माया गोला की दो कविताएँ

बेटियाँ

बेटियाँ कहीं की भी हों
एक जैसी ही होती हैं
प्यारी सी…..
हठीली सी…..
सजीली सी……
शर्मीली सी……
अपने घर से बहुत प्यार होता है उन्हें
अपनी तरह ही
सुन्दर रखना चाहती हैं
घर को भी
उनके गुस्सा होने से
सिकुड़ जाती है माँ की दुनिया
और पिता
हो जाते हैं खुद से ही ख़फा
भीड़ में जब
आगे निकल जाती हैं बेटियाँ
तो बढ़ जाती है
पिता के सीने की चौड़ाई
और
माँ को हो जाता है
खुद के होने का विश्वास
बचपन के छुपा-छुपाई के खेल में
जब माँ के डाँटने के बावजूद
मूँद लेती हैं पिता की आँखें
अपनी नाजुक अंगुलियों से
और जब
वही नाजुक-सी अंगुलियों वाली बेटियाँ
पिता की काँपती अंगुलियों के लिए
मजबूत लाठी बनने की इच्छा लिए
होती हैं विदा
डोली में
पिता के घर से
तब
फटती है पिता की छाती
और
दरिया हो जाती हैं
माँ की आँखें……

पहाड़ पर स्त्री

रोज देखती हूँ उसे
मुझे नहीं मालूम उसका नाम
और
उसे मेरा
रोज सुबह
जब धूप में खड़े हो
मैं पी रही होती हूँ
अदरक वाली चाय
तभी
मेरे कमरे के सामने वाली सड़क से
गुजरती है वो
हाथ में दरांती लिए
सर से बाँधे हुए कपड़ा
रोज देखती हूँ मैं उसे
और
वो मुझे
हमारी आँखें
खूब पहचानने लगी हैं एक-दूसरे को….
जब लौटती है वो
बड़ा-सा घास का गट्ठर
होता है उसके सिर पर
हरी वजनी घास से
जमीन में धँसने-से लगते हैं उसके पाँव
आँचल को कमर में बाँधे रखती है कसकर
शायद
कमरदर्द से निजात मिलती होगी उसे
ये तो
उसकी थकाऊ दिनचर्या का एक हिस्सा भर है
इसके बाद
निपटाती है वो गृहस्थी के काम
सीढ़ीदार खेतों में करती है खूब काम
पूरे घर की धमनियों में
वही करती है रक्त संचार
फिर भी
कितनी नगण्य है उसकी स्थिति!!
और तो और
मेहनत-मजूरी करती भी दिख जाती है
वो मुझे अक्सर
नुक्कड़ पर जो मकान बन रहा है
उसके लिए पत्थर ढोते हुए
कई बार देखा है मैंने उसे
बितना भर तो है उसका शरीर
फिर कैसे कर लेती है
वो इतना काम
जबकि उसका निठल्ला शराबी पति
अक्सर पीटता है उसे
फिर भी
हर रोज जब गुजरती है
वो मेरे कमरे के सामने वाली सड़क से
जब देखती हूँ मैं उसे
और
वो मुझे
तो एक मुस्कान उतरती है उसकी आँखों में…..
उसकी हमजात हूँ मैं
इसलिए जानती हूँ मैं
कि
कभी खूब बरसती होंगी
उसकी ये आँखें
अकेले में…..


स्त्री कहीं मेरे भीतर….

ललित शौर्य

लिखती है कलम
स्त्री होने का दर्द
उसकी अथाह पीड़ा
जो बढ़ रही है
सदियों से हिमालय की तरह
जिसकी आँखें
सूखती जा रही हैं
नर्मदा बनकर
जो बढ़ रही है
रेगिस्तान होने की ओर
उसका स्त्री होना
शायद उसे भी अखरता होगा
तब
जब समाज में छिपे भेड़िये
उसकी अस्मिता से खेलते हैं
बलात्कार किसी एक स्त्री का नहीं होता
पूरी नारी जाति का होता है
मैं नहीं हूँ स्त्री
पर फिर भी
शायद
स्त्री मेरे भीतर डोलती है
अपनी व्यथा बोलती है….

उत्सव

अंजना बख्शी

औरतें
मनाती हैं उत्सव
दीवाली होली और छठ का,
करती हैं घर भर में रोशनी
और बिखेर देती हैं कई रंगों में रंगी
खुशियों की मुस्कान
फिर सूर्य देव से करती हैं
कामना पुत्र की लम्बी
आयु के लिए
औरतें,
मुस्कराती हैं
सास के ताने सुनकर
पति की डाँट खाकर
और पड़ोसियों के उल्लहनों
में भी।
औरतें,
अपनी गोल-गोल
आँखों में छिपा लेती हैं
दर्द के आँसू,
हृदय में तारों-सी वेदना
और जिस्म पर पड़े
निशानों की लकीरें!!
औरतें,
बना लेती हैं
अपने को गाय सा
बँध जाने किसी खूटे से
औरतें,
मनाती हैं उत्सव
मुहर्रम का हर रोज;
खाकर कोड़े
जीवन में अपने।
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