पीतल उद्योग में महिला श्रमिक

अपर्णा व्यास

विश्व पटल पर पीतल नगरी के रूप में विख्यात मुरादाबाद में निर्मित अनेक प्रकार के पीतल उत्पाद बरबस ही हर किसी का ध्यान आकृष्ट कर लेते हैं। कहीं विद्यार्थियों के श्रम व लगन को ट्राफीज तथा मेडल्स का आकार प्रदान करते हैं, तो कहीं प्रदर्शनियों की शोभा बढ़ाते हैं। कहीं सामाजिक समारोहों और कार्यक्रमों की शान बनते हैं तो कहीं भेट और तोहफों के रूप में भावों को साकार रूप प्रदान करते हैं। सत्य ही है, पीतल उद्योग ने न केवल अनेक व्यक्तियों को रोजगार उपलब्ध कराया है वरन् सदियों से चली आ रही कलात्मकता को पीढ़ी दर पीढ़ी संजोकर भी रखा है। पीतल की वस्तुओं पर मूर्तिमान कलात्मकता की छटा देखते ही बनती है। किन्तु जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं ठीक उसी प्रकार इन सुन्दरतम कलाकृतियों के निर्माण में न केवल मजदूर वर्ग का श्रम लगता है वरन् दिन-प्रतिदिन कारखानों में उनके स्वास्थ्य पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है। श्रमिकों के गिरते स्वास्थ्य के अतिरिक्त बाल श्रम भी यहाँ की प्रमुख समस्या है जिसके चलते बालक पढ़ाई छोड़कर कार्य करने हेतु बाध्य हो जाते हैं।  कारण यही है कि जब दो जून की रोटी ही प्राप्त नहीं होगी तो शिक्षा उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं रह जाती। हालांकि विभिन्न संस्थाओं की सक्रियता के कारण कानून निर्माण के बाद बाल श्रम में कमी अवश्य आई है किन्तु स्थिति अभी भी पूर्णरूपेण परिर्वितत नहीं है।
women workers in brass industry

कई अध्ययन उपर्युक्त सभी पक्षों और समस्याओं को उजागर करते हैं किन्तु आश्चर्य का विषय है कि पीतल नगरी के पीतल की चमक में वे महिलाएँ कहीं खो-सी जाती हैं जो इस उद्योग में अपना पूरा योगदान देती हैं। उन पर अध्ययन अपेक्षाकृत रूप से कम ही हुए हैं। यह वह महिला श्रमिक वर्ग है जो असंगठित है, जिसे अपने कर्तव्य का भान तो है किन्तु अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं है। कारखानों के बाहर ये महिलाएँ उत्पादों को सजावटी रूप भी देती हैं अथवा सुन्दर प्रस्तुतीकरण के उद्देश्य से पैकिंग का कार्य भी करती हैं। कार्य कितना भी एक-दूसरे से भिन्न क्यों न हो, सजावट या पैकिंग क्यों न हो, किन्तु उनका उद्देश्य एक ही है- परिवार का भरण-पोषण। भले ही वे विभिन्न धर्म, जाति या सम्प्रदाय से हों किन्तु यहाँ वे केवल श्रमिक स्त्रियाँ हैं जो कारीगरों की अपनी कला के रूप में अपनी पारिवारिक परम्परा का निर्वहन भी करती हैं और अपने परिवार का दायित्व भी भली-भाँति वहन करती हैं। कार्य के अनुसार वेतन मिलता है तो एक से अधिक छुट्टी होने पर वेतन में कटौती भी की जाती है। निम्न र्आिथक वर्ग से होने के कारण वे इस सम्बन्ध में जागरूक भी नहीं हो पाती हैं।

यही नहीं, ऐसी महिलाएँ भी हैं जिनका उद्देश्य दो जून की रोटी के साथ-साथ अपने बालकों को शिक्षित करना भी है। वे उस श्रमिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं जो यह सोचती हैं कि यदि वे शिक्षित नहीं हैं तो उनकी सन्तान अवश्य शिक्षित होगी और अपने इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु वे लगभग 8 से 10 घंटे प्रतिदिन कार्य करती हैं। आवश्यकता हो तो ‘ओवरटाइम’ भी करती हैं।

विचार करने योग्य तथ्य है कि जिन पीतल निर्मित वस्तुओं को देखकर हमारी दृष्टि उनकी सुन्दरता पर मुग्ध हो जाती है उनको सुन्दरतम प्रस्तुतीकरण देकर आकर्षक बनाने वाली महिलाओं के हृदय में शायद वे कोई भाव नहीं उपजा पातीं। ऐसी ही एक महिला श्रमिक से यह प्रश्न करने पर कि क्या तुमने उन वस्तुओं की सुन्दरता को कभी अनुभव किया है जिनकी तुम पैकिंग करती हो, वह सीधा साधा सा उत्तर देती है- ”इतना समय किसके पास है”? सत्य है, न तो उनके पास इतना समय होता है और न ही शायद शेष शक्ति जो इस पक्ष पर विचार कर सके। उनके लिए यह केवल एक कार्य है जो उन्हें करना है क्योंकि इससे उनकी जीविका चलती है। इस सम्बन्ध में अब्राहम मैसलो का विचार सटीक प्रतीत होता है कि जब तक हमारी बुनियादी आवश्यकताएँ पूर्ण न हों, हम अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति  की ओर अग्रसर नहीं हो सकते। हालांकि इसके अपवादों की भी कमी नहीं है।

आज आवश्यकता ऐसे महिला श्रमिक वर्ग को संगठित करने की है, कलाकारों की कला को और अधिक निखारने की है। महिला श्रमिक वर्ग की दशा के मूल में तीन कारण मुख्य रूप से विद्यमान हैं- निर्धनता, अशिक्षा व जागरूकता की कमी। इन तीनों ही कारणों पर कुठाराघात करके उन महिलाओं की दशा में सुधार की अपेक्षा की जा सकती है। अपने कार्य को उचित प्रशिक्षण व नवीन तकनीकों का ज्ञान जहाँ एक ओर इन महिला श्रमिकों की उत्पादकता के स्तर में वृद्धि करता है, वहीं दूसरी ओर निर्धनता के उन्मूलन में भी सहयोग दे सकता है। पीतल उद्योग के विभिन्न कार्यों हेतु मानक वेतन का निर्धारण भी विशेष रूप से अपेक्षित है। शिक्षित महिलाएँ व छात्राएँ इस महिला श्रमिक वर्ग को यथासंभव रूप से शिक्षित बनाने का प्रयास भी कर सकती हैं तथा उनमें अधिकारों का बोध कराकर जागरूकता में वृद्धि भी कर सकती हैं। कई संस्थाएँ इस असंगठित श्रमिक वर्ग की उन्नति हेतु कार्यरत हैं किन्तु परिवर्तन तब तक आना संभव नहीं, जब तक यह श्रमिक वर्ग स्वयं अपने हित हेतु आगे न आए। इन्हें उनके स्वयं के प्रति इस कर्तव्य का बोध कराने का दायित्व हम सभी पर है।
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