संस्मरण : स्याही की टिक्की

गीता गैरोला

माँ, जल्दी से एक स्याही की टिक्की  दे दे।’मैंने बस्ता कन्धे में लटकाया और दवात में पानी भरते हुए हड़बड़ी में बोली। माँ ने दवात का पानी गिरा दिया और स्याही से भरी बोतल से थोड़ी सी स्याही मेरी दवात में डाल दी। ‘इतनी जरा सी’मैंने पैर पटकते हुए ज्यादा स्याही की मांग करते हुए दवात मॉँ के आगे कर दी। ‘चल छोरी’माँ ने मेरे सिर में पटाक मारते हुए कहा ‘इतनी ही बहुत है। रोज स्याही गिरा देती है कल फिर दे दूँगी। जा दौड़ स्कूल के सब बच्चे चले गये।’माँ ने ढक्कन कस के बंद करते हुए दवात मेरे हाथ में थमाई और मुझे स्कूल की तरफ धकिया दिया। स्कूल जाने से पहले ये रोज की बात थी। मैं माँ से स्याही की टिकिया माँगती। वह एक टिक्की के चार टुकड़े करके एक छोटा टुकड़ा मेरी दवात में डाल देती। जिस दिन दवात में ज्यादा पानी भरा होता, स्याही फीकी हो जाती और मेरा रोना-धोना भी शुरू हो जाता।

कच्ची और पक्की एक में हम बच्चे पाटी, कलम और कमेड़े का ब्वालख्या लेकर स्कूल जाते।  रोज-सुबह उठकर तवे के पीछे लगी धुएँ की कालिख को गीला कर पाटी की पुताई करते। जब पाटी पर लगी कालिख सूख जाती, स्याही की खाली दवात के पीछे से पाटी को चमकाने के लिए घोटा लगाते।

घोटा लगाने से पाटी पर चमक आ जाती। फिर एक धागे के दोनों सिरे पकड़ कमेड़े में डुबोकर पाटी की एक तरफ अ, आ लिखने के लिए सीधी रूल (लाइन) खींचते। पाटी की दूसरी तरफ गिनती या पहाड़े लिखने के लिए चार खाने वाली रूल खींचते। स्कूल पहुँचने पर मास्टर जी सब बच्चों की पाटी में रूल देख कर ही कक्षा में बिठाते। हमारे स्कूल में छोटे बच्चों के बैठने के लिए चटाई नहीं थी। इसलिए हम पक्की एक तक पाटी-बौलखे (दवात) के साथ जमीन पर बैठने के लिए एक बोरा भी ले जाते। स्कूल पहुँचकर सब बच्चे लाइन में खड़े हो कर प्रार्थना गाते-दया कर दान भक्ति का हमें परमात्मा देना, दया देना हमारी आत्मा को शुद्धता देना।

प्रार्थना के बाद दो बच्चे बाल्टी उठाकर पानी लाने जाते। पानी लाने की बारी लगी होती। दो बच्चे सारी कक्षाओं में झाडू लगाते। बाकी बच्चे स्कूल के ग्राउन्ड में गिरे कागज, पत्थर उठा कर सफाई करते।

सभी बच्चों को इन्टरवल से पहले हिन्दी और गणित पढ़ाई जाती। हमारे स्कूल में दो मास्टर जी थे। हेड मास्टर जी एक से तीन तक पढ़ाते। हेड मास्टर जी हमारी रूल खींची पाटी में हर बच्चे का हाथ पकड़ कर बाराखड़ी, वर्णमाला, गिनती और पहाड़े लिखवाते। वही गिनती, पहाड़े, बाराखड़ी सुन्दर अक्षरों में ब्लैक बोर्ड पर भी लिख देते। उसी से दिन भर पढ़ाई होती। छोटे मास्टर जी चौथी, पाँचवीं कक्षा को पढ़ाते। हैड मास्टर जी कहते, छोटे बच्चों को पढ़ाना मकान की नींव पक्की करने जैसा होता है। बच्चों का लेख और उच्चारण एकदम सही होना चाहिए। इसलिए छोटे बच्चों को पढ़ाना कठिन काम है। बच्चों की नींव पक्की करना मेरी जिम्मेदारी है।

दूसरी क्लास से कापी में स्याही से लिखवाना शुरू होता। स्कूल की छुट्टी होने तक मेरा बस्ता किताबें-कापी-हाथ मुँह सब स्याही से नीले हो जाते। अंगूठा, तर्जनी और मध्यमा की स्याही तो बार-बार धोने के बाद भी नहीं छूट पाती।

दादा जी रोज रिंगाल की कलम बनाते। कापी-किताबों की जिल्द ठीक करते और मैं रोज कुछ न कुछ गड़बड़ कर देती। मुझे यह बात समझ में नहीं आती थी कि पढ़ाई से सम्बंधित सारी चीजें दादा जी के पास रहती हैं। बस एक मात्र स्याही की शीशी माँ के पास क्यों रहती है। खूब सारी स्याही की टिकिया पीस कर माँ एक बोतल में पानी भर कर पिसी स्याही उसमें घोल देती। स्याही की बोतल वह बहुत छिपा कर रखती।
Memoir: Ink Tikki

स्याही की एक छोटी दवात दादा जी के कलमदान में रखी रहती। कभी-कभी मैं दादा जी के कलमदान वाली दवात की स्याही चुरा लेती और दवात में पानी भर देती।

दादा जी के पास सारे गाँव के लोग चिट्ठी लिखवाने आते थे। वे चिट्ठी लिखने के लिए दवात में होल्डर डुबोते और फीकी स्याही मिलते ही मेरी चोरी पकड़ी जाती। कभी मैं दादा जी के होल्डर की निब चुरा लेती। जब निब टूट जाती, टूटी निब वाला होल्डर चुपके से दादा जी के कलमदान में लगा देती।

इस तरह की चोरियां मैं ही करती। दीदी को चोरी करने की कभी जरूरत ही नहीं हुई। वह कलम या होल्डर से लिखती। पिताजी, चाचाजी हमेशा उसके लिए रंग बिरंगे फाउन्टेन पैन लेकर आते। फाउन्टेन पेन के पीछे से या निब वाला सिरा खोल कर दीदी उसमें खूब सारी स्याही भर देती और उसी से स्कूल में लिखने का काम करती। उसे स्याही की दवात ले जाने की जरूरत नहीं पड़ती। उसके पास रंग, डिब्बा, कूंची, रंग बिरंगी पेन्सिल और रबर भी रहते। दीदी के लिए पिताजी पेन्सिल पैन रखने के लिए एक लाल रंग का डिब्बा, दोनों कन्धों पर लटकाने वाला बस्ता भी लाये। दीदी शान से अपनी नई-नई चीजों से सब बच्चों को ललचाती और बस्ता टांगकर स्कूल जाती। मैं बेचारी एक थैले का बस्ता लेकर जाती। जब दीदी के लिए नई चीज आ जाती तभी पुरानी वाली मुझे मिलती। दीदी के सूट, जूते, कोट, चुन्नी देख कर मुझे बहुत लालच लगता। जब भी मौका मिलता मैं चुपके से दीदी की चीजों को छू लेती या पहन लेती। अगर दीदी को पता नहीं लगा तो सब ठीक रहता पर जाने कैसे उसे पता लग ही जाता और फिर मेरी खूब धुनाई होती। मैं भी उसकी चीजों को तोड़ने का लालच कभी नहीं छोड़ती। वह मारती जाती और मै उसे गाली देती जाती।

छोटे भाई-बहनों को अपनी अच्छी-अच्छी चीजों के दिखाकर ललचाने में उसे बहुत मजा आता। उसे मजा तो हम सब भाई-बहनों को ठोकने में भी खूब आता ही था। वह सबसे बड़ी बेटी सबकी लाडली थी, उसके लिए सब माफ होता।

माँ हमसे स्याही की बोतल छिपा कर क्यों रखती थी, इसका राज थोड़े दिन बाद ही मुझे पता चल गया। हमारे परिवार में एक फूफू की शादी हुई। उनके दूल्हा दिल्ली में नौकरी करते थे। पता नहीं, क्या सोच कर एक दिन फूफू ने मुझे चुपके से कलम-दवात और एक कागज लेकर बुलाया। और अपने नवेले दूल्हे के लिए चिट्ठी लिखवाने लगी। मुझे तब तक केवल छुट्टी का प्रार्थना पत्र और पिता के लिए पत्र लिखना ही आता था। समझ में नहीं आया कि फूफू की तरफ से उसके दूल्हा के लिए क्या लिखना चाहिए। जब मास्टर जी ने पिता को पत्र लिखना सिखाया तो आदरणीय पिताजी सादर चरण स्पर्श लिखवाया था।

मैंने फूफू से पूछा, क्या लिखूँ? बेचारी थोड़ा शर्माते हुए बोली, आदरणीय प्राणनाथ, सादर चरण स्पर्श लिख दे। फूफू बोलती गई और मैं लिखती गई। अंत में तुम्हारी बहुत याद आती है, जल्दी आकर मुझे भी अपने साथ दिल्ली ले जाओ भी लिखवाया। फूफू की लिखवाई चिट्ठी दूसरे ही दिन कनबतियों में सारी जवान-बूढ़ी महिलाओं तक पहुँच गई। बेचारी फूफू इतना शर्माई कि मुझसे दुबारा चिट्ठी लिखवाने की हिम्मत नहीं कर पाई। फूफू क्या किसी की भी मुझसे चिट्ठी लिखवाने, पढ़वाने की हिम्मत नहीं हुई। सबसे जादा चर्चा तो अपने साथ दिल्ली ले जाने वाली बात की रही। फूफू उस गाँव की बेटी थी इसलिए सबने चुपचाप ‘‘दिल्ली ले जाओ” लिखवाना सहन कर लिया।
Memoir: Ink Tikki

असली बात गाँव की ब्वारियों की थी। बहुएं भी चिट्ठी लिखवा कर बेटों को बहका रही होंगी, यही डर हर बेटे की माँ और हर सास के दिल में हौल मचाने लगा।

उस समय हमारे गाँव में मेरी माँ ही एक मात्र पढ़ी-लिखी, कहानी-उपन्यास पढ़ने वाली ब्वारी थी। इतनी पढ़ी-लिखी ब्वारी और 20-20 पूले घास और सबसे बड़ा लकड़ी का गट्ठर काटकर लाती है।

इस बात पर दादी, दादा जी को बहुत गर्व होता। दादाजी कहते, पढ़ाई-लिखाई व्यक्ति को विनीत करती हैं। हमारी ब्वारी इसका उदाहरण है। पिताजी दादाजी के अलावा माँ के नाम से अलग चिट्ठी लिखते। माँ के नाम से जो भी चिट्ठी आती, दादा जी बिना खोले माँ को पकड़ा देते। उस जमाने में पोस्ट मैन आस-पास के गाँवों में भी इस बात की बड़ी चर्चा करता कि दरोगा जी की बहू के नाम से चिट्ठियां आती हैं।

माँ नाना जी की भेजी चिट्ठी दादी को पढ़ कर सुना देती। पिताजी जो भी चिट्ठी लिखते, उसे भी दादी को पढ़ कर जरूर सुनाती। पर वही सुनाती जो दादी के लिए लिखा होता।

दादी कई बार हमसे कहती ‘बबा, तेरी माँ ने मुझे तो जरा सा सुनाया पर चिठ्ठी तो पूरी भरी हुई थी। इस बात पर दादी हमेशा दादाजी की डाँट खाती। ‘चुप रह बेवकूफ, ब्वारी तुझे उतना ही सुनायेगी ना जितना बेटे ने तेरे लिए लिखा होगा। जवान बच्चे हैं, इतना भी नहीं समझती।’ ठन्डी सांस छोड़ती दादी बडे़ सुर में कहती, ‘पता नी, ये नये जमाने की नई बातें।’दादी को शायद यह डर सताता होगा कि ब्वारी चिट्ठी में पता नई क्या-क्या लिख कर मेरे बेटे को बहका ना दे। दादा जी उसकी ठण्डी सांस के साथ ‘पत्ता नी रे’बोलने का अर्थ खूब समझते थे। वे हमेशा माँ की तरफदारी करते। जब भी दादाजी पेंशन लेने पौड़ी जाते, माँ के लिए ‘सरिता’तथा नई कहानियाँ पत्रिकायें लाते। दादी को माँ का कहानी-उपन्यास पढ़ना भी बहुत रास नहीं आता। पर माँ को तो बिना पढ़े नींद ही नहीं आती। दिन भर काम पीटने के बाद भी वह जरूर पढ़ती। दादी अक्सर माँ से कहती, ब्वारी चिमनी के उजाले में मत पढ़ा कर। आँखे खराब हो जायेंगी।’कैसे बोलती कि तेरा पढ़ना मुझे अच्छा नहीं लगता। कामकाजी मेहनती ब्वारी कभी किसी तरह शिकायत का मौका जो नहीं देती थी। कभी-कभी माँ दादी को अपनी पढ़ी हुई कहानी सुनाती। उस जमाने में ‘सरिता’में छपी कहानी ‘चांद की मौत’जो माँ ने दादी को सुनाई थी मुझे अभी तक याद है। ‘माया’पत्रिका में छपी शिवानी की कहानी ‘तोप’भी मैंने माँ के मुँह से सुनी थी।

माँ के पास हमारे खोले (मौहल्ला) की सभी बहुएं चिट्ठी लिखवाने आतीं। बहुत सारी देवरानी-जिठानियों की प्रेम-पाती शायद माँ के नाम से आती थी। अपनी प्रेयसियों के नाम से बेचारे नवोढ़े पति चिट्ठी लिख नहीं सकते थे। वे प्रेम से लबालब भरी पाती पढ़ कहाँ पाती थीं। जिसे पढ़ना आये, उसे पत्र लिखने का कारण नहीं बनता।
Memoir: Ink Tikki

सबसे विश्वसनीय सखी माँ हीं थी सबकी। वहीं सबके प्रेम संदेश की पोटली शब्दों में बांधकर भेजती परदेश। उसी के पास सुरक्षित संदेश वापिस आते। पहाड़ी कामों के बोझ से दबी-थकी, परिवार के बड़े-बूढों के ताने-उलाहने सहती नवेली प्रेमिकायें शिकायत भी तो करती ही होंगी। पति को अपने साथ ‘देश’ले जाने की मिन्नतें भी होती होंगी। ननद-सास की शिकायतें किससे करती। साबुन, तेल, धोती, जम्फर की फरमाइश करने की दो ही जगह थीं- मायका या प्रियतम। बदलते मौसमों में खुदेड़ (विरह) गीतों की तानें भेजने का एक ही माध्यम थी चिठ्ठी।

सबकी चिट्ठियाँ लिखने वाली। मेरी माँ सबकी पक्की सहेली थी। तभी तो अपने मायके से सारी बहुएं माँं के लिए अलग से ‘कल्यौ’की सौगात लातीं। मालू के पत्तों से लिपटी, भिमल के रेशे से बांध कर लाई पूरियाँ, उड़द की पकोड़ियां और अर्से।

प्यार और लगाव जताने का ये अपना ही तरीका। जब भी कोई माँ की ‘सखी’अपने पति के साथ ‘देश’जाती, सब उसे आधे रास्ते तक छोड़ने जातीं। अक्टूबर से मार्च तक पहाड़ों में खेती का काम नहीं रहता। इन दिनों अधिकांश नई बहुएं अपने मायके जातीं। इन्हीं खाली दिनों में कुछ भाग्यशाली बहुओं को उनके सास-ससुर बेटे के पास भेज देते। अधिकांश बहुएँ मार्च के आखिर तक गाँव लौट आतीं, यही उनका मधुमास होता।

माँ से चिट्ठी लिखवाने का सिलसिला सासों को कतई नापसंद होता। जाने ब्वारी चिट्ठी में हमारे खिलाफ क्या-क्या लिखवा रही है। यही डर सताता रहता। दादी से कई बार शिकायतें होतीं। दादी भी उनकी हाँ में हाँ मिलाकर अपने दिल के डर को कम कर लेती। उस गाँव में केवल मेरी माँ के नाम से चिट्ठी आना एक बड़ी बदनामी का सबब था। उस जमाने में औरतों के नाम से चिट्ठी लिखने की ना तो, परम्परा थी और ना ही लोगों में साहस था। चिट्ठीरसान (पोस्टमैन) पता नहीं, आस-पास के कितने गाँवों में चिट्ठियाँ  बाँटता था। जिस गाँव में पोस्टमैन जाता उस गाँव में चिट्ठी वाली औरत की बदनामी भी पहुँच जाती। औरतों के नाम से कौन चिट्ठी लिखता। ना तो उन्हें चिट्ठी पढ़नी आती और ना ही किसी को अपनी घरवाली के नाम से चिट्ठी भेजने की हिम्मत होती।

चिट्ठी आती घर के बड़े बूढ़ों के नाम से। घर के बड़े भी इस बात को कहां सहन कर पाते कि बहुओं के नाम से चिट्ठी आये। जब नाम की जरूरत ही नहीं पड़ती तो वे अपना नाम ही भूल जातीं। वे तो केवल उस गाँव की बहुएँ होती। वैसे भी चिट्ठी तो किसी परिवार के मुखिया के नाम आने में ही शोभा देती है।

गाँव की बेटी बहुओं की प्रेम पाती पहुँचने और उसे पहुंचाने की सबसे सुरक्षित जगह थी मेरी  माँ । इसलिए वह स्याही की दवात छिपा कर रखती। ताकि वक्त मिलते ही सखियों की पाती उनके पिया के नाम लिख सके। अपनी सखियों के लिए स्याही की टिकिया के नीले-नीले मोतियों में उनकी पीड़ा, उनका विरह, उनका प्यार, उनकी फरमाइशें, उनकी ख्वाहिशें, उनके ख्वाबों को पिरो कर वहां भेजती, जहाँ से माँ की सखियों के सपनों की तितलियों को पंख मिल जाते।
Memoir: Ink Tikki
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