जंगल विनाश से प्रभावित झारखंड की आदिवासी महिलाएँ 

अशोक सिंह     

वनाधिकार कानून 2006 को लागू  हुए कई वर्ष हो गये। इसके बावजूद वन क्षेत्र में रह रहे आदिवासियों एवं अन्य समुदायों को आज तक वास्तविक अधिकार नहीं मिले हैं। ऐसे में जंगल और उसके आसपास वर्षों से रह रहे आदिवासियों की जंगल आधारित अर्थव्यवस्था में कोई अपेक्षित बदलाव नहीं आ रहा है। परिणामत: आज इस समुदाय की एक बड़ी आबादी भूख, गरीबी और बेकारी का शिकार है।

लोगों का मानना है कि जिस इलाके में आज भी भरपूर जंगल हैं, वहाँ कोई नहीं मर सकता लेकिन विभागीय उदासीनता, कर्मचारियों की मिली भगत व आदिवासी समुदायों में जागरूकता की कमी के कारण आज पूरे संथाल परगना में वन माफियों द्वारा जंगलों की अवैध कटाई जारी है, जिससे न सिर्फ पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है बल्कि लोग बीमारी, भुखमरी के शिकार हो रहे हैं तथा दैनिक जीवन में काम आने वाले ईंधन एवं पानी जैसी मूलभूत समस्याओं से जूझ रहे हैं।

झारखण्ड प्रोफाइल के आंकड़े बताते हैं कि यहाँ कुल 2304739 हेक्टेयर वन हैं, जिसमें संथाल परगना में मात्र 13.65 फीसदी ही वन क्षेत्र है। परिणामत: आदिवासियों का जीवन, सभ्यता और संस्कृति खतरे में पड़ गई है।

संथाल परगना प्रमण्डल के वन क्षेत्रों को दो भागों में बाँटा गया है। एक तो सरकारी और दूसरा पहाड़िया जनजाति की रयैती सम्पत्ति। लेकिन अशिक्षा, बेकारी एवं भूख की वजह से पहाड़ी या आदिवासी जहाँ अपने रयैती जंगलों को काटते हैं, वहीं इनकी कमजोरियों का लाभ उठाकर वन माफिया इनसे सरकारी वनों को भी कटवाने से बाज नहीं आते। लकड़ी माफिया इन भोले-भाले ग्रामीणों को बहला-फुसलाकर चिन्हित स्थानों पर लकड़ी पहुँचाने के लिए एडवांस भी देते हैं।

निर्धारित स्थानों पर लकड़ी इकट्ठा होने के बाद वन माफिया ट्रकों पर लादकर उक्त लकड़ी को पश्चिम बंगाल भेजते हैं। लकड़ी भेजने के क्रम जितने भी थाने पड़ते हैं, सुविधा शुल्क चुकाकर आराम से ट्रक पास कर लेते हैं। इतना ही नहीं रेलगाड़ियों से भी जंगलों से काटी गयी लकड़ियाँ जलावन के लिए वहाँ भेजी जाती हैं। उसके लिए प्रति बोझ 4-5 रुपये जी़आऱपी़ वाले वसूलते हैं। इसके अलावा और भी कई तरीकों से लकड़ी का व्यापार होता है और इस कारोबार में लगा माफिया वर्ग मालामाल हो रहा है। वहीं दूसरी ओर वन आश्रित ग्रामीण आदिवासी समुदाय की आर्थिक व्यवस्था चरमराने लगी है।

आमतौर पर आदिवासी लड़कियाँ या महिलाएँ ही जंगलों से जलावन के लिए लकड़ियाँ, कंदमूल फल तथा अन्य वनोपज लाती हैं। इसलिए पर्यावरण नुकसान का सीधा असर उन्हीं पर पड़ेगा। इसी तरह वृक्षों के साथ रोजमर्रा के सम्बन्ध के चलते उनके पास अनुभवजनित ज्ञान का भंडार इकट्ठा हो जाता है। अगर वनों का नाश होता है तो जाहिर है उसके ज्ञान का नाश भी होगा ही। यह स्थिति पुरुषों की नहीं होती। इसलिए प्रकृति के साथ पूरे समाज का वही रिश्ता नहीं होता, जो महिलाओं का होता है। महिलाएँ पर्यावरणीय नुकसान का सीधा असर झेल रही हैं। प्रकृति के साथ हुई छेड़छाड़ का खामियाजा आदिवासी लड़कियों को अपने श्रम से चुकाना पड़ रहा है।

संथाल समाज में प्रकृति के साथ रिश्ते का आधार लिंग, वर्ग पर आधारित है। परिवार के लिए भोजन जुटाने की जिम्मेवारी लड़कियों की होती है। उन्हें फल-फूल तो जंगल से लाने ही होते हैं, साथ ही जलावन, बाँस, जड़ी-बूटी, चारा, पत्ता, खाद आदि के लिए भी जंगल पर निर्भर रहना पड़ता है।

आदिवासी लड़कियों को घर में पीने का पानी लाना पड़ता है। जानवरों को चराने के लिए जंगल ले जाना पड़ता है। फसल बोने से लेकर काटने तक की जिम्मेदारी भी उन्हीं की होती है। कुल मिलाकर हल चलाने को छोड़कर खेती से संबंधित सारा काम महिलाएँ ही करती हैं। इनमें भी जो भूमिहीन हैं या जिनके पास कम जमीन है, प्रकृति या आसपास के पर्यावरण पर उनकी ज्यादा ही निर्भरता देखने को मिलती है। मूलरूप से विशुद्घ कृषि प्रधान समाज होने के कारण इसके सारे गुण-अवगुण संथालों के बीच दिखायी देते हैं। प्रकृति के साथ उनका रिश्ता भी उनकी इसी सामाजिक संरचना का हिस्सा है।
Tribal women of Jharkhand affected by forest destruction

वर्ष 1952 में बनी राष्ट्रीय वन नीति में कहा गया था कि कम से कम एक तिहाई क्षेत्र पर वन होने चाहिए लेकिन अफसोस आज पूरे देश में वनों की स्थिति खराब है। एक आँकड़े के मुताबिक यह लगभग 20 प्रतिशत हैं। संथालपरगना की हालत इससे अलग नहीं है। प्राप्त आँकड़ों के मुताबिक सन् 1936 में इस इलाके में 62.50 प्रतिशत क्षेत्र में जंगल फैला था, जो अब मात्र 13.65 प्रतिशत पर पहुँच गया है। वन विभाग द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक दुमका क्षेत्र में 1951-52 से लेकर 1975-76 के बीच 4135.75 हजार हेक्टेयर वन भूमि को अधिकारिक रूप से साफ किया गया, जिसमें 4791 हजार हेक्टेयर का उपयोग जलाशय और नहरों के निर्माण में, 2506.9 हजार हेक्टेयर, कृषि और हरित क्रान्ति के लिये 57.1 हजार हेक्टेयर, सड़क निर्माण के लिए और 965.4 हजार हेक्टेयर का उपयोग अन्य विकास योजनाओं में हुआ है।

गौरतलब है कि जब आसपास जंगल थे तो लड़कियों को जलावन के लिए लकड़ियाँ चुनने दूर नहीं जाना पड़ता था। वे जलावन की चिन्ता से मुक्त रहती थीं। साथ ही जानवरों को चराने के लिए भी उन्हें दूर नहीं ले जाना पड़ता था। यहाँ तक कि बिना फसल वाले महीनों में पशुओं का गोबर खेत में ही चराते वक्त रह जाया करता था, जो खाद का काम करता था। आज जब जंगल धीरे-धीरे कट कर खत्म हो रहे हैं तो जलावन की किल्लत तो हो ही रही है, इसे चुनने में भी काफी वक्त लगने लगा है। पहले घर से निकलकर लड़कियाँ आसपास से ही लकड़ियाँ चुन लाती थीं लेकिन अब उसके लिए उन्हें दूर जाना पड़ता है। जिसमें रोज 3-4 घंटे अर्थात् लगभग आधा बेला समय लग जाता है। ठीक यही बात पशुओं को चराने में भी लागू होती है। क्योंकि इसके लिए भी उन्हें दूर जाना पड़ता है। उस पर गर्मियों के दिनों में तो अक्सर हादसे की आशंका बनी रहती है। इसके अलावा पहले जो गोबर विशुद्घ रूप से खेती में खाद के रूप में काम आता था, अब जलावन के रूप में उपयोग होने लगा है। इसका सीधा असर खेती की गुणवत्ता पर पड़ रहा है।

आदिवासी समुदाय के घर-परिवार से जुड़े और भी बहुत सारे काम ऐसे हैं जिनकी जिम्मेदारी का बोझ लड़कियाँ एवं महिलाएँ उठाती हैं। जैसे छोटी-मोटी आय के लिए दोना, पत्तल, चटाई, झाड़ू, पंखा आदि बनाने का काम भी महिलाओं के जिम्मे होता है। जिसके लिए उन्हें न सिर्फ जंगलों से पत्ते लाने पड़ते हैं बल्कि अपने तैयार किये सामानों को हाट-बाजार में ले जाकर बेचना भी पड़ता है। पेड़ों के कटाव ने इस काम पर भी असर डाला है। वे पत्ते लाने के लिए दूर तक जाती हैं, जहाँ समय भी लगता है और कई अनहोनी दुर्घटनाओं की भी आशंका बनी रहती है। जंगलों के कटाव का आदिवासी लड़कियों या महिलाओं पर जो सबसे बड़ा असर पड़ा है वह है वनोपज और पानी की भारी किल्लत।

संथालों के खाद्य पदार्थ जुटाने के दो प्रमुख स्रोत थे- जमीन और जंगल। जंगल से वे कटहल, आम, बेल, ताड़, खजूर, महुआ, जामुन आदि कई तरह के फल, कंद-मूल इकट्ठा किया करते थे और ये काम स्त्रियाँ ही किया करती थीं। आपातकाल में जब जमीन से पर्याप्त अनाज की पैदावार नहीं होती थी, तब यही वनोपज काम आते थे। साथ ही ये पूरक पदार्थ भी थे जो उनके स्वास्थ्य को बनाये रखते थे। आज स्थिति उलट है। जंगल के कटाव और बचे जंगलों के राष्ट्रीयकरण से खाद्य पदार्थ का एक बड़ा आधार इनसे छिन गया, जिसका सीधा असर आदिवासी लड़कियों व महिलाओं पर पड़ा है। घर में अगर कम फल हुए तो वह पुरुषों को मिल जाते हैं। यही नहीं, पहले आमतौर पर वनोपज बेचे नहीं जाते थे, लेकिन अब आर्थिक बदहाली के कारण वे अपने लिए उपयोग करने के बजाय बेच देते हैं।

पानी की स्थिति भी देखें तो संथाल परगना क्षेत्र में गंगा, बांसलोई, ब्राह्मणी, अजय और मयूराक्षी जैसी कई बड़ी नदियाँ हैं, तो कई जलप्रपात भी। इसके अलावा प्रत्येक गाँव में एक-दो बड़े जलस्रोत हुआ करते थे, जिसमें साल भर पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध रहता था। गाँव के बड़े बुजुर्ग और जानकार लोग बताते हैं कि बरसात के दिनों में बरसने वाला पानी साल वृक्ष की जड़ों के माध्यम से भूतल में जमा रहता था और यही सिंचित जल बरसात के बाद धीरे-धीरे सोता बनकर बहता था जिससे गाँव वालों को नदियों एवं जल स्रोतों से पीने एवं खेतों को सींचने के लिए पर्याप्त जल उपलब्ध हो जाता था। गाँव पहाड़ के टीलों पर बसा हो या घाटी में, कभी भी पेयजल का संकट लोगों को भुगतना नहीं पड़ता था, परन्तु आज जंगलों के कटने के बाद नदियों में पानी टिकना मुश्किल हो गया है। और सभी जल स्रोत विलुप्त होते जा रहे हैं। इससे जहाँ एक ओर खेती के लिए बड़ा संकट पैदा हो गया है, वहीं दूसरी ओर पेयजल का संकट गहराता जा रहा है।
Tribal women of Jharkhand affected by forest destruction

गौरतलब है कि इस स्थिति की मार पुरुष कम, लड़कियाँ व महिलाएँ ज्यादा झेलती हैं, जिस तरह भोजन उपलब्ध करने की जिम्मेदारी लड़कियों की है, उसी तरह पीने का पानी भी उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी उन्हीं की है। अब ऐसे में पीने का पानी लाने के लिए इन्हें दूर जाना पड़ता है। गर्मी के दिनों में उनके लिए यह काम और कठिन हो जाता है। आसपास के सारे जल स्रोत सूख जाते हैं। तब साफ पानी के अभाव में इन्हें जमा हुआ पानी तक पीना पड़ता है, जिससे कई तरह की बीमारियों का शिकार होना पड़ता है।

घर की लिपाई-पुताई का काम भी लड़कियों के जिम्मे होता है और इसके लिए भी पानी की जरूरत पड़ती है, जो लड़कियों को ही लाना पड़ता है। भले ही कई किमी दूर से जाकर लाना पड़े। इन इलाकों में रोज सुबह शाम सर पर घड़ा उठाये पानी के लिए दूर आती-जाती लड़कियाँ दिख जायेंगी।

इसके अलावा पानी की किल्लत का सबसे बुरा असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है। गर्मी के दिनों में संथाली महिलाओं को नहाने और कपड़े साफ करने जैसी भारी समस्या का सामना करना पड़ता है। यह समस्या भी कई बीमारियाँ पैदा करती हैं। एक विशेष बात यह है कि पहले आसपास जो जल स्रोत होते थे, उनमें मछलियाँ भी मिल जाती थीं, जिसका उपयोग लोग खान-पान में करते थे। अब मछलियाँ मूल्यवान चीज होती जा रही हैं। थोड़ी बहुत अगर मेहनत मशक्कत के बाद मिलती भी हैं तो वह पुरुषों के हिस्से चली जाती हैं, लड़कियों को नसीब नहीं होती।

प्रकृति के साथ स्त्री जाति के विशिष्ट रिश्ते का उनकी जानकारी के भंडार पर भी असर पड़ता था। जंगल और पेड़ों के साथ रोजमर्रा के संपर्क के कारण महिलाएँ ऐसी कई प्रकार की जड़ी-बूटियों के बारे में जानकारी प्राप्त करती थीं या पहचानती थीं जो कई तरह की बीमारियों का निदान कर सकती हैं। यह देशज ज्ञान माता के जरिये बेटी द्वारा पीढी-दर-पीढ़ी चलता रहता है। जंगलों के विनाश या उसमें कमी आने से लड़कियों का यह विशिष्ट देशज ज्ञान नष्ट हो रहा है। इसके कारण कई बीमारियों का इलाज जो पहले वे खुद से कर लिया करती थीं, अब इसके लिये उन्हें नीम हकीम, झोला छाप डाक्टरों या फिर बड़े डाक्टरों से इलाज के लिए दूर चलकर शहर जाना पड़ता है। जिसमें शारीरिक कष्ट के साथ-साथ भारी आर्थिक क्षति भी होती है। इसमें सबसे ज्यादा घाटा लड़कियों को उठाना पड़ रहा है। एक तो प्रकृति से सम्बन्धित उनके विशिष्ट देशज ज्ञान उनसे छिनते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ रहा है। स्त्री सम्बन्धी जिन रोगों का इलाज पहले वे खुद कर लिया करती थीं, अब जड़ी-बूटी न मिलने के कारण अपना इलाज से स्वयं नहीं कर पा रही हैं और चुप्पी साधे अंदर ही अंदर उसका दुष्परिणाम झेल रही हैं। इतना ही नहीं, पहले अपने पशुओं को होने वाली बीमारियों का इलाज भी वे स्वयं जड़ी-बूटियों से कर लिया करती थीं लेकिन अब जानवरों के इलाज के लिए भी उनकी निर्भरता जंगलों की बजाय बाहरी लोगों पर बढ़ गयी है।

मुद्दे की गहराई में जाकर देखें तो इसके और भी कई पहलू हैं। पहले वन आधारित कई कुटीर उद्योग भी इस इलाके में चला करते थे जिसमें बड़े पैमाने पर  लडकि़याँ शामिल रहती थीं। आज वे कुटीर उद्योग लुप्त हो रहे हैं। लुप्त होने वाले उद्योगों में तसर, लाख और सवई घास प्रमुख हैं। इसका दुष्परिणाम भी आदिवासी महिलाओं को ही भुगतना पड़ रहा है।

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि संथाल आदिवासियों की पूरी सामुदायिक व्यवस्था पर्यावरण असंतुलन का शिकार हो रही है। सामुदायिक व्यवस्था में आये प्राकृतिक असंतुलन ने लड़कियों को बड़े पैमाने पर आजीविका के लिए गाँव से बाहर जाने के लिए विवश किया है। हालांकि पलायन और विस्थापन इस इलाके की पुरानी समस्या है, लेकिन तथाकथित सरकारी विकास के बावजूद भी यह आज घटी नहीं, बल्कि और बढ़ गई है।

ज्ञातव्य हो कि संथाल विद्रोह के बाद ही इन्हें असम, पूर्णिया, ओड़िसा, चंपारण और यहाँ तक कि मेसोपोटामिया भी सोची समझी साजिश के तहत भेजा गया, लेकिन आजादी और खासकर इधर हाल के दो-तीन दशकों के बाद का पलायन और विस्थापन पूरी तरह पर्यावरणीय असंतुलन की देन है। देश के पूर्वी हिस्से में जहाँ कहीं भी बाँध या बैराज बनता है, वहाँ संथाल परगना से न सिर्फ पत्थरों  के छोटे बड़े टुकड़े लाये जाते हैं बल्कि उसे ढोने और बिछाने के लिये यहाँ के लोगों विशेषकर मेहनतकश आदिवासी महिलाओं को ले जाया जाता है।

संथाल परगना के दुमका क्षेत्र के पास से बहती हुई मयूराक्षी नदी मयूराक्षी पर बाँध बनाकर बंगाल के कई इलाकों में‘हरित क्रान्ति’ लायी गयी लेकिन नदी के तट पर बसे आदिवासी ‘सूखी क्रान्ति’ के शिकार हो गये। मयूराक्षी पर बाँध बनने से दुमका क्षेत्र का चापुरिया गाँव पूरी तरह प्रभावित हो गया है।
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चापुरिया के ग्राम प्रधान वकील मुर्मू बताते हैं कि बाँध बनने से पहले यहाँ 200 से अधिक परिवार रहा करते थे, पर अब मात्र 10-12 परिवार बचे हैं। बाँध बनने से पहले यह गाँव बहुत खुशहाल था। बाँध बनने के बाद विस्थापित लोगोंको बसने के लिए कई तरह की जमीनें दी गयी लेकिन सभी ‘टांडी’ निकली। ऐसी जमीन पर रह कर इनकी आजीविका नहीं चल सकती थी, सो सब इधर-उधर चले गये।

जमीन से उजड़ने का सबसे बुरा असर लड़कियों और महिलाओं पर पड़ा। ऐसे एक नहीं बल्कि कई गाँव हैं, जिसका परिणाम है कि आज बड़ी संख्या में आदिवासी जिसमें लड़कियों की तादाद 70 प्रतिशत के आसपास है, पश्चिम बंगाल में धान रोपने और काटने के लिए जाती हैं। ये संथाल लड़कियाँ वस्तुत: बंगाल की हरित क्रान्ति की रीढ़ हैं।

प्राप्त जानकारी के अनुसार इस क्षेत्र के लोग साल में चार बार बंगाल जाते हैं। हर बार बीर भूमि और बद्र्घमान जिलों का दलाल, जिसे ‘गुमाश्ता’ कहा जाता है, इन्हें लेने आता है। ये लोग पोड़हाट, मचंदा, शिमला, मुखड़ा, बाबूनारा, सिलीगुड़ी आदि इलाकों में जाते हैं।

इन इलाकों में धान की मुख्यत: दो फसलें ली जाती हैं। अगहनी और गरमा धान। इन दोनों धानों को रोपने और काटने का काम संथाल परगना की मजदूर आदिवासी महिलाएँ ही करती हैं। ये लोग लगभग चार महीने तक बाहर रहते हैं। चूँकि रास्ते का भोजन और किराये का प्रबंध ‘गुमाश्ता’ करता है, इसलिए इन्हें एक सप्ताह बेगारी करनी पड़ती है।

सूर्योदय से पहले इन्हें काम पर लग जाना पड़ता है, जो सूर्यास्त तक चलता रहता है। इस पूरी अवधि का जो लगभग 14-15 घंटे की होती है, इन्हें लगभग 100-120 रुपये मिलते हैं। अधिकांश आदिवासी इस इलाके में साक्षरता के व्यापक आन्दोलन के बावजूद ठीक से अपने हिसाब का जोड़ घटाव नहीं कर पाते हैं इसलिए अक्सर ठेकेदार इन्हें पैसा देने में बेइमानी करता है।

आश्चर्य है, इस पूरे श्रम में छोटी-छोटी लड़कियों का लगना! गाँव में जीविका का आधार खत्म हो जाने के कारण पूरा का पूरा परिवार ही मजदूरी करने निकल पड़ता है। मई-जून के महीने में दुमका बस स्टैण्ड पर एक दो नहीं, बल्कि सैकड़ों की तादाद में 10-16 वर्ष तक की लड़कियाँ दिख जायेंगी, जो बंगाल में हरितक्रान्ति लाने जाती-आती हैं। पर्यावरणीय असंतुलन की ऐसी मार शायद ही किसी इलाके की लड़कियों को झेलनी पड़ती हो।

जंगल और जमीन से उजड़ी आदिवासी लड़कियाँ और महिलाएँ आज अपनी ही जमीन पर पाकुड़ और दुमका-रामपूरहाट मार्ग के शिकारीपाड़ा इलाके में पत्थर उद्योग में लगी दिखायी देती हैं। जमीन से उजड़ी सिद्घो-कान्हू की ये बेटियाँ ईंट, पत्थर, बालू और चिप्स लादते, बालू ढोते दिख जायेंगी।

पड़ोसी राज्य बिहार के पटना इलाके के ईंट भट्टों पर भी संथाल आदिवासी लड़कियाँ काफी तादाद में मिल जाती हैं। जहाँ इनके साथ छेड़छाड़, शारीरिक शोषण आदि की घटनाएँ होती रहती हैं। जिसे बातचीत में स्वयं ये लोग   भी स्वीकारते हैं।बंगाल गयी लड़कियों के साथ ज्यादातर घटनाएँ घटती हैं। रात में अक्सर ‘गुश्माता’या ठेकेदार स्थानीय लोगों के साथ इनके डेरों में घुस आता है और मनचाही लड़कियाँ ले जाता है। इन्हें रोकने वाला कोई नहीं। यहाँ तक कि उन्हीं महिलाओं में से किसी महिला के माध्यम से लड़कियों को आसानी से फुसलाकर उठा ले जाने का काम किया जाता है। कई लड़कियाँ तो गर्भवती होकर लौटती हैं, जहाँ समाज के कठोर दंड का सामना इन्हें करना पड़ता है। आज भी इस इलाके में इस तरह के दर्जनों केस मिल जायेंगे, जहाँ बंगाल से गर्भवती होकर लौटी लड़कियों को घर-परिवार और समाज से निष्कासित कर दिया गया है। अंतत: वे देह व्यापार के पेशे में उतरने को विवश हो जाती हैं।

उपरोक्त हालात को देखते हुए प्रकृति से महिलाओं के विशेष रिश्ते को नकारना मुश्किल है। इसलिए पर्यावरण को बचाना है तो किसी भी कार्यक्रम में महिलाओं की भागीदारी सबसे पहले सुनिश्चित करनी होगी लेकिन अलग राज्य बने इतने सालों के बाद भी झारखंड की नामधारी पार्टियों सहित आज तक किसी पार्टी ने प्रकृति के साथ सामाजिक रिश्ते को जोड़ा नहीं और न ही इसे मुद्दा बनाया। थोड़ा बहुत काम अगर इस क्षेत्र में कार्यरत स्वयंसेवी संस्थाओं और उसके कार्यकर्ताओं ने किया भी तो वे अपने आन्दोलन को किसी निर्णायक मुकाम तक नहीं पहुँचा सके।
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जब वन प्रबन्धन व विकास के लिए कुछ वर्ष पहले लागू वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन की स्थिति को लेकर कुछ जानकार ग्रामीणों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से बातचीत की गई तो लोगों ने बताया कि वन संरक्षण व संवद्र्घन के प्रति ग्राम समितियों की उदासीनता के कई कारण हैं। संयुक्त वन प्रबन्धन समिति में 18 निर्वाचित तथा 7 पदेन सदस्य की बात कही गयी है। निर्वाचित सदस्यों में सदस्य सचिव का पद वन विभाग के लिए आरक्षित है और पदेन सदस्य में मुखिया, सरपंच, मानकी मुंडा, परगनैत, माँझी जैसे स्थानीय प्रतिनिधियों को रखने का प्रावधान है लेकिन अफसोस कि आज वह व्यावहारिक रूप से जमीन पर लागू नहीं है।

संयुक्त वन प्रबन्धन समिति को ग्रामीण वन विकास के लिए कुल आय का 90 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण समितियों के माध्यम से खर्च करना है, शेष 10 प्रतिशत राशि विभाग के लिए सुनिश्चित की गयी है। परन्तु समिति को विघटित करने का अधिकार वन पदाधिकारी को प्राप्त है, जो प्रजातांत्रिक पद्घति के अनुकूल नहीं दिखता। वन सीमाओं में पकड़ी गयी लकड़ियों से प्राप्त जुर्माने का अधिकार समिति को प्राप्त है। जिसके कारण वे लोग खुले दिल से वन संरक्षण के लिए आगे नहीं आ पाते और वन विभाग तथा समिति की गतिविधियों के प्रति उदासीन रहते हैं।

बातचीत में जब सरकार और सम्बन्धित विभाग से जुड़े अधिकारियों से उनकी अपेक्षाओं को लेकर चर्चा की गई तो कई महत्वपूर्ण बातें उभरकर सामने आयीं। गाँव के लोग चाहते हैं कि जंगल के संरक्षण एवं संवद्र्घन के लिए ग्राम सभाओं को पूरी जिम्मेदारी मिलनी चाहिए। झारखण्ड में वन क्षेत्र का नया नक्शा बनना चाहिए ताकि आम लोगों को पता चल सके कि किस गाँव में कहाँ कितना जंगल है। इस तरह की और भी कई महत्वपूर्ण बाते हैं, जिन शर्तों पर लोग सरकार के साथ मिलकर इस मुद्दे पर काम करना चाहते हैं। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन की स्थिति भी किसी से छिपी हुई नहीं है। परिणामत: जंगल का विनाश जारी है जिससे आदिवासी समाज खासकर लड़कियों व महिलाओं का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है।

आज जंगल को जिस कर्मठता के साथ बचाने की जरूरत है, वह काम सिर्फ महिलाएँ ही कर सकती हैं।
– नारी संवाद-85 से साभार
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