कहानी : लड़कों का गाँव

उषा महाजन

एक छोटा-सा गाँव अन्नो माजरा। जैसा नाम, वैसा काम। गाँव के खेत खूब अन्न उगलते थे- गेहूँ, चने मटर, मसूर, सरसों और न जाने क्या-क्या। लोग मिल-जुलकर रहते थे और आपस में मिल-बाँटकर खाते-पीते थे।

गाँव का जमींदार भला आदमी था। सबके सुख-दु:ख में काम आता था। लेकिन स्वयं हमेशा दुखी रहता था। उसके दु:ख का कारण यह था कि उसकी सात बेटियाँ थीं और बेटा एक भी नहीं था।

एक दिन वह ऐसे ही सोच में डूबा, नदी किनारे बैठा, दूर आसमान में निहार रहा था। तभी आसमान में बिजली-सी चमकी और नदी में तरंगें उठने लगीं।

जमींदार की आँखें चौंधिया गईं। सामने देखा, तो उसकी हैरानी का ठिाकना न रहा। एक बेहद सुंदर स्त्री अपने नीले पंख फड़फड़ाती, उसके सामने खड़ी थी। वह पूछ रही थी- “भाई, आप हर दिन यहाँ बैठे क्या सोचा करते हैं? आप मुझे नहीं जानते, पर मैं आपको खूब पहचानती हूँ। जब भी इधर से उड़ती हूँ, आपको इसी तरह विचारों में खोया देखती हूँ। मैं गगन परी हूँ और यहाँ से काफी दूर, पूर्व दिशा में रहती हूँ।”

जमींदार ने दोनों हाथ जोड़, गगन परी को नमस्कार किया। फिर करुण स्वर में कहा- “क्या बताऊँ, बहन! मेरे दुखों का कोई पारावार नहीं है। मेरी सात-सात बेटियाँ हैं और बेटा एक भी नहीं। मैं जानता हूँ कि इस बार फिर एक और बेटी हो जाएगी।”

उसकी बात सुन, गगन परी भी गम्भरी हो गई। बोली- “देखो भाई, अगर ऐसी ही बात है कि आप लड़कियों से इतने दुखी हैं, तो मैं उन्हें अपने पंखों पर बैठा, अपने साथ ले जा सकती हूँ। आपको वरदान देती हूँ कि इस बार आपकी पत्नी को पुत्र पैदा होगा।”

परी की बात सुन, जमींदार की बाँछें खिल गईं। कहने लगा- “सच, मेरे घर बेटा होगा? और मेरी बेटियों को तुम अपने साथ ले जाओगी? “

गगन परी ने अपने पंख फड़फड़ाए और बोली- “जाओ, घर जाकर देखो। और हाँ, कल मैं इसी समय यहाँ आऊँगी। बेटियों को लेते आना।”

जमींदार आकाश में उड़ती परी को भौचक-सा देखता रहा। जब वह आँखों से ओझल हो गई, तब दौड़ता हुआ गाँव की चौपाल में पहुँचा। ग्रामवासियों को नदी किनारे घटी घटना के बारे में सब-कुछ कह सुनाया।

गाँव के पुरुषों की खुशी का ठिकाना ही न रहा। सभी जमींदार की खुशामद करने लगे- “हुजूर, परी आए तो उससे कहना, हमारी बेटियों को भी अपने पंखों पर बैठा, अपने देश ले जाए।”

जमींदार बहुत खुश था। वह जैसे ही घर पहुँचा, भीतर से बड़ी-बूढ़ियों के गाने की आवाजें आने लगीं। गाती-गाती ही वे बाहर आईं और जमींदार को बधाई देने लगीं कि उसके घर बेटा हुआ है। जमींदार की खुशी का ठिकाना न रहा।

उसकी सातों बेटियाँ भी भाई के जन्म पर झूम-झूमकर नाच रही थीं। लेकिन उनकी खुशी बस एक दिन की ही थी। दूसरा दिन चढ़ते ही जमींदार अपनी सातों बेटियों को लेकर नदी किनारे पहुँच गया। उसके साथ गाँव के अन्य निवासी भी अपनी-अपनी बेटियों के लेकर आ पहुँचे।

लड़कियों को क्या पता था। वे तो आपस में मिलने की खुशी में नाचने-गाने लगीं, खेलने-बतियाने लगीं। तभी आकाश में सरसराहट हुइ और अपने नीले पंख फड़फड़ाती गगन परी धरती पर उतर आई। सभी लड़कियाँ और ग्रामवासी उसे देखते ही रह गए। ऐसी सुंदर स्त्री उन्होंने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखी थी। लड़कियाँ तो उसके पास जाकर, उसके पंखों को छू-छूकर देखने लगीं।

जमींदार ने परी को झुककर नमस्कार किया। बोला- “परी बहन, तुम्हें कैसे धन्यवाद दूं। तुम्हारे वरदान से मेरे यहाँ सचमुच ही पुत्र हुआ है। अब दूसरा वादा भी निभा दो। बेटियों को ले आया हूँ। मेरे साथ ये ग्रामवासी भी अपनी-अपनी बेटियों को ले आए हैं। क्या तुम इनकी बेटियों को भी अपने साथ जाओगी? इन्हें भी केवल बेटे होने का वरदान दे दो।”

लड़कियाँ हक्की-बक्की होकर अपने घर वालों की बातें सुन रहीं थीं। उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। भोली लड़कियों ने सोचा, उनके पिता उन्हें परी के पंखों पर बैठा, आसमान की सैर कराने भेज रहे हैं। परी ने अपने पंखों को इतना फैलाया कि सभी लड़कियाँ आसानी से उन पर चढ़कर बैठ गईं।

नदी किनारे खड़े सभी पिता, परी को अपनी बेटियों को पंखों पर बैठा, उड़ा ले जाते देखते रहे। उनकी आँखों में आँसू तो थे, फिर भी वे र्निंश्चत दिख रहे थे कि चलो, लड़कियों के बोझ से तो छुटकारा मिला।

इस बात को बरसों बीत गए थे। अब इस गाँव में ढूँढने पर भी कोई लड़की नहीं दिखती थी। पूरा गाँव कुछेक बूढ़ों और ढेरों अधेड़ मर्दों से भरा था। सब स्त्रियाँ बूढ़ी होकर मर चुकी थीं। अधेड़ मर्द सब कुंआरे थे। किसी के भी बीवी-बच्चे नहीं थे।

दरअसल गाँव की सभी लड़कियों के परी के साथ चले जाने के बाद, इस गाँव में तो कोई कन्या बची ही नहीं थी। दूसरे गाँव के लोग यहाँ के लड़कों से अपनी लड़़कियों का विवाह करना नहीं चाहते थे।

गाँव के खलिहान अनाज से भरे थे। लोगों की तिजोरियाँ रुपयों से भरी थीं, पर घरों के आँगन सूने थे। न कहीं बच्चों की किलकारियाँ, न स्त्रियों की चूड़ियों की खनखनाहट।

बूढ़ा जमींदार फिर उदास रहने लगा था और रात-दिन नदी किनारे बैठा सोचता रहता।

एक दिन वह ऐसे ही सोचता हुआ बैठा था कि आसमान में बिजली-सी चमकी और गगन परी अचानक उसके सामने आ खड़ी हुई।

बूढ़े जमींदार ने उसे तुरन्त पहचान लिया। परी के पैर पकड़, गिड़गिड़ाते हुए पूछने लगा- “इतने दिनों तक कहाँ रहीं, गगन परी? हमारी बेटियाँ कहाँ हैं? उनको भी साथ लाई हो क्या? ” और वह फूट-फूटकर रोने लगा।
Story: Boys’ Village

गगन परी ने गम्भीर होकर कहा- “जमींदार भाई, तुम्हारी बेटियों को अब मैं लौटा नहीं सकती। अब वे तुम्हारी बेटियाँ नहीं रहीं। अब वे किसी की पत्नी, किसी की माता, किसी की नानी और दादी हैं। और जहाँ वे हैं, वहाँ बहुत खुश हैं। तुम्हारे या मेरे चाहने से अब उन्हें यहाँ वापस नहीं लाया जा सकता, भाई।”

जमींदार का रोना सुन, बाकी गाँव वाले भी धीरे-धीरे नदी के तट पर इकट्ठे होने लगे। सभी परी को अपनी-अपनी बेटियों को लौटाने को कहने लगे। परी ने सभी से वही कहा, जो जमींदार से कहा था।

जमींदार के साथ-साथ सारा गाँव जार-जार रोने लगा।

उन्हें रोता देख, गगन परी का हृदय पसीज गया। कुछ सोचकर वह बोली- “देखो भाइयो, एक काम मैं कर सकती हूँ। तुम लोग चाहो तो मेरे पंखों पर बैठ जाओ। मैं तुम्हें तुम्हारी बेटियों से मिलाने अवश्य ले जा सकती हूँ। पर शायद उन्हें देख, अब तुम लोग पहचान न पाओ।”

परी की बातें सुन, बूढ़ों के हृदय हर्ष से भर उठे। वे एक स्वर में बोले- “हम तुम्हारे साथ चलना चाहते हैं, गगन परी।”

परी ने पंख फैलाए और बूढ़े जमींदार सहित गाँव के सभी बूढ़े अपनी बेटियों से मिलने की आस लिए परी के पंखों पर बैठ गए।

गगन परी उन्हें पता नहीं कितनी दूर तक लेकर उड़ती रही। और जब नीचे उतरे, तो बूढ़ों को अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ।

यह कैसा अनोखा देश था। एक ओर कल-कल करती नदी बह रही थी। दूसरी ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़। चारों ओर हरियाली ही हरियाली। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बनी बांस की सुंदर झोपड़ियाँ। कहीं पुरुष खेतों में काम कर रहे थे, कहीं स्त्रियाँ चटाइयाँ और टोकरियाँ बना रही थीं। छोटे-छोटे बच्चे फूलों की बगिया में तितलियों के पीछे भाग रहे थे। परी ने बताया कि ये बच्चे उनके पड़नाती तथा पड़नातिनें थीं।

बूढ़ों की आँखें एक बार फिर भर आईं। पर इस बार खुशी के आँसुओं से। वे पूछने लगे- “हमारी बेटियाँ कहाँ हैं?”

परी ने आवाज दी- “नानियों, दादियों! आओ। देखो, तुमसे मिलने कौन आए हैं।”

परी की आवाज सुनते ही सभी स्त्रियाँ झोंपड़ियों से बाहर निकल आईं।

उन सबने अपने बूढ़े पिताओं को पहचान लिया और दौड़कर गले मिलने लगीं। बढ़े पिता ही अपनी बेटियों को नहीं पहचान पा रहे थे। अपनी उस भूल पर वे पछता रहे थे।

वे कभी रोते, कभी अपनी बेटियों को सुख भरे संसार को देख खुश हो उठते। बेटियों, दामादों, नातिनों, नातियों से जी भर मिल चुके, तो वे परी से बोले- “गगन परी, हम तुम्हारे आभारी हैं। तुम्हारे कारण हमने अपनी बेटियों को पहचाना। अब हमें हमारे गाँव वापस छोड़ दो। तुम हमारी बेटियों को ले गई थीं। अब हमें बहुएं लाकर दो, ताकि हमारा गाँव भी पोते-पोतियों की किलकारियों से गूंजे।”

गगन परी हँस दी। बोली- “चलो, तुम्हारी समझ में तो आया लड़कियों का मोल? देर से ही सही।” और उन्हें अपने पंखों पर बैठा, उड़ती हुई उनके गाँव वापस ले चली।
साभार: नंदन, जुलाई 2000
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