व्यक्ति नहीं समाज बदलना होगा
शमशेर् सिंह बिष्ट
”जिस रूढ़ि और कानून के बनाने में स्त्री का कोई हाथ नहीं था और जिसके लिए सिर्फ पुरुष ही जिम्मेदार है, उस कानून और रूढ़ि के जुल्मों ने स्त्री को लगातार कुचला है। अहिंसा की नींव पर रचे गये जीवन की योजना में जितना और जैसा अधिकार पुरुष को अपने भविष्य की रचना का है, उतना और वैसा ही अधिकार स्त्री को भी अपने भविष्य की रचना का है। लेकिन अहिंसक समाज की व्यवस्था में जो अधिकार मिलते हैं, वे किसी न किसी कर्तव्य या धर्म के पालन से प्राप्त होते हैं। इसलिये यह भी मानना चाहिए कि सामाजिक आचार-व्यवहार के नियम स्त्री और पुरुष दोनों आपस में मिलकर और राजी-खुशी से तय करें। इन नियमों का पालन करने के लिये बाहर किसी सत्ता या हुकूमत की जबरदस्ती काम न देगी। स्त्रियों के साथ अपने व्यवहार और बर्ताव में पुरुषों ने इस सत्य को पूरी तरह पहचाना नहीं। स्त्री को अपना मित्र या साथी मानने के बदले पुरुष ने अपने को उसका स्वामी माना है।’’ यह बात महात्मा गाँधी ने मेरे सपनों का भारत में कही है। इस किताब को लिखे लगभग 70 वर्ष हो गये हैं, लेकिन पुरुषों की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है।
अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी ने यह भी कहा है, ”किसी स्त्री पर जब आक्रमण हो, उस समय उसे हिंसा और अहिंसा का विचार करने की जरूरत नहीं है। उसका पहला कर्तव्य आत्मरक्षा करना है। अपने आत्म की रक्षा के लिये उसे जो भी उपाय सूझे, उसका उपयोग करने की उसे पूरी आजादी है’’ महात्मा गांधी के इस कथन का कितना पालन हो रहा है, यह भारत में हाल में घटी घटनाओं से स्पष्ट हो जाता है। नई दिल्ली में 16 सितम्बर, 2012 को 23 वर्षीय महिला के वहशी बलात्कार और मौत के बाद, देश भर में आन्दोलन चले और महिलाओं के विरुद्घ अपराधों को रोकने के लिये सरकार द्वारा कठोर कदम लेने की आवाज उठी। इस जन दबाव के कारण भारत सरकार ने जस्टिस जे.एल. वर्मा कमेटी का गठन किया जिसने 23 जनवरी, 2013 को अपनी सिफारिशें भी पेश कर दीं।
(Society must change, not individual)
लेकिन वर्मा कमेटी की सिफारिशें आने के बाद 15 फरवरी को दिल्ली में ही एक ऐसी घटना हो गई जिसने प्रशासन तंत्र व न्याय व्यवस्था को हिलाकर रख दिया। याद रहे सात माह पूर्व हरियाणा का पूर्व गृहराज्यमंत्री व एम.डी.एल.आर. कंपनी के गोपाल कांडा के शोषण से तंग आकर 24 वर्षीय गीतिका ने आत्महत्या कर ली थी, आत्महत्या का कारण भी गोपाल कांडा व उसके साथियों द्वारा लगातार तंग तक किया जाना बताया गया। इन 7 माह में विशेषकर 16 दिसम्बर के बाद देश में महिलाओं की सुरक्षा के लिये जबर्दस्त जन उभार पैदा हुआ, लेकिन हमारी व्यवस्था कितनी महिला विरोधी है जिसमें नेता, नौकरशाह व न्यायपालिका सभी सम्मिलित हैं। गोपाल कांडा तिहाड़ जेल में बंद है, लेकिन गीतिका के परिजनों ने आरोप लगाया कि गोपाल कांडा और उसके कर्मचारी लगातार समझौता करने के लिये दबाव बना रहे थे। गीतिका की माँ अनुराधा (52 वर्ष) बेहद तनाव में रहने लग गयी थी। गोपाल कांडा व उसके साथियों का इतना जबर्दस्त दबाव पड़ा कि अनुराधा ने 7 माह बाद उसी कमरे में, उसी पंखे से, आत्महत्या कर ली जिससे उसकी लड़की गीतिका ने 7 माह पूर्व की थी। अनुराधा ने भी आत्महत्या का कारण गोपाल कांडा व उसके साथियों द्वारा उकसाना बताया है। इस दोहरेी आत्महत्या ने यह स्पष्ट कर दिया है कि बलात्कारी एक व्यक्ति नहीं, पूरी व्यवस्था है। इसलिये कितना भी कठोर कानून बना दो, गोपाल कांडा जैसे लोग, सरकार व्यवस्था चलाने वाले लोग लगातार उत्पीड़न करते रहेंगे। ऐसे कई सारे सांसद और विधायक और यहाँ तक कि मंत्री भी हैं जिन पर बलात्कार के मुकदमे चल रहे हैं। ऐसा कोई कानून नहीं है जो इन्हें चुनाव लड़ने से रोक सके। पुरुषवादी, आपराधिक व माफिया तंत्र वाली व्यवस्था महिलाओं को समान अधिकार देने से बचती रही। महिला आरक्षण बिल कई वर्षों से संसद में विचाराधीन ही चल रहा है। बड़े-बड़े वायदों पर सत्ताधारी जीत कर आते हैं, परन्तु सत्ता में आने के बाद अपने कर्तव्यों को भूलकर कमाने-खाने, घोटाला करने में लग जाते हैं। इस दौर में विश्व की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बाढ़ आ गई है, जिन्होंने महिलाओं को उपभोक्ता वस्तु बनाकर रख दिया है। हमारे देश में नेता इन कंपनियों की सेवा में लग गये हैं। देश के नौकरशाह भी इन्हीं लोगों के आगे पीछे घूमते रहते हैं। जिस के नाम पर वोट मांगते हैं, उसकी परवाह नहीं करते। आम आदमी भुखमरी, बेरोजगारी का जबर्दस्त शिकार हो रहा है जिसके कारण कुंठाओं का जन्म होता है, जो फिर उसको अपराध की ओर धकेलता है। इसलिये किसी व्यक्ति को फाँसी में चढ़ाकर ये अपराध रुकने वाले नहीं हैं। आज तक के इतिहास में फाँसी देने से अपराध रुके नहीं हैं। बलात्कार एक सामाजिक विकृति है और इसकी जड़ें हमारे समाज की मानसिकता, बनावट व प्रवृत्तियों में छिपी हैं। महिला पर अत्याचार करने के बाद महिला को ही कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। यह मानसिकता जब तक नहीं बदलेगी, तब तक महिलाओं पर होने वाले अत्याचार रुकेंगे नहीं। हमारी परम्पराओं व धार्मिक अवधारणाओं में भी महिलाओं को उचित स्थान नहीं मिला। भले ही दुर्गा, सावित्री, सीता के रूप में प्रचारित अवश्य किया है, लेकिन हमेशा द्रोपदी की तरह महिला के चीरहरण की प्रवृति समाज में बनी रहती है। 16 दिसम्बर की घटना के बाद हमारे देश के विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं ने महिलाओं के पहनावे या उनके श्रंगार पर ही टिप्पणी कर दी। जबकि इससे बलात्कार के लिये कही वातावरण नहीं बनता है। हमारे आदिवासी समाज में तो महिलायें अर्धनग्न ही रहती हैं, क्या कभी कोई बलात्कार की घटना सुनाई देती है। इसलिये महिला क्या पहनती है, कहाँ जाती है, यह उनका व्यक्तिगत मामला है। महिला जब तक गुलाम रहेगी, उतना ही उस पर अत्याचार बढ़ेगा। महिलाओं की सुरक्षा उनकी आजादी में ही सम्भव है, जहाँ उनकी चेतना के साथ उनको पुरुष के बराबर का अधिकार प्राप्त हो। बलात्कारों और अत्याचारों में कमी लाने के लिये एक बेहतर सभ्य समाज बनाने के लिये आगे आना होगा। आज देश में जो जन आक्रोश पैदा हो रहा है, वह कुछ कानूनों के बन जाने के बाद समाप्त नहीं होना चाहिए बल्कि इसका उपयोग व्यवस्था बदलने के साथ ही मानसिकता बदलने के लिये भी होना चाहिए। वर्मा कमेटी की रिपोर्ट ने महिलाओं के खिलाफ अपराधों को रोकने में असफलता के लिये सरकार और राज्य को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराया है, उसने महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये कई कठोर कदमों का त्याग करने का सुझाव दिया है। अगर इन सुझावों में अमल होता है तो यह महिलाओं की आजादी के लिये मील का पत्थर साबित हो सकता है।
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