महिलाएं कितनी सुरक्षित

माया नेगी

दिल्ली सामूहिक बलात्कार की बीभत्स घटना ने समाज के प्रत्येक वर्ग को झकझोर कर यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि हमारे इस सभ्य समाज में महिलाएँ कितनी सुरक्षित हैं।

वास्तविकता तो यह है कि महिलाएँ अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में हमेशा असुरक्षा की भावना से ग्रस्त रहती हैं। वह आज न अपने परिवार न अपने समाज और न ही अपने देश में सुरक्षित हैं। महिला उत्पीड़न की बात कोई नई बात नहीं है। सदियों से महिलाएँ हिंसा के इस दंश को झेल रही हैं। हर जगह, हर स्थान और हर समाज में।

महिला उत्पीड़न/ हिंसा की शुरूआत एक महिला के जन्म लेने से पूर्व ही हो जाती है, कन्या भ्रूण हत्या के रूप में। यदि गलती से पैदा हो गई तो बालिका शिशु हत्या के रूप में मार दी जाती है। बड़ी हुई तो समाज का पितृसत्तात्मक नजरिया लिंगगत भेदभाव, छेड़छाड़, अपहरण, बलात्कार व खरीद-फरोख्त का शिकार होती है। यदि कामकाजी महिला हो तो कार्यस्थल में पुरुष प्रधान मानसिकता का शिकार होती है। विवाह के पश्चात् दहेज की बलि चढ़ा दी जाती है और वृद्धावस्था में बचपन से ही पुरुषों की अधीनता में जी रही महिला किसी भी पल घर से बाहर कर दिये जाने की असुरक्षा के साथ जीती है।

लगातार महिला सुरक्षा के लिए आवाजें उठती रही हैं। जन संघर्षों के परिणामस्वरूप महिला सुरक्षा के लिए समय-समय पर नये-नये कानून तो बने लेकिन इन कानूनों का उल्लंघन करने पर मिलने वाली शक्ति व दण्ड का भय महिला उत्पीड़न करने वाले व्यक्तियों को नहीं है। कारण कानून तो बने हैं लेकिन इनका क्रियान्वयन उचित प्रकार से जमीनी स्तर पर नहीं हो रहा है और न ही इन कानूनों की जानकारी आम जनसमुदाय और महिलाओं को है जो इन कानूनों का उचित प्रयोग कर सकें। जरूरत है कानूनों के उचित क्रियान्वयन की, व्यापक प्रचार-प्रसार की व आम महिला तक उसे पहुँचाने की।

लेकिन क्या मात्र शक्ति या दण्ड के भय से महिला उत्पीड़न के मामलों में कमी आ सकती है। यदि अपराधी प्रवृत्ति या विकृत मानसिकता वाले लोगों को कानून का भय होता तो हत्या जैसे अपराध समाज में होते ही नहीं, जिसके लिए हमारे कानून में आजीवन कारावास तथा मृत्युदण्ड जैसी सजा का प्रावधान है। कानून एक कारगर अस्त्र है, समाज में व्याप्त हिंसा व अपराधों को समाप्त करने का लेकिन क्या इन कानूनों का सख्ती से पालन हो रहा है या नहीं इस पर भी विचार किया जाना चाहिए।

आज जरूरत है एक ऐसे समाज की जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था, पुरुषवादी मानसिकता तथा जेण्डरगत भेदभाव से परे हो। जरूरत है महिलाओं के प्रति अपने नजरिये में बदलाव की, अपने सोच में बदलाव की। जब तक समाज में रह रहा प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह पुरुष हो या महिला, महिलाओं के प्रति अपने नजरिये में बदलाव नहीं करता तब तक महिला उत्पीड़न को जड़ से समाप्त करने की बात दिखावा व खोखली बयानबाजी मात्र है।

जरा सोचिए जिस देश की आधी आबादी ही सुरक्षित नहीं है उस देश का भविष्य क्या होगा।
How safe are women?
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