नईमा खान उप्रेती : 80 साल में फैली एक सांस्कृतिक सक्रियता
शेखर पाठक
हम लोग शुरू से ही मोहन उप्रेती को मोहन दा और नईमा खान को नइमा दी कहकर सम्बोधित करते थे। दोनों हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक हस्तियाँ थीं और दोनों हमें बहुत आकर्षित करते थे। मुलाकात से पहले ही हमारी इन दोनों से मुहब्बत शुरू हो गई थी। ये दोनों अपने समय के सबसे चाहे गये लोगों में से थे भी।
1975 के अलमोड़ा के एक सेमिनार में मोहन दा से पहली मुलाकात हुई। फिर 1976, 1977, 1978 में दिल्ली में पर नईमा दी से दिल्ली में एशिया हाउस में उनको मिले सरकारी क्वाटर में मुलाकात हुई। मुझे याद है उन्होंने कितनी आत्मीयता से गिर्दा और मेरा स्वागत घर पर किया था। शायद दिसम्बर 77 या जनवरी-फरवरी 1978 की बात होगी।
जब मोहन दा ने गिर्दा से चिपको का प्रमुख गीत बन चुका ‘आज हिमाल’ सुनाने को कहा तो नईमा दी बोली कि जब मैं खाना तैयार कर लूं तब यह गायन होगा ताकि मैं और रसोई में मदद करने आई बहिन भी इस गाने को सुन सकें। तब दूरदर्शन के लिये भी उन्होंने हमारा कोई कार्यक्रम बनाया था।
(Tribute to Naima Khan Upreti)
25 मई 1938 को अलमोड़े शहर के नियाज गंज मोहल्ले के ‘नियाज मंजिल’ नामक पैतृक घर में जन्म लेने से 15 जून 2018 की सुबह पूर्वी दिल्ली के मयूर विहार, फेज 2 के एक किराये के मकान में देहावसान होने के बीच के 80 साल में फैली नईमा दी की जिन्द्गी अपनी तरह की एक अलग कहानी है। मूलत: यह संस्कृति को समर्पित जिन्द्गी रही पर उसे एक याद्गार प्रेम कहानी की नायिका बनने का सौभाग्य मिला। फिर मोहन उप्रेती जैसा जीवन साथी। अपनी-अपनी श्रेष्ठता के दम्भ में डूबे अलमोड़े के ‘शेखो-बिरहमन’ यानी खान और ब्राह्मण परिवार के रिश्ते की कहानी भी यह है, जिसे दोनों परिवारों ने तब अस्वीकार कर दिया था। पर नायक-नायिका भी मामूली धातु के नहीं बने थे। उन्होंने एक चौथाई सदी में फैला प्रेमी जीवन और उससे छोटा वैवाहिक जीवन बिताया पर रुके और झुके नहीं। उन्हें परिवार ही नहीं समाज और सरकार से भी लड़ना पड़ा। पर यह सिर्फ इन दोनों के संस्कृति प्रेम या आपसी प्रेम की कहानी ही नहीं है, यह एक समाज, प्रदेश और देश को ज्यादा गहराई से जानने-समझने को समर्पित युवाओं की संघर्ष कहानी भी है। जो स्थानीय स्तर पर इतना अपमानित किये जाने के बाद भी बाद में राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जाने-पहचाने गये। अलमोड़े में लोक कलाकार संघ के संकट के समय मौन रहने वाले भी बाद में उनसे गौरवान्वित होने लगे थे।
नईमा दी के जीवन को चार हिस्सों में पेश करने की कोशिश की जा रही है। जन्म से ‘यूनाईटेड आर्टिस्ट’ में आने तक का दौर। दूसरा अलमोड़े से दिल्ली तक का दौर जब वे एक संस्कृति कर्मी के रूप में विकसित होती रही और 25 साल तक चली प्रेम कहानी शुभ विवाह के बिन्दु तक पहुँची। तीसरा दौर उनके दूरदर्शन, रंगमंच, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, पर्वतीय कला केन्द्र के साथ काम करते हुये अत्यन्त सक्रियता से भरा वैवाहिक जीवन था। जो मात्र 17 साल चला और 6 जून 1997 को मोहन दा की मृत्यु पर समाप्त हो गया। चौथा और अन्तिम दौर 21 साल का रहा, जब वे अपने वैधव्य के कठिन दौर में भी निरन्तर सक्रिय बनी रही। पर्वतीय कला केन्द्र को और आगे ले जाने का प्रयास किया और अनेक बार पहाड़ों की तरफ भी आईं।
(Tribute to Naima Khan Upreti)
पहला दौर
नईमा दी के दादा नियाज मोहम्मद खान साहेब उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशकों में अलमोड़ा के एक नामी गिरामी व्यक्ति थे। निजी और धार्मिक स्तर पर वे ‘हाजी’ थे। सरकार में उनकी कद्र थी तो ‘खान बहादुर’ भी थे। वे बहुत मदद्गार-तीमारदार थे। नियाज गंज उन्हीं के नाम पर विकसित मोहल्ला है जो अलमोड़ा के कारखाना बाजार से लगा है। इसी नियाज गंज में उनका बनाया मकान आज भी मौजूद है। जिसका नाम है ‘नियाज मंजिल’। नियाज मोहम्मद खान व्यवसायी थे और समाज सेवक भी। उन्होंने जामा मस्जिद और एक मदरसे के निर्माण के साथ अपनी बहुत सारी सम्पत्ति सार्वजनिक हित में दान की थी। हर जरूरत मंद की वे मदद करते थे। वे अलमोड़ा नगरपालिका के अध्यक्ष भी रहे थे। नियाज मोहम्मद खान की पत्नी का नाम अनवरी बेगम था और उनके सबसे बड़े बेटे थे शब्बीर मोहम्मद खान, फिर नजीर, बसीर, निसार तथा इफ़्तेखार थे। इन पांचों बेटों के साथ तीन बेटियां थीं हमीदा, ताहिरा और जमीला। इन आठ संततियों में शब्बीर साहेब नगरपालिका सदस्य तथा अध्यक्ष के साथ कांग्रेस के स्थानीय नेता और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में मशहूर थे तो इफ्तेखार एक चित्रकार के रूप में जाने जाते रहे। शब्बीर खान की बड़ी बेटी नईमा थी और छोटी बेटी सलीमा (घर में शमा), जो विवाह के बाद आसन्न प्रसव के दौर में दिवंगत हुई।
उनके बेटे थे शब्बीर मोहम्मद खान, जो कांग्रेसी कार्यकर्ता थे और 1947 से पहले कोंग्रेसी होना महत्व की बात थी। उनकी पारिवारिक धार्मिकता के साथ उदारता जुड़ी थी। इसीलिए शब्बीर मोहम्मद का विवाह एक ईसाई सामाजिक कार्यकर्ती मोनिका सिंह से हुआ। इस दम्पत्ति की बेटी के रूप में 25 मई 1938 को नईमा का अलमोड़े में जन्म हुआ। यह बताया जाता है कि उनके जन्म के समय उनकी मां की तबियत ठीक नहीं थी, तो उनको उनके खेतों में काम करने वाली एक ठकुरायन ने लम्बे समय तक अपना दूध पिलाया था। छुटपन से ही नईमा को नाच-गाने में रुचि थी। छोटी उम्र से ही वे स्कूल और कांग्रेस के जलसों में गाने लगी थी।
वे बताती थीं कि दादा-दादी को संगीत पसन्द न था पर वे दोनों उनको प्रोत्साहन देते रहे। ऐसा लगता है कि हाजी साहब और अनवरी बेगम को इफ़्तेखार नामक अपने बेटे की चित्रकला ने कलाओं के प्रति एक उदार नजरिया विकसित करने को तैयार कर लिया था। इसलिए नईमा के समय तक यह उदारता प्रोत्साहन तक पहुंच गई। पर यह आंशिक सच्चाई थी। दरअसल गायन और अभिनय में रुचि रखने वाली नईमा और उनसे 12-13 साल बड़े चित्रकार इफ़्तखार चाचा में गहरी समझदारी थी और दोनों एक-दूसरे की कलाओं को सुनते, देखते, प्रशंसा करते और सुझाव देते थे। उनके इस बचपन के दौर में भारत छोड़ो आन्दोलन, दूसरा विश्वयुद्घ, देश का बंटवारा और देश की आजादी जैसी महत्वपूर्ण घटनाएं हुई थी। ये सभी घटनाएं उनकी स्मृति में सदा बनी रही। अलमोड़ा और देश की तत्कालीन हलचलों ने उनका रचनात्मक मानस बनाया था।
कुछ घर पर, कुछ नियाजगंज की पाठशाला के बाद नईमा एडम्स स्कूल की छात्रा बनी। यह वह समय था जब आजादी के बाद भारतीय गणतंत्र की स्थापना हो रही थी। यही साल अलमोड़ा में ‘यूनाइटेड आर्टिस्ट’ के जन्म का भी था। एडम्स स्कूल का माहौल रचनात्मक था। वहां की प्रधानाचार्या मिस फिलिप अपनी छात्राओं को शहर के सांस्कृतिक कार्यकलापों में हिस्सेदारी करने हेतु प्रोत्साहन देतीं थीं। 1952 में अलमोड़ा के परेड ग्राउण्ड में जवाहरलाल नेहरू के आगमन के समय नईमा ने गीत गाया था और नेहरू जी ने उनकी पीठ थपथपायी थी। यही वह समय था जब वह हेमा उप्रेती आदि के साथ ‘यूनाईटेड आर्टिस्ट’ के कार्यकलापों में हिस्सा लेने लगी थी।
यह नईमा की वय:संधि की उम्र का समय था। उनसे 10 साल बड़े और आकर्षक मोहन उप्रेती की ओर उनके खिचे चले जाने का भी। मोहन इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी कर और संगीत की भी शिक्षा लेकर अलमोड़ा लौटे थे। यह अनुमान बनता है कि 1953-55 के बीच मोहन के प्रति नईमा का खिचाव एक अलग किस्म की सिद्घ होने वाली प्रेम कहानी में बदल गया।
(Tribute to Naima Khan Upreti)
दूसरा दौर
अब नईमा दी की जिन्द्गी का अगला दौर शुरू होता है। एडम्स कालेज की पढ़ाई के साथ 1952 में ‘चौराहे की आत्मा’ नाटक का नैनीताल में सफल मंचन हुआ। जिस हेतु प्रथम पुरस्कार मिला और बदायूं के सांस्कृतिक कार्यक्रम में ‘बेड़ू पाको बारो मासा’ गीत ने पहली बार कुमाऊँ से बाहर धूम मचाई। 1953 में अलमोड़ा कल्चर सेंटर (इसके आधार तारादत्त सती थे, जो अलमोड़ा में एक टाइप संस्थान चलाते थे) की ओर से लखनऊ में दी गई प्रस्तुतियों के साथ यह समूह अधिक चर्चा में आया। 50 सदस्यों का दल, जिसमें 13 महिलाएं थीं, लखनऊ गया फिर ‘यूनाईटेड आर्टिस्ट’ ने 1954 में अलमोड़े के पहले शरदोत्सव में अनेक याद्गार कार्यक्रम प्रस्तुत किये।
‘यूनाईटेड आर्टिस्ट’ समूह 28 जून 1955 को लोक कलाकार संघ में बदल गया। यह नाम उत्तर प्रदेश के एक मंत्री कमलापति त्रिपाठी ने कृपापूर्वक सुझाया था। रामजे कालेज के सभागार में लोक कलाकार संघ का जन्म हुआ था। ‘यूनाईटेड आर्टिस्ट’ का 5 साल का अनुभव लोक कलाकार संघ को मिला। अक्टूबर 1955 में लोक कलाकार संघ को राष्ट्रीय संगीत नाटक अकादमी की मान्यता भी मिल गई।
इस दौर की एक महत्वपूर्ण घटना थी 1956 में मोहन उप्रेती का कामरेड पी़सी. जोशी, डॉ़ पी़सी. जोशी, लेनिन पंत तथा अन्य के साथ मोहन सिंह रीठागाड़ी से मिलने जाना। मोहन सिंह अपने मामा प्रतापसिंह बिष्ट के पास रीठागाड़ में रहते थे। लोक गायन के लिए दशकों से जाने जाते रहे थे। कामरेड पी़सी. जोशी का उद्देश्य मोहन सिंह को किसान आन्दोलन से जोड़ने के साथ दोनों मोहनों के सांस्कृतिक तारों को जोड़ना भी था। उन्हें लगा कि छोटे मोहन के पास बड़े मोहन से सीखने को अपार है और बड़े मोहन के पास छोटे मोहन को देने को भी कम नहीं है। यह मोहन के जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ बना और उन्होंने ‘लोक’ के लिए काम करने की ठानी। अगले ही साल 1957 की गर्मियों में में विमल राय अपनी चर्चित होने वाली फिल्म ‘मधुमती’ की शूटिंग के लिए नैनीताल, भवाली, खैरना में थे। लोक कलाकार संघ अपनी पहली गढ़वाल यात्रा की तैयारी कर रहा था। लैंसडौन सांस्कृतिक युवक संघ की ओर से केशव धूलिया का निमंत्रण उन्हें मिला था। केशव मोहन दा के इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समय के करीबी दोस्त थे।
(Tribute to Naima Khan Upreti)
मई 1957 की किसी तारीख को जब लोक कलाकार संघ के सदस्य एक बस से गढ़वाल के लिए जा रहे थे तो विमल राय ने उनको भवाली में परामर्श हेतु रोक लिया और बस से उतरने को विवश कर दिया। इस तरह प्रसिद्घ फिल्म निर्देयाक विमल दा और संगीतकार सलिल चौधरी ने उनसे अनेक लोक धुनों की जानकारी ली, गीत सुने और सभी सदस्यों की दिलीप कुमार, वैजन्तीमाला, प्राण, जौनी वॉकर जैसे कलाकारों से मुलाकात हुई। सलिल चौधरी ने अनेक पहाड़ी धुनों का इस्तेमाल ‘मधुमती’ के संगीत में किया। दो दिन इस समूह को भवाली में रुकना पड़ा और फिर वे कोटद्वार, लैंसडौन, पौड़ी, टिहरी तथा देहरादून में अपने अनेक कार्यक्रमों के लिये निकल गये।
इस दल का गढ़वाल के विभिन्न स्थानों में अत्यन्त आत्मीय स्वागत हुआ। कई-कई कार्यक्रम 4-5 घंटे तक चले और मोहन उप्रेती के शब्दों में ‘न कलाकार थके और न जनता’। केशव धूलिया और विद्यासागर नौटियाल (टिहरी) और अरुण गुप्ता (देहरादून) तो उनके पुराने दोस्त थे। पर इस यात्रा में जिन लोगों से इस समूह की मुलाकात हुई वे तब और बाद में सांस्कृतिक अभियानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। जीत सिंह नेगी, राजेन्द्र धस्माना, उमाशंकर सतीश, सन्तन बर्थवाल, पीताम्बर देवरानी, दुर्गा प्रसाद, मनोहर लाल श्रीमन, शिवानन्द नौटियाल (फोटोग्राफर और नवीन नौटियाल के पिता), इन्द्रमणि बडोनी, रतन सिंह (चौहान) जौनसारी, केशव अनुरागी, उर्मिल थपलियाल, दीवान सिंह कुमैय्या, गोविन्द विद्यार्थी और मदन सिंह नेगी जैसे नये मित्र उनको मिले, जो उन्ही की तरह बेचैन और सृजनशील थे। आगे भी रहे। इस यात्रा से मोहन और पूरी टीम अभिभूत थी। गढ़वाल की जनता, दर्शकों और उक्त तमाम प्रतिभाओं से फिर यह सम्बन्ध सदा बना रहा। अनजाने ही इस यात्रा ने उत्तराखण्ड का विचार विकसित करने में योगदान दिया, जिसे तब प्रारम्भिक रूप से सर्वोदयी कार्यकर्ता कर रहे थे।
बदायूं, लखनऊ, गढ़वाल और बागेश्वर की सांस्कृतिक यात्राओं में अलमोड़ा के इस सृजनशील समूह के सदस्यों की अन्तरंगता और दूर दृष्टि का विस्तार हुआ। मोहन और नईमा के बीच भी दोस्ती गहरी होती गई। तबसे लेकर 1980 में विवाह तक के लगभग 25 साल मोहन और नईमा के जीवन में जबर्दस्त संघर्ष, कष्ट और तरह-तरह की रचनात्मक से भरे थे। यह एक चौथाई सदी जितनी अलमोड़ा में बीती थी उससे अधिक दिल्ली में उसे बीतना था।
(Tribute to Naima Khan Upreti)
1955 में लोक कलाकार संघ की स्थापना से लेकर 1962-63 में इसके बिखरने की शुरूआत होने तक यह सक्रियता अलमोड़ा और उत्तराखण्ड के भीतर रही। तरह-तरह के प्रयोग और प्रस्तुतियां हुई। रामलीला से लेकर तमाम स्थानीय लेखकों के नाटक, कालिदास और मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं का मंचन और गीतों की प्रस्तुतियां लगातार होती। ‘बेड़ू पाको बारो मासा’, ‘मुरुलि बाजी रे ओ विणुली बाजी रे, पारा भीड़ा को टै सुवा सूर सूर’ आदि अनेक गीतों की धूम उस दौर में मचती रही। आज तक ये ताजगी और साद्गी से भरे गीत गाये जा रहे हैं। मोहन उप्रेती और नईमा खान इस दौर में पहले देवीदत्त पंत हुड़किया वकील से प्रेरणा और परामर्श पाते रहे थे। देवीदत्त अलग ही किस्म के संग्रामी, कांग्रेसी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के टापर और अलमोड़े के सांसद थे। इसी बीच उनका एक दुर्घटना में असमय देहान्त भी हुआ।
फिर मोहन और नईमा दोनों मोहन सिंह रीठागाड़ी और कामरेड जोशी से प्रेरित-प्रभावित रहे। पहला उनको लोक संस्कृति (गीत, संगीत, नाटक आदि) की तरफ खींच रहा था, दूसरा उनको वाम विचारों की दिशा में ले जा रहा था। मोहन तो वाम विचारों के प्रभाव में इलाहाबाद के दौर में ही आ चुके थे। दोनों सम्पूरक भी थे। उनको यह भी समझ में आया कि औद्योगिक मजदूरों और बिखरी जनसंख्या और छितरे गांवों वाले कुमाऊं में काम करने में बहुत अन्तर है। लोक कलाकार संघ के कार्यकलापों के लिए स्थानीय समाज से शुभकामनाएं तो बहुत मिलती थी पर आर्थिक सहयोग अधिक सम्भव नहीं होता था। दूसरी ओर सरकारी सहायता के अधिक मिलने की सम्भावना नहीं थी।
लोक कलाकार संघ अलमोड़ा में तारादत्त सती, ब्रजेन्द्रलाल शाह, मोहन उप्रेती, लेनिन पंत, सुरेन्द्र मेहता, बांकेलाल साह, नईमा खान, उस्ताद गुलाम, इफ्तेखार खान, हेमा उप्रेती, सदानंद शर्मा, देवी उस्ताद, मोहन पाण्डे, दीप जोशी, ललित मोहन पाण्डे, राधा बल्लभ तिवारी, चन्द्र सिंह नयाल आदि कितनी ही सृजनशील प्रतिभाएं जुड़ गई थी। लेकिन 1962 में उन्हीं जवाहर लाल नेहरू की सरकार के छत्र तले उन्हें गिरफ्तार कर जेल डाला गया जो मोहन और लोक कलाकार संघ की प्रशंसा करते थे। और स्वयं मोहन उप्रेती का परिचय ‘बेड़ू पाको ब्वाय’ के रूप में करते रहे थे। 1962 में भारत-चीन युद्घ के समय अधिकांश साम्यवादियों को गिरफ्तार कर मैदानी जेलों में भेज दिया गया। डी़आई़आर के अन्तर्गत गिरफ्तार मोहन को 10 महीने जेल में रखकर जब रिहा किया गया तो वे उत्तराखण्ड के किसी भी जिले में जिलाधिकारियों की इजाजत के बिना प्रवेश नहीं कर सकते थे। यह स्थिति 1966 तक बनी रही।
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स्वाभाविक ही इस स्थिति में मोहन उप्रेती पहाड़ों में नहीं का सकते थे। आ भी सके तो सांस्कृतिक-राजनैतिक रूप से सक्रिय नहीं रह सकते थे। आर्थिक प्रश्न भी था। उनकी अनुपस्थिति में धीरे-धीरे लोक कलाकार संघ पहले धूमिल होता गया और फिर पूरी तरह अस्त हो गया। इसी दौर में नईमा भी दिल्ली गई। एक ओर 1968 में पर्वतीय कला केन्द्र की स्थापना हुई। बिखरी-टूटी टीम को खड़ा करने और प्रवासियों को जोड़ने के प्रयास शुरू हुये वहीं अपना स्वयं का आर्थिक और सांस्कृतिक आधार भी बनाना शुरू किया। 1968 में ही नईमा ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अभिनय में डिप्लोमा हेतु प्रवेश लिया। यानी 1962 से 1968 तक के 5-6 साल दोनों के लिए और लोक कलाकार संघ की पूरी टीम तथा वामपंथी कार्यकर्ताओं के लिए कष्ट और यातना के रहे। दूसरी ओर लोक कलाकार संघ में सभी चीनी हमले के विरोधी थे और ब्रजेन्द्रलाल शाह की तरह अनेकों ने चीन विरोधी और राष्ट्रवादी कविताएं भी लिखी थीं।
इस तरह दिल्ली में व्यक्तिगत उपलब्धियों के साथ संस्थागत योगदान की शुरूआत हुई। इसी दौर में मोहन दा और नईमा दी ने अनेक प्रकार की नौकरियां की पर सांस्कृतिक कर्म लगातार जारी रहा। यह बिखरने के बाद फिर स्थापित होना था। दिल्ली में ब्रजेन्द्रलाल शाह, लेनिन पंत, बृजमोहन साह, हुकम सिंह राणा, विश्वमोहन बडोला, अलखनाथ उप्रेती, भगवत उप्रेती आदि पर्वतीय कला केन्द्र के स्तम्भ बने। 1980 में जाकर मोहन और नईमा की मुहब्बत विधिवत विवाह का रूप ले सकी। एक साल पहले ही नईमा के पिता शब्बीर खान का देहान्त हुआ था। शायद मोहन दा के माता-पिता का भी देहान्त हो चुका था। यह 25 साल लम्बी प्रतीक्षा थी। अवरोध सिर्फ लोक कलाकार संघ का बिखरना या मोहन उप्रेती की गिरफ्तारी और इलाका बदर होना ही नहीं था बल्कि दोनों परिवारों के प्रमुख भी इस रिश्ते को सहमति देने को तैयार न थे। मोहन उप्रेती के संस्कारों से कट्टर माता-पिता ही नहीं बल्कि स्वयं अन्तरजातीय विवाह किये शब्बीर खान भी इस रिश्ते को सहमति देने से कतरा गये बताये जाते हैं।
(Tribute to Naima Khan Upreti)
अन्तिम दौर
4 जुलाई 1980 को जब मोहन दा और नईमा का विवाह हुआ तो मोहन उप्रेती 52 साल के हो गये थे और नईमा खान 42 साल की। यह वैवाहिक जीवन 17 साल का रहा और 6 जून 1997 को मोहन दा की मृत्यु तक चला। इसी साल नईमा दी ने दूरदर्शन से अवकाश प्राप्त किया। इसके बाद जीवन के अंतिम 21 साल नईमा ने अकेले पर सक्रियता और समर्पण से बिताये। उन्होंने पर्वतीय कला केन्द्र को निरन्तरता दी। 1983 से 1988 के दौर में पर्वतीय कला केन्द्र का दल अनेक देशों में गया था। अपने अंचल और देश की सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों का प्रदर्शन इस दल ने अनेक देशों में किया और वहां की संस्कृति का स्पर्श और सीख लेकर वे भारत वापस आये। इस दौर में वे लगातार उत्तराखण्ड में विशेष रूप से नैनीताल और अलमोड़ा भी आते रहे।
1969 से नईमा दी ने दूरदर्शन में निर्माता की हैसियत से काम शुरू किया, अनेक कार्यक्रमों की रूपरेखा तय की और अनेक कार्यक्रम प्रत्यक्ष रूप से भी बनाये। वे उन छ: कलाकारों/निर्माताओं में से एक थीं, जिनका तब दूरदर्शन के लिये चयन हुआ था। उनका निर्देशन, अभिनय और गायन का कार्यकलाप लगातार चला। मोहन दा के देहान्त के बाद नईमा दी का स्वास्थ्य गड़बड़ी करता रहा। उनको सांस लेने में कठिनाई होती। उन्हें अनिवार्य रूप से आक्सीजन सिलिण्डर साथ लेकर बाहर निकलना पड़ता था।
(Tribute to Naima Khan Upreti)
2009 में जब पहाड़ का रजन समारोह अलमोड़ा में हो रहा था, तो पहाड़ से उन्हें शेखर जोशी, डी.पी. अग्रवाल, शेर सिंह बिष्ट ‘अनपढ़’, बसन्ती बहिन, जे़.एस़ मेहता तथा हरदा सूरदास के साथ सम्मानित किया था। अगले दिन सुबह तमाम अतिथि अलमोड़े और आसपास की लगभग 15 शिक्षा संस्थाओं में व्याख्यान देने गये। नईमा दी से एडम्स कालेज में व्याख्यान देने का निवेदन किया गया था। अलमोड़े के अनेक नागरिकों ने भी विद्यार्थियों के लिये आयोजित इस कार्यक्रम में जाने की इच्छा जताई और इजाजत चाही। वे सभी अपने शहर की अब बूढ़ी हो गई बेटी नईमा को सुनना चाहते थे। देखना चाहते थे।
एडम्स कालेज, जहां की वह छात्रा रहीं, में अपना व्याख्यान देते हुए, उनको सांस लेने में दिक्कत हुई तो आक्सीन देने के लिए उनको प्रधानाचार्य के कक्ष में ले जाया गया। इस बीच एडम्स कालेज की छात्राओं ने वह गीत गाना शुरू किया जिसे नईमा ने एडम्स स्कूल में पढ़ने के दौरान गाया था। इस गीत का इतना गहरा असर नईमा दी पर हुआ कि ऑक्सीजन लेकर वह हाल में आई तो बच्चों के कोरस में शामिल हो गई और फिर डेढ़ घंटे तक बच्चों को सम्बोधित करती रही। यह घटना बताती है कि सरकार और समाज की क्रूरता के बावजूद लोक कलाकार संघ का योगदान नकारा नहीं जा सकता। जब भी ‘बेड़ू पाको बारू मासा’ गाया जायेगा तो यह ‘लोक’ को ही नहीं, ‘लोक कलाकार संघ’ को भी सलाम करने की तरह होगा।
(Tribute to Naima Khan Upreti)
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