सम्पादकीय अप्रैल-जून 2018 अंक
बलात्कार पर देशव्यापी बहस के लिए कोई सनसनीखेज मामला चाहिए, इस समय यह बहस जम्मू-कश्मीर के कठुवा जिले में बकरवाल परिवार की बच्ची और उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में एक महिला के बलात्कार की घटना से उठी है। इसी समय सूरत और बिहार के सासाराम से भी घटनाएँ मीडिया में आई हैं। कठुवा की घटना भयावह सिर्फ इसलिए ही नहीं थी कि घटना की शिकार बच्ची मात्र 8 साल की थी और एक मन्दिर में यह घटना हुई। बल्कि इसलिए भी कि इस वीभत्स घटना में बुजुर्ग से लेकर 19 साला नवयुवक और पुलिस कर्मियों समेत कुल 6 लोग शामिल थे। 2 पुलिसकर्मी अपराधियों की मदद करने, पैसे लेकर उन्हें बचाने और सबूतों को नष्ट करने के आरोपों में गिरफ्तार किये गए। बाद में इसे हिन्दू-मुस्लिम का रंग देकर आरोपियों को बचाने के लिए भारत माता की जय के नारों और तिरंगे के साथ निकले जुलूस से दबाव बनाने कोशिश की गयी। देश भर में इस कांड की जबरदस्त मुखालफत हुई और राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी आवाज उठी।
उन्नाव में एक लड़की ने सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के विधायक पर बलात्कार का आरोप लगाते हुए रिपोर्ट लिखवानी चाही। पर पुलिस ने विधायक को नामजद करने से मना कर दिया। महिला की हर कोशिश जब नाकाम हो गयी तो उसने प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी के सामने आत्मदाह का प्रयास किया। अगले ही दिन उसके पिता को गिरफ्तार कर लिया गया और पुलिस हिरासत में उसकी मृत्यु हो गयी। इस घटना ने निर्मम पुलिस और राजनेताओं के चेहरे को एक बार फिर बेनकाब किया और जनाक्रोश भड़का दिया। पिछले चार सालों में देश में बलात्कार की 140000 घटनाएँ रिपोर्ट हुई। जाहिर है, जब पाश्चात्य देशों तक में महिलाओं की निजता पर इस तरह के हमले सामजिक मानसिक दबाव के चलते सामने नहीं आ पाते हैं तो लाज शर्म और सतीत्व को महिला का गहना मानने वाले हमारे समाज में इस से कई गुना घटनाएँ थाने तक नहीं पहुँच पाती हैं और हद तो यह है कि कुल मामलों में से अस्सी प्रतिशत में आरोपी दण्डित नहीं होते क्योंकि निर्मम पुलिस और बेजान न्याय व्यवस्था पीडिता को तोड़ कर रख देती है। पीड़िता दया की पात्र बना दी जाती है और कानून मजाक बन कर रह जाता है।
(Editorial April-June 2018)
कई शोधों में यह बात सामने आई है कि महिलाओं से दुराचार के मूल में वह मानसिकता है जो महिलाओं को एक वस्तु समझती है यानी उन्हें हाड़ और मांस से बना एक अवांछित आकार समझा जाता है, न कि जिन्दा, सांस लेती और तमाम मानवीय गुणों और खामियों से बनी एक व्यक्ति। घोर स्त्री-विरोधी मानसिकता की बुनियाद पर यह सोच निर्मित होती है। जिस तरह हर घर अपने को ऊँचे आदर्शों पर चलने वाला और इज्जतदार दिखाना चाहता है, उसी तरह हर व्यक्ति भी स्वयं की एक बेहतरीन छवि सामने रखता है जिस पर बीतती है वह सहती है और जो दोषी है वह छुपाता है और समाज शांत और संतुलित नजर आता है। इसी कारण इस गंभीर सामाजिक समस्या का आइसबर्ग की तरह एक अंश मात्र ही सामने आ पाता है। लेकिन विगत वर्ष हॉलीवुड की एक-एक अभिनेत्री अलिसा मिलानो ने एक प्रसिद्घ फिल्म निर्देशक पर अनैतिक व्यवहार का आरोप लगाया और सोशल मीडिया में एलान किया कि जिस किसी महिला के साथ कभी भी कोई अनैतिक कृत्य हुआ हो वह ट्विटर फेसबुक पर मी टू (मैं भी) लिखते हुए पोस्ट कर डाले। खुद अलिसा मिलानो के शब्दों में अगर इस तरह के कृत्य की शिकार हर महिला मी टू हैश टैग पोस्ट करेगी तो समाज में व्याप्त इस समस्या की व्यापकता सामने आएगी। देखते ही देखते यह एक आन्दोलन बन गया जिसका अनेक देशों, समाजों में अपना-अपना रूप सामने आया जिसमें दुनियाभर की लाखों महिलाओं ने या तो सिर्फ मी टू लिखा या अपना दर्द सांझा किया। हालांकि मिलानो से पहले मी टू की बात तराना बर्क नामक एक सामजिक कार्यकत्र्री ने की थी जो इस नाम से एक डक्युमेंट्री बना रही थी। उसने कहा, उसे इस बात के लिए एक घटना ने प्रेरित किया जब उसे एक 13 साल की बच्ची ने अपने दैहिक शोषण की दास्तान सुनाई। सुश्री बर्क ने कहा कि वह उसके लिए कुछ नहीं कर पायी। बाद में उसे यह एहसास हुआ कि काश वह उससे सिर्फ इतना कह पाती मी टू (मेरे साथ भी या मैं भी)।
किसी के जीवन में बबंडर खड़ा कर देने वाली ऐसी घटना को प्रशासनिक अमला हलके में लेता है। पुलिस की भूमिका प्राय: असंवेदनशील ही होती है, जो अपने थाने की छवि बनाए रखने के लिए एफ़आई़आऱ दर्ज करने में परेशान करती है। पीड़ित महिला जब किसी मामले की रिपोर्ट दर्ज करती भी है तो उसे फिर उसी समाज में लौटना होता है जहां उसके साथ यह घटना हुई। आरोपी उस पर दबाव बनाते हैं, समाज उसे सामान्य से हट कर देखना शुरू कर देता है क्योंकि हमारा समाज महिला विरोधी-दलित-विरोधी या दो शब्दों में कहें तो कमजोर-विरोधी है। बलात्कार की घटना के बाद अखबार और टी़वी़ पर लगभग एक सी बहस हर बार शुरू जो जाती है। ऐसा कठोर कानून बनाने की बात होती है जिसमें बलात्कार की सजा फांसी हो जबकि कठोर कानून से कहीं ज्यादा जरूरी है तुरंत न्याय देने वाली व्यवस्था और पीड़ित को सहानुभूति से देखने वाली न्यायपालिका और पुलिस। क्योंकि जब कानून को लागू कर पाना ही कठिन है तो कठोर कानून बना कर क्या होना है।
मीडिया बलात्कार को कैसे रिपोर्ट करता है? खबरों के साथ ग्राफिक्स चलते हैं जिसमें स्केच के माध्यम से घुटनों में सर डाले और बिखरे बाल वाली महिला को दिखाया जाता है। उसकी आँखों में आंसू होते हैं, उसे डरा हुआ और दयनीय दर्शाया जाता है जिसे दो-चार बड़ी-बड़ी छायाएँ घेरे हुए हैं। अपराधी खूंखार रूप में दर्शाया जाता है। कुल मिलाकर ऐसी तस्वीर उभरती है कि महिला बेचारी है, उसे संभल कर चलना होगा, जमाना खराब है और पारिवारिक जन अपनी बेटियों की सुरक्षा के लिए और चिंतित हो जाते हैं। कई बार लड़कियों पर पाबंदियां बढ़ा दी जाती हैं। जब किसी मामले में पीड़ित महिला टूट कर पीछे हट जाये तो अखबारों की सुर्खी बनती है- बलात्कार का आरोप लगाने वाली आरोप से मुकरी। इस मुकरने के पीछे कौन से दबाव, भय या कोई असहायता रही थी इसे जांचने की कोई कोशिश नहीं होती।
(Editorial April-June 2018)
किसी की निजता पर हमला करने के पीछे पीड़ित को कमजोर देखकर उस पर हमला करने की मनोवृत्ति है । अगर किसी अपराधी को पता हो कि यह महिला एक रसूखदार परिवार की है तो वह कदम आगे नहीं बढाता लेकिन हर महिला तो रसूखदार परिवार की हो नहीं सकती। इसलिए रसूख कानून का होना चाहिए। चलिए, कल्पना करते हैं एक स्वस्थ पुलिस और न्याय व्यवस्था की। एक महिला के साथ ऐसी घटना होती है तो उसे पुलिस सम्मान से बिठाती है, उससे पूरी सहानुभूति से बात करती है और रिपोर्ट दर्ज करती है। पूरी निष्ठा और ईमानदारी से मामले की विवेचना करती है। आरोपी को पकड़ती है, कोर्ट तत्काल सुनवाई करती है और महीने दो महीने में फैसला आ जाता है तो क्या ऐसी स्थिति में महिला दयनीय रह जायेगी? क्या कानून का इकबाल बुलंद नहीं होगा? पाकिस्तान में अभी हाल ही में एक बच्ची जैनब के साथ बलात्कार हुआ और फिर उसे मार कर कूड़े के ढेर में फेंक दिया गया। जबरदस्त जनाक्रोश उभरा और पुलिस ने बहुत तेज गति से कई संदिग्धों का डी़एऩए़ परिक्षण किया। अपराधी पकड़ा गया। कोर्ट ने भी बहुत तेजी से सुनवाई कर सजा दे दी। ऐसा किया जा सकता है। कुछ वर्ष पूर्व राजस्थान की एक अदालत ने भी एक विदेशी महिला के साथ दुष्कर्म करने वाले को बहुत जल्दी सजा दी। अभी मध्य प्रदेश की एक अदालत द्वारा पोस्को के तहत द्रुतगति से फैसला देने का उदहारण सामने आया है लेकिन इक्का-दुक्का मामले सिर्फ उदाहरण बन कर सिमट जाते हैं। पूरी व्यवस्था हर कदम पर ध्वस्त नजर आती है। जिस समाज में अपने मोहल्ले में स्ट्रीट लाइट लगवाने या पानी की व्यवस्था दुरुस्त करवाने में आपके पसीने छूट जाते हों तो ऐसे मामलों में जहाँ पूरा सिस्टम बेरहम हो, इन्साफ मांगने के लिए दर-दर न भटकना पड़े, ऐसा कहाँ संभव है।
सरकारें और सुप्रीम कोर्ट कई बार कह चुकी हैं की इस तरह के मामले फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुने जायेंगे मगर ऐसा होता नहीं। मामला जब कोर्ट में जाता है तो तारीख पर तारीख का सिलसिला चल पड़ता है। अदालत में विपक्षी वकील द्वारा बेहूदे और शर्मनाक प्रश्न पूछे जाते हैं। वादी को थका-थका कर मार दिया जाता है। इसलिए अगर कोई बेचारा है, दयनीय है तो वह है हमारा कानून।
(Editorial April-June 2018)
मगर जनता असल मुद्दों से दूर रहे, वह इस सिस्टम में बदलाव के लिए उठ खड़ी न हो, उसे भटकाने का काम हमारे नेता और मीडिया पूरी चालाकी से करते हैं और विकृत हो रहे समाज के सामने पद्मावती, गोमांस, जिन्ना पर हफ्तों बहस चलती है, आन्दोलन होते हैं, व्हट्सऐप और फेसबुक पर एक जहरीली दुनिया रची जाती है और लोगों के दिमाग में कूड़ा-करकट भर उन्हें बेबात के मुद्दों पर जान लेने वाला बनाने का षड्यंत्र चलता है।
ए़ डी़ आऱ की रिपोर्ट में सामने आया है कि 1580 सांसदों और विधायकों में से 48 ने अपने ऊपर महिलाओं के विरुद्घ हिंसा के मामले दर्ज होने की घोषणा की है। इनमें 45 सांसद और 3 विधायक हैं। इन पर महिला के शीलभंग के इरादे से उस पर हमला, घरेलू हिंसा, मानव तस्करी जैसे मामले दर्ज हैं। बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की रट लगाने वाले हमारे प्रधानमंत्री सुरक्षित समाज पर बहस क्यों नहीं छेड़ते? क्यों नहीं कहते कि बेटियों की पैदाइश पर किसी घर में रंज इसलिए फैलता है क्योंकि उस परिवार के जेहन में भय होता है कि यह बेटी छेड़छाड़ से लेकर बलात्कार तक की घटना का शिकार हो सकती है, इसे दहेज देने के लिए परिवार को बहुत पैसा जुटाना पड़ेगा। जिस दिन बेटी आर्थिक और सामजिक रूप से पूर्ण स्वतंत्र होगी, कोई बाप या मां उसे न पढ़ाने या मारने की नहीं सोचेगा। यह महज कल्पना नहीं है। देश और विदेश के ऐसे अनेक समाज हैं जहां बेटी के जन्म पर खुशियाँ मनाई जाती है, उन्हें पढ़ाया जाता है, सम्मान मिलता है। लेकिन हमारे देश की मुख्यधारा में ऐसा नहीं हो रहा है और बात इसी मुख्यधारा की हो रही है।
(Editorial April-June 2018)
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