उत्तरा का कहना है 

16 -17 जून 2013 को आये विनाशकारी जल प्रलय ने पूरे उत्तराखण्ड में तबाही मचा दी। उत्तराखण्ड के चार धाम क्षेत्र में  हजारों की संख्या में लोग मरे हैं, हजारों लापता हैं। तीन सौ से अधिक गाँव पूरी तरह से बर्बाद हो गये हैं। इस हादसे में हुए नुकसान का सही-सही अंदाजा लगाना मुश्किल है। अभी भी कई जगह मलवे में लाशें दबी पड़ी हैं। इस तबाही ने उत्तराखण्ड के जनजीवन को ही नहीं, पूरे हिन्दुस्तान से आये तीर्थयात्रियों, पर्यटकों को भी पूरी तरह हिला कर रख दिया। आपदा के दो महीने बाद भी स्थितियों में कोई अंतर नहीं आया है। आपदा प्रबंधन की दिशा में सरकार अभी तक भी कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं कर पायी है। केवल यात्रियों को निकालने की व राहत पहुँचाने की दिशा में कुछ काम हो पाया है। आपदाग्रस्त क्षेत्रों से लोगों को बाहर सुरक्षित निकाले जाने का जो काम हो पाया है, उसका भी श्रेय भारतीय सेना व अर्ध सैनिक बलों की कर्मठता व उनके सुदृढ़ तंत्र को जाता है।

उत्तराखण्ड की भौगोलिक परिस्थितियों को नजर-अंदाज कर तथाकथित विकास के नाम पर केन्द्र द्वारा स्वीकृत बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के मॉडल को ही उत्तराखण्ड की सरकारों ने अपनाया और कभी भी समय-समय पर पड़ने वाली ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए गम्भीरता नहीं दिखाई। पिछले वर्ष उत्तरकाशी में जो विनाशकारी आपदा आयी उसने उत्तरकाशी क्षेत्र को विकास में कई वर्ष पीछे धकेल दिया। उस समय यहाँ की सरकार के मंत्री आपदा क्षेत्र छोड़ विश्व-खेल देखने विदेशों की दौड़ लगा रहे थे। इन्होंने तब भी अपने राज्य में आ रही आपदाओं के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी व आज भी प्रभावी मंत्री/विधायक व अधिकारियों की रुचि सरकारी हेलीकॉप्टर से आपदाग्रस्त क्षेत्रों के सर्वेक्षण या दौरे के नाम पर हवाईयात्रा व मीडिया में छाने की कोशिश तक ही सीमित रही है। जिलों के प्रभारी मंत्री तो अपने जिलों के आपदाग्रस्त क्षेत्रों से  वे पूरी तरह नदारद ही रहे। सरकार का कोई आपदा प्रबंधन का तंत्र कहीं है या कहीं कोई व्यवस्था है इस सबके लिए, ऐसा तो कहीं भी नजर नहीं आया।

उत्तराखण्ड में प्राकृतिक आपदाएं हमेशा से आती रही हैं। लेकिन इन कुछ वर्षों में हम देख रहे हैं कि आपदाओं का रूप विकराल होता जा रहा है। लेकिन हमारी सरकारों ने इस तरह की वर्ष दर वर्ष बढ़ रही आपदाओं से निपटने के लिए कोई भी नीति नहीं बनायी है। जापान में प्रतिदिन कई बार भूकम्प आता है, इसे देखते हुए उन्होंने अपने ढाँचा विकास का मॉडल भी उसी तरह तय किया है। उसके अनुसार ही अपनी विकास नीति तय की है जिससे कि भूकम्पीय प्रभाव को आसानी से व सुरक्षित तरीके से झेला जा सके। लेकिन हमारी सरकारों ने, जिस तरह की आपदाएं उत्तराखण्ड की जनता को लगातार झेलनी पड़ रही हैं, उसे देखते हुए इन आपादाओं से निपटने के लिए समय-समय पर कुछ समितियों का गठन तो अवश्य किया लेकिन उनकी रिपोर्ट पर न तो अमल किया न ही गम्भीरता से सोचा। इन समितियों की रपटें आज भी वैसे ही मंत्रालयों में दबी पड़ी हैं, जिससे उत्तराखण्ड की सरकार व सत्ता सुख को बेताब यहाँ के राजनेताओं के सोच व गम्भीरता पर निश्चय ही प्रश्न चिह्न लग जाता है।
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उत्तराखण्ड में समय-समय पर आने वाली प्राकृतिक आपदाओं की बात करें तो इन प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ाने का काम ब्रिटिश सरकार के समय से ही शुरू हो गया था। जब वन विभाग द्वारा पहाड़ों में बाँज की जगह व्यावसायिक हित में चीड़ के पेड़ों को लगाए जाने को बढ़ावा देना शुरू किया गया था। इसके पीछे जंगलों को व्यावसायिक दृष्टि से लूटने का दृष्टिकोण था। पहाड़ के लोगों के लिए बाँज ईंधन व चारे के साथ-साथ मीठे पानी के स्रोत भी विकसित करता है। आम पहाड़ी जन की तथा पर्यावरण की दृष्टि से भी बाँज जैसे वृक्षों की महत्वपूर्ण भूमिका है। चीड़ के जंगलों में पानी ढलानों से नीचे बह जाता है तथा अपने साथ मलवा व मिट्टी भी ले जाता है, जिससे बाढ़ का खतरा भी बढ़ता है। पर्यावरण प्रेमियों, आम जनहित के मुद्दों को उठाने वाले सामाजिर्क ंचतकों व कार्यकर्ताओं के द्वारा आजादी के बाद से निरन्तर इन मुद्दों को काफी मजबूती से उठाया जाता रहा। इस ओर सरकारों ने कुछ सोचना शुरू किया परन्तु विकास के नाम पर नयी तरह की लूट शुरू हो गयी। सड़कों के चौड़ीकरण, वन प्रबंधन का केन्द्रीयकरण, बड़े बाँध, बड़ी-बड़ी विद्युत परियोजनाएं, बड़े-बड़े निर्माण कार्य, पर्यटन के नाम पर वैध-अवैध निर्माण कार्यों व रेता, बजरी, खड़िया-खनिज के वैध-अवैध खनन को निहित स्वार्थ में फलने-फूलने का पूरा मौका दिया गया। जिससे बादल फटने व भारी वर्षा में भूस्खलन व मलवे के साथ गाड़-गधेरों व छोटी-छोटी नदियों में बढ़ते पानी से आयी बाढ़ ने हमेशा तबाही मचायी है। प्रतिवर्ष इस तरह से होने वाली तबाही में इजाफा होता जा रहा है। सरकारों द्वारा इस तबाही को रोकने की दिशा में कभी कोई प्रभावी कार्यवाहियाँ नहीं की गयी हैं। यह कहना भी गलत न होगा कि सरकार का उल्टे इन आपदाओं को बढ़ाने में ही योगदान रहा है। लगातार पहाड़ों में बड़ी परियोजनाओं के नाम पर हो रही जल-जंगल-जमीन की लूट ने पहाड़ व वहाँ के जन-जीवन को पूरी तरह तबाह करके रख दिया है। राज्य बनने से पूर्व व राज्य बनने के बाद भी सरकारों का यही हाल रहा है। पहाड़ की जनता ने सरकारों की इन्हीं नीतियों के चलते पहाड़ी राज्य की माँग की, जिसमें पहाड़ का दर्द झेल रहीं यहाँ की महिलाओं ने सबसे अधिक संख्या में भागीदारी की। क्योंकि वे समझ रहीं थीं कि राज्य बनेगा तो पहाड़ के विकास की नीति मैदानी क्षेत्र से अलग व पहाड़ के हित में होगी। महिलाओं का मानना था कि राज्य बनेगा तो उनके पिता, भाई, पति, पुत्र का यहाँ से पलायन रुकेगा, विकास के नाम पर केवल शराब ही यहाँ नहीं पिलायी जायेगी, युवाओं को रोजगार के भरपूर अवसर भी मिलेंगे और उनके गाँव विकास की ओर बढ़ेंगे व विस्थापन रुकेगा। लेकिन राज्य बनने के बाद यह सब तो नहीं हुआ, पर उन्होंने विकास के नाम पर बढ़ती तबाही, विस्थापन व अपने जल-जंगल तथा जमीन से बढ़ती दूरियाँ जरूर देखीं। सरकार, नेता, माफिया व लुटेरे पूँजीपति यहाँ आकर न तो उनके पहाड़ों को इस बेकदरी से लूटते व न ही ऐसी तबाही आती और न आज उन्हें इन पहाड़ों को छोड़ कहीं और बसने के बारे में सोचने को मजबूर होना पड़ता।

प्रकृति का यह रौद्र रूप देखकर हर कोई इस बात को समझने लगा है कि उत्तराखण्ड में सरकारों ने विकास के जिस मॉडल को अपनाया है, वह यहाँ के लिए विनाशकारी सिद्ध हो रहा है। बड़े बाँध, बड़ी परियोजनाएं, ब्र्लांस्टग करके सड़कों का चौड़ीकरण व बड़े-बड़े आवासीय भवनों का निर्माण, अन्धाधुन्ध वैध-अवैध खनन, नदियों के किनारे निर्माण कार्य व अतिक्रमण, जंगल पर से जनता के अधिकारों का लगातार छीना जाना, जिसके कारण लोगों का जंगल से जुड़ाव घटना (फलस्वरूप हर वर्ष करोड़ों पेड़ों का जंगल की आग में विनष्ट होना) एवं प्राकृतिक सम्पदा का स्थानीय जन के स्वामित्व में छोटी-छोटी परियोजनाओं के माध्यम से सदुपयोग, विदोहन न करके यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा को पूँजीपतियों/बड़ी-बड़ी कम्पनियों के हाथों में देकर उसकी अन्धाधुन्ध लूट को बढ़ावा देना, ये ही वे कारण हैं जो इस प्रकार की त्रासदी के लिए जिम्मेदार हैं।

उत्तराखण्ड में विकास के इस मॉडल को तत्काल बदलना होगा। पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड में यहाँ पर्वत व पर्वतवासियों के हित व संरक्षण को ध्यान में रखते हुए राज्य के जल, जंगल, जमीन व अन्य प्राकृतिक सम्पदाओं पर जनता के अधिकार को मजबूत करते हुए ही राज्य की विकास योजनाओं को बनाना व क्रियान्वित करना होगा। इसके लिए राज्य में किसी भी प्रकार की बड़ी परियोजनाओं को न लगाकर स्थानीय लोगों के स्वामित्व से छोटी परियोजनाओं को विकसित करना होगा, यह राज्य व राष्ट्र के हित में है। यहाँ की विशिष्ट भौगोलिक-र्आिथक परिस्थितियों को देखते हुए विकास के एक ऐसे नये मॉडल की जरूरत है जिसमें पहाड़ के गाँवों में बसने वाले लाखों पहाड़वासियों के हितों को सर्वोपरि रखा जाय न कि उनको अपनी जड़ जमीन से विस्थापित करने की नौबत आये। यह भी समझने की बात है कि यह तभी संभव होगा जब गाँवों को स्वावलम्बी बनाने की सोची जाय और उन्हें अपने निर्णय स्वयं लेने का अधिकार बहाल किया जाय। पहाड़ के जंगल, पानी व जमीन पर उनका अधिकार हो, वन खेती व अपने विकास के लिए छोटी-छोटी परियोजनाएं बनाने का अधिकार उन्हें दिया जाय। लोगों की क्षमता विकास के लिए उन्हें अधिकार सम्पन्न बनाने की दिशा में गम्भीर प्रयास व कार्य करने की इच्छा शक्ति जब सरकार की होगी, तभी आपदा के खतरे कम होंगे। आपदा प्रबंधन के लिए पूर्व वर्षों में जो सैकड़ों करोड़ रुपया पहले राज्य सरकारों को मिला है, उसका क्या हुआ और उसका सदुपयोग क्यों नहीं हो पाया, इसकी जाँच भी सी.बी.आई या सर्वोच्च न्यायालय के किसी जज की अध्यक्षता वाले न्यायिक जांच आयोग से कराया जाना जरूरी है, ताकि करोड़ों रुपया उपलब्ध होते हुए भी आपदा प्रबंधन के लिए जो लापरवाही बरती गई, उसके लिए कौन कितना दोषी रहा है, इसकी सच्चाई पता चल सके और दोषी दण्डित हों। ताकि जो हजारों-करोड़ों रुपया आपदा के नाम पर अब आ रहा है, उसका दुरुपयोग करने का दु:साहस आगे कोई नहीं कर सके। प्रश्न यह है कि क्या सरकार ऐसा करेगी? यदि सरकार ऐसा नहीं करती है तो जनता को क्या करना होगा, इस ओर उन्हें व समाज हित में सोचने और करने वाले लोगों को ही कुछ ऐसा करना होगा। यक्ष प्रश्न यही है कि क्या ऐसा होगा। क्या कोई ऐसा कुछ करेगा/करायेगा।
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