कविताएं : बेटियाँ

ललित मोहन राठौर ‘शौर्य’

1

बेटियाँ मुश्किल में हैं
घर और बाहर
दोनों जगह
बेटियाँ महफूज
नहीं गर्भ में
क्या कोई
ऐसी जगह है
जहाँ
उड़ सकें बेटियाँ
पढ़ सकें बेटियाँ
बढ़ सकें बेटियाँ
हवाओं से बातें करें
सपनों में रंग भरें
बड़ी उत्सुकता से
चुपचाप कानों में
फुसफुसाती हैं बेटियाँ
अपने लिए जमीं
और आसमां
तलाशती हैं बेटियाँ…….

2

बेटियाँ आ रही हैं
एवरेस्ट जीतने
चाँद को छूने
पंख लगाने
कल्पनाओं को…..
बेटियाँ कमतर नहीं
किसी से भी
उनमें है साहस
सीमाओं की सुरक्षा का
जज्बा है देश
चलाने का
देखो बेटियाँ
बन रही हैं
बचेन्द्री पाल, सुनीता विलियम्स
सुषमा स्वराज…….
बच्चियाँ
शोभा रावत
लुका छिपी खेलतीं
चहकतीं हुई, घर आँगन को
Poems: Daughters
महकाती हुर्ईं
न जाने कब
बेल बनती हुर्ईं
लगती हैं अखरने
घरवालों को।
उसकी बढ़ती हुई उम्र,
चिन्ता बनती हुई
कचोटने लगती है माँ-बाप को।
अपनी बिटिया को
फुदकने देते हैं खूब
मन के किसी तहखाने में।
सच को छिपाकर
नकारते हुए
ढोंग चिन्ता न करने का कि
जवान होती बिटिया की
खिलखिलाहट
जो महकाती घर-आँगन
क्या महकती रहेगी आँगन के उस पार भी ?

लिखो बेटी   

कमल जोशी


लिखने के लिए जरूरी नहीं
कलम और कागज़
तुम लिख सकती हो
कील से खुरच कर
दीवार पर भी़
उंगली से लिखो मिट्टी में
बारिश चाहे कितनी ही बार धोए
तुम लिखना बार बाऱ
तुम पढ़ रही हो
जिन्दगी की किताब,
प्रश्न तुम्हें पूछने हैं
और उत्तर भी तुम्हें ही लिखने हैं
लिखो बेटी
कलम न सही
ढूंढो एक कील
समय की खुरदुरी दीवार पर लिखने के लिए
अपने सवाल
और जवाब भी़
और हो सके तो लिख डालो
कुछ तराने भी़……!
Poems: Daughters

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