कहानी : अहेरी

विजयदान देथा

मारवाड़ की चारण जाति में जन्मे श्री विजय दान देथा (1926 -2013) राजस्थान के सुप्रसिद्घ लोककथाकार थे। राजस्थानी तथा हिंदी साहित्य में इनका विशिष्ट स्थान है। अपने जानने वालों में वह विज्जी के नाम से जाने जाते थे। अपनी अनूठी और रोचक शैली के लिये इन्हें राजस्थान का शेक्सपियर कहा जाता था। आपकी रचनाएँ समाज में व्याप्त जाति और लिंगभेद पर सवालिया निशान लगाती हैं। आपने राजस्थानी लोककथाओं का संकलन बाताँ री फुलवारी 14 जिल्दों में प्रकाशित करवाया। 2007 में इन्हें पद्मश्री से नवाजा गया तथा 2011 में नोबेल पुरस्कार के लिये नामित भी किये गये। इसके अतिरिक्त साहित्य अकादेमी पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद् पुरस्कार, नाहर पुरस्कार द्वारा भी पुरस्कृत किये गये। इनकी कहानियाँ पर फिल्में भी बनीं। हबीब तनवीर द्वारा चरनदास चोर का मंचन किया गया और श्याम बेनेगल के निर्देशन में फिल्म भी बनी तथा मणि कौल के निर्देशन में बनीं फिल्म दुविधा  को अनेक राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। अमोल पालेकर की पहेली तथा प्रकाश झा की परिणिति भी उल्लेखनीय फिल्में हैं जो इनकी कहानियों पर बनी हैं। इनका कहना था- मेरा गांव ही मेरी साहित्यिक शिक्षा का विश्वविद्यालय है जहाँ गाँव की महिलाओं के पास रोचक और ज्ञानवद्र्घक कहानियों का अकूत भण्डार है। इनकी कहानियाँ में पितृसत्ता में स्त्री की स्थिति और और उसकी अस्मिता के सवालों की तलाश साथ साथ करती नजर आती हैं। श्रद्घांजलि स्वरूप इनकी कहानी अहेरी उत्तरा के पाठकों के लिये दी जा रही है।

फागुन की असीम सुहानी रात। मोरपंखी  आकाश में तारों की बेशकीमती जड़ाई। झिलमिल चमकते तारे। गोया कोई मायावी अभी-अभी अपने अदीठ हाथों से सारे गगन को साफ-सुथरा कर गया हो। चारों ओर चंगों की मधुर-मधुर गाज। लूर-फाग की धमाल। आँगन में बिछी हुई खटिया पर दादी के साथ सो रहा पोता बार-बार कहानी सुनने की जिद कर रहा था। तारे-तारे को अपनी पावन नजर से सहलाते हुए उसने एक बार फिर कहा, ‘दादीमाँ, कल तुमने अहेरी की बात सुनाने के लिए कहा था। अब टालमटोल क्यूँ कर रही हो? सुनाती क्यूँ नहीं?’

‘सुनाती हूँ मेरे लाल, सुनाती हूँ। थोड़ी देर ये चंग, ये लूरें और ये फाग अच्छी तरह कान लगाकर सुन तो सही। कैसे सुरीले और कैसे मीठे।’
सरल बाल-गोपाल ने तुरन्त दादी माँ की गलती पकड़ ली। खिल-खिल हँसते बोला, ‘मीठे! यह कोई खाने की चीज थोड़े ही है, जो मीठी लगे।’
अदन्त मुस्कराहट छितराते दादीमाँ बोली, ‘मेरे लाडले, कानों को भी मीठे-कडुवे की पहचान होती है! थोड़ा और बड़ा होने पर तुझे भी इस बात का पता चल जायेगा।’
यह बात कहकर दादीमाँ गगन के झिलमिलाते तारों में अपना खोया हुआ बचपन, सौन्दर्य और यौवन ढूँढने लगी। एक-एक तारे में इस प्रकार की खोज का सुख भी कम नहीं था।
पोते ने फिर दादीमाँ को उकेरकर कहा, ‘अब तो चंग भी काफी धीमे हो गये। अहेरीवाली बात सुने बगैर नींद नहीं आती।’
बुढ़िया की आँखों के लिए अभी काफी तारे निहारने शेष थे। इसलिए बहाना करते कहने लगी, ‘इतने दिन तुझे जो नक्षत्र समझाये, पहले तू उनके नाम-धाम बता। फिर मैं कहानी सुनाऊंगी।’
‘वे तो मुझे सब याद हैं।’
‘पर वापस सुनाये बगैर पता कैसे चले?’
पोता आतुर होते बोला, ‘अभी बताता हूँ।’
और इसी आतुरता के साथ वो दादीमाँ को नक्षत्रों के नाम गिनाने लगा, ‘चैत चड़पड़ा। सावन सरवण।’
दादीमाँ ने हँसकर पूछा, ‘चैत के बाद सावन आता है? और चड़पड़े का हवाला तो दिया ही नहीं।’

बाल-गोपाल पैर पटकते हँसकर बोला, ‘भूल गया, भूल गया। चड़पड़ा कुछ धुँधला-धुँधला, कुण्डली मारे झिलमिलाता है। वैशाख बिच्छू, साख्यात बिच्छू जैसा। आगे टेड़ी-मेढ़ी दो पनड़ियाँ और पीछे डंक। जेठ जुआ। जुए से जुते दो बैल। पीछे हल की बनावट। असाढ़ चौपड़। चारों कोनों पर चार तारे। भादों पनिहारी। गोया किसी औरत पर घड़ा धरा हुआ हो।’

‘असाढ़ के बाद भादों कैसे आ गया?’
क्यूँ, सावन का नक्षत्र तो पहले ही बता दिया था। सावन सरवण। सरवण की तरह कंधे पर काँवर उठाये हुए।
सौज़…. आसौज।’
पोते को अटकते देखा तो दादीमाँ बोली, ‘असौज-ईंडुरियाँ। गोल-गोल, अमूल्य मोतियों से जड़ी दो ईंडुरियाँ।’
पोता मचलते बोला, ‘तू बीच में क्यूँ बोली? कार्तिक किरती। छोटे-छोटे तारों का गुच्छा। अगहन हिरनी। तीन बड़े-बड़े तारे। बिल्कुल सटे हुए। चारों कोनों पर चार कुत्ते। बेचारी हिरनियों का पीछा ही नहीं छोड़ते। पूस अहेरी। होठों पर अहेरी का नाम आते ही बाल-गोपाल व्यग्रता से बोला, ‘अब मुझे अहेरी की कहानी सुना।’
‘अभी तो दो नक्षत्र बाकी हैं।’
तब पोता आगे बेगार काटता-सा बोला, ‘माघ जोडा। झिलमिलाते दो-दो तारों का जोड़ा और फागुन हँसिया। बिल्कुल
सिये की माफिक। आगे से मुड़ा हुआ और पीछे डण्डा।’
दादीमाँ ने एक सवाल और पूछा, ‘जब कृतिकाएँ चाँद से बायीं ओर आगे निकल जाती हैं तो क्या होता है?’
‘अकाल पड़ता है।’यह जवाब देकर पोता ताली बजाकर हँसने लगा। तब दादीमाँ उसे टोकते बोली, ‘नहीं बेटे, अकाल
बात पर हँसना नहीं चाहिए।’
‘अब नहीं हसूँगा।’

‘तो अब अच्छी तरह कान देकर अहेरी की बात सुन। एक थी हिरनी। बेहद सीधी और भोली। औरत की जात होते हुए भी जबान की पक्की थी। एक बार काफी देर पानी न पीने के कारण उसे प्यास लगी तो वह रुनक-झुनक करती हुई झरने की तरफ चली।

‘रुनक-झुनक क्यूँ? वह कोई पायल व झाँझर थोड़े ही पहने हुई थी!‘

‘बेटे, वह हिरनी सती-सुहागन थी। फकत पायल व झाँझर ही क्या, वह तो सारा गहना आठों पहर ठसाये रहती थी। जैसे हिरनी, वैसा ही नेक उसका पति। उससे कभी भी नही-झगड़ता था। तेरे जैसे दो खूबसूरत बच्चे थे उस हिरनी के। तैरे जैसे ही सरल, समझदार और आज्ञाकारी। जब वह हिरनी झरने के पास पहुँची तो वहाँ एक निर्मम अहेरी तीर-कमान ताने खड़ा था। नंगे पाँव। कंधे पर टँगा हुआ तरकस। आँखों में मौत की ज्वाला। उसकी आँखें अंगारों की तरह दहक रही थीं। अकस्मात् तने हुए तीर पर नजर पड़ी तो हिरनी चौंकी। पर चौंकने के बाद भी वह मुड़कर भागी नहीं। बेहद हिम्मतवर थी वह। अहेरी को बहलाने की खातर मुस्कराकर पूछा, ‘इस तरह मेरी ओर तीर ताने क्यूँ खड़ा है?’

हिरनी की मुस्कराहट में ऐसा जादू था कि अहेरी भी तीर चलाना भूलकर उसकी बातों में बहक गया। कहने लगा, ‘क्यूँ क्या, तुझे मारने के लिए।’

भोली हिरनी बोली, ‘पर मैं तो यहाँ मरने के लिए नहीं, पानी पीने के लिए आयी हूँ। प्यास के मारे मेरा गला सूख रहा है। पहले पानी तो पीने दे।’

तीर ताने हुए ही अहेरी ने शंका की, ‘और पानी पीने के बाद तू मुझे चकमा देकर चम्पत हो गयी तो!’

हिरनी मुस्कराते कहने लगी, ‘न तो तू ऐसा है कि चकमा खाये और न ही मैं किसी को चकमा देती हूँ। तेरा यह तीर मुझे कहीं भी नहीं छोड़ेगा! और इसके बावजूद भी तुझे वहम हो तो मेरा कान पकड़कर पानी पिला दे।’

कान पकड़ने की बात सुनते ही अहेरी को हिरनी पर विश्वास हो गया। बहते झरने में मुँह डालकर हिरनी निश्चिन्त होकर पानी पीने लगी। अहेरी एकटक पानी पीती हुई हिरनी को देखता रहा। आग की मानिन्द पेट में यह हत्यारिन भूख नहीं सुलगती तो ऐसे भोले प्राणी की तरफ क्रूर दृष्टि से देखा भी नहीं जा सकता। पर यह तीर तो सनसनाता हुआ, सीधा इसकी कोमल देह को पार कर जायेगा! फकत पेट पापी है! हत्यारा है!

छककर पानी पीने के बाद हिरनी पूँछ हिलाते अहेरी के पास आयी। भोले स्वर में पूछा, ‘मुझे मारने से तुझे क्या हाथ लगेगा?’

अहेरी चिढ़ता हुआ बोला, ‘कोई हीरे-मोती तो हाथ लगने से रहे, तेरा माँस ही हाथ लगेगा।’

तब हिरनी ने आगे एक और सवाल किया, ‘कटे हुए माँस के टुकड़ों की बजाय मैं जीवित हिरनी तुझे खुबसूरत नहीं लगती?’

‘खूबसूरत तो लगती है। पर खूबसूरत लगने से पेट थोड़े ही भरता है! मेरे बच्चे तीन दिन से भूखे हैं। वे बुरी तरह बिलख रहे होंगे।’

बच्चों के बिलखने की बात सुनते ही हिरनी का दिल भर आया। डबडबायी हुई आँखों से अहेरी की तरफ देखते हुए कहने लगी, ‘बच्चों की भूख की बात सुनकर मैं लाचार हो गयी। जैसे मेरे बच्चे, वैसे तुम्हारे बच्चे। उन्हें कैसे तड़फने दूँ! पर मरने से पहले एक बार अपने बच्चों को दूध पिला आऊँ। वे मेरा इंतजार कर रहे होंगे। एक बार पति से भी अलविदा कर लूँ।’

हिरनी के मुख से यह चालाकी की बात सुनकर अहेरी से हँसे बगैर नहीं रहा गया। हँसते-हँसते ही बोला, ‘एक बार नजर आये हुए जानवर को छोड़ दूँ तो मेरे नाम बट्टा लगता है। मेरे तीर-कमान की मर्यादा घटती है। तेरे झाँसे में आ जाऊँ, ऐसा नासमझ मैं नहीं हूँ।’

हिरनी बोली, ‘पर मैं तो बिल्कुल नासमझ हूँ। वास्तव में, यह झाँसे का बोल ही मैंने पहली बार सुना है। पति और बच्चों से मिलने की मन में न रही तो मैं मरते समय भी तुझे आशीर्वाद दूँगी। मेरे वचनों पर कोई अविश्वास करे, यह मेरे लिए मौत से भी बदतर है।’

भगवान जाने, हिरनी की उस पवित्र वाणी पर अहेरी को क्यूँकर विश्वास हो गया कि उसने खुशी-खुशी उसे अपने निवास पर जाने की इजाजत दे दी। तब हिरनी अहेरी का बहुतेरा एहसान मानती हुई अपने बच्चों के पास गयी। विस्तार से झरने वाली सारी बात सुनायी। बच्चों ने मुँह उतारकर माँ के मुँह से अहेरी को दिये हुए वचनों तक की सारी वार्ता चुपचाप सुनी। इन्तजार कर रहे अहेरी के पास जाने की उतावली में, जब माँ, ने दूध पीने के लिए कहा तो बच्चों ने साफ इन्कार कर दिया कि वे अब एक बूँद भी दूध नहीं पियेंगे। इसकी वजह पूछने पर बच्चों ने कहा, ‘माँ अब तू आजाद कहाँ है? जब तू वचनों से बँधी हुई है तो तेरा दूध भी अब तेरा नहीं रहा। यह अहेरी की अमानत है। तब किसी और का दूध हम कैसे पी सकते हैं?

हिरनी को अपने नन्हें-नन्हें बच्चों से इतनी तीव्र बुद्घि की आशा नहीं थी। सुनकर बेइन्तहा खुश हुई, फिर बच्चों को साथ लेकर पति के पास गयी। सारी बात सुनकर हिरन बोला, ‘अहेरी को तो फकत माँस की जरूरत है, जो मुझमें तुझसे अधिक है। वो उल्टा अधिक खुश होगा। और पीछे तू बच्चों को पोसकर बड़ा कर लेगी।’ पर हिरनी भी पति से कम जिद्दी नहीं थी और न ऐसी भोली, जो अपने हाथों रँडापा कबूल करे। माँ-बाप को मौत के मुँह में जाते देख तो बच्चे भी उनके साथ चल पड़े। किसके भरोसे दुख के दिन कटते! कौन उनकी सार-सँभाल करता!

पल-पल इन्तजार करते अहेरी ने जब हिरनी के साथ तीन और प्राणियों को आते देखा तो उसका माथा ठनका। पास आते ही वो हिरनी पर आँखें निकालते बोला, ‘मैं जानता था कि तू मेरे साथ धोखा करेगी।’

अहेरी के मुँह से यह औंधी बात सुनकर हिरनी ने आश्चर्य से पूछा, ‘क्यूँ, इसमें धोखे की क्या बात है? तुझे एक की जगह चार जीवों का मांस मिलेगा। मेरे बच्चों की कोमल-कोमल बोटियाँ खाकर तेरे बच्चे अधिक खुश होंगे। ये सभी मना करने के बावजूद जबदरदस्ती मेरे साथ आये हैं। विश्वास न हो तो इनसे पूछ ले।’
Story: Aheri

अहेरी गर्दन हिलाते बोला, ‘अब क्या तेरा सर पूछूँ। अपने बच्चों की खातिर तेरे बच्चों को कैसे मारूँ? तूने इस तरह वचन निभाया तो तुझ पर तीर कैसे चलाऊँ?’
हिरनी जिद करती हुई बोली, ‘तेरे बच्चे बिलख रहे होंगे। तू कमान पर तीर चढ़ा तो सही!’
तब अहेरी हिरनी के कहे-कहे बेमन से तीर चढ़ाते बोला, ‘फकत तीर चढ़ाने से क्या होगा? अब मेरे हाथों में वो ताकत ही कहाँ रही?’
पोता साँस रोके चुपचाप कथा सुन रहा था। फटी ओढ़नी के पल्लू से अपनी आँखें पोंछती हुई दादीमाँ आगे कहने लगी, ‘तब से वे सभी अमर हैं। बेचारी मौत की क्या बिसात जो उनकी तरफ आँख भी उठा सके। देख, वो रहा अहेरी। कमान पर अभी तक तीर चढ़ा हुआ है।’
दादीमाँ की अँगुली के इशारे की ओर ऊपर निगाह उठाये पोता गगन में एकटक देखता रहा। दादीमाँ आगे कहने लगी, ‘वह रही भोली हिरनी! पास ही खड़ा है उसका पति और पीछे दोनों बच्चे!’
पोते की नजर उस नक्षत्र के चारों ओर घूमर लेने लगी। थोड़ी देर में वो अहेरी देखते ही देखते उतरकर नीचे आने लगा सो आता ही चला गया। उतरते-उतरते आखिर हाथ के बिल्कुल करीब आकर रुका। पोते की सुकुमार अँगुलियाँ उस नक्षत्र को बार-बार सहलाने लगी, सो आँख खुलने तक सहलाती ही रहीं।

दुविधा से साभार
Story: Aheri
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