दूर है मंजिल, राहें मुश्किल
विनोद पाण्डे
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 19 नवबर को अपने 2013-14 के बजट में की गई घोषणा के क्रम में मुम्बई के समुद्र तट पर स्थित नरीमन प्वाइंट के एयर इंडिया बिल्डिंग के 5000 वर्ग फीट के खूबसूरत परिवेश में भारतीय महिला बैंक का उद्घाटन कर दिया। पिछले कुछ समय से देश के कई मंचों पर महिला विमर्श प्रमुखता पाने लगा है, पर धरातल पर आते-आते अधिकांश कार्यक्रम धराशायी हो जाते हैं। महिलाओं को लिंगभेद से मुक्ति दिलवाने तथा आर्थिक सशक्तीकरण जैसे वायदों को समेटे यह नयी योजना क्या कर पायेगी, इस पर विचार की आवश्यकता है।
सीधे अर्थों में बैंक ग्राहकों से जमाराशियाँ लेकर ऋण प्रदान करने का काम करते हैं। बैंकिंग कारोबार के उद्देश्य व वरीयताएँ समय के साथ बदलती रहीं हैं। आजादी से पहले बैंक साहूकारी पद्धति के अंर्तगत मुख्यत: ऋण तक ही सीमित थे। आजादी के बाद इनकी भूमिका निजी बैंकों के रूप में लाभ अर्जित करने वाले उपक्रमों के रूप में रही, तो 1969 में इंदिरा गाँधी की राष्ट्रीयकरण नीति ने विकास के लिए बैंकों की जिम्मेदारी को प्रमुखता दी। वर्तमान में उदारवादी नीतियों के तहत बैंक विभिन्न प्रकार की भूमिकाओं के रूप में नजर आते हैं। जिनका मुख्यत: उद्देश्य लाभ अर्जित करना ही है। जिस कारण विदेशी बहुराष्ट्रीय बैंक हमारे बैंकिंग तंत्र के एक मजबूत हिस्से के रूप में नजर आते हैं।
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में बैंकों में 46 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में महिलाओं के 26 प्रतिशत खाते हैं। इसी प्रकार प्रति महिला ऋण की राशि पुरुषों की अपेक्षा 80 प्रतिशत कम है। यह सामान्य अनुभव है कि अधिकांश कारोबार, उद्यम आदि का स्वामित्व भी आमतौर पर पुरुषों के पास ही रहता है। हालांकि यह भी पाया गया है कि महिलाओं के द्वारा लिए गये ऋणों में कार्य की सफलता व वापसी का प्रतिशत बहुत अधिक रहता है। महिलाओं को बराबरी पर लाने के लिए सामाजिक लिंग भेद का खात्मा व महिलाओं के सशक्तीकरण की आवश्यकता है। इसके लिए महिला थाना, महिला कॉलेज, महिला आरक्षण जैसी व्यवस्थाएँ सामाजिक कुप्रथाओं व ढाँचे के कारण अपने उद्देश्यों से विमुख हो जाती हैं और प्रधान पति जैसी व्यवस्थाएँ देखने को मिलती हैं। इसलिए कई आलोचकों ने इस योजना को बेतुका व लोकलुभावन बताकर इसकी सार्थकता को ही खारिज कर दिया है।
प्रधानमंत्री इस योजना को महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण के लिए एक छोटी पहल बताते हैं। जिसके लिए केन्द्र सरकार ने 1000 करोड़ रुपये की पूँजी जारी की है। इसकी 8 शाखाएँ शीघ्र ही मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, बैंगलुरू, इंदौर, लखनऊ, जयपुर व मैसूर में खोली जायेंगी। पहले वर्ष में 39 शाखाएँ व अगले 7 सालों में यानी 2020 तक 2088 शाखाएँ खोली जायेंगी। इन बैंकों की विशेषता यह होगी कि इनमें धनराशि तो कोई भी जमा कर सकता है पर ऋण केवल महिलाओं को ही दिया जायेगा। जमा राशियों को आकर्षित करने के लिए बचत खातों में आधा प्रतिशत अधिक ब्याज दिया जायेगा। सरकार ने अपने को महिलाओं का हमदर्द दिखाते हुए व यह एहसास दिलाने के लिए कि यह बैंक महिलाओं का, महिलाओं द्वारा व महिलाओं के लिए ही चलाया जा रहा है, इसके निदेशक मंडल में आठ महिलाओं को ही शामिल किया गया है; जो देश की जानी मानी सफल हस्तियाँ हैं। इनमें बैंक के अध्यक्ष के रूप में बैंकर ऊषा अनंत सुब्रह्मण्यम, दलित उद्यमी कमानी ग्रुप की कल्पना सरोज, राजस्थान की वाणिज्य स्नातक सरपंच छवि राजावत, सेवा निवृत बैंकर नुपुर मित्रा, बाजार विशेषज्ञ रेनुका रामनाथ, जाकिर हुसैन कॉलेज की पाकीजा समद, गोदरेज ग्रुप की तान्या दुबास व सरकारी पक्ष से प्रिया कुमार हैं। अपने-अपने क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त इन महिलाओं को देश की महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण के लिए सारे प्रयास नयी सोच के साथ करने पड़ेंगे। ताकि इस कार्यक्रम का भी विकास के कई लोक लुभावन कार्यक्रमों जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली, आधार कार्ड, नरेगा और संयुक्त वन प्रबंध का जैसा हश्र न हो। महिला सशक्तीकरण और महिला आर्थिक सशक्तीकरण में भारी अंतर है। महिला आर्थिक सशक्तीकरण के दायरे में सभी महिलाएँ शामिल नहीं होती हैं, केवल वही महिलाएँ शामिल होनी चाहिये जो अनिवार्य रूप से आर्थिक पिछड़ेपन से ग्रस्त हों। अत: इस बैंक को यदि एक प्रयोग के रूप में भी लिया जाय और प्रयोग सार्थक हो तो आगे काम करने के लिए कोई दिशा मिल सकेगी।
The destination is far, the path is difficult
हमारे देश में निश्चित रूप से पुरुष प्रधान समाज होने के कारण सम्पत्तियों का स्वामित्व पुरुषों के हाथ में रहता है। महिला बैंक की धारणा है कि यदि साधन व संपत्तियों का स्वामित्व महिला के हाथ में होगा तो महिला सशक्तीकरण होगा व उसकी सामाजिक व पारिवारिक स्थिति भी मजबूत होगी। जिससे घरेलू हिंसा के मामलों में भी कमी आयेगी। लेकिन यह स्थिति तब आयेगी जब महिला बैंकों तक एक जरूरतमंद महिला की पहुँच हो सकेगी और उसके पास उद्यमिता कौशल भी होगा। जिस तरह अभी दिख रहा है कि बैंक स्थापना हमारे पूँजीवाद के प्रतीक शहर मुम्बई के आलीशान इलाके में हो रही है और अगली मुख्य शाखाएँ भी देश के प्रमुख शहरों में ही खोली जायेंगी; साथ ही आदिवासी व ग्रामीण अंचलों में शाखाओें के खुलने के बजाय वित्तमंत्री का यह बयान कि महिला बैंक की शाखाएँ विदेशों में भी खोली जायेंगी और यह बैंक आधुनिक र्बैंकग जैसे कि म्यूचुअल फंड व बीमा आदि का भी कार्य करेगा, सरकार की सोच में ही भ्रम नजर आता है व उनका इरादा इसे एक लाभ कमाने का उपक्रम बनाने का जैसा ही है।
इस सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक की सफलता के लिए पहला प्रश्न यह उठता है कि यह बैंक व्यापारिक रूप से सफल होने के लिए क्या अपनी शाखाएँ महानगरों व बड़े शहरों में अधिक खोलेगा या फिर कस्बों व गाँवों में? प्रश्न यह भी उठता है कि क्या महिलाओं को वर्तमान बैंकिंग प्रणाली से ऋण लेने में भारी कठिनाई होती है? आखिर महिलाओं के लिए पृथक बैंक बनाने की जरूरत क्यों है? क्या बैंकिंग के माध्यम से महिलाओं की समाज में गैर बराबरी की समस्याओं का अंत हो सकता है? क्या वर्तमान बैंकिंग प्रणाली में ही महिलाओं के लिए विशेष काउंटर व विशेष कार्यक्रम नहीं बनाये जा सकते? जब महिलाओं के पास संपत्ति का मालिकाना अधिकार ही नहीं है तो उन्हें इन बैंकों से बड़े ऋण कैसे मिल पायेंगे? क्या यह ऋण अत्यन्त छोटे-छोटे कार्यों के लिए ही मिल पायेगा? क्या इस बैंक की ऋण सुविधाओं का प्रधान पति की तर्ज पर ही पुरुषों के द्वारा दुरुपयोग नहीं होगा? क्या इन बैंकों की कार्यप्रणाली अन्य बैंकों की जैसी ही होगी? अगले वर्ष के चुनावों में यदि सत्तारूढ़ दल पराजित हो गया हो क्या नयी सरकार उसकी इस अभिनव भेंट को यथावत रखेगी?
महिला कुपोषण, कन्या भ्रूण हत्या, महिला हिंसा, अशिक्षा जैसे प्रश्नों व तमाम विरोधाभासों और वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था के मद्देनजर भारतीय महिला बैंक के मात्र एक श्रृंगार सामग्री बन जाने की संभावना अधिक नजर आती है।
भारतीय परिदृश्य में भारतीय महिला बैंक किस रूप में अभिनव है यह सिद्घ होने में देखना है कि कितना समय लगता है। क्योंकि अभी भी भारत में भी अनेक बैंकों ने अपनी महिला शाखाएँ बनायी हैं या बैंकों में ही महिलाओं के लिए विशेष महिला खाता जैसी सुविधाएँ प्रदान की हैं, जिसके कोई अपवाद रूप में अच्छे परिणाम आये हों, ऐसा पता नहीं चलता।
पाकिस्तान जिसे हम महिलाओं के अधिकारों के दमन के लिए अधिक जानते हैं, वहाँ महिला बैंक की स्थापना हमसे बहुत पहले 1989 में हो चुकी हैं जिसकी 28 शहरों में शाखाएँ हैं।
लेकिन इस दिशा में बंगला देश में प्रो. मोहम्मद युनुस के निजी प्रयासों से 1977 में प्रारंभ हुए ग्रामीण बैंक ने सूक्ष्म ऋण बैंकिग (माइक्रो-फाइनेंस) व विशेष कर महिला आर्थिक सशक्तीकरण के क्षेत्र में परिवर्तनकारी बदलाव किये हैं। इस बैंक की 80 प्रतिशत लाभार्थी महिलाएँ ही हैं। इस बैंक के दो आधारभूत सिद्घांत- कर्ज पाना हर नागरिक का मानवधिकार है व कर्ज देना दान देने से बेहतर है; बैंकिंग की एक नयी परिभाषा बनाते हैं। उनके इस प्रयास की सर्वत्र प्रशंसा हुई है। इस कार्य के लिए मो. युनुस को नोबल पुरस्कार सहित अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं।
The destination is far, the path is difficult
उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika
पत्रिका की आर्थिक सहायता के लिये : यहाँ क्लिक करें