ये देहाती औरतें

कमल जोशी

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने हमारे प्रधान मंत्री को उपेक्षा के भाव से देहाती औरत कहा। उनकी शिकायत थी कि मनमोहन सिंह देहाती औरत की तरह चीखते, चिल्लाते हैं।

नरेन्द्र मोदी को नवाज शरीफ का प्रधानमंत्री को देहाती औरत कहना नागवार गुजरा। उनके अनुसार मनमोहन सिंह को देहाती औरत कहकर नवाज शरीफ ने भारत के प्रधानमंत्री का तथा देश का अपमान किया है।

मेरे छोटे से सवाल हैं : देहाती औरतों को सिर्फ चीखते-चिल्लाते ही सुना है या इन्होंने कभी यह जानने की कोशिश की है कि ये देहाती औरतें चिल्लाती क्यों हैं ? मैने तो इन देहाती औरतों को अपने खेत, फसल और जानवरों की रक्षा के लिए चीखते-चिल्लाते देखा है। वे अपनी सड़क की मांग के लिए लड़ती हैं, अपने गांव के स्कूल के अध्यापक के लिए लड़ती हैं, माफिया के खिलाफ चिल्लाती हैं या नेताओं पर खीज उतारती हैं। भला देहाती औरत का विशेषण क्यों अपमानजनक है? देहाती औरत के विशेषण से हमारे इन सम्माननीय लोगों को परहेज क्यों है ? सम्भवत: ये उस देहाती औरत को जानते नहीं, जिसके पास ये हर पाँच साल बाद हाथ जोड़ने जाते हैं  या उसके साथ फोटो खिंचवाते हैं और वोटों के लिए गिड़गिड़ाते हैं। देहाती औरत के प्रति इन लोगों की यह मानसिकता आम औरत से  राजनीति की दूरी को ही दर्शाती है।

देहाती औरत से मेरा परिचय बहुत पहले, बचपन में ही हो गया था। बस मुझे पता नहीं था कि वह देहाती औरत है। दरअसल मुझे यह भी पता नहीं था कि वह औरत है, उसके औरत होने का पता तब चला जब मुझे ‘‘सामाजिक” होश आया। वह मेरी माँ थी। 1921 के आस-पास जन्मी मेरी माँ चमोली जिले के दूरस्थ सीमावर्ती गाँव में पैदा हुई। गांव में पढ़ाई की व्यवस्था नहीं थी। लड़कों को घर पर ही शास्त्री लोग पढ़ाते थे। ब्राहणों के धार्मिक कर्मकाण्ड के लिए अक्षरज्ञान जरूरी था।  मेरी माँ मना करने के बावजूद लड़कों के साथ बैठती थी। उसने अक्षर ज्ञान लिया और अपनी उम्र के अन्तिम पड़ाव में 75 वर्ष की अवस्था तक कुछ न कुछ पढ़ती रही। आस-पास सरिता या चंदामामा होता तो उन्हें पढ़ती, कभी-कभी जासूसी उपन्यास भी पढ़ लेती। वह चमोली के दूरस्थ गांव में घास, लकड़ी, खेती, जानवरों के साथ-साथ जो हाथ लगता, पढ़ती। अगर उसे ज्यादा बेहतर पढ़ने की सामग्री मिलती तो शायद वह अपने विचारों तथा विश्लेषणों को और ज्यादा संवार सकती थी। ज्यादा बेहतर सामजिक योगदान दे सकती थी, वह जोकि एक देहाती औरत थी।

वह पढ़ती थी, यह बड़ी बात थी पर वह समझदार थी, यह और बड़ी बात थी। जब वह गांव में थी, परिवार को कई बार उसने संबंधों के तनाव से टूटने से बचाया। जब गाँव में मेरे रिश्ते की भाभी को, टी़बी़ होने की वजह से उनके ससुर ने गौशाला में मरने के लिए छोड़ दिया तो परिवार के किसी पुरुष की हिम्मत नहीं हुई कि वह विरोध कर सके। तब मेरी माँ पर्दे और लिहाज के रिश्ते के बावजूद अपने जेठ से लड़ पड़ी। उस वक्त यह घोर बदतमीजी समझी गई। पर मेरी देहाती मां ने अपने जेठ को चेतावनी दे दी कि यदि उन्होने तुरंत अपनी बहू को घर के अन्दर लाकर जगह नहीं दी तथा सरकारी अस्पताल में उसका इलाज नहीं करवाया तो वे उस बहू को अपने घर ले जांएगी और पंचायत करवाएंगी।

उनके जेठ यानी हमारे ताऊजी को बहू की बदजुबानी बेहद अखरी पर सामाजिक लोक-लाज व बदनामी के डर से वे भाभी को घर लाए तथा उनका इलाज करवाया। महिला मुद्दों पर लड़ने की पहली कहानी मैंने यही सुनी थी।
these rural women

ठेठ जनेऊ पहनने वाली तथा किसी का छुआ न खाने वाली माँ को मैंने समय के साथ नए विचारों को अपनाते और बदलते हुए भी देखा। अपने हिन्दू संस्कारों से वह हमेशा जुड़ी रही पर हमारे मुस्लिम दोस्तों से भी उतनी ही जुड़ी रही जितनी कि अन्य दोस्तों से। वह रसोई में बिठा कर उन्हें खाना खिलाती, प्यार उमड़ने पर उन्हें गले लगाती। कभी-कभी हमारे दोस्त ही कुछ झिझकते तो कहती – मुसलिया है तो क्या! है तो मेरे बेटे जैसा। हमारे शहरी नेता इस देहाती औरत जैसे क्यों नहीं हो पाते, समझ में नहीं आता।

अस्कोट-आराकोट यात्रा के दौरान मेरा देहाती औरतों से फिर सामना हुआ और देहाती औरतों के कष्टों, संघर्षों, समझदारी और जीवटता से निकट से परिचय हुआ।

तब वे देहाती औरतों की तरह चीख रही थीं, चिल्ला रही थीं। वे आवाज उठा रही थीं, शराब के खिलाफ। शराब ने उत्तराखंड में पुरुषों को हथिया लिया था। असर महिलाओं पर पड़ रहा था। कुमाऊँ की सारी देहाती महिलाएं सड़कों पर थीं। वे मांग कर रही थीं कि हमारे बच्चों को नशा नहीं रोजगार दो। तब भी हमारे नेताओं को इन देहाती औरतों के चीखने-चिल्लाने से बहुत परेशानी हो रही थी – स्थानीय नेता तथा दलाल किसी भी तरह उन्हें चुप कराना चाहते थे।

इन्हीं देहाती महिलाओं ने शराब के तंत्र के बारे में मुझे सीख दी थी। शराब कैसे सामाजिक ढाँचे को तोड़ रही है और थोड़ा बहुत जो विकास के नाम पर हो रहा है, उसको भी कैसे प्रभावित कर रही है?

उन्होंने ये सब बताया अपने नेताओं को, प्रधान से लेकर सांसद तक, पटवारी से लेकर मुख्यमंत्री तक। परन्तु सरकार को राजस्व ही दिखाई दे रहा था और राजनीतिज्ञों को शराब के माफियाओं से मिलने वाला कमीशन।  देहाती औरतें तो बस चीख-चिल्ला रही थीं।

इसी दौरान जब मैं ग्रामीणों के बीच काम करने वाली एक संस्था द्वारा आयोजित बैठक में हिस्सा ले रहा था तो  वहां वैध तथा अवैध शराब के अन्तर को समझाया जा रहा था। सरकारी लोग अवैध शराब को रोकने के लिए महिलाओं का आह्वान कर रहे थे। बैठक में एक कोने पर चुपचाप बैठी एक देहाती औरत ने मुझसे सवाल किया कि शराब वैध कैसे हो सकती है ? सरकार को सिर्फ कुछ पैसे दे देने से क्या शराब वैध हो जाती है ? मेरा पति चाहे सरकारी ठेके से शराब पीकर आता है या गाँव की भट्टी से, चाहे वह सरकारी वैध शराब पिये या लोकल अवैध शराब, उसका व्यवहार एक जैसा ही होता है। वह मुझे मारता ही है। उसकी मार से मुझे एक जैसा ही दर्द होता है। मेरे बच्चों की एक जैसी ही पिटाई होती है फिर वैध तथा अवैध शराब में क्या अन्तर ! मेरे  पास कोई जवाब नहीं था और न आज तक सुसंस्कृत राजनैतिक लोगों के पास इस देहाती औरत के प्रश्न का जवाब है

शराब के खिलाफ ये देहाती औरतें चीखती-चिल्लाती इसलिए हैं कि ये वैध शराब भी माफियाओं के मार्फत नेताओं को कमीशन देती है। गांव-गांव में ऐसे दबंगों को पैदा करती है जो प्रशासन को भ्रष्ट करते हैं और कहीं-कहीं आतंकित भी। यही वह लॉबी है जो भ्रष्ट नेताओं को धनबल तथा बाहुबल मुहैय्या कराती है जिससे चुनावों में ईमानदार लोग हार जाते हैं।

नेताओं की परेशानी यह है कि औरतों ने लड़ना नहीं छोड़ा है। वे शब्दों के भ्रमजाल के पार देख लेती हैं। वे आज भी जंगलों, नदियों और जमीन पर अपना हक समझती हैं क्योंकि उनका जीवन, उनकी अस्मिता तथा अस्तित्व जल-जंगल -जमीन पर टिका है। जबकि सरकार तथा नेताओं की नजर में ये चीजें बिकाऊ  हैं। हर बिकने वाली चीज से मुनाफा होता है और दलाल को पैसा मिलता है। पर ये देहाती औरतें हैं कि अपने हक के लिए लड़-मर रही हैं। रैणी गांव की देहाती औरत गौरा देवी ने ही हमें बताया था कि हमारे प्राकृतिक संसाधन  कितने महत्वपूर्ण हैं हमारे लिए। वे उसको बचाने के लिए आरों तथा कुल्हाडियों के सामने अपनी अन्य साथियों के साथ निहत्थी खड़ी हो गईं।

बांध का विरोध करने वाली सुशीला भण्डारी जेल चली जाती है पर चीखना-चिल्लाना नहीं छोड़ती। वह बार-बार इन परियोजनाओं के खतरे को बताती है पर कोई नहीं सुनता। उसकी बात के सच को सामने लाने को प्रकृति भी चीखती चिल्लाती है, नाराज होती है। धार्मिक स्थलों तक को बहा ले जाती है क्योंकि प्रकृति भी शायद औरत ही है। जो समझ गौरा देवी, सुशीला भण्डारी जैसी लाखों देहाती औरतों को है, वह हमारे नेताओं-नीतिकारों में क्यों नहीं है?

औरतें औरतें होती हैं – शहरी देहाती उन्हें उनका परिवेश बनाता है। हाँ, देहाती औरतें प्रकृति के ज्यादा नजदीक होती हैं। इसलिए प्रकृति की तरह ही उनमें जीवट होता है तथा संघर्ष करने की क्षमता मरी नहीं होती।

औरतें अब भी चिल्ला रही हैं। सभ्यजनों की भाषा में ‘अमर्यादित’तरीके से, क्योंकि वे जानना चाहती हैं कि जिस पर्वतीय प्रदेश की लड़ाई के लिए वे सड़कों पर आईं थीं, उस प्रदेश के नियंता उनके जंगलों, नदियों चरागाहों को क्यों बेच रहे हैं। क्यों उन्हें उजाड़ने और बडे़-बडे़ बांध बनाने के बावजूद, इनके घर अंधेरे हैं, इनके घडे़ रीते हैं और बच्चे बेरोजगार हैं?

वे पूछ रही हैं क्यों पर्वतीय प्रदेश की राजधानी पहाड़ में नहीं है। पर उनकी बातों को मोटी चमड़ी वाले सभ्य अवसरवादी राजनैतिक लोग नहीं सुन पा रहे। इसलिए वे चीखती चिल्लाती हैं।  और कभी-कभी गाली भी दे देती हैं।

सभ्यजनों को इससे परेशानी जरूर होती है, यह स्वीकार किया जाना चाहिए। पर इन देहाती महिलाओं को संतुष्ट करने वाला जवाब हमारे बुद्घिवीर नेताओं के पास अब तक नहीं, सिवाय यह मानने के कि सवाल करने वाली औरतें असम्य तथा गंवार हैं।
these rural women

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