सम्पादकीय अक्टूबर-दिसम्बर 2019
उत्तरा का कहना है
महिला हिंसा, महिला समानता, महिला उत्थान कल्याण, आरक्षण, कानूनी अधिकार, सामाजिक कुरीतियों का विरोध/उन्मूलन, आदि-आदि… अनादि और फिर महिला स्वतंत्रता के सवाल। बहुत सारी बात-बहसें, आन्दोलन, कानून और अपेक्षाएँ।
(Editorial January December 2020)
उत्तरा लगातार इन सवालों से जूझ रही है। महिलाओं से जुड़े सभी पहलुओं को महिलाओं के मुद्दे माना जाने लगा है जबकि यह सामाजिकता का सवाल है। महिला मुद्दों को संवेदनशीलता के साथ देखे जाने की बात बार-बार उठती है। यहीं से सोचने वाली बात शुरू हो जाती है कि यह संवेदनशीलता स्वत: हमारे समाज में मौजूद नहीं है।
महिलाओं के प्रति बढ़ती यौन हिंसा बार-बार यह सोचने के लिए मजबूर करती है आखिर स्त्रियों के प्रति अपराधों का यह ग्राफ लगातार बढ़ता क्यों जा रहा है? वैसे इस सवाल पर यह प्रतिक्रिया सामने आती है कि समाज में जागरूकता बढ़ी है इसलिए ऐसे मामले संज्ञान में आने लगे हैं। कुछ लोग हिंसा के मामलों का कारण ही इनके सामने आने को मान लेते हैं। लेकिन यह स्वीकार करने में संकोच करते हैं या कहना चाहिए इंकार करते हैं कि हमारी सोच, हमारी जीवन शैली और सामाजिकता से बाँधने वाली रीति-नीतियाँ ऐसी हैं कि हम जाने अनजाने इन अपराधों के लिए जिम्मेदार हैं।
जब भी कोई हादसा होता है, हम कभी व्यवस्था पर सवाल उठाते हैं, कभी अपराधियों पर और उनको सजा दिलाये जाने पर जोर देने लगते हैं। बात-बहस मामलों तक सीमित रह जाती है। बलात्कार की घटनाएँ जब मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुँचती है, एक बड़ा आक्रोश फैल जाता है। लोग आन्दोलन करने लगते हैं। जैसे ही विरोध आन्दोलन का रूप लेकर व्यापक होता है, इसके बीच में राजनीति आ जाती है। जिसकी सरकार होती है, विपक्षी दल उसे जिम्मेदार ठहराते हुए इस्तीफे तक की माँग उठाने लगते हैं। आन्दोलनकारियों के साथ राजनीतिक दलों के लोग बड़ी संख्या में बाहर आ जाते हैं। कहने में कोई संकोच नहीं कि उनकी नीयत बिल्कुल भी साफ नहीं होती।
(Editorial January December 2020)
अगर ये राजनैतिक दल साफ नीयत से भागीदारी करने वाले होते-सोचने वाले होते तो हमारी संसद में विधान सभाओं में ऐसे आरोपी नहीं मौजूद होते। सबसे पहले दल के लोग उन्हें ही अपनी पार्टी से हटाते।
समाज में समाज के ऐसे बहुत से फर्माबर्दार मौजूद हैं जो अपने आदर्श वाक्यों से यह बता रहे होते हैं कि महिलाओं को घर से बाहर अकेले या अपने मित्रों के साथ नहीं जाना चाहिए। भारतीय संस्कृति (?) को बचाये रखना चाहिए। कपड़े ऐसे पहनने चाहिए, व्यवहार ऐसा होना चाहिए, थोड़ा सहन कर लेना चाहिए।
जब बलात्कार का आरोपी कोई रसूख वाला या राजनीति से जुड़ा होता है तो पूरी व्यवस्था, पूरा तंत्र उसे बचाने में लग जाता है। शर्म की बात है कि इतनी संवेदनशील घटना एक मुद्दा बन जाती है और आरोप-प्रत्यारोपों की राजनीति शुरू हो जाती है। पुलिस अपनी जाँच-पड़ताल में और वकील कोर्ट में जिस तरह की जिरह करते हैं वह पीड़िता के लिए कितना यातनादायक होता है, यह सोचने वाली बात है। यह अपनी जगह है लेकिन समाज में, गली-मोहल्ले, घर-परिवार, टी.वी. के समाचार और बहस के कार्यक्रमों में जिस तरह घटना को पेश किया जाता है और बहसें होती हैं वे सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या समाज वास्तव में महिलाओं पर होने वाले यौन हमलों से परेशान है या नहीं। इससे घटना की बर्बरता और गम्भीरता कम हो जाती है। दूसरी ओर घटना के विभिन्न पहलुओं तक सीमित रह जाती है। वह इसलिए कि हमारे (किसी भी) समाज का स्त्रियों के प्रति एक रूढ़िवादी नजरिया है जो स्त्री को बराबर की नजर से नहीं देखता। नैतिकता के तमाम पाठ स्त्री के लिए ही लिखे गए हैं जिनका अतिक्रमण निषिद्ध है।
अगर स्त्री अपने सम्मान को ठेस पहुँचाने वाली बातों का विरोध करती है तो बहुधा अकेले पड़ जाती है। परिवार कभी शर्म का हवाला देकर और कभी उसे ही दोषी ठहराते हुए पीछे हट जाता है। समाज तरह-तरह की टीका-टिप्पणियाँ करता है। इस सबके बावजूद इसके पीछे बहुत बड़ा कारण स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं माना जाना है। आज जब स्त्रियाँ पढ़-लिखकर और जागरूक होकर सार्वजनिक क्षेत्रों में अपनी जगह बनाने लगी हैं कोई मुकाम हासिल करने लगी हैं तब अपनी आजादी भी हासिल कर रही हैं पर समाज का खुले दिल से इसका कितना स्वागत हो रहा है यह देखने वाली बात है। उसका व्यावसायिक स्तर (स्टेट्स) अपनी जगह है पर स्त्री होना फिर भी विशेष मायने रखता है। उसे अपनी परिधि में रहना चाहिए यह सोच बरकरार है। इसीलिए # मी टू अभियान से जुड़ी महिलाओं का बेबाक स्वर किसी को रास नहीं आता। आरोपी पूरी ताकत महिला के गलत और चरित्रहीन या ब्लैकमेलर सिद्ध करने में लगा देता है। एम.जे. अकबर या जस्टिस गोगोई अपराध के घेरे में आकर भी बाहर होते हैं। एम.जे. अकबर खुद को निर्दोष साबित करने के लिए वकीलों की फौज खड़ी करते हैं तो जस्टिस गोगोई खुद ही आरोपी खुद ही न्यायकर्ता की अद्भुत मिसाल पेश करते हैं।
(Editorial January December 2020)
उसकी सुरक्षा आज एक बड़ा मुद्दा बना है। समाज का एक बड़ा हिस्सा ऐसी घटनाओं के विरोध में उठ खड़ा होता है। शासन-प्रशासन पर दबाव बनाया जाता है। इन्हीं दबावों के कारण कई नये कानून बन रहे हैं। अपराधियों को कड़ी सजा दिलाये जाने की माँग उठी है और बलात्कारियों को फाँसी की सजा तक सुनाई और दी जा रही है लेकिन अपराध हैं कि थम ही नहीं रहे हैं।
कड़े कानून बन जाने से भी कुछ होने वाला नहीं है क्योंकि कड़े कानून बन जाने पर जहाँ पुलिस की जाँच से लेकर अदालतों के फैसले तक अपराध को कम आँका जायेगा क्योंकि कड़े दंड के प्रावधान पर अहतियात बरता जायेगा। दूसरी ओर अपराधी सजा से बचने के लिए साक्ष्य मिटाने के लिए कुछ भी करेगा जैसा कि कई मामलों में बलात्कार के बाद पीड़िता की हत्या कर दी गई है। प्रियंका रेड्डी के साथ बलात्कार और निर्मम हत्या ने जनमानस को तो झकझोरा ही, साथ ही प्रशासन भी दबाव में रहा। इसमें तत्काल गिरफ्तारियाँ भी हुईं और अभियुक्तों को घटना स्थल पर पुनरीक्षण के लिए ले जाया गया जहाँ पुलिस के अनुसार उन्होंने पुलिस से हथियार छीनकर भागने की कोशिश की और पुलिस मुठभेड़ में मारे गए। ये पूरा घटनाक्रम और कई नये सवालों को जन्म दे रहा है।
क्या पुलिस की भूमिका सराहनीय है (जैसा मीडिया भी कह रहा है) या सन्देहास्पद है। क्या बिना किसी जिरह के अपराधियों (?) को हमारी न्यायिक प्रक्रिया/व्यवस्था में दण्ड दिया जाना चाहिए। क्या वे वास्तविक अपराधी थे? क्या पुलिस की प्रारम्भिक जाँच में ही वे अभियुक्त ठहराये जा सकते हैं। अगर हाँ तो व्यवस्थापिका और न्यायपालिका की भूमिका क्या है? एक निर्दोष को सजा न हो इसके लिए निन्यानवे अपराधियों को छोड़ने की पैरवी करने वाली न्याय व्यवस्था का यह कौन सा चेहरा है? सामान्य तबकों से आने वाले अपराधी ही आसानी से गिरफ्त में कैसे आ जाते हैं। सुनियोजित अपराध करने वाले सफेद पोश चाहे वह सत्ता में हों या धर्मगुरुओं के रूप में या फिर प्रसिद्ध और ऊँचे ओहदों पर बैठे लोग उनके सामने न्याय प्रक्रिया बौनी क्यों सिद्ध होती है। जिस दिन ऐसे लोगों को खुले आम सजा का फर्मान सुनाया जायेगा/सजा होगी तभी व्यवस्था पर भी विश्वास होगा और अपराधों में भी कमी आयेगी।
(Editorial January December 2020)
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