कहानी : कितने युद्ध

दिनेश कर्नाटक

बात उन दिनों की है, जब पाकिस्तानी   सेना की शह पर आतंकियों ने कारगिल तथा उसके आस-पास की पहाड़ियों पर कब्जा जमा लिया था। हमारी सेना ने जवाबी कार्यवाही शुरू कर दी थी। दोनों ओर से संघर्ष तेज हो गया था और देश में युद्ध का माहौल बन गया था। फौजियों की छुट्टी निरस्त कर उन्हें मोर्चे पर भेजा जा रहा था। लोग स्टेशनों में इकट्ठा होकर फौजियों का अभिनंदन कर रहे थे। अखबार युद्ध की खबरों से रंगे थे। बदनाम हो चुकी बोफोर्स तोप शत्रु के हौसले पस्त कर रही थी। टी.वी. चैनलों के पत्रकार लड़ाई के जीवंत चित्रों को अपने दर्शकों तक पहुँचाने के लिए जान की बाजी लगा रहे थे।

इधर इस छोटे से कस्बे के वर्कशाप में काम से फुरसत मिलते ही मिस्त्री, ड्राइवरों तथा क्लीनरों के साथ युद्ध की चर्चा में मशगूल हो जाते थे। गोपाल जिसे काम सीखने के लिए कस्बे में आए हुए कुछ ही दिन हुए थे, शहर में हो रही इस अफरा-तफरी तथा तरह-तरह की चर्चाओं से अचंभित था। इन्हें सुनकर वह सोच में पड़ जाता- ‘इतने बड़े देश आम लोगों की तरह क्यों लड़ने लगते होंगे! कम से कम इन्हें तो अपना बड़प्पन बनाकर रखना चाहिए!’

उन दिनों उसके साथ काम करने वाले लड़के भी खूब जोश में थे। अकेला वह ही था, जो उदासी से घिरा रहता था। इस बीच कस्बे में पहले शहीद का शव आया। सारा कस्बा शोक में डूब गया। संवेदना प्रकट करने के लिए सैकड़ों की संख्या में लोग उसके घर पहुँचे। जब शवयात्रा निकली तो लोगों ने रास्ते के दोनों ओर से फूलों की बौछार कर शहीद का अभिनन्दन किया। अखबारों ने उस की शान में बड़े-बड़े लेख छापे। उस्ताद ने भावुक होकर कहा- ‘जिन्दगी हो तो साली ऐसी हो…. सालों-साल घिसटने से तो ऐसी मौत अच्छी!’

गोपाल सोच रहा था, इस शोर-शराबे और देशभक्ति की लहर के बीच कुछ समय के लिए शहीद के परिवार वालों को अपना दु:ख भूलकर गौरवान्वित होने का मौका मिल रहा है। लेकिन यह महान बलिदान कब तक उन्हें दिलासा दे पायेगा? क्या लोगों का नजरिया हमेशा ऐसा बना रहेगा!

उसे अपने बचपन के दिन याद हो आए? रोती, पछाड़ खा-खाकर छटपटाती माँ। माँ को देख-देखकर कभी रोते, कभी उसे उसके हाल पर छोड़कर गाँव के रास्तों पर भटकते हुए वे भाई-बहन!

उसे सोच में डूबा हुआ देखकर उस्ताद ने उसे लताड़ा, ‘क्यों बे, क्या सूरत बना रखी है? देख रहा है, फौजी ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों और चट्टानों पर चढ़कर दुश्मन से लोहा ले रहे हैं, अपनी जान की बाजी लगा रहे हैं। सीने में गोली खा रहे हैं। और एक तू है कि तुझे मजा ही नहीं आ रहा है!’

गोपाल ने रुंआसा होकर कहा- ‘कुछ पुरानी बातें याद आ गयी थीं उस्ताद! लोगों को तो इसी बहाने एक-दो दिन अपनी देशभक्ति दिखाने का मौका मिल जाता है। लेकिन जिस घर का आदमी शहीद होता है, बाद में उन्हें कैसी-कैसी लड़ाइयाँ लड़नी पड़ती हैं, ये वो सोच भी नहीं सकते!’

‘तू भी कहाँ पहुँच जाता है! उस्ताद उसकी बात को हवा में उड़ाते हुए आगे बढ़ गये।’

…..

आँख खुली तो उसने घुटनों के बल बैठी ईजा (माँ) को शून्य में ताकते हुए देखा। दरवाजे के बाहर रात अपने काले पंख पसार चुकी थी। रात के कीड़े जोर-जोर से कुलबुलाने लगे थे। वह पसीने से नहाया हुआ था। गला प्यास के मारे सूखा जा रहा था। शरीर थकान में डूबा हुआ था। उसे लग रहा था, जैसे आज वह कई दिनों बाद सोकर जागा है।

‘तू काम से आते वक्त डर गया था रे!’ उसे उठते हुए देखकर ईजा ने कहा और पानी का गिलास उसकी ओर बढ़ा दिया। ‘धारे (स्रोत) का ताजा पानी है। अभी तेरी बहन लेकर आयी है!’

उसकी समझ में कुछ नहीं आया। वह इस उम्मीद में कि माँ कुछ और बतायेगी उसकी ओर देखने लगा।

‘सौनी के छल (भूत) ने दबा दिया था तुझे! दो दिन से अचेत पड़ा था। तेरा भुप्पीका लाया था तुझे सौनी गाड़ (छोटी पहाड़ी नदी) से…. तेरी भभूत के लिए कहाँ-कहाँ नहीं भागा! तुझसे कितनी बार कहा है टाइम से घर आ जाया कर। प्राण उड़े रहते हैं मेरे!’
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उसे याद आने लगा। दुकान बढ़ाते समय एक ट्रक आ गया था। उस्ताद ने मना कर दिया था। ड्राइवर पीछे पड़ रहा था। काम करते हुए देर हो गयी थी। आठ बजे के बाद वह घर की ओर चला था। रास्ते में शेर-बाघ का डर बना रहता था। एक सूखे डंडे पर कपड़ों को लपेटकर मशाल बना ली थी। जो कुछ ही दूर तक साथ निभा पायी। अंधेरा इतना गाढ़ा हो गया था कि कई बार वह रास्ता छोड़कर झाड़ियों की ओर चला जाता था। सौनी गाड़ के करीब पहुँचकर थोड़ा डर-सा गया था वह! डर से मुक्ति पाने के लिए वह जोर-जोर से कोई गीत गाने लगा था। तभी उसे लगा जैसे किसी ने उसकी कमीज को पकड़कर पीछे को खींचा। उस पल उसका कलेजा मुँह में आने को हो गया था और हाथ-पाँव ढीले पड़ गये थे। इसके बाद क्या हुआ उसे याद नहीं था।

‘तेरे मालिक लोगों को बिल्कुल भी दया नहीं आयी। समय से छोड़ा नहीं। रास्ता कितना खराब है। तूने भी उन लोगों से कुछ नहीं कहा होगा। इतने सीधेपन से काम नहीं चलता बेटा! भुप्पीका को वहाँ भेजकर कहलवा दिया है, समय से छोड़ दिया करें! कुछ हो जाता तो क्या होता? माँ उसका हाथ सहलाते हुए कह रही थी।’

पहले ही उसको लेकर वर्कशाप के लोग तरह-तरह की बातें करते थे। आए दिन छुट्टी लेने पर उस्ताद डाँटते रहते थे। वहाँ के लड़कों के लिए भी वह समय काटने का बढ़िया साधन था। वे उसकी चुप्पी और दब्बूपन पर कभी गुस्सा करते तो कभी उसका मजाक उड़ाते। हर तीसरे-चौथे दिन या तो उसकी तबियत खराब हो जाती या उसे कोई जरूरी काम पड़ जाता। उस्ताद उससे कई बार गुस्से में आकर कह चुके थे कि इस तरह वो कभी काम नहीं सीख पाएगा। उसमें वो ललक है ही नहीं, जो काम सीखने वाले लड़कों में हुआ करती है। उसकी भलाई को ध्यान में रखते हुए, कई बार वो उसको प्यार से समझा चुके थे कि यह काम उसके बस का नहीं है। वह तो गाँव में गायों की लंगार को हाँकने या जंगल से जलावन लाने के ही काम का है। धीरे-धीरे वो उसके आदी होते चले गए और उन्होंने उसे टोकना छोड़ दिया था। काम सीखने के नाम पर एक बढ़िया नौकर जो मिल गया था। जहाँ चाहो दौड़ाओ। वह किसी काम के लिए न तो बहाना बनाता था और न मना करता था।

सुबह वर्कशाप को जाते समय जब वह नैनी के लहलहाते खेतों के बीच से गुजरता तो अपने को हल्का और ताजा महसूस करता। पहाड़ की तलहटी पर बसे उसके खूबसूरत गाँव ने उसे खूब दंश दिये थे। वह गाँव में होता तो उलझा रहता। एक अजीब तरह की घुटन, एक अजीब तरह की बेचैनी उसे घेरे रहती थी। वह न जाने क्या-क्या सोचते रहता और किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाता था।

उसने जब होश संभाला तो अपने को ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से घिरा पाया। माँ सहित गाँव की औरतों को गाय, बकरी, खेत और घर से जूझते हुए देखा। पुरुषों को कभी आपस में गप्प लड़ाते तो कभी किसी बात पर लड़ते हुए देखा। औरतें कभी न खत्म होने वाले कामों से बेहाल हुई रहतीं और मर्द शाम ढलते ही शराब में धुत्त होकर बकबकाते हुए घर को लौटते। वह जिज्ञासा से यह सब देखता और सोचता, आगे जाकर उसे भी ऐसे ही जीना होगा। जीने के लिए यह सब समझना होगा।

उन दिनों वह स्कूल में कखग सीखने के बाद बाराखड़ी सीख रहा था, जब एक खबर ने घर में तूफान मचा दिया था। माँ कई दिनों तक रोती रही। घर में सांत्वना देने वालों का तांता लगा रहता। आने वाले लोगों में पास के कस्बे के कुछ बड़े किस्म के लोग भी होते थे, जिनके इर्द-गिर्द गाँव के लोगों की भीड़ जुट जाया करती थी। वे उसकी माँ को समझाते- ‘तेरा पति देश के लिए शहीद हुआ है। उसने अपनी मिट्टी का कर्ज चुकाया है। अब तुझे अपने बच्चों और घर की जिम्मेदारी निभानी है। देख, दूर-दूर तक तेरे पति की जय-जयकार हो रही है।’

माँ छोटी को अपने आंचल में छिपाये रहती। उसको सुबकते हुए देखकर वो दोनों भाई भी रोने लगते। माँ के आँसुओं के सिवाय उनको कुछ समझ में नहीं आता था। वे जिज्ञासा से आने-जाने वालों की तरफ देखते। आमा (दादी) से पूछते। वह देर तक उनकी ओर देखते हुए कहती। ‘सब कुछ खत्म हो गया!’ तब वह सोचता, ‘सब कुछ तो वैसा ही है। क्या खत्म हुआ? कुछ भी तो खत्म नहीं हुआ? आमा ऐसा क्यों कह रही है?’
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माँ के कहने पर बड़ा भाई उसे अपने साथ खेलने ले जाता था। पर उसके भीतर माँ की छवि घूमते रहती। उसका मन खेलने में नहीं लगता था। कहीं कुछ गलत हुआ है। वह सोचता और भागकर माँ के पास आ जाता। माँ उसे गले लगा लेती। वह कुछ नहीं बोलती। उसके आँसू उसके चेहरे को भिगो देते। आँसू का स्वाद वह बचपन में ही चख चुका था।

कुछ वर्षों बाद उसकी समझ में आया कि उसके पिता अब कभी घर नहीं आयेंगे। वो फौजी थे और विद्रोहियों से लड़ते हुए उत्तर-पूर्व में कहीं शहीद हो गये थे। वह समय आजकल का जैसा तो था नहीं! वहीं उनकी अंत्येष्टि कर दी गई और उन्हें पत्र के द्वारा सूचित कर दिया गया। माँ ‘वार विडो’ हो गई और उसे पेंशन मिलने लगी। पिता का एक चित्र घर में लगा था। चित्र में लगी फूलों की माला को बदलना माँ कभी नहीं भूलती थी।

गाँव के लोगों को लगता था, उसकी माँ बहुत दिनों तक इस घर में नहीं रह पाएगी। वह जवान और खूबसूरत थी। बहुत हुआ तो अपने मायके में जाकर रहने लगेगी। पर लोगों के अनुमानों को झुठलाते हुए वह अपने बच्चों और सास के साथ वहीं बनी रही। दोनों मिलकर खेती-बाड़ी करते। बाद में पैर के जोड़ों के दर्द के कारण आमा ने खेतों में जाना छोड़ दिया। माँ की जिम्मेदारियाँ पहले से काफी बढ़ गयीं। लेकिन उसने हार नहीं मानी। वह अंधेरे में ही उठकर गाय-भैंसों का सानी-पानी करती, सबके लिए चाय बनाती, खाना बनाती, खेत में निराई-गुड़ाई करती और जंगल से घास-पात लाती। उसके शरीर में धूल मिट्टी जमी रहती। थक-हारकर दम लेने के लिए बरामदे में बैठती तो सास अपनी ‘कचकच’शुरू कर देती। उम्र बढ़ने के साथ वह बहू के दुर्भाग्य को अपने बेटे की मौत का कारण समझने लगी थी।

हरीश गाँव के लड़कों के साथ नयी-नयी जगहों की खोज में लगा रहता। वह बीड़ी के सुट्टे लगाने लगा था। आए दिन उसकी स्कूल से भागने की खबर घर में आती रहती थी। गोपाल का मन पढ़ाई में नहीं लगता था। वह सोचता कि वह कुछ ऐसा करे जिससे माँ के सारे कष्ट दूर हो जाएँ। माँ की उदासी उसके हृदय में तीर की तरह चुभती। पहले की तरह रिश्तेदार भी पूछ-खबर लेने नहीं आते थे। आस-पास के अन्य लोग तो कब का उन्हें भुला चुके थे।

सास का सहारा था तो पुरुषों वाले कई काम दोनों मिल-जुलकर कर लिया करते थे। मजबूरी में ही किसी को बुलाया करते थे। उनमें सबसे विश्वसनीय था भुप्पी! इधर जब माँ अकेली पड़ी तो सास की जगह उसने ले ली। बुवाई, जुताईर्, ंसचाई और बाजार से सौदा-पत्ता लाने के कामों में उसका होना अपरिहार्य सा हो गया। उसका तीनों समय का खाना उन्हीं के वहाँ बनने लगा। इस दौरान कब वह उनके घर का एक हिस्सा बन गया, उन्हें पता ही नहीं चला। यूँ तो वह गाँव तथा आस-पास के लोगों के छोटे-मोटे काम करके गुजर-बसर करता था। मगर खाने-पीने का इंतजाम हो जाने के कारण उसका काम की तलाश में इधर-उधर जाना बंद हो गया। रात को खाना खाने तथा आमा के साथ दुनिया-जहान की बातें करने के बाद वह अपना पसंदीदा गीत ‘बेड़ू पाको बारमासा…’ गुनगुनाते हुए अपने कमरे की ओर चला जाया करता था।

भुप्पी का साथ मिला तो माँ में भी जीवन के चिह्न लौटने लगे। उसे बच्चों तथा अपने ऊपर ध्यान देने की फुरसत मिलने लगी थी। वह बच्चों के कपड़ों तथा साफ-सफाई का ध्यान रखती थी। मौका लगता तो उनके कॉपी-किताबों को देखती और पढ़ाई के बारे में बात करती। किसी काम के लिए इधर-उधर आते-जाते गाँव की औरतों के साथ बैठ जाती।

लेकिन जो गाँव वाले उनको भूल चुके थे, अब उनकी चिन्ता करने लगे थे। उनकी गतिविधियों पर नजर रखने लगे थे। भुप्पीका और माँ को लेकर कई तरह की बातें होने लगी थी, जो घर की चहारदीवारियों से निकलकर खेतों, रास्तों, चौपालों तक पहुँच चुकी थी।

जब भी गोपाल गाँव के लोगों के बीच से गुजरता, उसे लगता हर चेहरा उससे कुछ पूछना चाहता है। लंपट किस्म के लोगों ने तो भुप्पीका और माँ को लेकर तरह-तरह के सवाल पूछने भी शुरू कर दिये थे। जिनको वह माँ को सुना दिया करता था। माँ कहती, ‘बेटा, ये लोग हमें दो रोटी खाते हुए नहीं देख सकते, तू उनकी बातों में ध्यान मत दिया कर!’ लेकिन वह कैसे उनकी बातों पर ध्यान नहीं देता? स्कूल से आते-जाते, खेलते-कूदते सब जगह तो वही लोग थे।

उस दिन जब वह माँ के बार-बार कहने पर भुप्पीका को बुलाने दुकान पर गया तो उसे देखकर जितुवा कहने लगा, ‘भुपिया चल…. आ गयी तेरी औलाद! खाना बन गया होगा…. तेरे भी खूब मजे हैं यार, बिना शादी किए ही तुझे दहेज में सब कुछ मिल गया!’
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उसकी बात की प्रतिक्रिया में सभी हँसने लगे।

सबको हँसता हुआ देखकर भुप्पीका भी हँसे थे। वे सब गोपाल को व्यंग्य भरी नजरों से देख रहे थे। उनकी नजरों में तैर रहे लाल डोरों को देखकर वह घबरा गया और सहमा हुआ भुप्पीका के निकट पहुँच गया। भुप्पीका नशे में था। उसने गोपाल का हाथ पकड़ा और घर की ओर चल पड़ा।
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माँ रसोई में थी। भुप्पीका रसोई की चौखट पर बैठ गया।
‘आजकल तो तू यहाँ का रास्ता भूल गया!’ उलाहना देते हुए माँ ने कहा था।
‘क्या फायदा भाभी, देख रही हो गाँव वाले कैसी-कैसी बातें करते हैं….. मुझे अच्छा नहीं लगता, मेरी वजह से तुमको क्या-क्या नहीं सुनना पड़ता है?’

‘सुनना तो सीता को भी पड़ा था, फिर मेरी क्या बिसात? तेरे लिए कहाँ-कहाँ बात नहीं चलाई…. रोजी-रोटी का भरोसा भी दिया…. कोई राजी ही नहीं होता…. सब को इसमें भी मेरा ही स्वार्थ नजर आता है…. कान भर देते हैं, कहते हैं, दो-दो काम वाले मिल जायेंगे!’

माँ चूल्हे से उठकर उसके करीब आ गयी थी।
‘छि…. शराब पीकर आया है?’
‘तुम्ही बताओ और क्या करूँ? बगैर कुछ करे तो ये हाल है!’
‘क्या करना चाहता है रे!’
अचानक वह माँ को पकड़कर अपनी ओर खींचने लगा।
‘शर्म नहीं आती है तुझे, कोई देखेगा तो… भाग यहाँ से!’ माँ ने उसे धक्का देते हुए कहा था।

‘भौजी शर्म करके ही तो मेरे करम फूट गये!’ उसने बड़बड़ाते हुए कहा।

‘तू नहीं ये शराब बोल रही है….अच्छे से जानती हूँ तुझे…. कल को तेरे मुँह से आवाज तक नहीं निकलेगी… नजर उठाकर तक नहीं देख सकेगा..चल, बच्चों के साथ बैठकर कुछ खा ले… कल सुबह आ जाना….खेतों में काम करेगा!’

गोपाल को गुस्सा आया था। वह सोचने लगा, ‘शायद यही वह गड़बड़ है जिसका जिक्र सभी लोग करते हैं। माँ ने भुपका को सख्ती से डाँटा क्यों नहीं? माँ से ऐसी बात करने की उसकी हिम्मत कैसे हुई? हमें तो एकदम डपट देती है। उसका मन हुआ, वह इसी समय भुपका का सिर फोड़ दे। पर माँ की मुस्कान से उसके हाथ-पाँव फूल गये। कहीं माँ भी इस खेल में शामिल तो नहीं है, जैसा लोग कहते हैं?’
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समय के साथ वे भाई-बहन और बड़े तथा समझदार होते गये। आमा अपने शहीद बेटे को याद करते, नाती-पोतियों को दुलारते और अपनी बहू को जली-कटी सुनाते हुए एक दिन चल बसी। गोपाल को अब तक अपने आस-पास की जो चीजें रहस्य जैसी लगा करती थी, अब धीरे-धीरे समझ में आने लगी थीं। अपने गाँव के सामने के जिस पहाड़ को देखकर वह सोच में पड़ जाता था, अब उसको मालूम हो चुका था कि उसके पार नेपाल देश है। वही नेपाल देश जहाँ डोटी क्षेत्र के लोग यहाँ काम के लिए आया करते हैं। उसके गाँव जैसे कई गाँव, कई शहर, कई देश हैं, जिनसे मिलकर दुनिया बनती है और दुनिया बहुत बड़ी है। यह कि अगर वह अपने कस्बे वाली सड़क पर चल पड़े तो देश के कोने-कोने तक पहुँच सकता है।

गाँव वाले तथा रिश्तेदार उनके बारे में क्या-क्या कहते तथा सोचते हैं। वे भाई-बहन खूब समझते थे। पर न तो आपस में अपने दर्द को बाँट पाते थे, न किसी से कुछ कह ही सकते थे। हरीश झगड़ालू हो गया था। आए दिन वह किसी न किसी से मारपीट कर आता था। गोपाल को लगता, यह उसके भीतर भरा हुआ गुस्सा है, जो इस तरह निकलता है। घर में भी सब उससे सहमे-सहमे रहते थे।

उस दिन हरीश की शिकायत लेकर पड़ौस की काकी घर आयी तो माँ ने पास बैठे भुपका से कहा, ‘भुप्पी, ये हरीश बहुत बिगड़ गया है। गाँव में जिस किसी से झगड़ आता है। मेरा कहना मानता नहीं! स्कूल जाता नहीं….क्या करूँ!’

यह सुनते ही हरीश भड़क उठा, ‘कौन होता है ये…. क्या लगता है हमारा…. जो तू इससे मेरी शिकायत कर रही है।’
सभी को जैसे साँप सूँघ गया। भुपका दूर क्षितिज की ओर देखने लगा।
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‘ये तुम्हारा कोई नहीं लगता। न ही ये मेरा कोई लगता है। जब तेरे बाबू तुम सब की जिम्मेदारी मेरे ऊपर डालकर देश के लिए शहीद हो गए, मुझे अकेले दुनिया के नोंच खाने के लिए छोड़ गये, अपनों ने हमारी ओर पीठ कर दी, तब इसी ने आगे बढ़कर मेरे साथ इस घर की गाड़ी को धक्का दिया। हर दुख तकलीफ में हमारे साथ रहा! माँ रोते हुए कह रही थी।’

गोपाल को लगा, माँ ठीक ही तो कह रही है। लेकिन भुप्पीका को देखकर वह फिर से सोच में पड़ गया।
‘गाँव भर के लोग हमारा मजाक उड़ाते हैं। तू कहती है, मैं स्कूल नहीं जाता। इसीलिए नहीं जाता हूँ, मैं स्कूल! बच्चों
लेकर मास्साब तक हमें देखकर हँसते हैं। एक-एक से बदला लूंगा! अगर ये हमारे घर में दिखा….’
‘खिला-पिलाकर बड़ा कर दिया है तुझे! हिसाब माँगने की उम्र हो गयी है तेरी! मेरी अग्निपरीक्षा लेना चाहता है ना?’
‘अब तक जो हुआ, हुआ! अब ये हमारे वहाँ नहीं आएगा!’
‘मालिक हो गया है, घर का…! अपनी माँ के बजाय तुझे बाहर के लोगों की बातों पर ज्यादा भरोसा है। तो साफ-साफ
न ले जब भुप्पी का मन होगा, वो यहाँ आ सकता है!’
‘हाँ क्यों नहीं, तेरा खसम जो है वो!’

माँ झटके से उठी और एक थप्पड़ हरीश के चेहरे पर जड़ दिया, ‘रिश्तों के बारे में इतना ही पता है तुझे…. आदमी औरत का खसम ही हो सकता है और कुछ नहीं हो सकता…. तेरा भी क्या दोष है… तू भी इसी खाड़ का पिनालू हुआ!’ (इसी गड्ढे की पैदाइश)

हरीश ने माँ का हाथ पकड़ लिया और उसकी ओर जलती हुई नजरों से देखने लगा।
‘तू गंदी औरत है….. तू गंदी औरत है!’ कहते हुए वह गधेरे की ओर को भाग गया।

भुप्पीका ने मुर्दार चेहरे से माँ की ओर देखा और उदास कदमों से गाँव की ओर चला गया। माँ जहाँ थी वहीं पर ढह गयी और घुटनों के बीच चेहरा छुपाकर रोने लगी। उस दिन गोपाल ने सोचा था, अब समय आ गया है कि वह तय करे कि वह हरीश और गाँव वालों के साथ है या माँ के साथ! आखिर कब तक वह सोचता रहेगा! कब तक सच-झूठ और पाप-पुण्य के पाट में पिसता रहेगा? उसने माँ के करीब जाकर उसके सिर पर हाथ फेरा था। माँ ने चेहरा उठाकर उसकी ओर देखा तो वह खुद को रोक नहीं पाया और उससे लिपट गया। अब तक छोटी भी आकर माँ से लिपट गयी। उसने बहुत दिनों के बाद माँ के चेहरे पर एक युद्ध को जीतने की सी खुशी देखी थी। लेकिन वह जानता था, युद्ध अभी खत्म नहीं हुए थे। न जाने, उन्हें अभी और कैसी-कैसी लड़ाइयाँ लड़नी होंगी!

‘हाँ, भई कौन-सी दुनिया में पहुँच गया? तेरा भी भगवान ही मालिक है…..! जब देखो तेरा भी न जाने कहाँ-कहाँ से कनैक्शन जुड़ जाता है…. जरा दौड़कर पानी तो ला!’ उस्ताद ने एक बार आवाज देने के बाद खीझते हुए, उसके पास जाकर उसे हिलाते हुए कहा था।

‘हाँ…हाँ… अभी लाया!’ चौंककर गोपाल एकदम अतीत से वर्तमान में लौट आया था।
उसे भागते हुए देखकर वर्कशाप के लड़के हँसने लगे थे।
‘इस लाटे को कौन समझाये कि इसमें भागने की क्या बात है?’ एक लड़के ने दूसरे से कहा था।
-पहाड़ में सन्नाटा से साभार
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