कहानी : अपना घर

ज्योत्स्ना मिलन

अपने आपको अलगाते हुए उसने सिर उठाया ‘दरवाजा’ ? हाँ दरवाजा ही तो था। यानी वह ठगी गई थी? नहीं, ठगी तो नहीं गई थी। उसने जब अपने को गिर पड़ने दिया, तबउसे पता था कि यह दरवाजा है कि इसके पीछे उसका डेरा है। अपने छोटे-से परेशान और बेचैन सिर को वह कभी उस पर पटकती, रगड़ती या धुनती रहती थी, जैसे वह एक चौड़ा और मजबूत सीना हो। ऊपर से नीचे तक उसने दरवाजे को ऐसे देखा जैसे पहली ही बार देख रही हो। फिर वह दीवार को देखने लगी। जगह-जगह से पलस्तर झड़ रहा था। छोटी बड़ी मिलाकर ढेरों दरारें थीं। रहने को तो पिछले पाँच सालों से वह यहाँ रह रही थी और इससे पहले ये उसे कभी दिखी ही नहीं या पहले ये थी ही नहीं?

इस बीच पन्द्रह दिनों से वह इस घर से बाहर ही थी, क्या इसी दौरान दरकी थीं दीवारें? उसने उठकर बारी-बारी से दरारों पर अपनी खुरदरी उँगलियाँ धीरे से फेरीं, जैसे इतने से ही वे भर जाने वाली हों। दरवाजा खोलते हुए वह कुछ इस तरह सावधान थी कि घर कहीं उसी की ठपक से लुढ़क न जाए या दीवार में एकाध दरार और न चल जाए!

होने को तो यह मकान माँ की ही मिल्कियत था। माँ का घर भी और उसका मायका भी। मगर पिछले पाँच सालों से वह इस कमरे में रह रही थी इसलिए चाहती तो उसे अपना घर कह सकती थी लेकिन कहती कभी नहीं थी।

मगर एक दिन आने तक पेट तो पालना ही था और बखत भी किसी न किसी तरह काटना तो था ही! लिहाजा काम की तलाश में जिस किसी भी घर में जाती कोई पूछे न पूछे वह पहले ही बता देती, ‘बाई साब जब तक याँ हें करेंगे काम! समय के मारे हुए हें, मगर ये हे के एक दिन तो अपने घर चले ही जायेंगे।’सुनकर मालकिन तौलती, ‘औरत तो भली मालूम होती है, पर एक तलवार तो हमेशा ही सिर पर लटकती रहेगी कि पता नहीं कब आकर कहने लगे, ‘आप दूसरी बाई देख लेना साब, हम तो जा रिए हेंगे अपने घर- और फिर वही परेशानी, फिर दूसरी बाई तलाशो। अच्छा हो यह यहीं रह जाए, अपने घर जाए ही ना ‘मालकिन उसी क्षण से मनाने लग गई थी।’

‘तुम भी तो कमाल औरत हो! तुम्हें परेशानी होगी इसलिए वह गरीब कभी अपने घर लौटे ही नहीं? अपने को ही फटकारती हुई मालकिन बुदबुदाई।’

‘नहीं, नहीं, मेरा मतलब यह नहीं था’और फिर कुछ झेंपते हुए अमीना से कहा था, अच्छा ठीक है। जब तक हो करो पर जाने लगो तो बताकर जाना समझी!’ हाँ साब! याँ तो धोकेवाली कोई बात ई नई हेगी।’ खुद उसे काम की जरूरत थी और मालकिन को कामवाली की। ‘जो भी, जैसी भी जितने भी दिन के लिए मिले रख लो’और ऐसी एक-दो नहीं कई सारी मालकिनें थीं सो उसे पाँच-सात घरों में काम तुरन्त मिल गया।

मगर मुसीबत तो एक ही थी। जहाँ कहीं जाते मालकिन पूछती ही ‘क्या नाम है तुम्हारा? कहाँ है तुम्हारा घर?’ अब कहाँ को बताते अपना घर? बहन के रहे तो बहन का घर, फूफी के रहे तो फूफी का, भाई के रहे तो भाई का और अब माँ के रेते हेंगे तो माँ का घर। इस एक सवाल का जवाब देते हुए हर बार उलझन में पड़ जाती थी वह जैसे बड़ा भारी संकट आ पड़ा हो। कहीं न कहीं तो बताना ही था अपना घर और चट् से बताना था जिससे किसी को कुछ भी पता न चले। इसलिए उसने सोच किया एक जगह का नाम ‘धोबीघाट’कि तपाक से बता सके। उसे भी पता था और लोगों को भी कि आधे मील में फैला था धोबी घाट और सैकड़ों घर थे वहाँ। उनमें से किसी न किसी में तो रहती ही होगी अमीना। दिन में कई-कई बार लोगों से और रात में सोते में भी अपने से कहती रहती थी कि ‘एक दिन तो जाना ही होगा हमें अपने घर।’

सात साल की थी तभी ब्याह कर चली आई थी अमीना अपने घर। जाते ही ढेरों ढेर औरतें उढ़ा दी गई थीं उसे, जैसे वे उसके कीमती जोड़े हों, एकाएक वह दब-सी गई थी उनके नीचे। कछ दिन तो साँस रोके दुबकी रही मौके की ताक में। एक दिन पड़ोस की जुबेदा गुट्टे उछालती हुई घुस आई थी उनके घर में ‘भाभीजान गुट्टे खेलोगी? चट् से उठ खड़ी हुई थी अमीना और वे तमाम औरतें फिंका गई थीं पता नहीं कहाँ? कितनी दूर?’

एक तरह से देखा जाए तो उसका बचपन भी उसी घर में बीता था। गुट्टे तो दिन में जब भी मौका मिलता खेलने बैठ जाती, कभी अकेली ही और कभी जुबेदा के साथ। उसके तो पल्ले से ही बँधे रहते थे गुट्टे। घर में जब भी वह अकेली होती अपने बिस्तर के नीचे से रस्सी निकालकर कूदती रहती खुले चौक में। मगर सब के बीच ‘कारा खूंपाजी’ (चमड़े के काले खोल में रहने वाली स्त्री) की तरह वह अपने खोल में उतर जाती और किसी को कुछ भी पता नहीं चल पाता था।

दौड़ने पर तो कोई भी मौका छूटता ही नहीं था। घर में ही किसी दूसरे कमरे, चौके या आँगन में से कोई पुकारता तो वह दौड़ पड़ती। घर का दरवाजा खड़कता तो वह भागती हुई लपक लेती और घर में कोई न कोई तो टोक देता, ‘अरे-अरे, ये क्या? औरतें भी कहीं दौड़ती होंगी?’ उन दिनों तो उसके पैर थे कि दौड़ने को बस हरदम तैयार ही रहते थे। उसे बार-बार खुद को याद दिलाना पड़ता था कि मैं एक औरत हूँ कि मुझे दौड़ना नहीं चाहिए।
Story: Apna Ghar

एक दिन पल्ले से गुट्टे खोलकर हाथ में लिए देखती रही थी वह देर तक फिर हथेली में भींच लिया था और कुछ देर बाद हाथ बढ़ाकर उसने उन्हें सबसे ऊपर वाले अंधेरे ताके में रख दिया था ‘जब जी करेगा उतार लूंगी, यहाँ ताके पर ही तो हैं।’ हो सकता है वे अब भी वहीं पड़े हों उसी ताके में।

उन दिनों अक्सर ऐसा होता था कि अचानक और अपने आप ही झनन्-झनन् बजने लगती थी उसकी देह और फिर पिघलने लगती थी। वह खो जाती कभी पता नहीं कहाँ और कभी अपने में ही। सामने की चीजें भी ऐसे दिखनी बंद हो जातीं जैसे वे वहाँ हों ही नहीं। चीजों के पार जाने कहाँ पहुँच जाती वह। कोई आवाज देता तो उसे लगता वह अंधेरे अतल कुएँ में है और आवाज दूर कहीं से आ रही है। कितना अच्छा है कि कोई भी दूसरा, इस कुएँ में नहीं आ सकता। यह एक बिलकुल ही अलग बात है कि कोई पहले से ही उसके भीतर जमा हो जाए और इस तरह उसके साथ इस कुएँ में पहुँच जाए। रंगारंग अंधेरे में, सुगबुगाती, सोचती वह अब एक चकित औरत थी।

कपड़े पछीटते और सुखाते हुए या तीज त्यौहार पर या बिस्तर में करवटें बदलते हुए  उसे अचानक ही याद आ जाते वे दिन और अपना वह घर। कई बार वह अपने को उसी घर में कभी लेटे, बैठे बातें करते या खाना बनाते देखती थी और उसे थोड़ी देर के लिए भूल जाता था कि अब वह वहाँ नहीं रहती। ‘अम्मी वो डाक्टरनी बाई ने पिरेस के कपड़े मँगाए हेंगे या अम्मी कसकर भूख लगी हेगी खाना जल्दी दो न।’ बशीर या शाहिद या सकीना की आवाज उसे लौटा लाती इस डेरे में और फिर अमीना उदास हो जाती, न बच्चों में मन लगता न काम में। पता नहीं कितनी दूर है अभी घर? कब पहुँचूंगी मैं?

‘ओहो, अमीना, कितनी देर कर दी तुमने? अच्छा सुनो ये लो चाबी और ये रहा ताला; कपड़े धोकर घर अच्छे से बंद कर देना और चाबी पड़ौस में दे जाना। मैं अभी तक तुम्हारा इंतजार तो करती रही, गनीमत है कि तुम आ गई। देख क्या रही हो, लो पकड़ो ताला-चाबी।’ अमीना ने दोनों हाथ पीछे कर लिए ‘नई साब ये नई हो सकता, या तो आप कुछ देर और रुक जाओ या आप जब कहो आ जाऊँगी कपड़े धोने।’

‘ये क्या है बाई? यह भी कोई बात हुई। मुझे जल्दी है, तुम इत्मीनान से काम करो।’  ऊपर से खुद उसे ही डाँट खानी पड़ी थी। यह मालकिन भी अजीब है। भरा-पूरा घर डाल जाती है मुझ पर।! कल को कुछ हो गया तो नाम मेरा ही न आएगा। मगर किससे कहो माने जब तो।’

अमीना अक्सर अपने से ही बतियाती रही थी। ‘यह मालकिन आखिर मेरी क्या लगती है? मैं वही अमीना तो हूँ जो लड़ाका थी, बुरी थी, चोर थी। घर में कुछ भी टूटता, फूटता, खो जाता, चोरी चला जाता, सब का सब उसी के खाते में डल जाता था। चाहे घर की मर्दों की जेबें उलटी हुई मिलें, चाहे पकाए हुए मीट-मछली के टुकड़े बरतन से कम हो जाएँ, जाहिर है किसी न किसी ने तो चुराए ही हैं और घर में चुरा आखिर कौन सकता है? यह भी कोई पूछने वाली बात है? रोज ही ऐसा कुछ न कुछ तो होता ही था और अपराधी पहले से ही तय थे इसलिए नित्यकर्म की तरह पिटते थे हम- यानी मैं और मेरे बच्चे। मेरे दिमाग में तो रात-दिन बस एक ही सवाल चक्कर काटता रहता था, ‘क्या इसी तरह मार खाते-खाते एक दिन मर जाएंगे हम? जबकि अपनी सगी आँखों से कई बार देखा था हमने अपनी सौत को देवरों की जेबें टटकाते! मगर केते किससे? और सुनता कौन? लेकिन खाने की नाई मार भी कब तक खाते और अगर न खाते तो जाते कहाँ?’
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माँ के घर से निकली तो शौहर के घर पहुँच गई थी अमीना। लोग लिवाने गए थे, लोग पहुँचाने आए थे। वह अकेली कभी घर से बाहर गई ही नहीं थी। उनके यहाँ औरतें घर में ही रहकर घर के काम करती थीं और मर्द बाहर के। आदमी लोग बाहर की दुनिया से लौटकर बतलाते, ‘अरे! तुम्हें क्या पता कि बाहर की दुनिया किस कदर बेरहम है और वो तुम्हारे कत्तई बस की बात नहीं। चुपचाप खाओ-पीओ और पड़े रहो। बाहर तो कोई किसी का होता ही नहीं।’

‘ऐसी दुनिया में कहाँ जाऊँ?’ दुनिया से डरती-डरती पिटती रही थी अमीना, कई सालों तक। मगर एक दिन बिलबिलाकर घर से बाहर, सड़क पर निकल आई थी अमीना, ‘जाने दो साली को आखिर कहाँ जाएगी? झक मारके आएगी वापस।’ सड़क पर निकल आने पर उसे बड़ी राहत महसूस हुई थी। कितना सारा आसमान था। चारों ओर खुली हवा थी, उसने जी भर साँस ली और भागने लगी घर से दूर दुनिया में। ‘मरना ही है तो मरूंगी पर उस काल कोठरी में तो मरना भी मुश्किल है।’ इस बात का पता भी उसे पहली ही बार चला था।

उन दिनों तो हम जिस किसी से न्याव मांगते फिरते थे। घर में रोज ही चोरी-चपाटी, रोज वही के वही झूठ और वही के वही इल्जाम और रोज की पिटाई तो पक्की। मैं मरी नहीं, घर से भाग आई। मैंने ठीक किया न? ‘नहीं तुम्हें ऐसा हर्गिज नहीं करना चाहिए’ अड़ौसी-पड़ौसी  से लगाकर बाप तक सभी ने एक स्वर से, एक ही बात कही। रोज-रोज कही। किसी न किसी घर में कपड़े धोती-सुखाती, खाती-पीती, उठती-बैठती अमीना सुनती रही, वही वही बात, ‘कुछ भी हो आखिर तो वो तुम्हारा घर है और घर तो घर ही होता है।’ औरत मर्द किसके नहीं लड़ते- दो बर्तन साथ होंगे तो आपस में टकरायेंगे। उसने सोचा, फिर-फिर सोचा, अपने पराए तमाम तरह के लोग के रिए हेंगे तो ठीक ही केते हेंगे और वह लौट गई थी एक दिन, अपने घर, सिर झुकाए। पति ने उसे फिर एक बार प्यार किया था, पहले की तरह, बरसों बाद ऐसा हुआ था और उसने सोचा था ठीक ही किया जो लौट आई वह। इंसान से गलती क्या नहीं होती। बीती को भूल जा अमीना, श्यात बात अब भी हाथ से ननिकली हो और कुछ हो ही जाए? ‘मगर हुआ कुछ नहीं, गरभ ओर रे गया।’ दूसरे ही दिन से फिर वही का वही ढर्रा, वह और उसके बच्चे अपनी जगह पहुँच गए वही लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट। फिर निकल आई थी वह एक दिन घर से और पकड़ लिए थे फिर से अपने कुछ पुराने कुछ नए काम।

‘ओह अमीना कितनी ठंड है आज और तुमको देखो, तुम्हारे तो सारे के सारे कपड़े गीले हैं।’अमीना के कपड़े तो रोज इसी तरह गीले रहते थे पर मालकिन ने जैसे पहली ही बार उसे गीले कपड़ों में देखा था। जबकि अगर वह किसी समय अमीना को याद करना चाहेगी तो वह उसे अक्सर गीले ही कपड़ों में याद आएगी, मौसम कोई-सा भी हो। कितने कम मौंकों पर उसने अमीना को सूखे कपड़ों में देखा होगा। गर्मियों के दिनों वे गीले होते तो थे पर गीले बहुत देर तक रह ही नहीं पाते थे। मगर आज तो ठंड कड़ाके के है। धूप से हटने को भी मन नहीं करता उसका। ‘बाप रे तुम्हें गीले कपड़ों में देख-देख कर तो इतनी धूप में बैठी मुझे भी ठंड लग रही है। पता नहीं तुम कपड़े कैसे धोती होगी’ उसकी तो सोच-सोचकर उँगलियाँ सुन्न हुई जा रही। वह कई बार इस बात पर चकित होकर पूछ चुकी थी यही सवाल ‘तुम्हें ठंड नहीं लगती क्या अमीना’ और अमीना भी उतने ही धीरज से थमा देती हर बार वही जवाब ‘अब तो साब आदत पड़ गई हेगी’, मगर जिस समय धोना शुरू किया था रोना आ जाता था। हाथ में चाहे छाले हों या घाव, कपड़े तो धोने ही थे। मगर ये है कि इंसान जैसी आदत डालना चाहे डल जाती है। अब तो काम की ऐसी आदत पड़ गई है कि बाजी बखत कभी किसी के चले जाओ या घूमने-फिरने निकल जाओ तो काम के बिना अजीब फिजूल-सा लगता है। पूरा का पूरा दिन कैसे बिताओ? यहाँ रहो दिन भर अपना काम करो-खाओ-पकाओ, सोओ तो बखत कहाँ जाता होगा, पताई नहीं चलता।

जैसे-जैसे जचकी करीब आती गई बाप, भाई, फूफी, अड़ौस-पड़ौस वाले सब मिलकर फिर उसे धकेलते-धकेलते ले गए थे। उसके घर तक ‘कहना मानो अमीना, बच्चा तो अपने घर में ही होना चाहिए।’  सारा का सारा जमाना के रिया हेगा घर लौट जा अमीना, घर लौट जा, लौट जा, जा़….। क्या सारा जमाना गलत ओर एक तू ही सई हेगी? श्यात गलती मेरी ही हो, बुदबुदाती हुई फिर एक बार पहुँच गई थी अमीना अपने घर।

‘बच्चा तो चला गया,’ (अच्छा ही हुआ) मगर हमने तो आपरेसन करा लिया कि कम से कम ये एक पाप तो कटे।’

‘आराम करना दो-चार महीने, वरना खतरा हो सकता है’ डाक्टर ने तो बेचारी ने भलमनसाहत से के कर विदा कर दिया। पर घर लौटते ही थमा दी गईं बड़ी-बड़ी बाल्टियाँ कि लो भरो पानी। हमने भी खूब भरीं कि चलो कैसे ही सई छुटकारा तो मिले। मगर मौत तो फिर भी नहीं आई। सई बता रिए हेंगे हम आपको अल्ला गवाह है, तीन-तीन दिन तक अनाज का एक दाना भी मुँह में नहीं जाता था मगर कोई ये केने वाला नहीं था कि खा तो लो अमीना। बुरा मानकर बैठते तो बैठे रहते उम्र भर। क्या ऐसा ही होता है घर? एक दिन भरी दोपहर उसने  घूम घूमकर देखा था घर को, कभी भीतर से कभी बाहर से। दीवारें ही दीवारें थीं चारों ओर। सब ओर एक साथ उसे घरेती हुई बड़ी आ रही थीं चारों ओर। दो बेटे स्कूल गए थे छोटा वाला सो रहा था और बेटी कुछ खाने में मशगूल। इससे पहले कि बढ़ती हुई दीवारें उसे दबोच लेतीं, दौड़कर निकल आई थी वह घर से। सड़क से चली जा रही थी। अकेली।

‘कहाँ जाओगी अमीना?’
‘कहीं भी।’
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‘फिर भी? तुम्हारे बाप का विचार तो इस मामले में पेले सेइ तै हेगा, चाहे मारे चाहे पीटे, लड़की को रैना तो अपने आदमी केई चाहिए। आखिर तो वो मालिक हेगा। तुम्हारे लिए जितना भी रंज हो अपने असूल का पक्का बाप तो तुम्हें रखने से रिया।’

‘बाप के जाइ कोन रिया हेगा?’
‘तब फिर जा कहाँ रइ हो?’
‘जहाँ ये पेर ले जाएँ।’
‘पेर वहीं न ले जाएंगे, जहाँ तुम कहोगी?’
‘अरे हम तो केते हेंगे कि जहन्नुम में ले जाएँ, मगर ले ते जाएँ।’

पटरियों और उसके बीच आधा शहर बिछा था। जाने कितनी गलियाँ, जाने कितने रास्ते और कौन-सा रस्ता कहाँ से, कब मुड़कर कहाँ ले जाएगा कहना मुश्किल था। ‘वो कुछ भी हो अमीना, मगर आपको लौटना हर्गिज नहीं है।’ कहाँ को अमीना? ‘उस दिन फूफा ने बढ़कर रास्ता न छेका होता और कहीं नहीं…. भर्राकर हमाई आवाज न टूटी होती तो पता नहीं काँ होते।’

‘मगर ये है कि बात सब जगह वहीं थी चाहे फूफी के रहो चाहे बहन के चाहे भाई के। हर जगह वही वही शक, वही वही काम और वही वही इल्जाम। लेकिन करते क्या? छोटे-छोटे बच्चे और जवान मट्टी लेकर कहाँ को जाते? कहो खुद ना भी डरें मगर दुनिया तो डराती आई थी। हम भी के देते थे सबसे कि कौन उमर गुजारनी हे याँ। हमारा अपना घर हेगा, लौट जाएंगे एक दिन।’ कहीं लोग ये न समझ लें कि हमारा कोई धनी-धोरी नई हेगा। बस  ये इ हे के समय समय की बात हेगी।

जहाँ जाती उसे एक मर्द तलाशना पड़ता। ‘औरत जात अकेली केसे रे सकती हेगी?’ पहले  बाप था, फिर पति, फिर फूफा, फिर जीजा और अब तो बशीर भी सत्रह का हो चला था। उसने हिम्मत करके एक दिन कह दिया था अपनी अम्मी से कि ‘अकेले इ रे लेंगे अब तो।’ वो दिन और आज का दिन मालिक का शुकर है, आदमी की तनखा तो हमीं कमा लेते हेंगे। करने वाले तो अब भी न्याव करते हेंगे कि ‘जाओ, रहो तुम्हारा अपना घर है।’  मगर हमने भी के दिया कि अब क्या अब तो बखत गया और एक बार गया तो फिर गया।

लेकिन जब भी उसके मन में विचार आता कि अम्माँ वाले मकान के इस कमरे की मरम्मत करवा ले या बाहर के दलान को एक ओर घेरकर एक और कमरा निकाल ले तो पिरेस के काम की सहूलियत हो जाएगी, या कभी यह कि घर में बस किसी कदर काम चलाने लायक चीजें ही हैं, सामान इधर-उधर बिखरा रहता है एकाध बक्शा, एकाध इलमारीनुमा चीज खरीद ली जाए या वह कर्ज लेकर एक बार अपनी भट्टी लगा ले तो काफी काम बढ़ाया जा सकता है, लड़का भी कुछ ही दिनों में बराबरी में आ लगेगा। इसके बाद वह एकदम खामोश हो जाती है? काम तो चल ही रिया हेगा ‘और एक दिन तो’….. इससे आगे वह अपने से भी अब कुछ नहीं कह पाती थी।

‘किसका घर और किसका बार अमीना? किस धोखे में पड़ी हो? इतने सालों से जिस घर में रह रही हो वो तुम्हारा घर क्यों नहीं? उसने घर में पैर रखते हुए अपने को लताड़ा।’

पूरे दस बरस बाद गई थी वह घर, ननद की शादी में। एकमुश्त पन्द्रह दिन तक रही वह। चौके का सारा काम सम्भाले थी। मगर अपनी तो कौन कहे अपने बच्चों तक को खुद खाना निकालकर देने से डरती थी! कैसे दे? कहीं किसी ने टोक दिया या कुछ कह ही दिया तो! पर वहाँ तो इतने दिनों में किसी ने भी कभी नहीं पूछा कि उसने या उसके बच्चों ने खाया कि नहीं? और एक तू है, तेरे को तो बस एक ही रट लगी है ‘घर, अपना घर!’ वह जाकर चारपाई पर बैठ गई और थके पैरों को अपने सामने फैला दिया। धीरे-धीरे अपने ही हाथों से उन्हें सहलाने-दबाने लगी। घर की दीवारों को छत को, चीजों को वह गौर से देखने लगी, उन पर धूल की तहें जमा हो गई थीं। उनका मूल रंग तो जैसे पहचान में ही नहीं आ रहा था। वह चट्ट से उठ खड़ी हुई और कपड़ा उठाकर चीजों को झाड़ने-पोछने लगी। एक चीज को उठाती, उसे हाथ में लेकर देखती ‘बताओ अब ये लालटेन यहाँ लुढ़की पड़ी है, बरसात में कितनी परेशानी पड़ती हेगी और ये पिलग-वायर याँ रखा होगा। बशीर अभी महीने भर पेले ही नया खरीद के लाया।’ वह चीजों को पहचानकर, उन्हें हाथ में उठाए-उठाए उनके लिए सही जगह तलाशने लगी। घर में हर चीज की अपनी कोई न कोई जगह तो होनी ही चाहिए न! ये भी क्या कोई भी चीज कहीं भी पड़ी है चाहे फालतू की हो चाहे काम की और किसी को भी उनके घर में होने का पता ही न हो। ये क्या होगा इस कनस्तर में? इतना भारी? ओह! कलई दो साल पेले लाई थी घर को पोत लेगी फिर मन नहीं किया था उसका और उठा के कनस्तर में पटककर भूल ही गई थी उसके बारे में। उसने तुरन्त ही उसे गला दिया। घर दालान को बुहारकर साफ किया और गोबर-मिट्टी सान कर पहले तो दीवार की दरारों को उसने हिफाजत से भरा। फिर पुताई शुरू कर दी, उसका अनुमान था कि शाम ढलने तक तो वह काम को पूरा कर ही लेगी।
Story: Apna Ghar

बशीर जब अपने भाई-बहन के साथ लौटा तो सोच में पड़ गया। उसने इधर-उधर नजर घुमाकर देखा कि जहाँ खड़ा है, उसी का मोहल्ला है या कोई दूसरा? उसके घर के पिछवाड़े बाएँ कोने पर पीपल का पेड़ था, बाजू में सज्जाद मामू का घर और सामने कुछ ही दूरी पर नफीसा बी की भट्टी, बड़ी भारती भट्टी। सभी चीजें अपनी-अपनी जगह पर सही-सट्ट थीं यानी वह सफेद चमकता घर उसी का था और बैठकर भीतर कमरे को लीप रही औरत, उसकी अम्मी! फिर भी दरवाजे से घुसते हुए उसने आवाज दी ‘अम्मी ओ अम्मी’….. अमीना ने लीपते-लीपते पलटकर देखा ‘आ गए? आज तो सारे घरों के काम अकेले ही करने पड़ गए तुझे।’ ‘मगर तुमने तो घर की कायापलट कर डाली। थक गई होगी। चलो तुम लीपना पूरा करो तब तक मैं चाय बनाता हूँ।’

लीपकर बाहर निकली और मिट्टी का तसला पीछे रखकर हाथ-पैर-मुँह धोकर जब घर के सामने खड़ी हुई तो देखती ही रह गई वह अपने घर को जैसे वह किसी दूसरे का हो!
अंधेरे में इंतजार से साभार
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