पर्वतारोहण- 13: एवरेस्ट चुनाव शिविर में प्रशिक्षक
चन्द्रप्रभा ऐतवाल
अक्टूबर 1980 में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान द्वारा आयोजित भारतीय पर्वतारोहण संस्थान का एवरेस्ट-1984 के लिये जो चुनाव शिविर था, उसमें प्रशिक्षक के लिये मुझे पत्र आया। इस शिविर में भारत के चुने हुये महिला व पुरुष पर्वतारोहियों ने सम्मिलित होना था। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि इतने बड़े पर्वतारोहियों का प्रशिक्षक बनने का एक सुन्दर अवसर प्राप्त हो रहा है। साथ ही मन में डर भी था किन्तु मुझे भी सीखने व सिखाने की चाह थी। इस कारण काफी मेहनत कर रही थी और पुराने व्याख्यानों को पढ़-पढ़कर उनका दोहराव कर रही थी। हालांकि इस प्रशिक्षण में ज्यादा प्रायोगिक ही होना था।
प्रशिक्षण में सम्मिलित सभी महिला व पुरुषों ने नेहरू पर्वतारोहण संस्थान, उत्तरकाशी में अपना योगदान दिया। इस प्रशिक्षण में सेना व भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस आदि के सदस्य भी सम्मिलित थे। उनके अलावा अन्य पर्वतारोही भी थे। एक सप्ताह तक नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के चट्टान आरोहण क्षेत्र तेखला में कभी स्वतन्त्र रूप से तथा कभी मानव निर्मित चट्टानों पर चट्टान आरोहण करते थे। साथ ही कभी-कभी ओवर हैंग पर जुमारिंग का भी अभ्यास करते थे। साथ ही किसी दुर्घटना में घायल व्यक्ति को उतारने आदि का भी अभ्यास करते थे।
प्रशिक्षण में महिलाओं की संख्या पुरुषों से कम थी पर सभी अनुभवी पर्वतारोही थे। सभी ने काफी अभियान किये हुये थे। एक सप्ताह बाद हमें नेहरू पर्वतारोहण संस्थान से लंका तक बस द्वारा ले जाया गया। आज सभी को दोपहर का भोजन साथ में दिया गया था। लंका से जाड गंगा (नील गंगा) को पार करने के लिये नीचे उतरना पड़ता था। फिर खड़ी चढ़ाई चढ़कर भैंरोघाटी पहुंचे। वहां से 12 किमी. सीधा चल कर शाम को गंगोत्री पहुंचे। गंगोत्री में भागीरथी और केदार गंगा को पार करके शिविर लगाया। यहां की चट्टानें बड़ी अच्छी थीं और काफी ऊंचाई पर जाकर चट्टान आरोहण करते थे। उत्तरकाशी से तेखला के चट्टान आरोहण में काफी अन्तर था। यहाँ ऊँचाई पर होने के कारण सांस फूलने लगता था और किसी-किसी को तो काफी परेशानी भी होती थी।
गंगोत्री में दो दिन चट्टान आरोहण करने के बाद हम सीधे गोमुख गये। गंगोत्री में नाश्ता करने के बाद साथ में दोपहर का भोजन दिया गया था। हमारा दल 12 बजे गोमुख पहुँच गया। अन्य दल वाले 2 बजे तक पहुँचते रहे। सभी ने अपना-अपना सामान खुद उठाया था। गोमुख पहुँचने के बाद नहाना-धोना किया। यहाँ चार दिन रहे। कभी चट्टान आरोहण हेतु काफी ऊँचाई तक चले जाते थे। साथ ही लम्बी चट्टानों पर रेस्लिंग का भी अभ्यास करते थे।
एक दिन सभी दल अलग-अलग रास्ते से ऊँचाई की ओर लगाई गई रस्सियों पर बँधकर चट्टानी क्षेत्र से एक दूसरे को रस्सी की सहायता से मदद करते हुये चढ़ाई कर रहे थे। मेरे आगे कर्नल प्रेमचन्द का दल जा रहा था। सभी अपने-अपने दल के साथ रस्सियों से बंधे थे। मैं अपने दल में सबसे आगे रास्ता दिखाते हुए चल रही थी कि पहले वाले दल के एक लड़के से एक बहुत बड़ा पत्थर गिर गया जो सीधा मेरी पीठ पर जाकर लगा। मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा गया। मैं आंख बन्द करके किनारे पर बैठ गयी, परन्तु मुंह से कुछ बोल नहीं पायी।
मुझे कुछ भी पता नहीं चला कि आगे क्या हुआ ? काफी देर बाद जब आंखें खोली तब लोग मुझसे पूछ रहे थे कि ज्यादा तो नहीं लगी? मैंने कहा ठीक हूँ, और आगे बढ़ गयी पर थोड़ी देर में मेरी आँखों से आँसू निकलने लगे पर उसे आँखों में ही रोकने की कोशिश करके आगे चढ़ने की कोशिश की क्योंकि कर्नल उस लड़के को बुरी तरह से डांट-फटकार रहे थे। यह मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। इस कारण ठीक हूँ ही कहती रही, और आगे बढ़ने लगी। इतने में कर्नल प्रेमचन्द डॉक्टर और नरसिंह सहायक को ढूंढने लगे, पर उस दिन उनका भाग्य खराब था। दोनों शिविर से ही नहीं आये थे। अब कर्र्नल का पारा चढ़ गया। बेचारा नरसिंह सहायक पहली बार प्रशिक्षण में हमारे साथ नहीं आया होगा? शिविर में पहुंच कर दोनों को ही खूब डांट पड़ी। इसका मुझे बहुत बुरा लगा क्योंकि मेरे कारण ही डांट पड़ी थी, पर इसमें मैं क्या कर सकती थी ?
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एक दो दिन तक मैं आराम करती रही। गनीमत है कि पत्थर पीठ पर चपटा लगा। यदि खड़ा लगता तो मेरी हड्डी-पसली सब बराबर हो जाती। बाद में सोच-सोच कर डर लग रहा था। एक आस्ट्रेलियाई महिला निकी भी अपने पति के साथ प्रशिक्षण में आयी थी। उसने मेरी काफी सेवा की और पीठ की खूब सिकाई भी की। उसने किस प्रकार दवाई खानी है व किस प्रकार सेकना है आदि बताया।
गोमुख से हम मेरु ग्लेशियर की ओर चल पड़े। यह क्षेत्र मेरे लिये नया था। यहां चट्टान आरोहण का बहुत ही सुन्दर स्थान था। पास में ही लम्बी चट्टानें आरोहण करने के लिये थीं। पहले दिन यहाँ तक सामान पहुँचाने का कार्य (लोड फेरी) किया। सभी अनुभवी पर्वतारोही थे अत: अपने-अपने मन से जहाँ चाहे चले जा रहे थे। शिविर में पहुँचकर मैस टेन्ट लगाया और साथ लाये सामान को उसमें डाला। सभी ने मिलकर पत्थर इकट्ठा किये और पत्थर की आड़ में किचन के लिए जगह बनाई। घंटे भर तक दायां-बायां घूमने के बाद वापस गोमुख की ओर चल पड़े। वापसी में भी अपनी-अपनी मस्ती में सभी अलग-अलग चल पड़े। मेरे आगे सेना का जवाहर सिंह चल रहा था। सभी ने भागीरथी को पार करने का विचार किया था। इतने में जवाहर सिंह बिना आगे-पीछे देखे ही नदी का जहां दो हिस्सा हो रहा था, उस स्थान पर पार करके चलता बना। मैं भी उसके पीछे हिम्मत करके चल पड़ी।
जवाहर सिंह नदी को पार कर चुका था। उसने अपनी मस्ती में एक बार पीछे देखना तक उचित नहीं समझा। नदी के एक भाग को आराम से मैंने भी पार कर लिया। जैसे ही दूसरा हिस्सा पार करने को आगे बढ़ी पत्थर पर पैर फिसल गया और मैं सीधा बह गयी। इस कारण मैं पूरी तरह से भीग गयी थी। थोड़ी देर तो डर सी गयी, पर मां गंगा की कृपा से किनारे की ओर आ गयी किन्तु नवम्बर की ठण्ड में भागीरथी का पानी कैसा होगा ? यह एक महसूस करने वाली या कल्पना लायक बात थी। शिविर में पहुंचकर अपने कपड़े लेकर फिर नदी की ओर गयी, फिर पूर्ण रूप से स्नान किया। ठण्ड तो थी, पर स्नान करके कपड़े बदलने के बाद बहुत अच्छा लग रहा था। मेरे जीवन का यह एक नया ही अनुभव था। वैसे मैं तैरना खास नहीं जानती थी पर अपने को बचाने लायक तैर ही लेती थी। इसी कारण उस दिन इज्जत बच गयी, नहीं तो छुट्टी हो जाती। अन्य दल वाले कोई घूमकर तथा कोई एक-दूसरे की मदद करके अन्य जगहों पर से तैरकर आ रहे थे। कुछ लोग तो काफी घण्टे बाद शिविर में पहुँचे थे। इसके दूसरे दिन पूरा दल मेरु ग्लेशियर वाले शिविर में गया। यहाँ का शिविर क्षेत्र गोमुख से गर्म था और हवा भी बहुत ही कम चलती थी। बहुत ही अच्छा शिविर क्षेत्र था। इसी में हमने आधार शिविर लगाया।
मेरु ग्लेशियर के शिविर में अधिकतर ग्लेशियर का प्रशिक्षण दिया गया। ग्लेशियर पर चढ़ना-उतरना तथा बर्फ की दरार को पार करना आदि। प्रशिक्षण सुबह से 2 बजे तक होता था फिर खाना खाने के बाद लिखित और व्याख्यान आदि होता था। कभी-कभी अपने नये-नये अनुभवों से लोगों को लाभान्वित भी किया जाता था। इससे अलग-अलग लोगों का अनुभव सुनने का मौका मिलता था। एक दिन शिवलिंग और मेरु पर्वत के कौल पर लगभग 19500 फीट की ऊँचाई तक जाने की योजना बनायी। कौल तक पहुँचने के लिये एक दिन ग्लेशियर पर शिविर लगाया। साथ ही किचन कर्मचारियों से कह दिया कि आज शाम का खाना खुद प्रशिक्षणार्थी पकायेंगे, आप लोग आराम करो यह कर्नल प्रेमचंद का आर्डर था।
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योजना के अनुसार सारे प्रशिक्षणार्थियों को राशन दिया गया और कहा गया कि प्रशिक्षकों को भी वे ही लोग खाना बनाकर खिलायेंगे। रात काफी देर बाद खाना आया। लगभग सभी दलों का खाना कच्चा ही था। हाँ, जिस दल ने सूप बनाया था, वह दल कच्चा खाना खिलाने से बच गया। एक-आध दल ने तो अपना खाना चखाया ही नहीं। इस प्रकार हम लोगों ने भी कच्चे-पके खाने पर ही अपनी रात काटी। दूसरे दिन सुबह ही नाश्ता करके अपनी-अपनी मर्जी से कौल की ओर चल पड़े। किसी को जबरदस्ती नहीं थी कि कौल तक जाना ही है, जिसकी मर्जी जैसी हो वह कर सकता था। चाहे आगे जाओ या नहीं, पर सभी को अपने चुनाव की इच्छा थी। अत: सभी आगे बढ़ ही रहे थे। सभी ने अपने-अपने दल को रस्सियों से बाँधकर रखा था, पर सभी अपनी-अपनी मर्जी से अलग-अलग रास्ते से चल रहे थे। इतने में एक लड़का बर्फ की दरार में घुस गया, हालांकि वह भी रस्सियों से बँधा था। उसके साथी ने उसे बचा लिया किन्तु सभी लड़के अब डर रहे थे और कोई भी आगे बढ़ना नहीं चाहता था।
इतने में कर्नल प्रेमचन्द कहने लगे, ‘‘चलो चन्द्रा, तुम आगे चलकर रास्ता खोलो”। मुझे उनका कहना मानना ही था, अत: मैं आगे-आगे चल पड़ी। मैं भी तीन बार बर्फ की दरार में घुसते-घुसते बच गयी। मेरा वजन कम होने से बर्फ की दरारें कम टूट रही थीं और यदि घुस भी जाती थी तो एकदम रस्सी से मदद कर लेते थे और मुझे बर्फ की दरार में अधिक घुसने नहीं देते थे। मेरा वजन कम होने के कारण जहां मैं आराम से जाती थी, वहाँ लोग घुस जाते थे। अत: सभी चिल्लाने लगे कि आगे मत बढ़ो। कर्नल मुझे बार-बार आगे बढ़ने को कहते थे। एक बार तो इतनी बड़ी बर्फ की दरार में घुसी कि नीचे बहुत बड़ी खुली गुफा दिख रही थी, किन्तु रस्सी की सहायता से मुझे रोक लिया गया, फिर भी संभलने के बाद आगे बढ़ने के लिये दूसरा रास्ता अपनाकर आगे बढ़ ही रही थी कि वहां भी मैं अन्दर घुस गयी। अब किसी प्रकार आगे बढ़ना सम्भव नहीं था। इस स्थिति को देखकर कर्नल को बोलना ही पड़ा कि अब वापस चलो। कुछ लड़के तो हिम्मत हारकर आधे रास्ते से ही वापस आ गये थे। अब किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि उस कौल तक पहुंचा जाय। इस प्रकार सभी शिविर में वापस आये। शिविर में पहुंचकर सभी ने चाय पी, फिर सभी आधार शिविर के लिये रवाना हुए।
आधार शिविर में खाना तैयार था, अत: खाने पर टूट पड़े, क्योंकि दो दिन से खाना ऐसा ही रहा था। इतने में एक लड़का तारा पुरी काफी परेशान सा लग रहा था। वह बम्बई का रहने वाला था और अच्छा फोटोग्राफर था। पूछने पर पता चला कि उसके हाथ में जलन हो रही है और काफी सूजन भी आ गयी है। अब सभी उसको देखने लगे। डॉक्टर भी उसे देखने लगे। इससे पहले उसने किसी को नहीं बताया था। अत: डॉक्टर भी काफी परेशान हो गया, क्योंकि उसके हाथों में फ्रोस्टरोइट (बर्फ से जल जाना) के लक्षण दिख रहे थे और सूजन भी आ गई थी और अंगुलियों में छाले निकल गये थे।
हम लोगों ने उसके हाथों को गर्म नमक के पानी से सेकना शुरू किया। बेचारा अब बहुत चिल्लाने लगा। किसी प्रकार डॉक्टर ने कुछ दवाई दी और उसे शान्त किया। अब उसको चम्मच से खाना खिलाना पड़ता था। फोटो खींचते समय दस्ताने से हाथ बाहर निकालता और फिर दस्ताना पहनता था। वह दस्ताना थोड़ा बहुत गीला हो गया होगा और उसने उसे रात में उतारा ही नहीं और वैसे ही सो गया। उसी की ठण्ड से हाथों का ये हाल हो चुका था। इसमें खुद उसकी लापरवाही थी, फिर समय पर डॉक्टर को भी नहीं बताया और बात छिपाकर रखी। इससे डॉक्टर और परेशान हो गया था। खैर किसी तरह उसे शान्त कराया। अब सभी बारी-बारी से उसके हाथों की सिकाई करते थे, फिर दूसरे दिन डॉक्टर के साथ उसे गोमुख वाले शिविर में नीचे भेज दिया गया। हमारे पास समय था, अत: दूसरे दिन चट्टान से बीमार व्यक्ति को कैसे उतारा जाता है आदि का अभ्यास कर रहे थे और कुछ मानव निर्मित चट्टान का आरोहण कर रहे थे।
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र्दािजलिंग से आया प्रशिक्षक लबजंग छीरिन अपने दल वालों को मानव निर्मित चट्टान का आरोहण करा रहा था कि पीटोन निकल जाने से काफी ऊँचाई से एक लड़का (कैप्टन यादव) गिर पड़ा। बेचारा काफी भारी था जिस कारण उसके टखने की हड्डी खिसक गयी। अब एक और परेशानी हो गयी थी। कर्नल पे्रम काफी नाराज हो गये थे कि चट्टान आरोहण करते समय ‘‘ब्ले” करने वाले की लापरवाही से ही ऐसी घटनायें घटती हैं।
फिर किसी तरह दल के सभी सदस्यों ने अपने-अपने काम को बन्द किया और सामान इकट्ठा कर बाँधना शुरू किया। उनका बोझ बनाया और वापसी की तैयारी की। यादव काफी वजनी था, अत: उसे कैसे उठाया जाय। यह एक समस्या बन गयी थी। खैर किसी तरह उसे बदल-बदलकर बारी-बारी से उठाकर लाये। उसे उठाने में बीकानेर का भगन बिसा, कर्नल प्रेम आदि का सबसे ज्यादा हाथ था। अब हो गयी भागीरथी नदी को पार कर लाने की बारी। सबने मिलकर नदी के ऊपर रस्सी लगायी। अब उसे किसी की पीठ पर ठीक से बांधा और फिर नदी पार करवाई। उसके बाद सभी बारी-बारी से नदी पार कर रहे थे। सामान भी रस्सियों से ही पार किया। कोई तो नदी में रस्सियों की सहायता से आराम से पार कर रहे थे और कुछ नदी में गिर जाते थे। ऐसे समय में नवम्बर के माह में नदी का पानी कितना ठण्डा होगा, यह खुद समझ सकते हैं। नवम्बर के माह में नदी का बहाव तेज नहीं होता है। इसका हमें फायदा था। इस प्रकार मरीज और सभी सदस्य गोमुख के शिविर में सुरक्षित पहुँच गये। हालांकि नदी पार करने में समय काफी लग गया, क्योंकि सभी को बारी-बारी से ही पार करना था।
दूसरे दिन गोमुख से गंगोत्री 19 किमी. आना था। सभी बारी-बारी से बदल-बदल कर मरीज को उठाकर ला रहे थे। कोई भी प्रशिक्षक नहीं बचा था जो उसे उठाकर न लाया हो। बेचारा यादव खुद भी परेशान हो गया था, क्योंकि पैर लटकने से सूजन अधिक आ गयी थी। पर कोई चारा भी नहीं था। यदि उसे स्टे्रचर में लाते तो मोरिन में काफी कठिनाई होती। इस कारण पीठ पर ही लाना पड़ा जबकि यादव को पैर में दर्द भी हो रहा था। जैसे ही गंगोत्री पहुंचे यादव कहने लगा, ‘‘दीदी आपने मुझे नहीं उठाया”। उसकी इच्छा की पूर्ति करने के लिये मैं कमरे के बाहर से अन्दर तक उसे पीठ पर लेकर गयी।
गंगोत्री में यादव के पैर को क्रेप बैण्डेड से ठीक से बांधने के बाद कार के पीछे की सीट पर लिटाकर उसे उत्तरकाशी लाये। उत्तरकाशी में सीधे ही अस्पताल ले गये। वहां एक्स-रे आदि करने के बाद प्लास्टर कराया। इस प्रकार काफी परेशानियों के बाद यह शिविर खत्म किया। तारा पुरी के हाथ और कैप्टन यादव का पैर छ: माह के बाद ही ठीक हुआ होगा। उनके दर्द की चिल्लाहट आज भी मुझे याद आती रहती है। बेचारे रात भर सो नहीं पाते थे। तारा पुरी के हाथ सूजने से काफी तकलीफ हो रही थी। साथ ही जितनी धूप पड़ती थी उतना ही वह दर्द के मारे परेशान हो जाता था। क्योंकि गर्मी के साथ दर्द बढ़ने लगता था और जलन महसूस करता था। इस कारण असहनीय पीड़ा होने पर चिल्लाने लग जाता था।
उत्तरकाशी पहुँचकर दो दिन तक सामान को स्टोर में जमा कराकर सभी अपने-अपने घर जाने की तैयारी में लग गये। इस प्रशिक्षण के दौरान सब कुछ ठीक-ठाक रहा, पर अन्त अच्छा नहीं रहा, ऐसा मुझे लग रहा था। सभी अच्छे और चुने हुए पर्वतारोही थे, फिर भी कुछ न कुछ और सीखने की आवश्यकता महसूस हो रही थी। साथ ही हर समय हमें सावधानी बरतने की आवश्यकता थी। थोड़ी सी लापरवाही हमें इतनी तकलीफ दे रही थी।
क्रमश:
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