पहाड़ों पर नमक बोती औरतें

अनिल कार्की

पहाड़ों  पर नमक बोती औरतें 
बहुत  सुबह  ही निकल जाती हैं
अपने घरों से
होती है तब उनके हाथों में
दराती और रस्सी
चूख1  के बड़े-बड़े दाने
सिलबट्टे में पिसा गया
महकदार नमक
छोड़ आती हैं वे बच्चों की आँखों के भीतर
सबसे मीठी कोई चीज
लेकिन नहीं होतीं वे पर्वतारोही
दाखिल होते हैं पहाड़ अनिवार्यताओं के साथ
उनके जीवन में,
हर दिन पहाड़ों को पाना होता है
उनसे पार
उनके पास होता है तेज चटपटा नमक व गुड़ भी
जिसे खर्चती हैं वे मोतियों की तरह
किसी धार पर
ढलान में उतरते हुए या फिर चढ़ते हुए
इस तरह होती हैं उनकी अपनी जगहें
जंगलों के बीच भी
जहाँ वे जोर से हंसती हैं
दरातियों की
नोक से जमीन  को कुरेदते हुए
बहुत सारा नमक बो आती हैं
वे पहाड़ों पर
उगता है उनका नमक
अपनी ही बरसातों में
अपने ही एकांत में
अपनी ही काया में
अपनी ही ठसक में                                                                                                                              
वे बैठ जाती हैं तब
किसी धार की नोक में
टिके पत्थर पर
छमछट दीखता है
जहाँ से नदी का किनारा
दूर घाटी में  पसरती नदी की तरह  महसूस करती हैं
तब वे खुद को 
उनके गादे2 से झांकती हैं
women sowing salt on the mountains
हरी पत्तियां बांज की
एकटक
अपने तनों  से मुक्त
न्योली3 गाते हुए 
करती हैं वे संबोधित
अपनी ही भाषा में
अपने ही अनघड़ शब्दों में पहाड़ को
वे गढ़ती हैं छीड़4 
फिर गिरती हैं
और बुग्यालों में पसर जाती हैं
उनकी दराती तब
घास बनकर उगती है
चारों ओर हरी
उनका यह महकदार नमक सीझता नहीं
बल्कि बिखर जाता है
वे फिर से काट लाती हैं
हरापन अपने घरों के भीतर
और बो आती हैं नमक फिर से पहाड़ों पर
नमक बोती हुयी औरतें
थकती नहीं
या कि उन्हें थकना बताया ही नहीं गया है
वे होती हैं 
एक शिकारी चिड़िया की तरह
जो खदेड़ देती हैं 
बहुत दूर
अंगुली वाले चीलों को
अपने घोंसले से
उनकी रातें भी होती हैं
अपने परदेस गये पतियों के लिए नहीं
बल्किअपने दुखों को साझा करने
वे रातों को चल पड़ती हैं
मीलों दूर
जत्थों में
चांचरी5 गाने
वे बहुत शातिर
छापामारों की तरह
कर देती हैं तब
women sowing salt on the mountains
रात को गोल घेरे में बंद
वे हाथों में हाथ लेकर
बना लेतीं चक्रव्यूह
जहाँ नहीं घुस पाती
उदासी
तब फाटक  पर टंगी
बोतल बत्ती
धधकती है
बांज के गिल्ठे
लाल हो रहे होते हैं कहीं किसी कोने में


उनके गीतों की हवा पाकर
तब धूल उठती है
जमीन निखर जाती है
वह अपने पतियों के बिना भी रहती हैं खुश
पति उनके लिए केवल
होते हैं पति
या फिर फौजी कैंटीन के सस्ते सामान की तरह
पहाड़ पर नमक बोती औरतें 
अपने परदेस जाते
पतियों को पहुँचाने
धार तक आती हैं हमेशा
फिर लौट जाती हैं धार के उस तरफ
घास से भरे डोके6 लेकर
या पानी की गगरी कांख में दबाये
क्योंकि वे जानती हैं
लौट आते हैं परदेश गये लोग
अपनी जमीनों को एक  दिन
इसलिए वे बसंत का स्वागत करती हैं
दरवाजों पर फूल
रखती हैं
बसंत पंचमी को
वे जाती हैं जंगल
दे देती हैं अपनी सारी टीस
हिलांस7 को
अपने विरह को भूल जाती हैं 
घुघूती8 की सांखी9 से निकलती घूर-घूर की आवाज में 
अपने रंग में रंग  देती हैं जंगलों को
तब बुरांश10 खिलता है लाल
काफल11 में भर जाता है रस
पहाड़ पर नमक बोती औरतें
महकदार नमक लिए
चलती हैं हमेशा 

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