यही दुनिया का असल नियम होना चाहिए जी़…..।
हां, इस काम ने जाति व्यवस्था को कम किया है। कामवालियों से कोई नहीं पूछता कि उनकी जाति क्या है। अगर जानते भी हैं तो अंजान रहते हैं क्योंकि मध्यमवर्ग का काम मोबाइल के बिना भले ही चले पर इनके बिना चल नहीं सकता।
कामवालियों के बारे में लोगों के विचार वर्गचरित्र के अनुसार हैं। यथा एक सज्जन कहते हैं- इनके नक्शे बहुत ज्यादा हैं। सफाई क्या, टालबराई का काम रहता है। बर्तन आधे झूठे, आधे साफ। फिर जब चाहे बिना बताये चली जाती हैं। एक इंजीनियर कह रहे थे, बहुत मुश्किल से दुगुने पैसे देकर कामवाली को लाया हूं।…. यह पूछने पर कि क्या आप उसे सी़एल,डीएल या मैडिकल लीव, अर्न लीव देते हैं तो वह कहते हैं -अजी यह सब वह खुद ही एडजैस्ट कर लेती हैं। कहती है मेरी तबियत ठीक नहीं, कभी शादी में चली जाती है। ये लोग तो हर त्यौहार, रिवाज, रस्म खूब निभाते हैं।
यह असगंठित मजदूर समाज मांग अधिक, पूर्ति कम होने से यद्यपि दबाव में कम रहता है पर कुपोषण, अशिक्षा तथा रहन-सहन ने इनके स्वास्थ्य पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी डाला है। एक महिला एक ही कमरे में जहां पानी व शौच की व्यवस्था भी नहीं, अपनी चार लड़कियों केसाथ रहती है। स्पष्ट है कि वह कभी मानसिक रूप से स्वस्थ रहने की स्थिति में नहीं होगी। इस प्रकार इनके बच्चे यौन सन्दर्भ में जल्दी परिपक्व हो जाते हैं।
वैसे यह कामकाजी असंगठित क्षेत्र संगठित हो जाये तो अच्छा। पर उपभोक्ता समाज का कहना है, इससे और भी स्थिति खराब हो सकती है। एक लेबर आफीसर कहते हैं कि इनका काम लेबर एक्ट के अन्तर्गत नहीं आता। मौलिक अधिकार के रहते इनको समुचित अधिकार देना श्रम विभाग का दायित्व है। इनका पंजीकृत होना उपभोक्ता तथा कामवालियों दोेनों के लिए लाभप्रद होगा। यह सुरक्षित कार्य होगा। बढ़ते शहरीकरण के कारण मध्यमवर्ग में यह कार्य एक आवश्यक व्यवस्था बन गई है। अधिकतर काम करने वाली महिलाओं का कहना है कि यह पेशा कभी भी सम्मानजनक पेशा नहीं बन सकता क्योंकि यह विवशता का पेशा है। यहां कोई विकल्प नहीं है।
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