2019 का लोकसभा चुनाव और आधी आबादी के सवाल
गिरिजा
मार्च 2019 को बीते चुनावों की सरगर्मी के बीच देश के 20 राज्यों में 150 से अधिक जगहों पर महिलाओं ने जब अपना एजेण्डा पेश करते हुए कहा कि ‘आगे हमारा समय है, कोई भी चुनाव हमारे सवालों पर गंभीरता से बात किए बगैर नहीं होना चाहिए’,तो एकबारगी लग रहा था कि इन चुनावों में पक्ष-विपक्ष के द्वारा समाज के कमजोर तबकों विशेष रूप से महिलाओं के सवालों को चुनावों के प्रमुख एजेण्डे के रूप में सामने लाया जाएगा़ महिलाएं पितृसत्ता, हिंसा, यौनिक हमलों, नफरत की राजनीति के खिलाफ अपनी आवाज मुखर कर रही थी। वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बराबरी के अधिकार के लिए सड़कों पर आई थीं। अब जबकि चुनाव परिणाम आ चुके हैं, इस बार ज्यादा ताकतवर बनकर वही सत्ता फिर से शासन में लौटी है। यह एक अंतर्विरोधी बात है कि 2014 से लेकर 2019 तक देशभर में महिलाओं और समाज के अन्य कमजोर हिस्सों पर विभिन्न रूपों में सबसे ज्यादा आक्रमण हुए, उसी सरकार के नेतृत्व में अभी तक के संसदीय इतिहास में सबसे ज्यादा महिलाएं निर्वाचित होकर संसद में पहुंची हैं।
17 वीं लोकसभा में 76 महिलाएं चुनकर आई हैं जो अभी तक के संसदीय इतिहास में सबसे ज्यादा संख्या है। इससे पूर्व 16 वीं लोकसभा में यह संख्या 66 थी। यह चुनाव इसलिए भी उल्लेखनीय रहा कि भागीदारी के रूप में भी महिलाओं का मतदान प्रतिशत अभी तक के संसदीय इतिहास में सबसे ज्यादा था। केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर, मेघालय, गोवा, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, गोवा और बिहार महिलाओं के सबसे ज्यादा मत प्रतिशत वाले राज्य रहे। संसदीय प्रक्रिया में उल्लेखनीय भागीदारी के बावजूद चुनावों के दौरान और उसके बाद गठित संसद में महिलाओं की स्थिति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन आने वाला है, यह सोचना मात्र एक खुशफहमी के सिवाय और कुछ नहीं होगा़
(2019 Loksabha Election and Women)
चुनावों में प्रमुख पार्टियों में से भाजपा ने अपने घोषणापत्रों में तीन तलाक, हलाला जैसी प्रथाओं को खत्म करने के लिए कानून बनाने, आंगनबाड़ी व आशा कार्यकर्ताओं को आयुष्मान भारत योजना से जोड़ने और संसद एवं विधान सभाओं में 33 प्रतिशत का प्रश्न शामिल किया तो कांग्रेस ने संसद एवं विधान सभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण, केन्द्रीय नौकरियों में भी 33 प्रतिशत आरक्षण, न्याय स्कीम के तहत दिये जाने वाले पैसे को महिलाओं के खाते में ट्रांसफर करने का वायदा कर महिलाओं के सवालों को अपने घोषणापत्र में शामिल करने की औपचारिकता निभाई। इसके अतिरिक्त वामपंथी पार्टियों सहित विभिन्न राज्यों में मजबूत स्थिति में उपस्थित क्षेत्रीय पार्टियों ने भी इस विषय पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया था, लेकिन विभिन्न पार्टियों के प्रत्याशियों द्वारा जिस तरह से महिलाओं पर निम्नस्तरीय हमले किए गए और उस पर पार्टियों के प्रमुखों द्वारा चुप्पी साध ली गई (वाम पार्टियां इस तरह के व्यवहार से अलग रही हैं), वह यह बताने के लिए पर्याप्त था कि हमारे सत्ता प्रतिष्ठानों में महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की ही है। संसद में अभी भी देश की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व 1/10 का है। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि महिला सशक्तीकरण के शोर में उसका स्थान कहां पर है? अभी भी दुनिया के पैमाने पर हमारी संसद में महिलाओं का प्रतिशत 1.14 है तो दुनिया में यह औसत 2.43 है। विश्व में अपने देश की महिलाओं की संसद में प्रतिनिधित्व की तस्वीर को देखें तो 193 देशों में हम 149 वें स्थान पर हैं। चौंकाने वाली बात यह भी है कि जिस पाकिस्तान और बांग्लादेश को हमारे हुक्मरान हमारे देश से कहीं पिछड़ा बताते हैं, हम महिलाओं के संसदीय प्रतिनिधित्व के मामले में पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी नीचे हैं।
महिलाओं के लिए राजनैतिक पार्टियों के वायदे जो भी रहे हों लेकिन हकीकत यह है कि कभी भी महिला सशक्तीकरण के सवाल को हल करने की ईमानदार कोशिश नहीं हुई। चर्चित महिला आरक्षण बिल की वास्तविकता यह है कि बीते 23 वर्षों से यह विधेयक लोकसभा और राज्य सभा के बीच झूल रहा है। पहली बार 1996 में संसद में पेश होने के बाद यह बिल आज भी अधर में लटका सियासी पार्टियों के घोषणा पत्रों का ही हिस्सा बना हुआ है। राजनैतिक रूप से दोनों प्रमुख पार्टियां इस मुद्दे पर कितनी गंभीर हैं, यह इस बात से पता चलता है कि सत्ता में रहने के दरमियान कांग्रेस ने इस मसले को हल करने के लिए गंभीर प्रयास नहीं किए तो 2014 में सत्ता में आने के बाद ‘बेटी बचाओ -बेटी पढ़ाओ’, ‘उज्ज्वला’ जैसी कई योजनाओं का हवाला देकर महिला सशक्तीकरण का दावा करने वाली भाजपा मुसलमान महिलाओं की बेहतरी के लिए तीन तलाक-निकाह, हलाला के खिलाफ संसद में फिर से बिल ला चुकी है लेकिन महिला आरक्षण के सवाल पर किसी भी तरह से आगे नहीं बढ़ना चाहती। यह उसके 2014 से 2019 के शासनकाल से भी स्पष्ट हो चुका है। अपने हिंदुत्व के एजेण्डे के तहत मुसलमानों को केन्द्रित करने का लक्ष्य तो उसके लिए हर तरह से सुविधाजनक है, लेकिन हिंदू पितृसत्तात्मक समाज के मूल्यों को बनाए रखने और इस समाज में सचेत तरीके से महिला को उसकी चौखट से बाहर न निकलने देने की सोच रखने वालों से महिलाओं की वास्तविक स्वतंत्रता के लिए विचार करने की उम्मीद करना एक गलतफहमी ही होगी।
(2019 Loksabha Election and Women)
सुरक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार या अन्य किसी भी मामले में महिलाओं के लिए कोई ठोस कार्ययोजना किसी भी सरकार द्वारा पेश नहीं की जाती और न ही यह किसी चुनाव का एजेण्डा बनाया जाता है। पिछले वर्ष आए एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश में 50 फीसदी किशोरवय लड़कियां अपनी उम्र के हिसाब से कम वजन वाली हैं। 52 प्रतिशत खून की कमी से जूझ रही हैं तो स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक सर्वाइकल कैंसर के 60,000 मामलों में दो तिहाई माहवारी के दौरान साफ-सफाई की कमी के कारण हैं। यही हाल महिला सुरक्षा का है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2016 में देश में महिला हिंसा के तीन लाख मामले दर्ज किए गए। यह संख्या 2008 के मुकाबले दुगुनी थी। रोजगार के क्षेत्र में ऑक्सफेम इंडिया का एक सर्वेक्षण बताता है कि देश में चार में से तीन औरतें घर से बाहर निकलकर काम नहीं करती और काम करने वाली औरतों की स्थिति यह है कि उन्हें पुरुषों के मुकाबले 34 प्रतिशत कम मेहनताना मिलता है।
इन स्थितियों के बीच 17 वीं लोकसभा के लिए हुए चुनावों में भी चुनावी घोषणापत्र में शामिल महिला मुद्दे और वास्तविक संघर्ष में महिला सवालों में आज भी बहुत बड़ा फासला है। इसीलिए एक ओर पार्टियां अपने घोषणापत्र में महिला सवालों को शामिल कर आधी आबादी के वोट प्राप्त करने की कोशिश करती हैं लेकिन इन्हीं चुनावों में महिलाओं को पुरुषसत्ता द्वारा जो चुनौती मिलती है, उसमें विचारों के स्तर पर आधी आबादी के मुद्दों को अगले चुनाव तक ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है और महिलाओं को ‘अनारकली‘ ‘नाचनेवाली‘ ‘परकटी‘ जैसे पुरुषवर्चस्वशाली जुमलों से लगातार निशाना बनाया जाता है। उनसे उम्मीद की जाती है कि वह पुरुषों की छाया के रूप में काम करें। भारतीय सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप अपना आचार-व्यवहार रखें, यानी जनप्रतिनिधि होने के बावजूद वह उसी चौखट के दायरे में रहे जो उसके लिए पुरुष वर्चस्वशाली समाज ने खींचा है। इस दायरे में महिलाओं का हर हिस्सा शामिल है, वह बड़ी हस्ती हो या किसी राजनैतिक विरासत से आगे बढ़ रही महिला या फिर अपने ही संघर्ष के बलबूते अपने लिए जगह बना रही कोई नेतृत्वकारी महिला, वह जैसे ही राजनीति के आकाश में अपने लिए एक अदद जगह बनाने के लिए बढ़ती है तो उसे राबड़ी देवी की तरह ‘उन्हें घूंघट में रहना चाहिए‘ या फिर हाल के चुनावों में आप नेता आतिशी और बीजद नेता चंद्रानी मुर्मू की तरह माफ्र्ड वीडियो या अश्लील हमलों का सामना करना पड़ता है। प्रियंका गांधी से उम्मीद की जाती है कि साड़ी के पहनावे में दादी की तरह की छवि में रहें।
(2019 Loksabha Election and Women)
समाज विज्ञानी शिव विश्वनाथन महिलाओं से उम्मीद करते हैं कि वे ही इस समूचे तंत्र में अलग तरह की न्याय व्यवस्था ला पाएंगी। वह कहते हैं ‘‘सामाजिक जीवन में कई तरह की महिलाएं हैं। प्रिंयंका चतुर्वेदी से लेकर प्रियंका गांधी और जयाप्रदा तक। उनकी अपनी उपस्थिति है। उदाहरण के लिए प्रियंका गांधी को ही लीजिए, जितनी चुनौती उन्हें नरेन्द्र मोदी से मिलती है, उससे कहीं ज्यादा अच्छी तरह वह उन्हें लौटा देती हैं….। ‘‘विश्वनाथन कहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा दलित महिलाओं के संसद में पहुंचने से ही देश में एक नई न्याय व्यवस्था बनाई जा सकती है। मेधा पाटकर से लेकर अरुणा राय या विभिन्न आंदोलनों को नेतृृत्व दे रही महिलाएं संसद में महत्वपूर्ण योगदान कर सकती हैं।
इस पूरे परिदृश्य में 17 वीं लोकसभा के गठन के बाद आधी आबादी के संघर्ष के मुद्दों को आगे बढ़ाना पहले के किसी भी समय से ज्यादा कठिन हो चुका है। विभिन्न अनुमानों को झुठलाते हुए केन्द्र में मोदी के नेतृत्व में दक्षिणपंथी ताकतें पहले से कही ज्यादा मजबूती से उभरी हैं। आधी आबादी का अभी तक सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व होने के बावजूद भाजपा ने जिन महिला प्रतिनिधियों को आगे बढ़ाया है उसमें साघ्वी प्रज्ञा का प्रतिनिधित्व प्रगतिशील महिला आंदोलन और देश के लोकतांत्रिक ताने़बाने के लिए एक खतरा और चुनौती है।
(2019 Loksabha Election and Women)
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