ये कामवालियाँ

रश्मि बड़थ्वाल

उसका रूप मनोहारी नहीं था
फिर भी झाडूवाली के
गंदे हाथों में कितनी विशुद्घता है
पलकों पर चुहचुहाती
पसीने की बूंदों को
नये दिवस की स्वर्ण रश्मियां चूमती हैं
महानगर के चेहरे पर
धब्बों की तरह चिपके
कूड़ा-करकट
सड़े-गले अवशिष्ट
अपने हाथों से काट-बांध कर
बनाई गई झा झाड़ू से
रास्ते बुहारते समय
गली-गली में।

यह अंश है प्रथम भारतीय ज्ञानपीठ विजेता केरल के कवि स्व. जी शंकर कुरुप्प की कविता झाड़ू वाली से। अपने झाड़ू के साथ जूझकर समाज को सभ्य कहे जाने योग्य बनाने वाली ये घर और सड़क की कामवालियां किस हाल में जी रही हैं, हमारे महानगरीय समाज को कभी इस ओर झांकने की फुरसत नहीं होती। शिक्षा, नौकरी, सम्मान और धन-अर्जन के लिए मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय महिलाएं भी अपना अधिक समय घर से बाहर बिता रही हैं। ऐसे में उनके घर को घर बनाए रखने में कामवालियों का ही सबसे बड़ा हाथ होता है, लेकिन वे स्त्रियां भी समझ पाती हैं क्या अपनी सहायिकाओं के दुख- दर्द, समस्याएं, मुसीबतें और तमाम कष्ट! दे पाती हैं उन्हें थोड़ा सा समय, थोड़ी सी सहानुभूति, थोड़ा सा सहयोग? अपनी कमजोर बहनों को देने के लिए उनके पास अपनी उतरनों के सिवा कुछ होता भी है? निश्चित काम के लिए बंधे हुए पैसे देने होते हैं लेकिन जो अतिरिक्त काम उनसे मीठे-मीठे बहलाऊ  बोल बोल कर करवाए जाते हैं, उनका कोई हिसाब भी नहीं बनता। कामकाजी और घरेलू दोनों ही स्तरों की महिलाएं अपनी कामवालियों के प्रति एक-सा भाव रखती हैं। मात्र एक मशीन, एक उपयोगी वस्तु के अलावा उन्हें कुछ नहीं समझा जाता जबकि समाज के समग्र विकास के लिए कामवालियों के प्रति अधिक मानवीय व्यवहार होना चाहिए। कामवालियां न तो संगठित हो पाती हैं, न ही उनके पास ट्रेड यूनियन आदि का सहारा होता है। अशिक्षा और सामाजिक कुरीतियों का शिकार वे पहले से ही होती हैं। उनके बच्चों को शिक्षा और समुचित विकास नहीं मिल पाता। चेतना के स्तर पर अविकसित रहने के कारण न तो इनका जीवन आगे बढ़ पाता है, न ही परिवार उन्नति कर पाता है। बच्चों को अकेले घर पर छोड़ कर जाना भी अपने आप में एक बड़ी मुसीबत है। सपना नामक घरेलू नौकरानी से जब मैंने उसकी समस्याओं के बारे में पूछा तो उत्तर में उसका कठोर मौन ही मुझे मिला। उस मौन को तोड़ने के लिए मुझे स्नेह और अपनत्व के साथ पर्याप्त समय भी देना पड़ा।

सपना अपनी छ: साल की बेटी को झुग्गी में अकेली छोड़ कर काम पर जाती थी। उसे केवल दो घरों में काम करना होता था लेकिन दोनों ही मालकिनों ने बच्चे साथ लाने को मना किया था। घर पर बच्ची, वह भी अकेली। एक दिन काम से वापस लौटने पर सपना को बेटी अर्धमूर्छित अवस्था में मिली। नग्न और रक्तरंजित। जिन घरों में वह काम करती थी, उल्टे पैरों भाग कर वहीं गई। सहारे के स्थान पर उसे केवल उपदेश मिले किसी को बताना मत। एक मालकिन ने एंटीसेप्टिक क्रीम पकड़ा दी और दूसरी ने दूध का पैकेट देकर हाथ खड़े कर लिए। इस घटना के बाद सपना बेटी को ताले में बंद करके काम पर जाने लगी।
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यह बड़ा ही हृदय विदारक प्रसंग है कि जो नन्हीं कली अत्याचार का शिकार हुई, कैद भी उसी को मिली। उसका बचपन बरबाद हो गया। उसे जानलेवा कष्ट झेलना पड़ा और उसका जीवन ग्रहण से ग्रस्त हो गया। उसे थोड़ी देर मां का सुरक्षित आंचल भी नहीं मिला क्योंकि मां को तो अगले दिन भी काम पर जाना था। लड़की कुछ और बड़ी हुई तो उसे सपना ने स्कूल भेजा पर उसका दिल हमेशा डरा-डरा रहता था। लड़की भी कैद में रहते-रहते इतनी असामान्य हो चुकी थी कि स्कूल में खुद को समायोजित कर ही नहीं सकी। पढ़ाई छूटी, लड़की फिर घर पर, लेकिन ताले में रहने को कतई तैयार नहीं। इस समस्या का समाधान मालकिनों ने दिया। कहा कि काम पर साथ ले आया करो। सात-आठ साल की लड़की से मुफ्त में बीसियों काम करवाकर भी किसी मालकिन ने नही सोचा कि चलो थोड़ा टीवी कम देखूं और इस बच्ची को कुछ अक्षर ज्ञान करवा दूं। बच्ची को विद्या से लगाव था, यह भी किसी ने नहीं देखा-समझा। सपना ने इस ओर ध्यान दिलाने का प्रयास किया तो बस अपने बच्चों की पुरानी कॉपी-पेन्सिल उसके हाथ में पकड़ा कर कर्तव्य की इतिश्री कर डाली गई। आखिर सपना बेटी को अपने साथ ही काम पर जुटाने लगी ताकि मुफ्त वाले काम उससे छूटें। मां-बेटी जब मिल कर काम करने लगीं तो दो घर और पकड़ लिए। पेट भरने का साधन भले ही उनके पास है परंतु प्रगति का कोई अवसर कतई नहीं है।

सपना की बेटी ने जो कष्ट झेला वह कष्ट आदिवासी लड़की सुगना को भी झेलना पड़ा। किसी अज्ञात व्यक्ति से नहीं बल्कि उसी घर के मालिक से, जहां वह काम करती थी। गरीबी के चलते उसके माता-पिता ने बारह वर्ष की अवस्था में चार हजार रुपए में एक दलाल को बेच दिया था। दलाल उसके ही गांव का था इसलिए उससे सहृदयता रखता था। सुगना और उसके घरवालों के बीच वह संवाद सेतु भी था लेकिन जब सुगना ने रो-रोकर उसे बताया कि मालिक ने उसके साथ ‘खराब काम’ किया है तो उसने भी केवल चुप रहने की ही हिदायत दी, साथ ही चेतावनी भी कि काम छोड़ेगी तो कोई रखेगा भी नहीं। घर लौटेगी तो भूखों मरेगी।

कुछ समय पूर्व एक सैक्स रैकेट की कुछ लड़कियां पकड़ में आई थीं। उनमें से दो ऐसी थीं जो पहले भले घरों में काम करती थीं और इन भले घरों के ‘भले पुरुषों’ने उन्हें इसी तरह दंश दिए। एक लड़की जो बाईस साल की थी, उसने मालिक से अतिरिक्त पैसे की मांग कर डाली। मालिक लालबत्ती क्षेत्र जाकर रोज दो-चार सौ खर्च करके आता था, उसने पांच सौ रुपया महीना पर उस लड़की से सौदा कर लिया। चार सौ झाड़ू-पोछा बर्तन का अलग। लड़की ने दो बार गर्भपात भी करवाया। इस बीच उसे पता चला कि बाहर लड़कियां देह बेच कर इससे अच्छा कमा लेती हैं। वह कमाई के लिए निकल गई। दूसरी लड़की जो मुसीबत की मारी थी, उसकी परिचित थी। उसे भी उसने अपने रास्ते पर लगा दिया। देह की मंडी से जब वे पकड़ी गईं तो सारी बदनामी, सारी थू-थू, लानत-मलामत उन्हीं के सर आई। पिता की उम्र वाले उन लोगों का कुछ नहीं बिगड़ा जो उन्हें खरीदा करते थे। जो दलाली खाते थे या जिन्होंने इन गरीब लड़कियों को ऐसे काम की ओर जाने के लिए मजबूर किया। समाज के दरवाजे अब उन लड़कियों के लिए बंद हो चुके हैं। बर्तन-चौका, झााड़ू-पोछा जैसे काम भी अब उनसे कोई नहीं करवाना चाहता। अंतत: ऐसी महिलाओं को अज्ञात गलियों में भटकने के लिए ही मजबूर होना पड़ता है। वे चाह कर भी मुख्यधारा के समाज में लौट नहीं पातीं। देह के धंधे से उनका बुढ़ापा सुरक्षित नहीं हो पाता। तब दर-दर की ठोकरें ही उनके हिस्से में आती हैं।

सुखी जीवन की पहली शर्त अच्छा स्वास्थ्य ही होता है लेकिन आमतौर पर घरों में काम करने वाली महिलाएं देर तक पानी में रहने, क्षमता से अधिक भाग-दौड़ करने, भांति-भांति के तनाव झेलने के कारण ही बीमार रहने लगती हैं। हाथों और पैरों की उंगलियों में गलन तो आधी कामवालियों में मिल जाती है। इस तरह तकलीफ झेलते हुए काम करना होता है क्योंकि हाथ सुखाने और दवा लगाने तक का समय उनके पास नहीं होता। स्वामिनियां जब तक अपने बर्तनों पर प्रभाव पड़ते नहीं देखतीं, कुछ नहीं कहतीं लेकिन जैसे ही उन्हें शक होता है कि उनके बर्तनों में सड़ी उंगलियों की अदृश्य गंदगी आ सकती है, वैसे ही वे कामवाली को हटा देती हैं। कुछ दिन राहत या कुछ दवा आदि के लिए सोचने वाला बड़ा दिल मुश्किल से कुछ लोगों में ही मिलता है।
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एक गर्भवती स्त्री पड़ोस के घर में काम करने आती है। उसे रोक कर मैंने पूछा तुम्हारे पास तो पहले ही दो बच्चे हैं न, यह तीसरा है क्या? तीसरा नहीं आठवां है। उसके उत्तर से मैं चकित रह गई। महानगर में आठवां बच्चा! मन ही मन मैंने उसकी उम्र का अनुमान लगाया सोचा चालीस-पैंतालीस पर होगी। पूछने पर पता चला वह अट्ठाईस साल की है, उसका पहला बच्चा सत्रहवें साल में हुआ था। पहला लड़का था लेकिन बाद में छ: लड़कियां हो गईं। बेटों की जोड़ी तो होनी चाहिए कम से कम घर में- यह उसकी सास का कथन था। सास सब्जी का ठेला लगाती थी, बेटे और बहू के बराबर अकेली कमा लेती थी इसलिए पूरी दबंगई से रहती थी। बच्चे पालने की भी अधिकतर जिम्मेदारी उठा लेती थी लेकिन बहू के चौपट स्वास्थ्य के प्रति उसे कोई सहानुभूति नहीं थी। मालकिनों के प्रति निरंतर नम्रभाव रख कर उसने बस टीकाकरण का ज्ञान जुटाया था। उसके बारे में वह सदैव सतर्क रहती थी। उसकी बेटियां मिलजुल कर उसका काम तब तक निपटाया करती थीं जब तक वह नये बच्चे को जन्म देने के बाद फिर से काम करने लायक नहीं हो जाती। इस स्त्री के सारे जीवन की उपलब्धि क्या है? गुलामी और गुलामों की एक पूरी फौज तैयार करने के सिवा! जहां भाई-बहन कम संख्या में हैं, वे किसी हद तक कोई कामना, कोई इच्छा व्यक्त कर भी सकते हैं पर जहां डेढ़ कमरे के मकान में ग्यारह लोग रह रहे हैं, पैर फैला कर सोने का सपना भी कोई कैसे देख सकता है! भरपेट खाना मिल जाना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हो जाती है उनके लिए और उससे आगे वे कुछ भी सोचने योग्य नहीं रह जाते। पीले चेहरे, पीले नाखून, हड्डी-हड्डी काया स्पष्ट बता रही होती है कि उनके शरीर में खून की कमी है। बीमारी और गर्भावस्था के मारे चक्कर आ रहे होते हैं। ऐसी स्थिति में भी काम तो फिर काम है। करना ही पड़ेगा। अपना गुस्सा, चिड़चिड़ाहट, आक्रोश व्यक्त करने के लिए उन्हें केवल अपने ही बच्चे मिलते हैं। बच्चों पर इसका बहुत बुरा और गहरा असर पड़ता है। अपराध जगत की ओर अग्रसर होने वाले बच्चों में अधिकतर माता-पिता द्वारा प्रताड़ित किए जाने वाले होते हैं। ऐसी ही है बिन्दो के बेटे की कहानी भी। बिन्दो का बेटा जिला कारागार का कैदी है। बेचारी मां ने शराबी पति की मार खा-खाकर भूखे पेट सोकर भी बेटे की परवरिश में अपनी तरफ से कोई कमी नहीं छोड़ी थी पर उसका पति अक्सर बेटे की फीस के पैसे भी झटक लेता। इस कारण बच्चे का स्कूल छूट गया। बिन्दो को दोहरा दुख झेलना पड़ा और यह दुख तब तिहरा हो गया जब उसने बेटे को आवारा लड़कों की संगत में पाया। बेटे को समझाने के लिए उसके पास समय ही बहुत कम होता था और समय से भी कम थी उसकी शब्द सामथ्र्य। इस तरह समझाया, न समझाया बराबर होता रहा। लड़का दिन-दिन आवारा होता रहा और बिन्दो क्रूर। छोटी-मोटी चोरी में लड़का पकड़ा नहीं गया, उसके हौसले बढ़ते रहे और एक दिन उसने चोरी के लिए ऐसा घर चुना जहां बिन्दो काम करती थी। लड़का जेल पहुंच गया साथ ही बिन्दो का काम छूट गया। जिन घरों में उसने सात-सात, आठ-आठ सालों तक लगातार काम किया था, उन घरों की स्वामिनियां भी नहीं सोचतीं कि वह अभागी औरत काम के बिना पेट कैसे भरेगी! यह भी नहीं सोचा कि सारी बरबादी झेल कर भी बिन्दो ने उनके घर को तो कोई हानि नहीं पहुंचाई थी फिर उसे वापस काम पर रखने में क्या हर्ज है! क्या बिन्दो जैसी औरतों के सारे परिश्रम, सारे प्रयास, सारे संघर्ष केवल भूख से मरने की नियति की ओर ही जाने वाले हैं?

अच्छे-भले घरों की महिलाएं तक अपने स्वास्थ्य के प्रति गंभीर नहीं होतीं हैं फिर गरीब महिलाओं की कौन कहे! सूखी रोटी, बासी पूड़ी, जली सब्जी, सड़ी-बुसी चटनी़.ज़ो मिल गया झटपट निगल लिया। इसे ही वे अपना कर्तव्य जानती हैं। कुछ बेहतर जुट गया तो वह पति और बच्चों के पेट में जाना चाहिए, यही इनका जीवन-दर्शन होता है, यही आदर्श। सबकी परवाह करने वाली इन औरतों की परवाह करने वाला कोई नहीं होता। न उन्हें घर में कोई शुभचिंतक मिलता है, न ही बाहर। जरूरत पड़ने पर अपनी गाढ़ी कमाई से वे घरवालों के लिए दवा-मरहम जुटा ही लेती हैं पर अपने को कुछ होने पर वही पैसा गांठ से कतई नहीं निकालेंगी। ‘आपद-विपद’ के लिए रखा गया पैसा वे अपने ऊपर खर्च नहीं कर सकतीं।

बिहार से आकर लखनऊ  में घरेलू काम करने वाली कुछ महिलाओं से मैंने बात की। उनका एकमत  था कि शहर की तो बात ही कुछ और है, क्योंकि शहर में सुख है। जब उनकी सुख की परिभाषा को कुरेदा तो पता चला सबसे बड़ा सुख है मुंह उघाड़े घूमना। उन्हीं में से एक ने बताया कि गांव में वह और उसकी मां दोनों ही घरों में चौका-बासन करने जाया करती थीं, तब पल भर घूंघट उठाना भी मुश्किल था। मालिकों का आतंक उनके मन पर छाया रहता था और बाधाओं के बीच उन्हें सारा काम करना होता था। इतना ही नहीं, मजदूरी भी आधी-अधूरी मिलती थी। इसलिए गांव का मकान छोड़ कर वे शहर की झोपड़ी में आ गईं हैं। गृहकलह और घरेलू हिंसा के अनेक अनुभव उन्होंने मुझे बताए और मुझे भी यही लगा कि सचमुच दो जून लात-घूंसों के साथ भरपेट खाने से तो आधा पेट शांति से रोटी खाकर सो जाना अच्छा।

पीड़ा की एक अलग परत अविश्वास से भी बनती है। पड़ोस में एक भवन निर्माण का कार्य चल रहा है, पता चला कि वहां काम कर रही एक मजदूरिन पहले घरों में चौका-बर्तन ही नहीं करती थी, बल्कि खाना भी बनाती थी। आश्चर्य हुआ कि वह सरल काम छोड़ कर कठिन काम करने क्यों आई! कड़कती हुई धूप में, लू में, पसीना बहाते हुए हथौड़े से पत्थर कूटना, सर पर ईंट-गारा ढोना़, यह सब कैसे और क्योंकर चुना होगा उसने, यही जिज्ञासा उसके पास खींच ले गई। छेड़ते ही मानो फोड़ा फूटा। तुम पर कोई चोरी लगाए तो क्या करोगी? उसने पूछा तो मैं सकपका गई। संभल कर जवाब दिया काम छोड़ दूंगी पर वैसा ही काम मिल तो सकता है न! और कठिन काम मैं क्यों करूंगी?

और दूसरी जगह भी वैसा ही हुआ तो? गरीब हैं हम पर चोर नहीं हैं। अपनी लापरवाही से जो चीज बाहर खो आएंगे, उसके लिए भी हमीं पर शक! जो इनके लाड़ले खा-भकोस गए, उसके लिए भी हमीं पर शक! खर्चा-खुर्चा जादा हो जाए तब भी इन्हें लगता है कि हमीं ने कुछ मार लिया होगा। ईंट-गारा ढो रहे हैं तो कोई चोरी का शक करने वाला तो नहीं है। इज्जत से तो काम कर रहे हैं।
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इस भागमभाग के समय में एक दिन अगर महरी नहीं आती तो घर में अफरा-तफरी मच जाती है। दो दिन की अनुपस्थिति में तो घर जंग का मैदान दिखाई देने लगता है। अपनी पड़ोसिन अनीता जी तो कहती हैं कि यदि तीसरे दिन भी महरी नहीं आती तो मैं ताला लगा कर मायके चली जाती हूं। मायके का फोन नम्बर भी महरी के पास है, उसे पता है कि तीसरे दिन वहीं फोन करके बताना है कि कब आ सकती हूं। कब आ सकती हूं का यह अर्थ होता है कि आप कब लौट कर अपने घर आएं।

कमाबेश अधिकतर मध्यवर्गीय घरों का हाल ऐसा ही होता है। महरियों पर उनकी बड़ी निर्भरता होती है। उच्चवर्गीय महिलाओं की तरह मध्यवर्गीय महिलाओं में भी यश-प्रतिष्ठा पाने, समय काटने या बस जिज्ञासावश ही सही समाजसेवा के कार्यों की ओर उन्मुखता बढ़ रही है। वे अपने घर से दूर झुग्गी-झोपड़ियों में जाकर चहलकदमी कर आती हैं, फोटो खिंचा आती हैं, सेमिनारों में घूम आती हैं पर अपने घर में काम कर रहे दैनिक श्रमिक की ओर नहीं देखतीं। छोटे-छोटे सहयोग मिलने से उस बेचारे निरीह प्राणी को कितनी राहत मिलेगी यह अनुभव करने योग्य संवेदना भी क्या हम महिलाओं ने खो दी है? मूर्खता की हद तक भावुक फिल्मों पर हम रो सकती हैं पर अपने आस-पास बहते सच्चे आंसुओं को पोंछने के लिए एक कदम नहीं उठा सकतीं। क्या षडयंत्रों भरे चरित्र टीवी पर देख-देख कर ही हम इतनी हृदयहीन हो रही हैं या बाजार को घर में खींच लाने में ही हमने अपनी सारी शक्ति झोंक रखी है और अपने मानवीय कर्तव्य भी हमें दिखाई देना बंद हो गए हैं! महिलामुक्ति के लिए आंदोलन करने वाले और महिलाओं के विकास के लिए चिल्लाने वाले हमीं लोगों में से कोई अपनी घरेलू नौकरानी की उपेक्षा कर रहा है, कोई अपमान, कोई उत्पीड़न जबकि अपनी-अपनी क्षमता में हम सब इनके लिए कुछ न कुछ हितकर अवश्य कर सकते हैं। 

सविता सिंह की कविता ‘आओ देखो’  का अंश है-

आओ मेरी दुनिया में देखो
कैसे एक औरत दुख से मुक्ति पाती है
अपने साड़ी के आंचल से पोंछ
और फिर बढ़ जाती है
एक दुख से दूसरे दुख की ओर!
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