गजलें : उषा नौडियाल

1

गाँव खाली हो गये, बढ़ने लगी शहरों की भीड़।
कट गये पीपल कि वो ताजी हवा गुम हो गई।।
घर में गौरैया का आना-जाना बन्द  जब से हुआ।
अब वो रौनक ना रही, रंगत कहीं गुम हो गई।।
घर बड़ा तो हो गया, दिल में जगह कम हो गई।
लज़्ज़तें जाती रही वो चाशनी गुम हो गई।।
बुझ गई लौ, जो निरन्तर जल रही थी माँ के साथ।
वो तपिश जाती रही वो रोशनी गुम हो गई।।
बेटियाँ जिनमें न हों, उन घरों में तो यूँ लगे,
जैसे रेगिस्तान में हों और नदी गुम हो गई।।
अनखिली कलियाँ कुचलने का मिला होगा ये शाप,
बरकते जाती रहीं और नेमतें गुम हो गईं।।

2

फिर पहाड़ के गाँवों में आतंक बना है आदमखोर
काश! शहर में आये तो डर जाये शायद आदमखोर।
उसकी मजबूरी टूटे नाखून, दाँत, लुटते जंगल
यहाँ आदमी सिर्फ हवस से बन जाता है आदमखोर
वो उसका डर है या नफरत, जिद है या कुण्ठा कोई
कमजोरों पर ही अक्सर झपटा करता है आदमखोर।
वही चेहरा नाक वही है, कान वही आँखें वे ही
पहचानूँ कैसे मैं, आखिर कहाँ कौन है आदमखोर?
मुझको गुमां नहीं था लोगो, अन्तरिक्ष युग में भी कितने
कदम-कदम इंसान वेश में घूम रहे हैं आदमखोर।
होठों पर ताले थे, चीखें बंद गले में घुटी रहीं
इसीलिए हर बार हाथ से बच निकला है आदमखोर।
पढ़कर मजा जिन्हें रहस्य रोमांच कथा का आता है
वो भी नहीं कहीं कुछ कम हैं, वो भी तो हैं आदमखोर।
Gajal

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