समाज ही बनाता है पुरुष को हिंसक
जया पाण्डे
बलात्कार वह कृत्य है, जो औरत की पहचान मिटाता है। एक महिला का जो स्वत्व है जिसे बनाने के लिए वह संघर्ष करती है, वह दूसरों के द्वारा प्यार पाने का, अपने प्रति लगाव का वह एहसास चाहती है, वह उसी क्षण समाप्त हो जाता है जब एक पुरुष उसके प्रति हिंसक होता है। यह उस पर हमला है। बलात्कार एक स्त्री को शून्य की स्थिति में ला देता है।” (साउथ अफ्रीका में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा विषयक सेमीनार के निष्कर्ष के कुछ बिन्दु, द हिन्दू 13 मार्च 2013)
पैदा होते ही जब एक शिशु जन्म लेता है, तभी से उसकी जीवन यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। इस धरती पर कदम रखते ही जो उसे पहला एहसास होगा, उसका असर जीवन पर्यन्त रहता होगा। इस धरती पर पहले कदम का एहसास ही बेटा और बेटी में भिन्न-भिन्न रहता है। अधिकतर माएँ पुत्र के रूप में ही विशेष रूप से पहला बच्चा चाहती हैं। क्योंकि कहीं न कहीं समाज की पितृसत्तात्मक मान्यताओं से वे घिरी रहती हैं। सोचो, अगर वह पहला बच्चा लड़की हो तो वह माँ कैसी प्रतिक्रिया करेगी। यह प्रतिक्रिया या माँ के भीतर एक असुरक्षा का भाव उस शिशु को उठाने, प्यार करने, पालन करने में जरूर आयेगा। बेटे के पैदा होने का जो सुरक्षित अहसास माँ को होता है, उसी से लड़का-लड़की का इस धरती का पहला परिचय ही अलग-अलग या पक्षपातपूर्ण हो जाता है। लड़के का जन्मोत्सव जिस धूमधाम से मनाया जाता है, लड़की का वैसा नहीं मनाया जाता। टी.वी. देखते-देखते एक बार मेरे बेटे ने मुझसे प्रश्न किया कि माँ क्या पश्चिम में भी लड़की के पैदा होने पर उत्सव नहीं मनाया जाता होगा? इससे प्रश्न में छुपे गहरे अन्याय को समझा जा सकता है। यहीं से स्थिति एक के लिए विशेषाधिकार की और दूसरे के लिए दोयम दर्जे की हो जाती है।
यह सिलसिला लगातार चलता रहता है। मध्यमवर्गीय परिवारों में जहाँ माँ शिक्षित है तथा जिसने समानता और स्वतंत्रता के महत्व को पहचाना है, आगे के जीवन में बेटियों के लिए पक्षपात नहीं होने देती। लेकिन अधिकतर परिवारों में खाने से लेकर शिक्षा तक हर जगह पक्षपात ही पक्षपात है। दूध है तो पहले लड़के को मिलेगा, बर्थडे है लड़के का ही मनेगा, शिक्षा के लिए बाहर भेजना है तो लड़का ही पहले जायेगा। क्या वे स्थितियाँ लड़के में ये भाव नहीं भरेंगी कि लड़कियाँ कमतर हैं। ये ही स्थितियाँ लड़के को हिंसक बनाती हैं। ऐसी स्थिति में जहाँ सभी लड़कियाँ कमतर हैं, फर्क नहीं पड़ता पर जहाँ कुछ माँ-बाप हिम्मत करके आगे लड़कियाँ को लायक बना रहे हैं, सारी आजादी दे रहे हैं वहाँ पर दिक्कत आती है। जब विशेषाधिकार पाये इन लड़कों का सामना समान अधिकार पायी हुई, जीवन-महत्ता को समझने वाली लड़कियों से होता है, उस समय ये पचा नहीं पाते और ऐसी घटनाएँ जन्म लेती हैं, जैसे 16 दिसम्बर 2012 की रात दिल्ली में घटी। इसलिए जब तक सारी लड़कियाँ इज्जत के साथ जीने का माहौल नहीं पा लेतीं या जब तक सारे लड़के मानव-सम्वेदना के साथ जीना नहीं सीख लेते, ऐसी घटनाएँ घटित होती रहेंगी।
महिलाओं के साथ होने वाला भेदभाव सूक्ष्म है, दिखाई नहीं देता, महिलाओं को स्वयं भी एहसास नहीं होता। जैसे ‘स्वतंत्र विचरण की आजादी’ जो संविधान द्वारा प्रदत्त सात स्वतंत्रताओं में से एक है, के मायने स्त्री-पुरुष के संदर्भ में अलग-अलग हो जाते हैं। एक स्वतंत्र नागरिक को प्राप्त यह अधिकार महिलाओं के लिए कितना सीमित है। समाज में यह सीमा सहज रूप से स्वीकार्य है। लड़की जहाँ पर विरोध करती है, वह विद्रोही लगने लगती है। कभी-कभी वह स्वयं अपराधबोध से भर जाती है। ‘लड़की पराया धन है’, यह आम स्वीकारोक्ति है। माँ-बाप का भेदभाव इस वजह से भी होता है कि बुढ़ापे में यह हमें सहारा तो नहीं देती (हालांकि लड़का कौन सा सहारा देता है)। ‘लड़की पराया धन है’, अगर इसके पीछे सकारात्मकता भी होती तो बात बन सकती थी। लड़की को सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, घर के काम में निष्णात बनाने की कोशिश की जाती है, यह कोशिश लड़कों के साथ भी होनी चाहिए, पर नहीं होती। दोनों दो दिशाओं में काम करते हैं। एक व्यवस्था बनाने के लिए कार्यों का वर्गीकरण बुरा नहीं लगता लेकिन ये कहीं न कहीं दोनों पक्षों को कमजोर बनाता है। लड़की को विवाह के पश्चात् दूसरे घर जाना होता है, लड़का भी अपने घर में नहीं रहता, दोनों लगभग एक-सी स्थिति झेलते हैं लेकिन तैयारी अलग-अलग है। लड़की को शादी से पहले बाहर नहीं भेजा जाता, खुले माहौल में नहीं रहने दिया जाता, अकेले नहीं जाने दिया जाता, जायेगी तो साथ जायेगी। वह उसमें समाज के अन्य सदस्यों को या अपने वर्ग क लोगों को समझने की, तर्क या विवेक से काम लेने की, साहस से प्रतिकार करने की क्षमता को विकसित नहीं होने देता और जब लड़की पराये घर जाती है तो या तो वह कुंठित हो जाती है या विद्रोह कर बैठती है। अगर उसका दायरा शादी से पहले विस्तृत होता, तो उसमें हर व्यक्ति को पहचानने की क्षमता होती, और ऐसी स्थितियाँ नहीं आतीं।
Society itself makes men violent
हर लड़की पराये घर जाकर बहुत बड़ा त्याग करती है। अपनी उम्र के 25 साल उसने जो मूल्य अपनाये होते हैं, वे अचानक बदल जाते हैं। मेरे मामा के एक दोस्त कहा करते हैं, ये तो औरतें हैं जो सब को निभा लेवें। हमारे बस की ना थी दूसरी जगह जाकर रहना। ऐसी ही समझ की जरूरत है।
पौरुष और मर्दानगी ऐसे शब्द हैं जो पुरुष में आक्रामकता को अलंकृत करते हैं। समाज का अन्याय पुरुष वर्ग के लिए भी है जो उसे भावनाशून्य बनाने में सहायक है। अक्सर पिता जिस बेरहमी से लड़के को पीटते हैं, वैसी बेरहमी लड़की के प्रति नहीं दिखाते। यही बेरहमी आगे जाकर लड़के में बदले की भावना भरती है। ‘चूड़ी पहनकर बैठ जा’ शालीन लड़के के लिए यह कहा ही जाता है। आपत्ति की बात है जब कहा जाता है, ‘लड़कियों जैसे रो रहा है’, जैसे लड़कों को रोने का अधिकार नहीं। वे भावुक नहीं होने चाहिए। अपनी भावनाओं को बाहर निकालने का रास्ता सभी को चाहिए और पुरुषों का रोना भी स्वाभाविक लगना चाहिए। जैविक दृष्टि से इतना अंतर नहीं हो सकता कि सुख-दुख, लाभ-हानि स्त्री-पुरुष को अलग-अलग तरीके से प्रभावित करते हों।
रीति-रिवाज भी स्त्री को आक्रामक स्थिति से बचाते हैं। मसलन कई सम्प्रदायों में औरतें शमशान घाट नहीं जातीं। इसका एक बहुत ही क्रूर पक्ष है कि लड़कियाँ अपने माता-पिता को मुखाग्नि नहीं दे सकतीं। यह इंसान के रूप में उनकी अस्मिता पर ही प्रश्न चिह्न लगाता है, जैसे वे इस दुनियाँ में हैं ही नहीं। तमाम परम्पराएं स्त्री को उसके पति से सम्बन्धित करके ही पहचान देती हैं। ऐसी कई खामियाँ हैं, खेद कि किसी का ध्यान भी इस ओर नहीं जाता। मेरे पिताजी अपना अनुभव बताते हैं कि जब उनकी माँ की मृत्यु हुई तो शमशान ले जाते समय उन्हें बोध होने लगा और दुख सहने की ताकत आ गई। क्या विकट स्थितियों से निपटने की ताकत पाने का अधिकार स्त्रियों को नहीं है? उनके जीवन में विकटता आती है पर उनको दबाकर उनकी सहज परिस्थितियाँ विकट बन जाती हैं। अपने विवेक से समस्याओं का समाधान करने की ताकत बटोरने की परिस्थिति का उन्हें हक नहीं होता। तभी तो घर में समस्त पूजा-पाठ करने वाली महिला मन्दिर में पुजारिन नहीं होती। घर में सारा प्रबन्ध करने वाली कितनी स्त्रियों को दुकान में बैठते देखा जा सकता है। सारा खाना बनाने वाली स्त्री होटल की मालकिन नहीं होती, कुक भी नहीं होती। निर्णय करने वाली स्थिति या पहचान बनाने वाली स्थितियों से उन्हें दूर क्यों रखा गया? यह नहीं है कि परिवर्तन नहीं आ रहा। यहाँ पर सिर्फ उन कारणों पर जाना चाहती हूँ कि समाज में कहाँ भेदभाव है, यह भेदभाव अभी समाप्त नहीं हुआ है। यह भेदभाव जारी है इसलिए तो महिला आरक्षण बिल पास नहीं हो पा रहा है।
सेक्स या स्त्री-पुरुष के बीच स्वाभाविक सम्बन्ध के बीच हमारा समाज बहुत दकियानूसी है। यह देखने में आया है कि अपनी किशोरावस्था के दौरान जिन लड़कों ने सह-शिक्षा में पढ़ाई की है वे कम हिंसक हैं। अपने किशोर दौर में जो लड़के लड़कियों के साथ नहीं रहे या नहीं पढ़े, अश्लीलता या कामुक हरकतें उनमें ही कुंठित मनोवृत्ति के रूप में बाहर निकलती हैं। इन सभी पहलुओं पर विचार करने की आवश्यकता है। ये विषमताएँ ही हैं जो परिणाम के रूप में वैसी ही भयावह स्थिति को जन्म देती हैं जैसा 16 दिसम्बर की रात दिल्ली में हुआ। इस घटना के बाद यह अवश्य हुआ है कि जिस दरिन्दगी को छुपा दिया जाता था, वह अब बहस का मुद्दा बन गई है। उस घटना के बाद लगातार बलात्कार की खबरें आ रही हैं। यह इस बात का प्रतीक नहीं है कि उसके बाद ऐसी घटनाएँ बढ़ गयी हैं बल्कि पहले ये छिपी रहती थीं, अब सामने आने लगी हैं। उस घटना के बाद जो दो सुर्खियां अखबारों में आईं जैसे-‘खुद सो गई सबको जगा गई’ तथा एक ‘आम शख्स की मौत पर पूरा देश रोया’, कहीं न कहीं हमारी मजबूत होती लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दर्शाती हैं। साथ ही हमारे जनमानस पर ‘मूक दर्शक’ बने रहने का धब्बा भी धुला है। हमारे बहुत सारे युवाओं में संवेदनाएँ पनप रही हैं यह भी अच्छा संकेत है। यह कहीं न कहीं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तथा दिल्ली विश्वविद्यालयों में मानविकी विषयों (समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र, इतिहास) की अच्छी स्थिति का परिणाम भी हो सकता है। ये युवा अंग्रेजीदां अवश्य हैं, लेकिन अंग्रेजी के माध्यम से स्वतंत्रता, समानता, मानव महत्ता के मूल्य को इन्होंने पहचाना है। यह प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए, तभी हम एक समतामूलक बेहतर भविष्य की कल्पना कर सकते हैं।
Society itself makes men violent
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