कहानी : वजूद
राजाराम विद्यार्थी
शाम का वक्त, सूरज ढल चुका है। गाय-भैंसों को बाहर से अन्दर गोठ में बाँध दिया गया है। गाँव की सारी औरतें दूर से पानी भरकर घर आ गयी हैं। सीढ़ीनुमा खेतों में चिड़ियाँ चहचहा रही हैं। आड़ू,-चूआङू, खुमानी, नाशपाती, पुलुम, सेब, संतरा, माल्टा के पेड़ में सर्द हवा तेज हो चली है। पेड़ों से सीटी जैसी बज रही है मानो कि ठण्ड में ठिठुर कर सिसकियाँ ले रहे हों। लोग अपनी-अपनी अंगीठियों में बाँज़ की लकड़ी, चीड़ का ठीटा (चीड़ का फूल जो बाद में सूखकर लकड़ी हो जाता है) जला कर गरम कर रहे हैं। अब ठिठुरन ज्यादा ही बढ़ गयी है। आदमी लोग भी जो कोई खेत में काम कर रहे थे, जंगल गये थे, बाजार गये थे या घर पर ही लुहारगिरी कर रहे थे या कोई मकान की दीवार चिनने ओढ़ (राज मिस्त्री), बढ़ई का काम करने, कहीं चीड़ के पेड़ों का चीरान करने गये थे, सब अपने-अपने औजारों को लेकर घर आ गये हैं। शाम को पूरी बाखली (बस्ती) में रौनक लौट आती है। नीचे के घर के मथुरादा के बाज्यू फर्सी में तम्बाकू भर कर गड़-गड़ा-गड़ पी रहे हैं। बीच-बीच में जोर से खाँस भी रहे हैं। बुड़ज्यू (वृद्ध जी) का दिन भर कोई काम तो है नहीं, बस तम्बाकू भरना, पीना फिर जोर-जोर से खाँसना और खाँसते-खाँसते बेदम हो जाना। बोलते हैं, तो हमेशा कसैला ही बोलते हैं। ना मालूम कहाँ से उनमें इतनी कटुता आ गयी है। उनकी पत्नी तो उनसे वर्षों से नहीं बोलती। मैंने उनसे इस ढलती शाम में पूछा-
”ठुल इजा (ताई), ठुल बाज्यू (ताऊ) कहाँ हैं।”
”अरे भीतर ही होंगे, गये जो क्या हैं कोई सपाड़ (सुधार) करने, जा तू ही बैठ उनके मुँह पर! मुझे तो हमेशा वह काला बकरा जैसा देखते हैं।”
ठुल बाज्यू (ताऊ जी) ने हमारी आवाज सुन ली थी, अन्दर से ही लगभग चिल्लाती आवाज में बोले-
”अरे च्यला (बेटा) मथिया बैठ! कहाँ इस रांड के मुख लग रहा है।”
मैंने अन्दर जाकर ठुल बाज्यू (ताऊजी) के पैर छुए। आज सात-आठ दिन हो गये हैं मुझे दिल्ली से आए हुए। कभी कहाँ-कभी कहाँ यार दोस्तों से ही पीछा नहीं छूटा था। दो दिन ससुराल में भी रहना पड़ा, वहाँ जाना भी लाजमी था। ठीक ग्यारह साल बाद बाल-बच्चों सहित बड़े मुश्किलों में घर आया था। एक रात के लिए मुझे अपने मकोट (नैनीहाल) भी जाना पड़ा, क्योंकि बड़े मामू ने बुलाया था। उनका लड़का रमेश तीसरे साल भी हाईस्कूल में फेल हो गया था। उनका कहना था कि मैं उसे दिल्ली ले जाकर किसी काम पर लगा दूँ। अगर वह कुछ कमाने लगेगा तो वह उसकी शादी कर देंगे। आज बड़े दिनों बाद समय मिला तो मैं ताऊजी के पास चला आया। ताऊजी पहले से काफी कमजोर हो गये थे। खाँस-खाँस कर जहाँ-तहाँ बलगम थूक कर उन्होंने पूरे कमरे की दीवारों को गन्दा कर दिया था। वह अंगीठी के पास उकड़ूँ बैठे हुए थे। मैंने पूछा-
”कैसे हैं हाल-चाल! तबियत ठीक है?”
”क्या बताऊँ बेटा, काल के दिन पूरे कर रहा हूँ। मर भी नहीं पा रहा हूँ। मेरा परिवार पूरा कलजुगी हो गया है। इस घर का कोई सयाना नहीं रह गया है। सब अपनी मनमानी कर रहे हैं। जब तक शरीर में जान थी, बड़े-बडे़ प्रधान, रुपिए-पैसे वाले लोग अपना मकान मुझसे ही बनवाते थे। मजदूरी और ओड़ों (राज मिस्त्रियों) से मुझे दो पैसा ज्यादा ही मिलती थी। इस बाखली (बस्ती) में मुझे सब कलराम सेठ कहते थे। घर में गाय, भैंस, बकरी, मुर्गी, दो हल के बैल, क्या नहीं था मेरे पास। तेरी ठुल ईजा (ताई) के लिए भी पूरा जेवर था। मथुरिया की शादी में दो जोड़ी नगाड़े-निशाण अपनी बिरादरी में मैं ही ले गया था। जिस साल से मेरी कमर में मकान की धुरी से गिर कर पत्थर पड़ा, तब से ही चल-फिर नहीं पा रहा हूँ। बस अब ये कोठरी जाने और मैं जानूं, आज दस साल हो गये हैं, तुझे तो मालूम ही है। टट्टी-पेशाब के लिए भी रगड़-रगड़ कर जाता हूँ।”
मैंने पूछा, ‘‘ठुल बाज्यू मथुरा दा कहाँ हैं ? काम पर?’’
”नाम मत ले उस कमीने का, नाक कटवा के रख दी है उसने मेरी! वो नीचे भाबर में पड़ा है, कोई कह रहा था काशीपुर में है बल! महीने-दो महीने में घर आ जाता है एकाध रात के लिए, मेरे तो मुँह पर आता नहीं कठुआ (हरामी)।”
”क्या मथुरदा के बाल बच्चे घर पर ही हैं या बच्चों को भी साथ ही ले गये हैं?’’
”न रे न ब्वारी (बहू) तो घर पर ही है। बड़ी खानदानी निकली मेरी ब्वारी! माल गौ टम्टों की लड़की है, मेरी तो खूब सेवा करती है। टाइम पर चाय-खाना दे देती है। मेरे कपड़े धो देती है। अभी मेरा ही मुँह खराब है, फिर भी वह बेचारी मुझसे अली से बे नहीं कहती है।”
इतने में मथुरदा की घरवाली चाय लेकर आ जाती है और मेरे नमस्ते कहने से पहले ही पूछ लेती है-
”भाल है रौछा हो द्योरा (ठीक हो देवर जी?)‘‘ और मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वह वहाँ से निकल कर रसोई में चली जाती है।
”रधुली कहाँ है?’’ मैंने सहजता से ताऊजी से पूछ लिया।
”क्यों मरे साँप के आँख खचोर रहा है।” ताऊ जी, जो अभी तक मुझसे बतिया रहे थे, एक दम से बिगड़ पडे़।
”ऐसे पूछ रहा है जैसे तुझे कुछ पता ही न होगा, मेरे परिवार ने ही मेरी रधुली की तकदीर बिगाड़ कर रख दी। वह नहीं है, साला कठुआ (हरामी) मथुरिया, भाई के नाम पर कलंक है। वह भाबर रहा, वहाँ के देशी लौंडों से उसकी दोस्ती हो गयी, जात भी कुछ अजीब सी है, कोई कह रहा है, चौहान है, कोई कह रहा है जाट है। एक लौंडे को अपने साथ हमारे घर ले आया। उस लौंडे का बाप भी आया था। बोली-भाषा भी अजीब-सी बोल रहे थे। हम ठैरे पहाड़ी आदमी, हमारे तो बाप-दादों ने ऐसा कभी न देखा और न ही सुना।”
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इतना कह कर ताऊ जी चुप हो गये। पूरे कमरे में मरघट जैसी चुप्पी छा गयी। मुझमें आगे बात बढ़ाने का साहस नहीं रहा। मैं चुपचाप बहुत देर यूँ ही बैठा रहा। मुझे लगा कि कोई बहुत बड़ी गड़बड़ हुई है, नहीं तो ताऊ जी ऐसे नहीं थे। कितना प्यार करते थे अपने पूरे परिवार से। ताई के बिना तो एक पल के लिए उन्हें चैन नहीं मिलता था। हमेशा ही ‘‘मथुरिये इजा (माँ)’’ ‘‘मथुरिये इजा” बोलते रहते थे। मथुरदा से भी बहुत प्यार करते थे। कहते थे, यही तो है जो मेरा परलोक सुधार देगा। यही मेरा अंतिम संस्कार करेगा, लड़का है, एक ही है तो क्या हुआ। शेर का भी तो एक ही बच्चा होता है। शेर की तरह जीएगा, मेरा नाम रोशन करेगा। इन सबसे ज्यादा उनके प्राण रधुली में बसते थे। एक लड़का, एक लड़की बस, आगे कोई संतान हुई नहीं। दोनों ही बच्चों को उन्होंने स्कूल में भेजा। गाँव से स्कूल तीन मील की दूरी पर था। रोज सुबह-सुबह बच्चों को स्कूल तक छोड़ आते। रधुली को कंधे में बिठाकर और मथुरदा का हाथ पकड़ कर, उनका रोज का नियम था। गाँव के ठाकुर-बामण लोग उनको हैरत भरी नज़रों से देखते, कोई कहता-
”क्यों हो कलराम, तुम अपने बच्चों को स्कूल पढ़ा रहे हो? आज तक तो तुम्हारे यहाँ का कोई बच्चा स्कूल जाते हमने नहीं देखा। तुम लड़का तो छोड़ो लड़की को भी पढ़ाने ले जा रहे हो।”
”हो महाराज, तुम भी कैसी बात करते हो, क्या बेटियाँ हमारे खून की नहीं हैं। पढ़-लिख जाएगी तो यह भी तो साहब बन सकती है, फिर इन्दिरा गाँधी भी तो लड़की ही थीं।”
ठाकुर साहब ताऊ जी को सिर से पैर तक गहरी नज़र से देखते और चुप हो जाते। उन्होंने कभी अपनी लड़की को स्कूल भेजने की नहीं सोची थी। इतने में बाहर से आवाज आई, तो मेरी तन्द्रा टूटी।
”मघिया! ओ मघिया।” माँ आवाज लगा रही थीं।
मैं ‘‘हाँ” कहते हुए बाहर जाने तो तत्पर होता हूँ। ताऊ जी मेरा हाथ पकड़ कर बिठा देते हैं और कहते हैं-
”खाना यहीं खाएगा, तुझसे कुछ बात भी करनी है। एक तू ही तो हमारे परिवार में थोड़ा पढ़ा-लिखा, बाहर देखा हुआ है, हम तो कुएँ के मेढक हैं।”
थोड़ी देर में ही भाभी दो थाल लेकर आ जाती है। थालों में आलू-मूली की तरीदार सब्जी है, जिसमें भांग के दाने पीस कर तरी लाज़बाब बन गयी है। एक-एक कटोरा भर कर दही है। छापड़ी (रोटी की टोकरी) में घी चुपड़ी हुई लेसू रोटी दो-दो मास की दाल की बेडुआ रोटी! भाभी दो लोटों में पानी लाकर बोली-
”लो द्योरा हाथ धो लो।”
मैं और ताऊ जी हाथ धोकर रोटी खाने लगते हैं। ताऊ जी दो गास रोटी के खाकर थोड़ी सब्जी की तरी पीते हैं। फिर मेरी ओर टकटकी लगाकर देखते लगते हैं। फिर बहुत सोच-विचार कर कहते हैं-
”च्यला (बेटा) तू कितने दिन की छुट्टी आया है?’’
”ऐसे ही दो-चार दिन और रहूँगा घर।”
”तब तो मेरा एक काम कर दे।”
”क्या काम है?’’ मैं ताऊ जी की तरफ देखकर कहता हूँ।
”मेरे बस का होगा तो क्यों नहीं करूँगा?’’
”कल मेरे साथ रधुली के घर चल दे।” फिर कुछ देर चुप रह कर कहते हैं- ‘‘तू पैसों की चिन्ता मत करना! मेरे पास दो हजार रुपिए हैं। परन्तु मैं अकेले जा नहीं सकता। एक आदमी गाड़ी में चढ़ते-उतरते समय हाथ पकड़ने वाला तो जरूर ही चाहिए। कल सुबह मैं किशनुआ से घोड़े से सड़क में पहुँचा दे कहूँगा। तू भी तैयार होकर मेरे साथ आ जाना। मैं तेरे गुणों (उपकार) को मर कर भी नहीं भूलूँगा।”
मैं ताऊ जी से इंकार नहीं कर पाता हूँ, ‘‘हाँ चलूँगा” कह कर सोने के लिए अपने घर आ जाता हूँ।
मैं सुबह पाँच बजे ही पत्नी को उठाकर पानी गरम करने के लिए कह देता हूँ और छह बजे तक नहा-धोकर तैयार होकर मैं ताऊ जी के घर पहुँच जाता हूँ, देखता हूँ ताऊ जी तैयार होकर बैठे है-
किशनुआ घोड़ा लेकर आ गया है। ताऊ जी ने सफेद रंग का चूड़ीदार पैजामा, कमीज, स्वेटर के ऊपर से जवाहर कट पहन रखी है। सिर पर गाँधी टोपी है। मैं और किशनुआ उन्हें सहारा देकर घोड़े में बिठाते हैं। उन्होंने हाथ में बड़ा-सा थैला भी पकड़ रखा है। उसमें ना मालूम क्या-क्या रखा हुआ है। हम लोग पगडंडी-पगडंडी सड़क की ओर चल देते हैं। पहाड़ का चढ़ाव-उतार का रास्ता है।
”सुन रहा है रे च्यला (बेटा) मघिया! कल तू पूछ रहा था कि रधुली कहाँ है? रघुली काशीपुर से भी नीचे कोई ठाकुरद्वारा जगह है वहाँ है बल। उसके ससुराली जाट है बल।”
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”वहाँ जो किसने लगाई टिप्पस, मथुरादा ने?’’ मैंने पूछा।
”हाँ वही लाया, मैं तो ना ही कह रहा था लेकिन इन दो माँ-बेटों के आगे मेरी कहाँ चलती, क्योंकि मेरे पास पैसा नहीं था। जब तक आदमी के पास पैसा होता है तभी तक आदमी की घर और बाहर दोनों जगह इज्जत होती है, जब पैसा न हो तो आदमी की औकात कुत्ते जैसी हो जाती है। उसकी बात को बात नहीं भौंकना कहते हैं।” ताऊ जी थोड़ा गुम-सुम हो जाते हैं और जेब से बीड़ी निकाल कर उन्होंने सुलगा ली और दो कश बीड़ी के लगाकर बोले-
”क्या बताऊँ कुछ कहते नहीं बन पा रहा है। रधुली बारा (इण्टर) पास करके, बड़े स्कूल में चली गयी, वहाँ एक लड़के से उसकी दोस्ती हो गयी। लड़का शिल्पकार ही था। लेकिन उस लड़के की जाति दास दर्जी थी। मैंने सोचा ठीक ही तो है, ठाकुर-ब्राह्मण तो हमें एक ही नजर से देखते हैं। हम शिल्पकारों के एक होने में बुराई भी क्या है? लेकिन तेरी ठुलईजा ने कह दिया कि- ‘‘हम छोटी जात में अपनी लड़की को नहीं देते, कोई टम्टा, लुहार होता तो और बात थी, जाट जाति तो हमसे भी बड़ी जाति है, हम तो उन्हीं से रिश्ता करेंगे।” आखिर मुझे ही चुप होना पड़ा।
”वहाँ सुखी तो होगी रधुली” मैंने ताऊ को टटोलने की गरज से कहा।
”मुझे कोई पता नहीं है, रे च्यला (बेटा) आठ साल हो गये हैं, रधुली की शादी हुए, मैंने तो तब से उसकी सूरत भी नहीं देखी। हाँ इधर-उधर से सुना है कि अब उसके दो लड़के हो गये हैं। इस साल वह अपने गाँव की प्रधान भी बन गयी है, पर मेरे निमित्त क्या है? हमारे पहाड़ में शादी के पहले साल लड़की चैत्र, जेष्ठ तथा अश्विनी के महीने मायके में रहती है। हरेले के त्यौहार के दिन तो जरूर ही आती है। इसके बाद हर साल चैत्र के महिने भेटोली देने का रिवाज़ है। इन सब बातों को वे देशी लोग क्या जानें? वे शादी के बाद एक बार भी नहीं आए हैं। पोर (पिछले) साल मेरी बहुत ज्यादा तबियत खराब हो गयी थी। मुझे अपने बचने की आशा तक नहीं थी। मैंने मथुरिया के हाथ जबाव भेजा कि मेरी बेटी की मुझसे एक बार मुलाकात करा दो, लेकिन नहीं आए। मेरे भी प्राण नहीं निकले, मैं भी ठीक हो गया। शायद बेटी का चेहरा देखे बगैर नहीं मरना था। सो आज च्यला (बेटा)-च्येली (बेटी) के मुख देखने की साध तू पूरी करा रहा है।”
यूँ ही बातचीत में कब सड़क में पहुँचे पता ही नहीं चला, थोड़ी देर में भाबर को जाने वाली गाड़ी भी आ गयी। मैं और ताऊ जी उसमें बैठ गये, किसनुआ अपने घोड़े को लेकर घर को वापस हो गया।
दो-तीन गाड़ी बदलनी पड़ी। शाम को पाँच बजे इक्के में बैठकर हम लोग रधुली के घर पहुँचे। घर के चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवारें थीं। बड़ा-सा लोहे का गेट था। गेट पर कॉल बेल लगी थी। मैंने कॉल बेल का बटन दबा दिया। अन्दर से सफेद बालों वाले एक लम्बे-चौड़े, तगड़े आदमी ने गेट खोला, जिसने कि लुंगी पहनी थी और रौबीली आवाज में बोला-
”क्या भाया, किससे काम है।”
”जी! हम लोग पहाड़ से आए हैं, मैं राधा का चचेरा भाई हूँ और ये राधा के पिताजी हैं।” मैंने विनम्रतापूर्वक कहा।
”अच्छा जी अच्छा” और वह अन्दर को मुड़कर आवाज देता है।
”ए रे जोगेन्दरा तेरी पहाड़न का बाप आया है बे! और तेरा साला भी आया है, बिठा ले वे इन्हें।”
लगभग तीस-पैंतीस साल का एक तगड़ा सा आदमी आता है और ताऊ जी से हाथ जोड़ कर नमस्ते करता है और हमसे अन्दर बैठने को कहता है। हम लोग उसके पीछे-पीछे अन्दर को जाते हैं। एक खुर्री खाट में हम दोनों को बिठाया जाता है। जहाँ पर हम लोगों को बिठाया जाता है वह एक बड़ा हॉल-सा है। उसमें एक कोने में चार-पाँच दुधारू भैसें बंधी हैं। एक कोना भुस से भरा हुआ है, वहीं पर ट्रैक्टर भी खड़ा है उसके बगल में एक बड़ा-सा कमरा है जिसके दरवाजों में काले शीशे लगे है उसका दरवाजा हल्का सा खुला है, उसमें से बहुत सारे लोगों की बोलने की आवाजें आ रही हैं। दूर से ही दिख रहा है कि कमरे में कालीनें बिछी हुई हैं, बढ़िया से सोफे लगे हैं। उसमें बैठकर लोग गप्पें लगा रहे हैं। कोई ट्रे में काँच के गिलासों में शरबत ले जा रहा है, दूसरा आदमी ट्रे में काजू, किशमिश, बादाम सजा कर ले जा रहा है, किसी ट्रे में बिस्कुट किसी ट्रे में फल जा रहे हैं। ताऊजी उनकी ओर टकटकी लगाए देख रहे हैं।
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तभी साड़ी पहनी हुई लम्बा से घूंघट काढ़ कर एक महिला एक ट्रे में चार गिलास लेकर हमारी ओर आती है और हमारे आगे दो गिलास पानी और दो गिलास चाय रख कर हाथ जोड़ कर अभिवादन करती है।
”आप लोग चाय-पानी पियो। मैं आपसे फिर बात करूँगी। अभी मेहमान आए है” और वह चली जाती है।
मैं ताऊ जी का और ताऊ जी मेरा मुख देखते हैं। यह रधुली है, हमारी रधुली। हम लोग आवाज से ही पहचान पाते हैं। भाषा तो बदल सी गयी है, उसमें देश का अक्कड़पन आ गया है। पतली सी रधुली अब सुडौल देह की लग रही है। परन्तु आश्चर्य जिस रधुली के लिए उसके बूढ़े विकलांग बाज्यू (पिताजी) पहाड़ से यहाँ तक आ गये, जो कि अपनी वृद्घावस्था की पेंशन को साल भर से केवल इसलिए बचा रहे थे कि अगर रधुली घर आएगी तो उसे चैत की भेटोली के रूप में कुछ दूँगा। नहीं तो भर पसर कर उससे मिलने जाऊँगा और आज बड़ी मुश्किल से कितने लोगों का ऐहसान सिर पर रखकर यहाँ पहुँचे तो रधुली कहती है, कि आप बैठो घर में मेहमान आए हैं, तुमसे फिर बात करूँगी। जैसे वह जमींदारन हो और हम उसके हलिए हों। उसका चाय-पानी देने का तरीका और उसके पति के घर में बिठाने के तरीके से इतर नहीं था। हम से बड़ा मेहमान उसका कौन हो सकता है? हम लोग इसी उधेड़ बुन में थे। इतने में काले शीशे वाला दरवाजा खुलता है और चार-पाँच लोग उसमें से बाहर निकलते हैं और कार में बैठ जाते हैं। घर के सारे लोग उन्हें कार तक पहुँचाते हैं। सब हाथ जोड़कर अभिवादन करते हैं और कार में बैठे लोग ‘फिर आएंगे’ कह कर चल देते हैं। थोड़ी देर तक लोग कार को जाते हुए देखते रहते हैं। फिर वही बूढ़ा-खूसट जिसने गेट खोला था, ताऊ जी से ‘‘समधी जी नमस्कार! आओ जी बैठक में बैठते हैं” कहता है।
हम लोग उसके साथ काले शीशे के दरवाजे वाली बैठक में जहाँ कि कालीन बिछी है, सोफे लगे हैं, में जाकर बैठ जाते है। बूढ़ा हमारी ओर मुखातिब होकर कहता है-
”आप लोग बुरा मत मानना। ये जो मेहमान थे मेरे छोटे लौंडे के ससुराली हैं, उल्टी खोपड़ी के जाट हैं। अगर आप लोगों को उसी समय बैठक में बिठा देता तो बुरा मान जाते! कहते हमारी औकात पहाड़ियों के बराबर समझी। इसलिए आपको बाहर बिठा दिया। अजी बुरा मानने की बात ना है।”
फिर बुड्ढा हम दोनों के चेहरों की ओर देखने लगता है मानो प्रतिक्रिया जानना चाह रहा हो। मैं और ताऊजी दोनों ही गुमसुम हैं, बुड्ढा (राधा का ससुर) खड़े होकर टहलने लगता है और दरवाजे पर जाकर आवाज देता है-
”अबे जोगिन्दरा, म्यारी बात सुण!’’
”बोलो जी बाबू जी कि कै रहे हो।” राधा का पति पास आकर पूछता है।
”अबे तेरे ससुराली आए हैं, पहाड़ी लोग हैं, थोड़ी ठेके से एक-आध बोतल ले आ और सुण एक मुर्गा कटवा लाइयो, ये पहाड़ी लोग है, शिकार और शराब के शौकीन होते हैं।”
जोगिन्दर जाता है तो बूढ़ा फिर जोर से चिल्लाता है- ‘‘ओए जोगिन्दरा एक बात और सुनता जा लौटते समय अपने चचा भोराज को बुला लाइयो। उससे कइयो कि पहाड़ से मेरे ससुराली आए हैं।”
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जोगेन्दर अपनी मोटर साईकिल स्टार्ट करके चले जाता है। बूढ़ा फिर आराम से बैठ जाता है। हमारी ओर मुखातिब होकर कहता है-
”बोलो जी, कैसा लग रहा है हमारा घर, चाय-पानी तो आपने पी ही ली होगी? लो हुक्का पीओ” और बीड़ी-माचिस हमारे आगे रख देता है। ताऊ जी के जैसे सांस में सांस आती है। वह बीड़ी सुलगाने लग जाते हैं और बीड़ी का कश लगाते हुए कहते हैं-
”बहुत बढ़िया है हो महाराज आपका घर।”
बुड्ढा खि-खि कर हँसने लगता है।
”इस बार आपने राधा को ग्राम प्रधान बना दिया, यह तो बहुत बढ़िया काम किया आपने”, मैंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा।
”हाँ जी हाँ, बणा दिया। हर बार हमारे ही परिवार का प्रधान बना करै है। इस बार सरकार ने हमारी प्रधान की सीट चमारों की औरतों (चमारिनों) के लिए रिजर्व कर दी थी। ये राधा पढ़ी-लिखी थी, इसके पास भी जात का प्रमाण पत्तर था। तुहारी जात भी ह्याँ के चमारों जैसी ही है। हमने सोचा किसी चमारन के बनणे से तो म्यारी बहू का बनणा अच्छा है। इसलिए इसे प्रधान बणा दिया। फिर हम ठैरे जाट हमारे ह्याँ जनानियाँ परदे में रहा करिवे। बस, नाम की प्रधान हैं जी! सारा कामकाज तो म्यारा जोगेन्दर देखा करिबे। इस तरह प्रधानी की सीट जाटों से बाहर नहीं गयी।” बुड्ढा फिर खि-खि हँसने लगता है फिर बूढ़ा उठते हुए बोला-
”आप लोग आराम से बैठो जी, मैं थोड़ा ढोरों को चारा डलवाता हूँ।” बुड्ढे के जाने के बाद मैंने ताऊ जी से कहा-
”ताऊ जी क्या आप शराब पीएंगे?’’
”ना च्यला (बेटा), मैं कहाँ शराब पीता हूँ? तुझसे भी मेरी हाथ जोड़कर प्रार्थना है, आज तू भी मत पीना! इन सालों ने हमें समझ क्या रखा है। मैं तो इनके घर का अब अन्न-जल कुछ भी न लूँगा। कल सुबेरे ही यहाँ से चले जाएंगे।”
थोड़ी देर में जोगेन्दर के साथ एक आदमी और आ जाता है। वह अधेड़ उम्र का है। दाढ़ी बाल खिचड़ी हैं। वह आकर बूढ़े से नमस्कार करता है। बाहर से ही खड़े होकर दोनों बातें करते हैं। बूढ़े की आवाज हम तक पहुँच रही है, बुड्ढा कह रहा है-
”भाई भोराज सिंह, बात यों है के ये पहाड़ी लोग आए हैं। इनसे अपने गूँगे लड़के के लिए लड़की के लिए कह, बीस-पच्चीस हजार में कोई भी पहाड़ी अपनी लड़की दे देगा। ये पहाड़ी लोग शराब और शिकार के भूखे होते हैं। इन लोगों से कहना कि किसी गरीब-गुरीब की लड़की दिलवा दो! पाँच-दस हजार रुपिए तुम्हें भी दे देंगे और उस गरीब की भी मदद कर देंगे। हमारा ही देख लो जोगेन्दर की पहली लुगाई के माँ-बाप से हमने जब दस लाख रुपिए दहेज के मांगे थे, न तो वह दस लाख मिले, उल्टा जोगेन्दर की लुगाई ने अपने पर मिट्टी तेल छिड़क कर आग लगा ली, दहेज एक्ट में फँसे अलग। जोगेन्दर को, मुझे तथा मेरी भावज (भाभी) को तीन-तीन साल की सजा भी हो गयी। उसके बाद राधा का भाई काशीपुर में काम करै था। जोगेन्दर ने उससे दोस्ती गाँठ ली। उसे दारू पिलाई और बहला-फुसलाकर उसकी बहन को अपने घर की बहू बना लिया। आज दो बच्चे हैं वही रसूख है, वही इज्जत हैं।…..’’
”बाबू जी आप भी हर बात को जोर-जोर से ही बोल देते हैं। पहाड़ी सुनेंगे तो क्या सोचेंगे?’’ जोगेन्दर ने बाप को बोलने से रोक दिया।
अंधेरा बढ़ गया था। बिजली के बल्ब जल उठे, बूढ़ा और अधेड़ आदमी दोनों ही आकर हमारे साथ बैठक में बैठ गये। जोगेन्दर एक जग में पानी चार काँच के गिलास और एक ठेके की ठर्रे की बोतल वहाँ पर रख कर और नमकीन लेने रसोई में जाता है। एक प्लेट में नमकीन और एक में कटा सलाद लाता है। बुड्ढा अपने हाथ से पैग बनाता है। मैं और ताऊ दोनों ही पीने से इंकार कर देते हैं। वह बहुत खुशामद करने लग जाता है। कहता है-
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”ठंड के दिन है, शाम को थोड़ी पीनी चाहिए।”
”हम लोग गरीब आदमी हैं, दो टाइम की रोटी जुटाना भी भारी पड़ता है। शराब कहाँ से पीएं? फिर पहाड़ में हमारे घर से 10-15 किमी़ से पहले कहीं भी शराब भट्टी नहीं है हम कहाँ से पीएंगे और कहाँ से पीना सीखेंगे?’’ ताऊ जी थोड़ा जोर से कहते हैं, अचानक ही ताऊ जी को बिना पीए ही जैसे नशा हो गया।
वे दोनों एक-एक पैग लगा देते है और दूसरा पैग तैयार करते हैं। अधेड़ उम्र का आदमी मुझसे मुखातिब होकर कहता है।
”आप तो दिल्ली रहते हैं, आप तो लगा ही लो एकाध पैग।”
”ना जी ना, मैंने आज तक तो कभी नहीं पी, अब कैसे ले लूंगा।”
वे दोनों दूसरा पैग भी चट कर जाते हैं और तीसरा पैग गिलास में डाल लेते हैं और बात को आगे बढ़ाने की गरज से बुड्ढा कहता है-
”हाँ तो समधी साहब! ये भोराज मेरा चचेरा भाई है। इसके लौंडे के लिए कोई लौंडिया हो तो बताओ। हम लोग खाते-पीते लोग हैं जमीन-जायदाद भी खूब है, अच्छा बैंक बैलेंस है। हमें कुछ नहीं चाहिए। अगर हो सका तो रुपिए-पैसे की भी मदद कर देंगे। अगर कहीं ठीक सा करा दोगे तो 5-10 हजार तुम्हारे भी पल्ले पड़ जाएंगे। तुम भी तो गरीब ही ठहरे।”
”ठीक कहते हो समधी जी! अगर मितुर-मितुर के काम न आए तो, वह मितुराई कैसी? क्यों नहीं ढूढेंगे तुम्हारे भतीजे के लिए लड़की? कभी भी आ जाओ।”
ताऊ जी को देखकर मैं दंग रह गया। आखिर ताऊ जी ऐसा क्या और क्यों कहने लग गये, लेकिन ताऊ जी तो कुछ और भी कह रहे हैं।
”मैं भी आज इसी चक्कर से आया था। तुम्हारी बिरादरी में कोई लड़की हो तो मुझे भी बताओ। यह मेरा भतीजा है इसके छोटे भाई की शादी करनी है। लड़का दिल्ली में किसी बड़ी कम्पनी में काम करता है। कितनी ही बार बाहर देश घूम आया है। इंजीनियर है शायद। एक लाख रुपिए महीने की तनख्वाह है। लड़की भी खूब पढ़ी-लिखी चाहिए।”
ताऊ जी को देखकर मैं अधिक अचंभित होता हूँ। दरअसल में मेरा कोई छोटा भाई है ही नहीं। फिर जिस प्रकार के लड़के की बात कह रहे हैं, वैसा तो हमारे गाँव-पड़ोस, रिश्तेदारी में कहीं भी नहीं है। लेकिन ताऊ जी बात सुनकर उन दोनों में सुगबुगाहट हो जाती है। भोराज सिंह बात की नज़ाकत को देखते हुए कहता है-
”समधी साहब हमारी लड़कियाँ पहाड़ में नहीं खा सकती हैं।”
”अबे भोराज, क्यों बेकार की बातें कर रिया है। अजी समधी साहब, सीधी-सी बात है। तुम्हारा पहाड़ी कितना भी रसूखदार हो, कितना भी पैसे वाला हो, अजी और क्या कहूँ, कितना ही उच्चकुलीन, शिक्षित या देश का मुख्यमंत्री हो, तब भी हमारा देशी आदमी, भले ही वह भीख मांग कर खाने वाला सफाई कर्मचारी हो, कभी भी न देगा पहाड़ी आदमी को अपनी लौंडिया, समझ गये आप।”
बूढ़े जाट को शराब का सरूर चढ़ गया था। भोराज सिंह उसका हाथ पकड़ कर बाहर ले जाता है और कहता है-
”भाई साहब अब आप खाना खाकर सो जाओ।”
बूढ़ा बाहर जाकर जोर से आवाज देता है।
”अरी राधा कहाँ मर गयी है री! अपने बाप को खाणा दे दें।”
थोड़ी देर में राधा खाना लेकर आती है। ताऊ जी तथा मेरे दोनों के पैर छूती है तथा दोनों के ही गले मिलकर खूब रोती है। ताऊ जी के आँखों में भी आँसू आ जाते है। मेरा भी जी भर आता है। यूँ ही घंटों बीत जाते हैं। राधा भरी हुई आवाज में कहती है-
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”बाज्यू (पिताजी) मैं आपकी लाड़ली बेटी थी। लड़की को माँ-बाप की चाह होती है। बूढ़ी होकर भी उसे मायका जाना अच्छा लगता है। पुराना किस्सा भी है कि मायके का कुत्ता भी प्यारा होता है। लेकिन जिस दिन से इस घर में आयी हूँ, मायके का कुछ भी देखने में नहीं आया। आज आप लोग आ गये, तब मुझे लगा कि मेरा भी कोई अपना है जो मेरे लिए इतनी दूर आ सकता है। मेरा भी वजूद है, बाज्यू (पिताजी) और दाज्यू (भाई साहब) इस घर में मेरी क्या औकात है, यह तुमने देख लिया। अब मैं जाती हूँ, नहीं तो फिर टुकाई मिलेगी। तुम लोग सुबह ही चले जाना।”
”अच्छा ठीक है, ले तेरे लिए मैं थोड़ा मास के बेडुवा तथा दौड़ लगड़ (कुमाऊँनी व्यंजन) लाया हूँ, खा लेना।” ताऊ जी रधुली को वह थैला दे देते हैं।
रधुली भारी कदमों से थैला लेकर बैठक से बाहर जा रही है। मैं और ताऊ जी उसे जाते हुए देख रहे हैं। ताऊ जी की आँखों से दो बूँद आँसू जमीन में गिर जाते हैं।
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