आम और खास का फर्क करते लोग

 जगमोहन रौतेला

देश में पिछले लगभग एक साल में यौन हमले की दो भयावह घटनाएँ हुई हैं। दो इसलिए कि दोनों ही घटनाएँ पूरे देश में चर्चा में और बहसों का विषय बनीं। दोनों ही घटनाओं के अरोपियों को कठोर से कठोर सजा देने की माँग होती रही है। पहली घटना गत वर्ष 16 दिसम्बर 2012 को नई दिल्ली में घटी। जिसमें सामूहिक यौन हमले की शिकार हुई लड़की की 13 दिन के बाद सिंगापुर में मौत हो गयी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में यौन हमलों का शिकार होने वाली लड़कियों व महिलाओं की पहचान को सार्वजनिक करने पर रोक लगाई हुई है। जिसके तहत इन लोगों का नाम, पता, माता-पिता पति का नाम आदि सभी छुपाए जाते हैं ताकि पीड़ित लोगों को सामाजिक रूप से तानों, फिरकों आदि का सामना न करना पड़े। इसी कारण उत्तर प्रदेश के एक शहर की रहने वाली उस लड़की को निर्भया नाम दिया गया।

निर्भया के साथ 16 दिसम्बर 2012 की रात को एक चलती बस में लोगों ने जो दरिंदगी की, उससे पूरे देश में आक्रोश और गुस्से का उबाल आ गया था। लोग एक हफ्ते तक सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करते रहे और आरोपियों को कड़ी से कड़ी सजा दिए जाने की माँग करते रहे। जिनमें अधिकांश लोगों ने आरोपियों को फाँसी दिये जाने की माँग की। यौन हिंसा को लेकर आम आदमी में गुस्सा इतना तेज था कि कई मंत्रियों, राज्यपालों, सांसदों, विधायकों तक ने निर्भया के साथ यौन हिंसा करने वालों को फाँसी दिए जाने की माँग कर डाली। जबकि ये लोग जानते थे कि किसी भी अपराधी को आम लोगों की भावनाओं के आधार पर नहीं, बल्कि कानून के आधार पर अदालती कार्यवाही के बाद ही सजा दी सकती है और सजा भी न्यायाधीश बचाव व अभियोजन पक्ष दोनों की दलीलें सुनने और प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों के आधार पर सुनाते हैं। इसके बाद भी उच्च और जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों ने फाँसी से कम सजा न दिए जाने की माँग की। क्या जनदबाव के आगे इन लोगों का ऐसी माँग किया जाना न्यायोचित था? इस पर तब भी बहस हुई थी, आगे भी बहस होती रहेगी।

उस जन दबाव के कारण सरकार को यौन हिंसा के कानून में बदलाव के लिए बाध्य होना पड़ा और उसे पहले से ज्यादा सख्त बनाया गया। साथ ही निर्भया के केस को फास्ट ट्रैक के हवाले कर दिया गया। जिससे मात्र 9 महीने में सुनवाई पूरी कर आरोपियों को फाँसी की सजा सुनाई गई। केवल एक नाबालिग आरोपी को 3 साल की सजा किशोर न्यायालय द्वारा सुनाई गई। ऐसे में नाबालिगों की उम्र को लेकर भी एक जबर्दस्त बहस पूरे देश में हुई।  कई लोगों का मानना था कि नाबालिग मानने की उम्र 18 से घटाकर 16 कर देनी चाहिए। इस मामले में सरकार ने नाबालिगों की उम्र सीमा घटाने से इंकार कर दिया। इस पर भी अभी बहस पूरे देश में जारी है। यौन हिंसा के नए कानून में जो एक सबसे प्रभावशाली बदलाव किया गया, वह यह है कि इस तरह की घटनाओं मेंं पीड़ित महिला घटना स्थल से सम्बन्धित चौकी/थाने में ही नहीं बल्कि देश के किसी भी थाने में अपनी प्राथमिक रिपोर्ट दर्ज करवा सकती है।

निर्भया काण्ड के बाद लगा कि अब  इस देश का आम आदमी महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को सहन नहीं करेगा और हर पीड़ित महिला के साथ इसी तरह खड़ा होगा जैसा वह निर्भया और उसके परिवार वालों के साथ खड़ा था। पर क्या ऐसा हुआ? क्या हर निर्भया को साहस और हिम्मत देने के लिए लाखों हाथ खड़े हुए? शायद नहीं।

ठीक निर्भया काण्ड की तरह या कहें उससे भी ज्यादा शर्मनाक और भयानक घटना 21 अगस्त 2013 को सामने आई। जब विवादित और कथित धर्मगुरु आसाराम बापू के खिलाफ शाहजहाँपुर (उत्तर प्रदेश) निवासी एक 16 वर्षीय किशोरी ने दिल्ली के कमला मार्केट थाने में दुराचार की रिपोर्ट दर्ज करवाई। किशोरी ने रिपोर्ट में कहा कि वह आसाराम के छिन्दवाड़ा (मध्यप्रदेश) स्थित गुरुकुल में पढ़ती थी। वह एक बार वहाँ बीमार हुई तो गुरुकुल के संचालकों ने उसे कथित तौर पर भूत-प्रेत से ग्रसित होने की बात बताई और कहा कि इससे छुटकारा केवल आसाराम बापू ही दिलवा सकते हैं। इसके लिए उसे जोधपुर (राजस्थान) स्थित आश्रम जाना होगा। वह अपने माता-पिता के साथ 13 अगस्त 2013 को जोधपुर आश्रम पहुँची। जहाँ तथाकथित भूत भगाने वाली साधना के नाम पर आसाराम बापू ने उसे अलग कमरे में बुलाया और वहाँ 15 अगस्त 2013 की रात को उससे दुष्कर्म किया। साथ ही बालिका को धमकी भी दी कि यदि उसने किसी को कुछ बताया तो उसे व उसके माँ-बाप की हत्या करवा दी जाएगी। घबराई लड़की उस दिन तो चुप रही लेकिन घर लौटने पर 17 अगस्त 2013 को उसने माँ बाप को सारी कथा सुनाई। उसके बाद उसके माँ-बाप ने अरबों की सम्पत्ति के मालिक और पूरी दुनिया में एक करोड़ से ज्यादा कथित भक्त होने का दावा करने वाले व राजनैतिक दबदबा रखने वाले आसाराम के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाने का फैसला किया। उससे पहले पीड़ित लड़की के परिजनों ने 20 अगस्त 2013 को आसाराम से दिल्ली में मुलाकात की कोशिश की, जहाँ वे अपने कथित प्रवचनों को लोगों को सुनाने पहुँचे थे। जब आसाराम ने मिलने से इंकार किया तो पीड़ित लड़की ने 21 अगस्त 2013 को दिल्ली में दुष्कर्म की रिपोर्ट दर्ज करवाई।
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इसके बाद शुरू हुआ आसाराम और पुलिस प्रशासन का ड्रामा। आसाराम ने तो खुद को निर्दोष बताया ही, उनके सैकड़ों भक्त, जिनमें महिलाएँ भी थीं, आसाराम के पक्ष में खड़ी हो गई और पीड़ित लड़की के परिवार पर ब्लैकमेल करने के आरोप तक लगाए गए। चूँकि घटना जोधपुर की थी इसलिए दिल्ली पुलिस ने मामले को जोधपुर पुलिस को भेज दिया। इस तरह के मामलों में सामान्य तौर पर पुलिस जहाँ आरोपी की शीघ्र गिरफ्तारी करती है, वहीं आसाराम के राजनैतिक और धार्मिक रुतबे को देखते हुए पुलिस ने पहले पूछताछ के लिए आसाराम को नोटिस भेजने व आरोपों की जाँच करने की बात कही और कहा कि यदि आरोपों में सच्चाई मिली तब ही आसाराम की गिरफ्तारी की जाएगी। यह था कानून के रखवालों का आम और खास का फर्क। पुलिस के इसी लचर रवैये का फायदा आसाराम ने उठाया और 11 दिन तक लुकाछिपी का खेल खेलते रहे। यह तो अच्छा हो मीडिया का, विशेषकर इलैक्ट्रानिक मीडिया, जिसने आसाराम के खिलाफ एक दबाव बनाया, जिससे राजस्थान के पुलिस व प्रशासन पर दबाव बना और उसी दबाव की बदौलत ही पुलिस को अन्तत: आसाराम को गिरफ्तार करना पड़ा। राजस्थान पुलिस ने 31 अगस्त 2013 को आसाराम को इन्दौर के उनके आश्रम से गिरफ्तार किया। इन 11 दिनों तक आसाराम एक तरह से कानून का मजाक उड़ाते नजर आए। इस सबके बीच सबसे अफसोसजनक पहलू यह रहा कि अनेक स्वनामधन्य लोग आसाराम के समर्थन में खड़े नजर आए। एक महिला होने के बाद भी मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने आसाराम को एक तरह से बेदाग बताने की कोशिश की। उमा बोली, ‘आसाराम ऐसा कृत्य नहीं कर सकते।’आश्रम से जुड़ी महिलाएँ तो खुले तौर पर इसे आसाराम के खिलाफ एक षड्यंत्र बता रही थीं। इन महिलाओं का कहना था कि आसाराम तो साक्षात् भगवान हैं, वे भला ऐसा कुकृत्य क्यों करेंगे? इन महिलाओं को नाबालिग बालिका की पीड़ा नहीं दिखाई दे रही थी। आसाराम की एक प्रमुख शिष्या पूजा बेन ने भी गिरफ्तारी से पहले पीड़ित लड़की के परिवार वालों से मुलाकात कर बापू के खिलाफ दर्ज रिपोर्ट को वापस लेने की प्रार्थना की और कहा कि आगे सब कुछ अच्छा ही अच्छा होगा। क्योंकि बापू बहुत दयालु हैं। लेकिन परिवार पूजा की भावुक बातों में नहीं आया।

आसाराम की गिरफ्तारी को लेकर राजस्थान पुलिस ने जो बेहद लचर रवैया दिखाया, वह निंदनीय होने के साथ-साथ भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 157 (1) का भी खुला उल्लंघन था, जिसके तहत पुलिस को आरोपी की गिरफ्तारी का पूरा अधिकार मिला हुआ है ताकि आरोपी बाहर रहकर सबूतों के साथ छेड़छाड़ न कर पाए, लेकिन पुलिस ने आसाराम को 11 दिन तक गिरफ्तार न कर सबूतों को मिटाने का एक तरह से पूरा मौका दिया। साथ ही धारा 160 के तहत पुलिस ने आसाराम को जो नोटिस दिया वह भी हास्यास्पद था क्योंकि इस तरह का नोटिस आरोपी को नहीं, बल्कि गवाहों को दिया जाता है ताकि वह पुलिस के सामने उपस्थित होकर अपने बयान दर्ज करवा सकें। क्या राजस्थान पुलिस का यह रवैया आम और खास में फर्क को नहीं दर्शाता? पुलिस प्रशासन के इसी तरह के कारनामों के कारण ही एक ही तरह के अपराधों में जहाँ आम आदमी कई सालों तक जेल में बिना जमानत के पड़े रहते हैं, वहीं खास आदमी पहले तो गिरफ्तार ही नहीं हो पाता और यदि गिरफ्तार हो भी गया तो जल्द ही जमानत में बाहर भी आ जाता है। उसके बाद बड़े-बड़े वकीलों को मोटी फीस देकर ज्यादातर मामलों में सजा से बच जाता है।

16 दिसम्बर 2012 के दिल्ली काण्ड में जिस तरह पूरा देश विशेषकर महिला समाज, खुलकर सड़कों पर उतरा था और जिस तरह उसने आरोपियों को कड़ी से कड़ी सजा देने की माँग की, वैसा आसाराम के मामले में क्यों नहीं हुआ? महिला समाज और महिला संगठनों ने एक तरह से खतरनाक चुप्पी आसाराम के मामले में क्यों साधी? ये लोग उसी आक्रोश के साथ आसाराम के खिलाफ सड़कों पर क्यों नहीं आए, जैसे दिल्ली काण्ड में आए थे? क्या यह आम और खास का फर्क  नहीं है? जबकि दिल्ली काण्ड से ज्यादा शर्मनाक और घिनौना है आसाराम का कृत्य। कथित तौर पर धर्मगुरु होने और बाप-दादाओं की उम्र (74 साल) का होने के कारण आसाराम का जुर्म क्या ज्यादा गंभीर नहीं है? जाँच के बाद  जो बातें सामने आई उससे यह आशंका पैदा हुई है कि आसाराम गत कई वर्षों से किशोर उम्र की लड़कियों का यौन शोषण अपने आश्रम में कर रहे थे। जिन्हें डरा-धमकाकर  चुप करा दिया जाता था। आशंका है कि ऐसी ही पीड़ित तीन दर्जन से ज्यादा किशोरियों ने आसाराम के विभिन्न आश्रमों में आत्महत्या कर ली थी और एक हजार से ज्यादा लड़कियों ने आसाराम के गुरुकुलों से अपनी पढ़ाई छोड़ दी।

आसाराम के एक पूर्व घनिष्ठ सहयोगी अमृत भाई प्रजापति ने तो उन पर एक हजार से ज्यादा लड़कियों के साथ दुष्कर्म का आरोप लगाया है। क्या इन सब आरोपों की जाँच नहीं की जानी चाहिए? यौन अपराधों में आसाराम ही नहीं बल्कि उनका पुत्र नारायण साई भी शामिल है। गत 6 अक्टूबर 2013 को सूरत की दो बहनों ने पिता-पुत्र पर कई सालों तक अपने विभिन्न आश्रमों में दुष्कर्म का आरोप लगाया। आसाराम ने बड़ी बहन और नारायण साई ने छोटी बहन का यौन शोषण किया। रिपोर्ट दर्ज किए जाने के 40 दिन (14 नवम्बर 2013 तक) बाद भी पुलिस नारायण साई को गिरफ्तार नहीं कर पाई थी, या कहें कि गिरफ्तार नहीं करना चाह रही थी। आखिर नारायण साईं को पुलिस इतनी छूट क्यों दे रही है? क्या इस दौरान वह गवाहों और पीड़ितों को डराने-धमकाने या प्रलोभन देने का प्रयास नहीं करेगा? क्या वह साक्ष्यों को मिटाने का भी प्रयास नहीं कर रहा होगा?

आसाराम दुष्कर्म के आरोप में जेल जाने से पहले भी महिलाओं के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी करते रहे हैं। दिल्ली काण्ड में उन्होंने पीड़ित लड़की को भी सामूहिक दुराचार के लिए जिम्मेदार बताया था। आसाराम ने कहा कि यदि पीड़ित लड़की ने आरोपियों को ‘भाई’कहकर उसे छोड़ देने को कहा होता तो शायद उसके साथ सामूहिक दुराचार नहीं होता। उसी दौरान आसाराम ने बलात्कार के कानून को और कड़ा करने की भी निन्दा की थी और कहा था कि इसका दुरुपयोग पुरुषों के खिलाफ होगा? क्या उस समय आसाराम के अंदर का डर भविष्य की आशंका में बाहर आ रहा था? दिल्ली काण्ड की सुनवाई को फास्ट ट्रैक कोर्ट के हवाले किया गया और उसने रिकार्ड दस महीने में आरोपियों को सजा भी सुना दी। क्या आसाराम और उसके पुत्र नारायण साईं के मामले को भी फास्ट ट्रैक कोर्ट के हवाले नहीं किया जाना चाहिए? क्या महिला और दूसरे संगठनों को इस तरह के हर मामले में खुलकर सामने नहीं आना चाहिए? क्या आम आदमी भी ताकतवरों की तरह आम और खास का फर्क करता है?
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