घरेलू कामगारों की अनसुनी आवाज

सुनीता ठाकुर

देश की अर्थव्यवस्था में घरेलू श्रम के  दो अहम रूप दिखाई देते हैं, जिन पर गौर किया जाना चाहिए। एक-गृहिणी महिलाओं का श्रम और दूसरा- घरेलू कामगारों का श्रम। आंकड़ों की मानें तो घरेलू कामगार महिलाएं परिवार की आय में 41 प्रतिशत का योगदान देती हैं-वह भी उस श्रम से अतिरिक्त जो वे अपने परिवार को चलाने के लिए मुफ़्त देती हैं। भारतीय जनगणना में गृहिणियों को भिक्षुकों और निर्भरों की श्रेणी में रखे जाने पर सरकार को पहले ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा खासी आलोचना झेलनी पड़ी है। अगर मोटा-मोटा अनुमान भी लगाएं तो एक आम गृहिणी लगभग 15-20 हज़ार रुपए प्रतिमाह का घरेलू श्रम मुफ़्त में अपने परिवार को देती है। यह वह श्रम है जिस पर देश के तथाकथित कामकाजी वर्ग की रीढ़ टिकी है। यदि महिलाएं घर को न संभालें तो पुरुष देश भला कैसे संभाल सकेंगे?

इसके साथ ही घरेलू कामगारों के अर्थव्यवस्था में श्रम योगदान और उसके महत्व को आंकने में भी हमारी सरकार अभी तक बेपरवाह रही है। हाल ही में कार्यस्थल पर यौन-उत्पीड़न बिल में से घरेलू कामगारों को हटाया जाना अपने आप में जन-आलोचना का कारण बना हुआ है। ऐसे में देश के विभिन्न राज्यों और शहरों में घरेलू कामगारों का अपने अधिकारों के लिए संगठित होना एक सुखद आश्चर्य ही माना जा सकता है। आज इस संगठनात्मक आंदोलन में ढाई लाख से ज्यादा घरेलू कामगार संगठित हो चुकी हैं और यह संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है।

‘जागोरी’नामक संस्था द्वारा हाल ही में जयपुर और दिल्ली के अंशकालिक कामगारों पर किए गए शोध से कुछ विशेष चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं जो असंगठित क्षेत्र में अपनी जगह न बना पाने वाले इस श्रमिक वर्ग की बहुत सी समस्याओं और श्रम शोषण की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं। अंशकालिक कामगार वे होते हैं जो कुछ-कुछ समय के लिए अलग-अलग घरों में काम करते हैं। ये कामगार ज़्यादातर महिलाएं ही होती हैं। हम सब के घरों में ये कामगार महिलाएं अपने श्रम का बहुत सा हिस्सा बिना उचित मूल्य या फिर यों ही योगदान करती हैं।

महिला होने के नाते इन श्रमिकों से जहां ज्यादा विनम्रता, तोलमोल, सहयोग और सहनशीलता की उम्मीद की जाती है, वहीं उन्हें बिना अनुबंध, मनमानी शर्तों पर काम करने की मजबूरी, काम की जगह पर भेदभाव, अतिरिक्त काम लेना, जरूरत होने पर छुट्टियाँ न देना, काम के तयशुदा घंटे न होना, स्वास्थ्य की दिक्कतों के बावजूद काम करने की विवशता, बीमा, पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का अभाव, रोजगार असुरक्षा जैसी बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यह सब इसीलिए क्योंकि न तो हम घरेलू श्रम को कोई सम्मान देते हैं, न हमारी सरकार। हैरानी की बात यह है कि न्यूनतम मजदूरी जैसे श्रम कानूनों के बावजूद महिलाओं को अपने श्रम की प्रति घंटा न्यूनतम मज़दूरी मूल्य नहीं मिल पाता। हम घरेलू कामगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी जैसे किसी कानून को अभी तक तय नहीं कर पाए हैं।

हम सभी पुरुष घरेलू कामगार की जगह महिला घरेलू कामगार को ज्यादा महत्व देते हैं। इसलिए इस क्षेत्र में महिला घरेलू कामगारों की भारी मांग है। एक अनुमान के अनुसार अकेले दिल्ली में 40,000 से ज़्यादा लड़कियाँ पूर्णकालिक घरेलू कामगार की तरह काम करती हैं। इनमें से लगभग 40 प्रतिशत 14 वर्ष से कम आयु की हैं। पूर्णकालिक कामगार की तरह काम करने वाले बच्चों, खासकर लड़कियों के बारे में जानकारियां बहुत ज्यादा उपलब्ध नहीं हैं, क्योंकि बिना किसी एजेंसी के ये प्राय: आस-पड़ोस, गांव या आसपास के इलाकों से आपसी जानकारी के आधार पर काम पर लगा दिए जाते हैंं।
Unheard voices of domestic workers

‘प्रयास’ के मुताबिक अकेले दिल्ली में तीस हजार से ज्यादा बच्चे दुकानों, ढाबों या कि छोटे-मोटे व्यवसायियों के पास, फैक्ट्रियों या मैकेनिक दुकानों में काम कर रहे हैं। 10 अक्तूबर 2006 को केंद्र सरकार ने बाल श्रम (प्रतिरोध एवं नियमन) एक्ट पारित करते हुए ‘घरेलू काम’को खतरनाक घोषित करते हुए 14 साल से कम आयु के बच्चों के इस क्षेत्र में भी काम करने पर रोक लगा दी थी। मगर उन लाखों घरों और कॉलोनियों का क्या जिनमें ये बच्चे आज भी घरेलू कामगार या सहायक का काम कर रहे हैं। दिल्ली में घरेलू कामगारों और बाल मजदूरों के साथ काम कर रही संस्थाओं के अनुसार घरेलू कामगारों में सर्वाधिक संख्या झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के आदिवासी क्षेत्रों से आई लड़कियों की होती है। ऐसे में उनकी दिक्कतों और हितों को महत्व न देकर हम एक ओर मानवीय श्रम गरिमा को अपमानित करने के दोषी बन जाते हैं और दूसरी ओर मानवाधिकार हनन के।

घरेलू कामगारों के शोषण के त्रिकोण का एक छोर जहां काम मालिक हैं, वहीं दूसरा छोर नियोक्ता एजेंसियां हैं। काम मालिकों के साथ सहज रिश्तों में काम कर रही लड़कियाँ घरेलू कामगार एजेंसियों के अन्याय और भेदभावपूर्ण व्यवहार का शिकार होती हैं। गाँवों और दूर-दराज के इलाकों से विस्थापित, प्रवासित या ट्रैफिकिंग का शिकार हुई कितनी ही युवतियां घरेलू कामगार एजेंसियों और तथाकथित एजेंटों के शोषण का शिकार बन जाती हैं।

सवाल यह है कि इन एजेंसियों पर किस प्रकार से नियंत्रण और नियमन किया जाए ताकि काम की तलाश में शहर आई लड़कियों और महिलाओं का शोषण न हो। इसके लिए सबसे जरूरी है कि इन एजेंसियों के पंजीकरण की कोई केंद्रीय व्यवस्था हो। उनका समयबद्घ मूल्यांकन/निगरानी और सालाना रिपोर्टिंग हो। एजेंसियों द्वारा कामगारों की मजदूरी हड़प लेने या कम देने के मामलों को काबू में करने के लिए उनके द्वारा कामगारों के बैंक खाते खुलाए जाने चाहिए जिसमें वे अपनी आय का लेखा-जोखा रख सकें।

घरेलू कामगारों के अधिकारों का एक प्रश्न यदि घरेलू श्रम से जुड़ा है तो (काम-मालिक, एजेंसी और एजेंट) दूसरी ओर पर्याप्त और समुचित कानूनी प्रावधान के अभाव में पूरे घरेलू श्रम बाजार में अविश्वसनीयता और शोषण बना हुआ है। काम मालिकों के पंजीकरण, नियमन से घरेलू कामगारों की बहुत सी समस्याओं को हल किया जा सकता है, जैसे- समय पर मजदूरी न मिलना, काम के घंटों का मनमाना प्रयोग, तय काम से ज्यादा काम कराए जाने और अनौपचारिक लेन-देन की व्यवस्था, छुट्टियाँ और आराम का समय, यौन शोषण से बचाव, काम की जगह पर सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवा और देखभाल, सुरक्षा बीमा व्यवस्था, अतिरिक्त काम का अतिरिक्त मूल्य, काम मालिकों द्वारा अपमान और भेदभाव से बचाव।

वास्तव में आज घरेलू श्रम के राष्ट्रीय महत्व को स्वीकार किए जाने की ज़रूरत है। यह जरूरत घरेलू स्तर पर दोनों ही रूपों में है चाहे वह किसी गृहिणी के घरेलू श्रम की पहचान और सम्मान का मामला हो या फिर घरेलू कामगारों के काम की पहचान, सम्मान, अधिकार और नियमन का।  इस काम क्षेत्र का एक व्यवसाय के रूप में नियमन किया जाना चाहिए, ताकि बिना किसी दया या करुणा- भाव के घरेलू कामगारों के अधिकारों की रक्षा की जा सके और इस काम को एक व्यावसायिक श्रम के रूप में मान्यता दी जा सके। यह सरकार ही नहीं, एक नागरिक होने के नाते हम सब की भी जिम्मेदारी है कि हम घरेलू व्यवस्था की रीढ़ बनते जा रहे इस श्रमिक वर्ग की जरूरतों और समस्याओं को समझते हुए उन्हें पूरा सम्मान और पहचान दें।

इसके लिए सबसे पहले घरेलू कामगारों को असंगठित क्षेत्र मजदूर कानून के तहत नामजद करते हुए कानूनी तौर पर वे सभी अधिकार, सरकारी सुविधाएं और सेवाएं प्रदान की जानी चाहिए जो असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को सरकार द्वारा प्रदान की जाती हैं।

घरेलू कामगारों का इन अधिकारों से वंचित होना घरेलू श्रम के प्रति सरकार के जेंडर भेदभाव से पूर्ण नज़रिए का प्रमाण है। पता नहीं, यह सच मानने में सरकार को जाने और कितना समय लगेगा कि यदि महिलाएं दोनों ही रूपों में घरेलू श्रम में योगदान न दें तो इस देश के सकल राष्ट्रीय उत्पाद और विकास का आकलन किसी सूरत नहीं किया जा सकता! दूसरी बात यह कि आज के परिप्रेक्ष्य में जहां स्त्री-पुरुष दोनों ही देश के विकास में अपने श्रम का मूल्य पा रहे हैं, तब इन कामगारों के साथ ऐसा भेदभाव क्यों? वह भी तब जब  पारिवारिक व्यवस्था के लिए उन्हें एक बेहतर विकल्प माना जाता है।
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