जिन्हें मन्दिर नहीं चाहिए वही मस्जिद तोड़ने की बात करते हैं
सर्वे
30 साल पहले
उत्तरा जनवरी-मार्च 1991
शीला रजवार
राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद आम भारतीय के लिए अनजाना नहीं है। इस विवाद ने राजनीति, सामाजिकता, जन-जीवन और जन-भावनाओं को पर्याप्त उद्वेलित किया है। साम्प्रदायिक सद्भाव की जितनी भी बातें की जा रही हैं, वह बेमानी सिद्ध हो रही हैं। देश के कई हिस्से बार-बार साम्प्रदायिक दंगों की हिंसा की चपेट में आ रहे हैं। इस सम्बन्ध में विभिन्न शहरों की विभिन्न मानसिकता वाली महिलाओं के विचार जानने के लिए उत्तरा की ओर से एक प्रश्नावली तैयार की गई। हमें आगरा, पौड़ी, पिथौरागढ़, इन्दौर, फिरोजाबाद, शाहजहांपुर, गोरखपुर, उत्तरकाशी, अल्मोड़ा, देहरादून और नैनीताल से लगभग 80 पत्र व विचार मिले, ये सभी महिलाएं प्राय: मध्यमवर्ग की थीं।
(Old Copy of Uttara Mahila Patrika)
प्रश्नावली का पहला प्रश्न था क्या अयोध्या में राम-मन्दिर बनना चाहिए? लगभग 85 प्रतिशत का विचार है कि मन्दिर बनना चाहिए। कुछ का जवाब केवल हां में था लेकिन कुछ ने अपने तर्क भी प्रस्तुत किये। जैसे पौड़ी की सुधा शर्मा कहती हैं कि वहां जो बाबरी मस्जिद है वह वस्तुत: मन्दिर ही है। मन्दिर की ऊपरी दीवारें तुड़वाकर उसे मस्जिद की शक्ल दी गई है इसलिए दोबारा मन्दिर बनना चाहिए। पौड़ी की सिकन्दर मुगल के अनुसार मन्दिर बनना चाहिए किन्तु मस्जिद परिसर से कुछ दूरी पर। 5 प्रतिशत महिलाओं का मानना था कि मन्दिर नहीं बनना चाहिए किन्तु तर्क कोई नहीं दिया गया। 10 प्रतिशत ने अनिश्चित उत्तर दिया। नैनीताल की पुष्पा साह के अनुसार यदि मन्दिर बनने से जन-समुदाय में आक्रोश और तनाव बढ़ता है तो यह उचित नहीं। पिथौरागढ़ की प्रेमलता चौधरी का मानना है कि मन्दिर उसी स्थिति में बनना चाहिए जब सब धर्मों के लोग इसके लिए तैयार हों या न्यायालय इसका फैसला दे। कुछ ने इसके लिए कहा कि भारत धर्म निरपेक्ष देश है इसलिए इस प्रश्न का निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। लगता है, महिलाओं में र्धािमकता भी है और र्धािमक सहिष्णुता भी, किन्तु वे विवाद के इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि वर्तमान में मन्दिर बनने का अर्थ है मस्जिद तोड़ा जाना जिसे लोग शब्दाडम्बर में बांधकर मस्जिद को स्थानान्तरित करना कह रहे हैं। मन्दिर न बनाने या मस्जिद तोड़े जाने के कट्टरपंथी विचार कम लोगों के हैं।
दूसरा प्रश्न था क्या मन्दिर बनाने के लिए मस्जिद तोड़ी जानी चाहिए। अगर हां तो क्यों? लगभग 58 प्रतिशत महिलाओं का मानना है कि मस्जिद नहीं तोड़ी जानी चाहिए। कोई भी पवित्र स्थान तोड़ना मानवता के खिलाफ है। इनमें से अधिकांश ने मस्जिद का तोड़ा जाना हिन्दू धर्म के प्रतिकूल माना है। शान्ता पाण्डे, नैनीताल का कहना है, हिन्दू धर्म उदार है, यह दूसरे धर्म का कभी अनादर नहीं करता, अत: मस्जिद तोड़े जाने का कोई औचित्य नहीं है। बहुत-सी महिलाओं का कहना है- मन्दिर बनना चाहिए किन्तु मस्जिद तोड़कर नहीं क्योंकि जिस तरह हिन्दुओं की र्धािमक भावनाएं हैं उसी तरह मुसलमानों की भी हैं, जिन्हें ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए। कुछ ने पौड़ी की शोभा चन्दोला की तरह मन्दिर बनाने और मस्जिद न तोड़े जाने के लिए भारत की धर्म निरपेक्षता का हवाला दिया है। किसी-किसी ने भारतीय संस्कृति की समन्वयवादिता को संर्दिभत करते हुए मस्जिद तोड़े जाने का विरोध किया है।
(Old Copy of Uttara Mahila Patrika)
25 प्रतिशत के लगभग मस्जिद तोड़कर मन्दिर बनाये जाने के पक्षधर हैं। इनमें से अधिकांश का विचार आगरा की सरोज जैन की तरह है- जब मन्दिर तोड़कर मस्जिद बन सकती है तो मस्जिद तोड़कर मन्दिर भी बन सकता है। कुछ ने स्पष्ट रूप से मन्दिर तोड़ने की बात तो नहीं कहीं किन्तु पिथौरागढ़ की चन्द्रावती नेगी की तरह मस्जिद के आकार का रूप परिवर्तित कर मन्दिर का रूप दे देने या इन्दौर की आशा सैनी के समान आधुनिक तकनीक से मस्जिद खिसका देने की बात कही। मस्जिद तोड़े जाने के पक्ष में दो तीन लोगों का विचार यह भी था कि हिन्दुओं के अहं को बचाने के लिए मस्जिद तोड़ी जानी चाहिए। पौड़ी की छाया जोशी चाहती हैं कि मस्जिद न तोड़कर मस्जिद का शिलालेख हटा दिया जाय। कुछ लोग तो मस्जिद के अस्तित्व को ही नकारते हैं। आगरा की मिथिलेश अग्रवाल लिखती हैं, जिस स्थान पर 1937 से नमाज नहीं पढ़ी जा रही है उसे मस्जिद कैसे कहा जाये। इस स्थान पर पहले मन्दिर था। कुछ लोग इसका प्रमाण दरवाजों का पूर्व दिशा में खुलना मानते हैं।
इस विवेचन से यह बात सिद्ध होती है कि भावनात्मक स्तर पर धर्म के उदार स्वरूप को महत्ता दी गई। अधिकांश के लिए दूसरे धर्म का स्तूप भी उतना ही आदरणीय है जितना स्वयं का। जो मस्जिद तोड़े जाने के पक्षधर हैं उन्हें लगता है कि इस मन्दिर-मस्जिद के ढांचे से उनकी अस्मिता का प्रश्न जुड़ा हुआ है। उनका मानना है कि उनके र्धािमक स्थल के ढांचे को दूसरे धर्म के ढांचे के रूप में परिर्वितत किया गया है जो जातीय शोषण का प्रतीक है। अभी जब सिद्ध नहीं हुआ है कि यहां पहले राम-मन्दिर ही था तब यह तर्क भ्रामक प्रचार के फलस्वरूप जन्मा प्रतीत होता है।
यह पूछे जाने पर कि राम का जन्म वहीं हुआ था, इसका क्या प्रमाण है, लगभग 15 प्रतिशत लोगों का विचार है कि इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। यह केवल एक मान्यता है। 5 प्रतिशत ने इसका प्रमाण इतिहास को माना है किन्तु इस तर्क की पुष्टि में कोई प्रमाण नहीं दिया। शेष में से अधिकांश ने र्धािमक ग्रन्थों का उल्लेख किया है। कुछ ने पुराणों को प्रमाण माना है तो कुछ ने रामायण या रामचरितमानस को। दो-तीन ने वेद, पुराण, रामायण, महाभारत सभी के अनुसार मान लिया है। कुछ लोग इस तरह के प्रमाणों के फेर में नहीं पड़े; जैसे पौड़ी की विनीता गुसाईं कहती है राम का जन्म अयोध्या में हुआ था, सर्वविदित है। मस्जिद बाद में बनी, ज्ञात रहे इस्लाम धर्म सभी धर्मों में नया है, इन लोगों ने साधु-सन्तों के कथन या पूर्वजों से मिली जानकारी पर विश्वास करते हुए इसे अपनी आस्था माना है। नैनीताल की संगीता मिश्रा के अनुसार र्धािमक विश्वास किसी भी वैज्ञानिक तथ्य से उत्पन्न नहीं होते।
ऐतिहासिक प्रमाण नहीं होने की बात अपने आप में तर्क है लेकिन जो लोग विविध र्धािमक ग्रन्थों को प्रमाण मानते हैं, वे इसी बात को घोषित करते हैं कि र्धािमकता तर्क से अधिक भावना प्रधान होती है। उनके लिए प्रमाण दिये जाने से महत्वपूर्ण है अपनी आस्था।
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इस सम्बन्ध में जुलूस निकाले जा रहे हैं, दंगे हो रहे हैं, इनके बारे में आप क्या सोचती हैं? अधिकांश का कहना था यह गलत हो रहा है। इससे साम्प्रदायिकता की भावना भड़केगी, हिंसा को बढ़ावा मिलेगा, इन पर रोक लगनी चाहिए। जुलूस व दंगे र्धािमक आस्था प्रकट करने के तरीके नहीं हैं- हिंसा मानवता व धर्म के खिलाफ है। कुछ का मानना है, शान्तिपूर्ण प्रदर्शन अनुचित नहीं है। इसलिए जुलूस निकलें पर उनके माध्यम से किसी भी धर्म के खिलाफ साम्प्रदायिक भावना न भड़काई जाये जिससे दंगे न हों- दंगे होना दुर्भाग्य की बात है। तीन-चार का विचार है कि जुलूस हिन्दुत्व की बुनियादी आस्था को बुलन्द करने के लिए जरूरी है, लगभग इतने ही लोगों का मानना है, बिना इन सबके मन्दिर बनेगा ही नहीं। उनका मानना यह भी है कि जब किसी जाति के अहम् पर चोट पहुंचती है तो दंगे होना स्वाभाविक ही है, किन्तु नैनीताल की श्रीमती पन्त कहती हैं कि इस तरह तो देश छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट जायेगा।
इन्दौर की आशा सैनी चाहती है कि शासन दोनों धर्मों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए शीघ्र निर्णय दे, जबकि अधिकांश का मानना है कि जुलूस और दंगे साम्प्रदायिक से राजनैतिक अधिक हैं। इसलिए राजनीतिज्ञों की बयानबाजी पर रोक लगाई जानी चाहिए। आगरा की मिथिलेश अग्रवाल कहती है कि दंगे-फसाद जुलूस में मौजूद अराजक तत्वों के द्वारा होते हैं। आगरा की ही अर्जुमन्द बानो के अनुसार यह सब वोट की राजनीति के कारण है और देश की बर्बादी है। पौड़ी की विनीता गुसाईं कहती है, यह राजनीतिज्ञों की चाल है आम जनता को इसमें नहीं फंसना चाहिए।
इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि इस तरह के जुलूस व दंगे राजनीतिक एवं र्धािमक कट्टरपंथियों की देन है। र्धािमक होते हुए भी आम लोग इस तरह के समाज विरोधी कदम उठाये जाने के खिलाफ हैं और देश की अखंडता के लिए चिन्तित हैं। धर्म को संर्दिभत करते हुए साम्प्रदायिक द्वेष को बढ़ाने वाले कदम को अनुचित ठहराते हैं। यह भी स्पष्ट होता है कि आम जनता इस बात को अच्छी तरह समझ रही है कि यह स्थिति ओछी राजनीति करने वालों की देन है।
मन्दिर बने या मस्जिद रहे इससे फायदा किसको होगा? हिन्दुओं को, मुसलमानों को या फिर किसी और को?
कुछ का मानना है, प्रश्न फायदे-नुकसान का नहीं, भावना का है। कुछ मानते हैं, मन्दिर बनने से हिन्दुओं को फायदा होगा। कुछ मानते हैं जिस धर्म का स्मारक बने उसको। आम तौर पर माना गया है कि किसी सम्प्रदाय को कोई फायदा नहीं होने वाला है। यह सब र्धािमक उन्माद मात्र है। नैनीताल की सुशीला जोशी मन्दिर मस्जिद को र्धािमक भावना से अलग करती हुई कहती हैं, मन्दिर या मस्जिद दोनों ही वास्तुकला को प्रर्दिशत करेंगे। फायदा या नुकसान का प्रश्न ही नहीं उठता। अधिकांश महिलाओं का विचार है कि इससे फायदा मिलेगा तो सिर्फ नेताओं को- उन लोगों को जो इसे हिन्दू या मुसलमान की प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर सत्ता हथियाना चाहते हैं। कुछ ने कहा, आम जनता को लाभ होगा। उनका आशय है कि समस्या सुलझेगी तो लोग चैन की सांस लेंगे।
जिन लोगों के बीच र्धािमक कट्टरता का प्रचार है, वही धर्म विशेष के लोगों का लाभ समझती हैं, अन्यथा लोगों को यह राजनैतिक हथकण्डा ही लगता है। वे चाहती है जो कुछ भी बने लेकिन समस्या सुलझे।
मन्दिर-मस्जिद विवाद में आपकी दैनिक परेशानियों का क्या हल है? सभी का मानना रहा है कि इस विवाद में दैनिक जीवन की परेशानियों का कोई हल नहीं। इससे भी बड़ी समस्याओं को जन्म दिया है। साम्प्रदायिक भावनाओं को उभारा है। रोज ही यह आशंका बनी रहती है कि न जाने कब और कहां हिन्दू-मुस्लिम दंगा भड़क जाये। इसके हल हो जाने पर रोज-रोज का झगड़ा खत्म हो जायेगा। पुन: आपसी भाईचारा स्थापित हो सकेगा और सामाजिक शान्ति व स्थिरता आयेगी।
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क्या आप सोचती हैं कि मन्दिर/मस्जिद के स्थान पर कोई अन्य चीज बना दी जाये? यदि हां तो क्या? 50 प्रतिशत का विचार है कि वहां पर मन्दिर ही बनना चाहिए। शाहजहांपुर की नफीसा बेगम के अनुसार मस्जिद ही रहनी चाहिए। 5 प्रतिशत मानती हैं मन्दिर-मस्जिद दोनों रहें। लगभग 8 प्रतिशत यथास्थिति बनाये रखने की पक्षधर हैं। 5 प्रतिशत का मानना है यदि विवाद हल नहीं होता तब कुछ और बनाने की बात होनी चाहिए। 2 प्रतिशत का मानना है यदि दोनों सम्प्रदाय मानें तो अस्पताल या विद्यालय बनना चाहिए जिससे सभी सम्प्रदायों के लोग बराबर के हकदार हो सकेंगे और कुछ लोगों को रोजगार भी मिल सकेगा। पौड़ी की विनीता गुसाईं के अनुसार ‘उसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया जाये। मुसलमान हिन्दुओं के लिए मन्दिर बनायें और हिन्दू मुसलमानों के लिए मस्जिद बनायें, इससे दोनों की जीत होगी, कोई हारेगा नहीं’। शेष लगभग 30 प्रतिशत का विचार है कि वहाँ मन्दिर-मस्जिद के स्थान पर कोई सार्वजनिक स्थल- पुस्तकालय, चिकित्सालय, राष्ट्रीय स्मारक, अनाथालय, बाल विहार, पार्क, बेसहारा बच्चों के लिए स्कूल, अजायबघर, स्टेडियम, राष्ट्रीय संग्रहालय, खेल का मैदान या धर्मार्थ चिकित्सालय बना दिया जाना चाहिए।
अधिकांश ने भावनात्मक स्तर पर समस्या का हल तलाशा है। वस्तुस्थिति यह है कि इस स्थान पर मन्दिर-मस्जिद के रूप में धर्म विशेष के ढांचे तक ही बात सीमित नहीं है। सवाल विवादास्पद स्थल व आस-पास की भूमि के स्वामित्व का भी है। जब तक यह भूमि सरकार के अधिकार में नहीं आ जाती इसमें किसी राष्ट्रीय स्मारक के निर्माण का सवाल ही पैदा नहीं होता। वह वक्फ बोर्ड की जमीन कही गई है इसलिए बेदखल नहीं की जा सकती। हिन्दू समाज वर्षों से वहां पूजा-अर्चना करता आ रहा है इसलिए संविधान प्रदत्त पूजा के मौलिक अधिकार का भी हनन नहीं किया जा सकता। इसलिए या तो यथास्थिति ही बनाई रखी जा सकती है या दोनों सम्प्रदायों की आम सहमति से ही कोई हल निकाला जा सकता है।
मन्दिर-मस्जिद की समस्या का क्या इतना महत्व है कि उसके लिए मार काट की जाये। 95 प्रतिशत का मानना है कि यह सवाल इतना महत्वपूर्ण नहीं है कि मार-काट मचाई जाये और हिन्दू-मुसलमान के वर्षों पुराने रिश्तों को भुला दिया जाये। इसका लाभ किसी भी सम्प्रदाय की आम जनता को मिलने वाला नहीं। हल विचार-विमर्श से निकाला जाना चाहिए, मार-पीट से नहीं। मन्दिर, मस्जिद, धर्म आदि का जीवन में अपना महत्व है किन्तु जैसा कि आगरा की सरोज जैन मानती हैं- मस्जिद-मन्दिर का महत्व मनुष्य की जान से ज्यादा नहीं है। आगरा से ही अर्जुनमंद बानो लिखती हैं, मन्दिर-मस्जिद में पूजे जाने वाले ईश्वर के बनाये इंसान को मारना मस्जिद-मन्दिर गिराने से भी बड़ा पाप है। मार-काट किसी भी धर्म में मान्य नहीं है। मारकाट स्वार्थ प्रेरित, पूर्वाग्रहग्रस्त अमानवीय हिंसक प्रवृत्तियों से युक्त है।
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शान्ता पाण्डे, नैनीताल कहती हैं प्रशासन को सतर्क रहना चाहिए ताकि मार-काट न हो तो कुछ का कहना है सरकार ही मारकाट करवा रही है। लोगों को लगता है कि राजनीतिक दलों ने अपना उल्लू सीधा करने के लिए अलग-अलग सम्प्रदायों को भड़काने के प्रयास किये हैं। मजहब के नाम पर झगड़े कराये जायें, राजनैतिक दलों के लिए यह ठीक नहीं, जबकि साम्प्रदायिकता के कारण ही देश विभाजित हुआ है। नैनीताल की श्रीमती जौहरा कहती हैं धर्म ही समाज के लिए अफीम है, इस देश में देखिये चाहे विदेश में, धर्म के नाम पर मार-काट हो रही है।
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धार्मिक कट्टरपंथ के उग्रवादी घटक के अतिरिक्त सभी मारकाट का विरोध करते हैं। भावनात्मक स्तर पर ऐसा सोचना अच्छा लगता है किन्तु विगत में मेरठ, कोटा, भागलपुर, जयपुर तथा और भी अनेक जगहों में हुए दंगों, कत्ल (आज भी हो रहे हैं ज्यादा अमानुषिक होते जा रहे हैं) के बावजूद अधिकांश ने बार-बार धर्म की दुहाई दी है। सवाल यह कि दंगे अगर नेता या धार्मिक कट्टरपंथी भी करवा रहे हैं तब भी दंगों में मरने वाले तो नेता नहीं, वे तो आम आदमी हैं, जिनके हाथों में हथियार है वे भी नेता नहीं। सवाल यह भी है कि क्यों नेताओं को हाथ मिल रहे हैं हथियार उठाने के लिए? क्यों सीने मिल रहे हैं छलनी होने के लिए? जरा गौर कीजिए, कहीं धर्म हमारी कमजोरी तो नहीं बन गया जिसका फायदा मौकापरस्त उठा रहे हैं।
साम्प्रदायिकता की इस समस्या का आप की नजर में क्या समाधान हो सकता है? अनेक का मानना है कि राजनीति को बीच से हटाकर मन्दिर बनाया जाना ही इसका हल है। अगर मुसलमान आगे बढ़कर इस कार्य को करें तो बहुत अच्छा। कट्टर पंथी हिन्दुओं का मानना है कि भारत हिन्दुओं का देश है, साम्प्रदायिकता खत्म करने के लिए इसे हिन्दू राष्ट्र ही होना चाहिए। शाहजहांपुर की नफीसा बेगम चाहती है, मुसलमानों का वजूद कायम हो।
अधिकांश का मानना है कि दूसरे की भावना को समझते हुए शान्ति से धार्मिक नेताओं की परस्पर विचार-विमर्श व आपसी सहयोग से इस समस्या का समाधान करना चाहिए। गोरखपुर से वंदना लिखती हैं धार्मिक उदारता तथा सहिष्णुता से समाधान सम्भव है। इस देश में धर्म निरपेक्षता को बढ़ावा दिया जाये, वहां पर एक सर्व धर्म प्रार्थना स्थल बना दिया जाये। प्रेमलता चौधरी सोचती हैं अगर समाज यह समझ ले कि धर्मों के नाम अलग हैं पर ईश्वर एक है, इसलिए एक-दूसरे के धर्म का आदर करें तो यही इस बनाई गई समस्या का हल है।
समस्या को बनाई गई मानते हुए अनेक लोगों का विचार है कि साम्प्रदायिकता का वर्तमान स्वरूप राजनैतिक है, अन्यथा हर व्यक्ति आराम से जीना चाहता है, इसलिए यह आवश्यक है कि आम भारतीय नागरिक चाहे वह हिन्दू हो या मुस्लिम या फिर किसी और सम्प्रदाय का उसे स्वार्थी तत्वों के बरगलाने में नहीं आना चाहिए। यह तभी सम्भव है जब कि सभी सम्प्रदायों के सभी वर्गों के बीच शिक्षा का प्रचार हो, जागृति लाई जाये। आशा सैनी मानती हैं कि प्रारम्भिक शिक्षा से ही अनेकता में एकता के विषय को विशेष महत्व देकर भविष्य में साम्प्रदायिकता की भावना का समाधान मिल सकता है।
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धार्मिक उदारता जब खत्म हुई तभी इस तरह का विवाद जन्मा है, यह जानते हुए भी कहा जा रहा है कि साम्प्रदायिकता का समाधान यह है कि लोग यह समझे कि धर्मों के नाम अलग है, पर ईश्वर एक है, लेकिन यह तो तब की बात है जब बात धर्म की हो रही हो, यह विवाद तो दो भिन्न धर्मावलम्बी का स्थान विशेष पर दावा किये जाने से शुरू होकर अपने-अपने अस्तित्व की दुहाई दिये जाने से एक-दूसरे को नेस्तनाबूद कर दिये जाने के घिनौने प्रयासों तक जा पहुंचा है। मान लिया जाये कभी प्रमाणित भी हो जाये कि बाबर ने मन्दिर तोड़कर वहां पर मस्जिद बनाई तो भी यह प्रशंसनीय नहीं और जो प्रशंसनीय नहीं वह अनुकरणीय भी नहीं। इसलिए प्रतिशोध की भावना से मस्जिद नहीं तोड़ी जानी चाहिए। अगर यह क्रम चलता रहा तो कहां तक चलेगा। बहुत से इतिहासकारों के अनुसार पुरी का जगन्नाथ मन्दिर उस स्थान पर बनाया गया है जहां पहले एक जनजातीय पूजा स्थल था, अब जनजातीय अस्मिता की बात जोर-शोर से होने लगी है। अगर जगन्नाथ मन्दिर को हटाकर जनजातीय पूजा स्थल बनाये जाने की मांग उठी तो?
धर्म अपने वास्तविक अर्थों में एक जीवन पद्धति है, हिन्दू का हिन्दुत्व किसी मन्दिर या जाति से जुड़ा नहीं है वरन् यह कुछ करने योग्य और कुछ न करने योग्य कार्यों की सूची है। ऐसा ही और धर्मों में भी है। पूजा स्थल इस आचार संहिता के प्रचार का गढ़ है किन्तु वर्तमान में यह केवल प्रतीक मात्र बनकर रह गये हैं, आज जब विभिन्न धर्मों का प्रतिनिधित्व करती भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का सच लोगों के जीवन में घुल मिल गया है, हिन्दू या मुसलमान सभी अपनी आदतों में पर्याप्त अन्तर ला चुके हैं, तब यह कहना कि हिन्दुत्व खतरे में है या इस्लाम खतरे में है- मन्दिर नहीं बनता तो हिन्दुओं का अहं टूटेगा, मस्जिद टूटती है तो इस्लाम पराजित होगा- बेमानी है। धर्म के नाम पर निर्धारित जीवन पद्धति को जब लोग खुद ही तिलांजलि दे चुके हैं तब उसके प्रतीक रूप को क्योंकर ऐसे सोच का जामा पहनाना चाहते हैं, यह सोचने की बात है।
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भूखे भजन न होय गोपाला, यह सोचने की बात है। भगवान के नाम पर लड़ाया जा रहा है। आम आदमी की पहली लड़ाई भूख से होती है और होती है भूख शान्त करने के लिए, आज जब उसे जिन्दा भर रहने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है तब उसे हिन्दुत्व और इस्लाम की रक्षा करने की कहां सूझ सकती है? यह भरे पेटों का षड्यंत्र है जो उन्हें रोटी तो नहीं ही देना चाहता और यह भी नहीं चाहता कि वह अपने हिस्से की रोटी मांगे। उन्हें डर है अगर आम आदमी ने अपने अस्तित्व की लड़ाई शुरू कर दी तो उनका पर्दाफाश हो जायेगा। इसलिए वह आम आदमी के अस्तित्व की लड़ाई को तब्दील कर दिशाहीन बना रहा है।
समस्या के समाधान के लिए फौरी तौर पर कुछ भी किया जा सकता है (राजनैतिक स्थिरता के लिए किया भी जायेगा)। किन्तु जब तक बुनियादी सवालों को नजरअंदाज किया जाता रहेगा तब तक साम्प्रदायिकता की समस्या का स्थायी हल नहीं निकलेगा। इस सर्वे के लिए विभिन्न शहरों से हमें इनका सहयोग मिला- नीरज पाठक (आगरा), कमला पाण्डेय (पौड़ी), कमला जोशी (पिथौरागढ़), चन्द्रप्रभा तिवारी (इन्दौर), कनक रावत (नैनीताल), उमा फुलोरिया (पौड़ी), गीता गैरोला (उत्तरकाशी), दिवा भट्ट (अल्मोड़ा), पुष्पा खण्डूरी (देहरादून), सुशीला (शाहजहाँपुर) तथा यासमीन फातिमा (गोरखपुर)।
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