बिलकुल शरीफ आदमी की तरह
खेमकरण सोमन
अभी तक मैं यही समझ रहा था कि स्त्री-विमर्श तसलीमा नसरीन के जिक्र बिना अधूरा है लेकिन अब स्त्री के अधिकार, रक्षा, अस्मिता, आजादी और न्याय को लेकर जिस प्रकार पूरी दुनिया में एक चर्चा का माहौल बना है,उसमें ये एक नाम और जोड़ना चाहता हूँ- ‘निर्भय’, अमानत या दामिनी का, जो लोगों को झकझोर गयी।
एक स्त्री बात करने की कोशिश कर रही है
तुम उसका चेहरा अलग कर देते हो धड़ से
तुम उसकी छातियाँ अलग कर देते हो धड़ से
तुम उसकी जांघे अलग कर देते हो
तुम एकांत में करते हो आहार
आदमखोर! तुम इसे हिंसा नहीं मानते!
कवयित्री शुभा की कविता महिलाओं की स्थिति को लेकर जड़-जमीन की हकीकत है। महिलाएँ अब चेहरों, धड़ों, छातियों और जांघों में भी बाँट दी गयी हैं…।
दिल्ली के दामिनी रेप कांड ने लोगों को एक चेतना दी है। उसी चेतना के फलस्वरूप जिस प्रकार भीषण सर्दी में भी एक स्वत: स्फूर्त आन्दोलन जन्मा और जोरदार तरीके से चला जो छोटे स्तर पर अभी भी चल रहा है, और व्यापक जन समुदाय दिल्ली आकर ठहरा! नि:संदेह यह एक बड़ा काम हुआ है जो इतिहास में दर्ज हो चुका है। इसी कारण सरकार पर जन-समुदाय के आक्रोश का इतना दबाव पड़ा कि देश के इतिहास में पहली बार जस्टिस जे़एस़ वर्मा की सिफारिशों पर महिला सुरक्षा कानून को सख्त करने सम्बन्धी अध्यादेश (राज्य या शासन से निर्गत व्यवस्था सम्बन्धी आदेश-आर्डिनेंस) मात्र 45 दिनों के अन्दर लाया गया है। इसे कहते हैं जनता की ताकत और राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में-सिंहासन खाली करो कि जनता आती है और तारसप्तक के कवि मुक्तिबोध के द्वारा-अब तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सभी क्या करें समय ही ऐसा है? इसलिए कुछ करने के लिए जागना ही होगा। अभी इस अध्यादेश को लेकर महिला संगठनों की कुछ आपत्तियाँ और कुछ सुझाव हैज़ो स्त्री सम्बन्धी मौजूदा चिंतन को देखते हुए सही हैं। क्योंकि कानूनों की बात करें तो पूरी दुनिया में लगभग ढाई-तीन करोड़ कानून हैं। फिर भी महिलाओं के उत्पीड़न सम्बन्धी घटनाओं में निरंतर इजाफा ही हो रहा है। अभी भी देश के तमाम मंत्रालयों को मिलकर 44 कानूनों में महिलाओं को ध्यान में रखते हुए संशोधन की दरकरार चिन्हित की गई है लेकिन देश की व्यवस्था ऐसी है कि बहुत सारे विधेयक लटके हुए हैं जरूरत है कठोर कानून के साथ-साथ महिलाओं के प्रति सार्थक दृष्टिकोण उपजाने की।
just like a decent man
जीवन की जंग हारने से पहले दामिनी अर्थात पैरामेडिकल की इस छात्रा ने हाल-फिलहाल ही 35 हजार रुपए कमाना शुरू किया था। काण्ड वाली रात वह अपने मंगेतर के साथ कोई फिल्म देख कर लौट रही थी। उन दोनों की शादी भी फरवरी 2013 में होने वाली थी। सोचता हूँ न जाने कितने सपने देखें होंगे उस मासूम ने लेकिन वह मलाला युसुफजई की तरह मौत को परास्त नहीं कर पायी जब सितम्बर 2008 में 11 वर्षीय मलाला ने पेशावर प्रेस क्लब के सामने तालिबान कैसे मुझसे शिक्षा का बुनियादी अधिकार छीन सकता है, विषय पर भाषण दिया़ इसके बाद अगले ही महीने अक्टूबर में तालिबानियों ने उस पर हमला कर दिया था। आज यहाँ करीब 400 लड़कियां मलाला की जगह लेने को तैयार हैं और बेखौफ होकर स्कूल जा रही हैं। देश-दुनिया का कोई भी कोना हो पुरुष/सामंती सोच स्त्री अस्मिता को दबाए रखना चाहता है। दामिनी और मलाला दोनों ही दो अलग मामले हैं लेकिन वे दोनों हैं तो स्त्री ही न। अत: दामिनी और मलाला जैसी लड़कियां अब वर्तमान में व भविष्य में नयी पीढ़ी की लड़कियों के लिए एक बुलंद आवाज हैं, इन्हें भूलना-भुलाना सही नहीं।
दर्द और र्शिमंदगी के इस प्रकरण में मीडिया की भूमिका की तारीफ होनी चाहिए, कहना चाहिए कि मीडिया का यही असली रूप है़ प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रोनिक मीडिया या सोशल मीडिया सबने इस दरिंदगी भरे शर्मनाक काण्ड को वैश्विक स्तर पर घर-घर पहुँचाया। पेड न्यूज व तटस्थ पत्रकारिता करने वाले पत्रकार भी समझ गए कि माँ, बहन और बेटियाँ उनके घर में भी हैं। प्रेस को लेकर अक्सर कहा जाता है कि यह लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है लेकिन मुझे लगता है यदि स्त्री वजूद को बचाना है और स्त्री वजूद की बात करनी है तो इसे पहला स्तम्भ मानें अन्यथा हजारों दामिनियाँ-दामिनी की तरह, सामूहिक बलात्कार/उत्पीड़न की शिकार होकर सड़कों पर तड़पती रहेंगी और न जाने कब उन्हें व्यवस्थापिका द्वारा कानून की व्यवस्था करने के बाद, कार्यपालिका द्वारा कानून को लागू करने के बाद और न्यायपालिका द्वारा न्याय मिलने के बाद राहत मिले। दिल्ली की सड़कों पर लहू-लुहान/घायल और पीड़ा से तड़प रही दामिनी को अस्पताल पहुँचाने की जगह पुलिस वाले यही छानबीन करते रहे ये जिन्दा है या मर गयी है। ये इस थाना-क्षेत्र की है या उस थाना क्षेत्र की लेकिन जब मीडिया ने इस काण्ड को हाथों-हाथ लिया तो सरकार और सरकारी तंत्र के होश ही उड़ गए तुरंत दिल्ली पुलिस सहित देश भर की पुलिस जागरूक हो गयी तुरन्त महिला सुरक्षा सम्बन्धी कानून बनकर आया। एक स्वत: स्फूर्त आन्दोलन ने जन्म लिया इसलिए स्त्री-अस्मिता को बचाने के लिए मीडिया की सकारात्मक भूमिका अनिवार्य है। तभी महिलाओं को बेख़ौफ़ आजादी मिलेगी और बेखौफ आजादी मिलना ही सभी तरह के कानूनों की सफलता है। अभी महिलाओं की दशा-दिशा के लिए बहुत काम करना है क्योकिं चतुर-सुजान आदमखोर उन्हीं के बीच में रहता है ़इसलिए आदमखोरों की पहचान भी जरूरी है जो रहता है कवयित्री शुभा के शब्दों में- बिल्कुल शरीफ आदमी की तरह।
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