कहानी : ठंडा बस्ता 

रश्मि बड़थ्वाल

शाम ढलने लगी है। दूर-पास के सभी घरों में गहमागहमी बढ़ने लगी है। बीजी कल ही डेढ़ सौ रुपये की धानी-गुलाबी चूड़ियां खरीदकर लायी थीं जो आज मेरे हाथों में छनक रही हैं। पापा जी इस बार बनारस से विशेष रूप से धानी-गुलाबी धारियों वाली बनारसी साड़ी तैयार करवाकर लाये हैं क्योंकि उनके मंझले बेटे गुरदीप को ऐसी साड़ी बहुत पसंद है, और मैं गुरदीप की ब्याहता हूं। मेरी ननद शन्नो ने कल मेरे हाथों में बारीक मेंहदी माड़ी है, बड़ा चटख रंग आया है। बीजी और शन्नो ने कल से मुझे पानी का कोई काम करने नहीं दिया कि मेंहदी का रंग फीका न हो जाय।

वीर जी थोड़ी ही देर पहले तीन गजरे लेकर आये हैं। दो दोनों में इकहरी बेला की लड़ियों के हल्के गजरे हैं और तीसरे दोने में। हाय रब्बा, सदके जावां! इन्ना सुंदर गजरा मैनूं कबी नई वेखिया बीजी! शन्नो ने आश्चर्य विस्फारित नेत्र मां की ओर घुमाये।

मेरी जेठानी अपने कमरे में तैयार हो रही थी, खुली हुई लिपस्टिक हाथ में थामे हुए ही दौड़ी आयीं, की होया नी शन्नो?
और फिर गजरा देख पुलकित हो गयीं ओयेऽ नजर ना लग्गे! मेरी देराणी दे वास्ते लाए हैं ये वाल्ला तो!
इसे आप लगाइए। लाइए मैं सजा दूं। मैंने जेठानी के बालों में वह गजरा सजाना चाहा तो उनकी आंखों में शरारत तैर गयी।
अच्छा-अच्छा रैणे दे, अज्ज मेरे ब्या की सालगिरह तो है नईं!
मेरी पलकें झुक गयीं। आज तो मेरे विवाह की वर्षगांठ है। चौदहवीं वर्षगांठ!

लाओ परजाई जी, मेरा मेहनताना। मेरा देवर सुरजीत मेरे सामने हंसता पसीना पोंछता हुआ आ खड़ा हुआ और मैंने हल्की-सी चपत उसके गाल पर मेहनताना के रूप में धर दी। दो घंटे से घर की सजावट में जुटा था सुरजीत। लॉन के दसों मोरपंखी के पेड़ों को बिजली के कुमकुमों से सजाया है और छत से घर की चाहरदीवारी तक कुमकुमों की मालाओं से तम्बू-सा तान दिया है उसने। मेरा मन हुआ कि अपने घर से सौ मीटर दूर दौड़ती जाऊं और देखूं कि वहां से कैसा लगता है हमारा घर! पर नहीं जा सकती। इतना लद-फंद कर भला द्वार से बाहर झांका भी जा सकता है?

बीजी ने सारी तैयारियां कर ली हैं, बस चांद उगने की देर है। पापाजी छत पर जाकर बैठ गये हैं, जैसे ही चांद उगेगा वे आवाज देंगे ‘शन्नोऽ वड्डीऽ छोट्टीऽ आओ चांद उग आया है’, पर पापाजी की आवाज आती है छोट्टीऽऽ आओ चांद उग आया।

न शन्नो कह कर अप्रत्यक्ष रूप से बीजी को पुकारा, न ही बड़ी बहू को। आज पापाजी भी बहुत खुश हैं। यूं तो हमारे घर में हर त्यौहार ही धूमधाम से मनाया जाता है, कई-कई दिन पहले से तैयारियां चलने लगती हैं, पर घर के मर्द लोग सारे त्यौहारों में रुचि नहीं लेते। खासकर करवाचौथ तो उन्हें उबाता सा है। काम छोड़कर बंधे समय पर घर जो आना पड़ता है। कई दिनों तक वे लोग इस बात पर भुनभुनाते हैं लेकिन आज ऐसा नहीं है। हमारे ब्याह की वर्षगांठ और करवाचौथ एक साथ पड़ गये न! दोहरा त्यौहार हो गया। ठीक चौदह वर्ष पहले की तरह। जब मेरे विवाह की पहली वर्षगांठ पड़ी थी उसी दिन करवाचौथ भी थी।

उस दिन मेरी सास, ननद, जेठानी जैसा आदेश देती रहीं, मैं उनका पालन-अनुसरण करती रही थी। उस दिन भी घर के सब लोग खुश थे और मुझे बुरी तरह खल रहा था सब कुछ। जीवन में मुझे पहली बार भूखा रहना पड़ा और उस बेचैनी में ही अनगिनत नियम आडम्बर पूरे करने पड़े थे। घर भर में किसी ने भी मुझसे एक बार नहीं पूछा था कि व्रत रखोगी? या कर पाओगी इतना सब? करना चाहोगी?

कैसे आया होगा इस घर में करवाचौथ? सरदारों के घर में! सालों से उत्तर-प्रदेश में रहते-रहते? खान-पान तो मौसम के अनुसार बदल जाता है, जगह-जमीन जलवायु के अनुसार भी, पर क्या जरूरत है हमें जीवन में आडंबर बढ़ाते जाने की? दूसरे लोग तो आकर लाद नहीं गये होंगे कि लो दार जी करवाचौथ को भी तुम्हीं संभालो। ग्राहक बढ़ाने के लिए अपनाया गया नुस्खा होगा या चमक-दमक का आकर्षण, सजने-संवरने का एक मौका हथियाना या हम किसी से कम नहीं का प्रदर्शन? क्या मालूम! पर मुझे तो कोई पूछ लेता कि करवाचौथ करोगी, करना चाहोगी।

कैसी दुनिया है यह, रब्बा मेरे! बाहरी चोंचलों में सारा-का-सारा दिन खप जाता है और अपने भीतर उतरने के लिए पल नहीं! अपने हैं सब, पर पहचानता कौन है मुझे? कह दूं कि आज के दिन मेरी तस्वीर सोने के फ्रेम में जड़वा दो तो शायद शाम तक चार फ्रेम आ जायं सोने के, पर कहूं कि दुछत्ती के संदूक से एक पुरानी तस्वीर उतरवा दो तो जमीन-आसमान उलट-पलट हो जाएंगे।

बीजी के मुंह से निकले शब्द ही जैसे सार्वभौमिक सत्य थे और आज भी हैं। उनका एकछत्र निरंकुश साम्राज्य है घर में, यह तो मैं वर्ष भर में समझ ही गयी थी। जिन ताम-झामों पर तनिक भी आस्था नहीं वे सब निभाती रही मैं और चेहरे पर शिकन भी न आने दी। ‘सबको खुश रखना’यही तो सब चाहते हैं न मुझसे ! और सबको खुश रखने के लिए खुद भी खुश दिखना जरूरी होता  है न! 

पापाजी का व्यवसाय तब भी अच्छा चलता था अब भी अच्छा चलता है। दो नौकर दुकान में रहते हैं, दो घर पर। महरी धोबिन अलग लगी हैं। घर मे सुख-सुविधा के सारे साधन मौजूद हैं। बीजी अपनी पृथुल काया का भार बारी-बारी खूब दबा-दबाकर बाएं-दाएं पांव पर डालती हुई घर में चारों ओर  और घर के अंदर एक-एक कमरे में डोलती रहती हैं। कहीं भी कुछ भी दृष्टि में खटका कि वहीं से आवाज देंगी, ‘छोट्टीऽऽ’……।

मैं तुरंत दौड़ पड़ती हूं। अगर जरा सी भी देर हुई तो इसे सीधे-सीधे सास की अवहेलना माना जाएगा फिर कम से कम आधा घंटा धाराप्रवाह भाषण सुनना पड़ेगा और उसके बाद दण्डस्वरूप घर भर के लोगों का दीर्घ मौन। वे आपस में खूब चुहल करेंगे, बातें करेंगे, उनका अपनत्व और परस्पर स्नेह ऐसे में द्विगुणित हो जाता है पर अगर मैं उनके पास चली जाऊं तो सब के सब खट से चुप हो जाएंगे। यूं सन्नाटा हो जाएगा मानो टेपरिकार्डर का स्विच ऑफ कर दिया गया हो। घर के सभी सदस्य शाम को पीढो़ं पर बैठेंगे, पापाजी ऊंचे तखत पर गाव तकिया लगाये होंगे, अपराधी और नौकर खड़े होंगे फिर कोर्ट-कचहरी के ही ढंग से पूछताछ होगी। वैसी ही अपमानजनक स्थिति! मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाती अपने-आप को और आंसू आंखों में थिरकेंगे तो सुनना पड़ेगा – ‘शर्म करो, गरीब घर से आयी हो, पीछे से तीन-तीन बहनें हैं। उनके भी ब्याह होने हैं या नहीं? अरे, हम हैं जो तुम्हें नाजों से रख रहे हैं।’

मानो, दूसरे सब तो जूठी पत्तल की तरह फेंक ही देते। गुरमीत कैसा मर्द है! उस समय मुझे यही प्रश्न झंझोड़ता रहता है। छ: फुटी कद्दावर देह, गालों को छूते डर लगता है कि जरा सा नाखून लग जाएगा तो खून चू पड़ेगा। उसके गहरे गुलाबी होठों के कगार से लगी पतली मूछें आज भी बहुत सुंदर लगती हैं मुझे। उसके आलिंगन चौदह वर्ष पहले की तरह आज भी प्रगाढ़ होते हैं परंतु़… न मुझे कुछ बोलने का अधिकार देता है न ही अपने होठों के ताले तोड़ता है।

वह पहला करवाचौथ… कितना थका गया था मुझे, तन और मन दोनों से!…. और झंझोड़ गया था मेरा आत्मसम्मान। फिर जब मैने एकान्त में दबे स्वर में गुरमीत से यह कहा था तो उसने मेरे होठों पर अपनी हथेली रख दी थी।

क्या बोल रई है? तुझे काए की कमी है? खाणा नईं मिलता क्या? पैनणे को इतना अच्छा तूने सपणे में भी ना देख्खा होगा! और काम तो कुछ हैई नईं! बस दो बखत की रोट्टी सेकणी़…फिर परजाई भी तो है, शन्नो है, बीजी है!

बीजी की एक-एक आवाज पर दौड़ लगानी पड़ती है। जरा सा भी देर हो तो वे बड़ा बुरा मान जाती हैं।
तो देर करोई नईं।
और जो नहा रही होऊं, सो रही होऊं, खा रही होऊं तो? तो कैसे दौड़ूं तुरंत? मेरे आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा था।
हमारे साथ तो ऐसेई चलणा है राणी! न एक सूत इधर, न एक सूत उधर। घर तो तुड़ाणा नईं है। चूल्हा अलग कराणा नईं है। फेर जिसे हमारे साथ रैणा है, ठाठ सेई रैणा है।

गुरमीत ने तो अपना फैसला सुना दिया था। मेरे पास समझौते के अलावा कोई रास्ता नहीं था। माता-पिता के निरीह चेहरे आंखों में घूम जाते उस घर में निभाना बेटी, जैसे भी हो।…. बहनों की व्याकुल आंखें पलकों के भीतर सिमट आतीं …. तुम्हारा निभाना देखकर ही हमारे लिए अच्छे रिश्ते आएंगे दीदी!

घर से अलग होने का तो मैंने कभी सपना भी नहीं देखा था पर घर में मेरा कोई अस्तित्व भी तो हो! अठारह की थी जब ब्याह कर आयी थी। पढ़ने का बहुत-बहुत शौक था। वही शौक याद आया तो मैंने कहा, पढ़ने के लिए न मुझे समय मिलता है न किताबें।

गुरमीत ने जोर का ठहाका लगाया। अब पढ़के तैन्नूं क्या करणा है? अफसराणी बणेगी क्या?
गुरमीत, कोई एक कोना ऐसा भी तो हो जो मेरा हो सिर्फ मेरा! तुम्हारे इस छत्तीस सौ वर्गफुट के घेरे में एक छोटा सा कोना भी ऐसा नहीं है जहां किसी दूसरे का हाथ न जाता हो ।
चोरी का माल धरणा है क्या तैन्नूं? गुरमीत फिर हंस दिया था और मैं फिर रो पड़ी थी।
कुछ चीजें ऐसी भी तो होती हैं जिन्हें कोई भी, किसी को भी, दिखाना नहीं चाहता!
मैंन्नूं आरई है नींद। तेरी बात बाद में सोचेंगे!
इतना कह कर गुरमीत करवाचौथ की उस रात को करवट बदलकर सो गया था।
मेरे मन की राख हो चुकी नैसर्गिक उत्फुल्लता में एक चिंगारी की सी सुलगन बनकर जीवित रहा था यह ‘बाद में सोचेंगे’।

फिर मैंने कभी कुछ नहीं कहा। हर सुबह मैं यह सोच कर उठती कि आज शायद गुरमीत सोेचेगा, और हर रात यह सोच कर सो जाती कि शायद गुरमीत कल सोचेगा। ….एक दिन सोचेगा गुरमीत कि घर का कोई कोना मेरा नितांत अपना हो। जहां मेरी किताबें हों, कुछ फूल हों, कुछ पत्र हों, एक कलम भी हो, एक मेरी डायरी हो, कुछ मेरे प्रिय गीतो-भजनों-गजलों-शब्दों के कैसेट्स हों। बस इतना सा सपना…. इतनी सी आशा लिए मैं जब सुबह उठती सारे लोग सो रहे होते। मैं अपनी आशा का दीपक लिए घर का कोना-कोना देखती कि कौन सा कोना मेरा होगा….. मेरा अपना निजी कोना! जहां मैं थोड़ी देर केवल अपने साथ रह सकूं । बिल्कुल अपना, जहां मुझे मेरा मैं मिल जाय! जहां कागज-कलम मेरे हाथ में देखकर कोई ‘अफसराणी’ कह कर खिल्ली न उड़ा पाय।

जब मैं इस घर में आयी थी, मेरे साथ एक संदूक भी आया था। टीन का एक सादा सा संदूक जिस पर मैंने अपनी सारी कला-क्षमता लगा डाली थी। बेल-बूटे सिर्फ संदूक पर रंगों से ही नहीं सजे थे, मेजपोशों और चादरों पर धागों से भी सजाए गये थे। मुझ गरीब ने क्रोशिए से भी बहुत सारी चीजें बनायी थीं। हाथ के हुनर के अलावा कुछ दहेज नहीं था मेरे साथ। उस हुनर की भी यहां जरूरत नहीं थी। जाने किस-किस को बांट दिए बीजी ने वे सब चादरें, तकिया-गिलाफ, मेजपोश और बंदनवार।

सबके लिए जब संदूक खाली हो गया था पर मेरे लिए तो तब भी बहुत कुछ था उसमें! अनुपयोगी वस्तु मानकर दुछत्ती में फेंक दिए गये उस संदूक में आज भी तो पड़ी होंगी मेरे बचपन की पायलें! बाईस साल पहले मेरी सहेली की दी हुई उस पीतल की अंगूठी के साथ कितनी सारी यादें जुड़ी हुईं हैं! उन यादों की पोटली भी संदूक में ही कहीं पड़ी होगी। यहां कभी उन्हें भी तो नहीं खोल पाती हूं। उस संदूक में हम सहेलियों का ग्रुप-फोटो है। हम सात लड़कियां। सात मुस्कानें, चौदह चोटियां। चौदह हंसती आंखें।

नौकर जब दुछत्ती की सफाई करते हैं, मैं चाहती हूं उनसे कहूं कि मेरा संदूक उतार दो। पर उसे रखूंगी कहां? खोलूंगी कहां? कहां बैठकर देखूंगी सात लड़कियों की सात मुस्कानें! चौदह हंसती आंखें और चौदह रिबन लगी चोटियां? चौदह एक जैसे फूलदार रिबन जिस दिन खरीदे गये थे वह हमारे लिए एक बड़े उत्सव का दिन था। हम सबने प्रतिज्ञा की थी कि हम सातों इन रिबनों को कभी खोने नहीं देंगी, अपने से जुदा भी होने नहीं देंगी, चाहे जहां कहीं भी रहें और जिस हाल में भी रहें।

क्या बाकी छ: लड़कियों के रिबन की जोड़ी भी उनसे जुदा ऐसे ही पड़ी होंगी जैसे कि मुझसे? मैंने चौदह वर्ष से वह तस्वीर नहीं देखी। किसी जतन से देखूंगी तो इतनी हंसी उड़ेगी….. इतनी हंसी उड़ेगी कि कहीं मैं वह तस्वीर ही न फाड़ डालूं। उन रिबनों से ही फांसी का फंदा बनाकर न झूल जाऊं!

उस संदूक में वह बची-खुची किताब भी है जिससे मैंने पहली बार अक्षर-ज्ञान पाया था। उस संदूक में वह परांदा भी है जो मैंने पहली बार अपनी गुत में बांधा था। मेरी प्यारी मौसी ने वह मुझे दिया था।

एक अपना कोना मुझे मिल जाता तो मैं अपना संदूक न सही, किताब का चीथड़ा न सही, फूलों वाले रिबन की जोड़ी न सही, पीतल की अंगूठी और चांदी की पायलें भी न सही, पर मैं वह तस्वीर उतरवा लेती जिनमें एक नहीं, दो नहीं, पूरी की पूरी सात लड़कियां मुस्करा रही हैं और उनकी चौदह आंखें हंस रही हैं। उन चौदह आंखों की हंसी का हौसला क्या मेरे व्यर्थ गये चौदह सालों को भुलाने में मदद न करता!

मुझे आशा थी कि एक दिन सुखद चमत्कार की तरह गुरमीत मेरे हाथ में पुलक का पुलिंदा लाकर रख देगा और सबके सामने घोषणा करेगा ‘यह कोणा आज से तेरा, यहां जो चाहे रख, जो चाहे कर!’

एक कोना पाने के लिए मैंने चौदह वर्ष तक बीजी के पैर दबाए। पापाजी की, बीजी की इच्छा-अनिच्छा का पल-पल ध्यान रखा। उनकी पसंद से अलग कपड़े तक नहीं पहने। मुझे खुद कौन से रंग पसंद हैं मैं तो यह भी भूल गयी। मेरे बिस्तर की चादर तक बीजी की पसंद की है, मेरे लिए अंत:वस्त्र तक बीजी अपनी पसंद से खरीद कर लाती हैं। और मैंने कभी कोई आपत्ति नहीं की। मैं सोचती रही कभी तो सोचेंगी बीजी, कभी तो समझेंगी! शायद कभी पापाजी महसूस करें  और बीजी से कहें। शायद मेरे द्वारा इतनी सेवा पाकर बीजी पिघलें!

घर के किसी भी कमरे में टेप, टीवी, वीसीआर या स्टीरियो चल रहा हो उसकी आवाज हमेशा उच्चतम ही रखी जाती है इस घर में। इन ऊंची आवाजों से मेरा मन-मयूर सहमा-सहमा सा रहता है। वह मध्यम स्वर, वह मधुर-मधुर संगीत सपना ही हो गया जिस पर यह नृत्य कर सकता! बुल्लेशाह की काफियां सुनने को मन होता है, वारिस शाह को सुनने का मन होता है। शिव कुमार बटालवी के गीतों के लिए तरसते कानों में पड़ता है कभी अपाची इंडियन का संगीत तो कभी रिमिक्सिंग वाले गीत। कानों का, मन का, आत्मा का ही नहीं मुंह तक का स्वाद कसैला हो जाता है।

मध्यवित्त परिवार में जन्मी, धनाढ्य परिवार में ब्याह कर आयी मैं। संकोच से सिकुड़ कर उस सपने को छिपाए-छिपाए फिरती रही पूरे एक वर्ष कि कोई देख न ले! मैं जानती थी कि जो भी देखेगा बस जी भर हंसेगा। खुद भी हंसेगा और दूसरों से भी कहेगा, साथ-साथ सभी हंसेंगे। सारे घर के लोग। मेरा मासूम सा सपना एक हास्य कथा बनकर रह जाएगा। गुरमीत को अपना सबसे बड़ा हितैषी जानकर, इस घर मे आने के पूरे एक वर्ष बाद उससे कहा था….। …. कहा था चौदह वर्ष पहले।

चौदह वर्ष पहले गुरमीत ने करवट बदलकर कहा था ‘बाद में सोचेंगे’। उस दिन मेरे विवाह की पहली वर्षगांठ और करवाचौथ एक साथ पड़े थे। चौदह वर्ष बाद आज भी वैसा ही संयोग है। करवाचौथ और हमारे विवाह की वर्षगांठ एक साथ पड़े हैं। सब कुछ है। भरा-पूरा घर। सास-ससुर, जेठ-जेठानी, देवर-ननद, पति-बच्चे, सुख-सुविधा के सारे साधन। परन्तु सब कुछ सार्वजनिक!

बच्चों को जिस काम के लिए मैं मना करूंगी वे दादी से ‘हां’ करवा लेंगे। उन्हें भी मैं केवल अपना कैसे कह सकती हूं?
सैकड़ों साड़ियां हैं, लाखों के आभूषण हैं घर में। बीजी रोज सुबह साहूकार की तरह बांटती हैं और शाम को वसूलती हैं। जब जो कपड़ा-गहना वे देंगी वही पहनना पड़ता है। ननद तो उनकी लाड़ली है, मन का मनवा भी लेती है बनवा भी लेती है। जेठानी उनकी नब्ज पर हाथ धरे रहती है, लल्लो-चप्पो भी कर लेंगी और चिरौरी भी। छम्मक-छल्लो बने रहने का उन्हें शौक भी बहुत है इसीलिए बीजी के आगे शहद-मक्खन बनी बिछी रहती हैं।

बीजी की इच्छा के बिना तो इस घर का एक पत्ता भी नहीं खड़क सकता। मालिक से नौकर तक यह सभी अच्छी तरह जानते हैं। सास बनते ही औरतों में कहां से आ जाता है इतना मर्दानापन! पापाजी, गुरमीत और सुरजीत तो घर से बाहर ही ज्यादा रहते हैं। मर्द कहने को घर में दो नौकर होते हैं जो जानते हैं कि किसका कहा मानना है और किसका कहा टालना है। मेरी उपेक्षा तो क्या यदि वे अपमान भी कर दें तो उनकी नौकरी को कोई खतरा नहीं है। मैं सोचती हूं उनके बिना घर की स्थिति बेहतर होती पर समाज में नाक शायद छोटी हो जाय!

गुरमीत तो चौदह वर्ष पहले करवट बदलकर जो सोया था फिर जैसे जागा ही नहीं । वो दिन…. फिर वैसे ही चौदह वर्ष बाद…. उस दोहरे त्यौहार की वर्षगांठ है आज? धूम-धड़का मचा, खा-पचाकर घर के सारे प्राणी सो चुके हैं। मैंने हमेशा की तरह आज भी हर रीति-रस्म निभा डाली है और अब प्रेतात्मा सी डोल रही हूं। क्या आज भी गुरमीत को कुछ याद नहीं आया? याद नहीं आया कि उसने कहा था ‘सोचेंगे’….. और उसने नहीं सोचा….. कभी नहीं सोचा… एक कोना जो मेरा होता केवल मेरा, जो मुझे मेरे होने का अहसास दिलाता, एक कोना जो मेरे अस्तित्व का प्रतीक होता…..!

पिछले चौदह वर्षों में बस एक ही इच्छा गुरमीत के आगे रखी थी। इसके अलावा कभी भी, कुछ भी अपने लिए नहीं मांगा। घर भर में मेरा क्या है?
गुरमीत? नहीं।
बच्चे? नहीं।

पूरा-पूरा तो मेरा कोई भी नहीं है। मेरे तन के वस्त्र तक मेरे नहीं बीजी की भिक्षा या कृपा हैं। यदि बीजी कहें ‘उतारो इन्हें’ तो ये मेरे तन पर नहीं होंगे, और यदि बीजी दूसरे कपड़े न दें तो….? उफ् ! कुछ तो मेरा होगा…. कुछ तो ….।

हां! एक टूथब्रश है जिसे मेरे अलावा कोई प्रयोग में नहीं लाता। यदि मैं आज अभी मर जाऊं तो एक यही चीज मेरे साथ इस घर से बाहर फेंकी जाएगी और कुछ भी कम नहीं होगा। रसोई में रच-रच कर पकाने वाली, एक-एक आवाज पर दौड़ लगाने वाली दूसरी कोई आ जाएगी मेरी जगह।

चौदह वर्ष बाद आज फिर दिल बहुत-बहुत-बहुत उदास हो रहा है।

आज के दिन घर में हजारों रुपये खर्च हुए, सैकड़ों रुपये तो न्यौछावर ही किए गये । अपने-अपने ढंग से सबने ही खुशी मनायी है। यह मेरा मन भी कुछ मना रहा है …. क्या मना रहा है? एक कोने का रोना? एकमात्र सपने की बरसी? या कि एक कसक की वर्षगांठ …? …या सिल्लियों पर रखे शव जैसे जीवन का अफसोस….? ….या  ठंडे बस्ते में पड़ी जिंदगी का शोक!
Story : Thanda Basta