वर्तमान परिदृश्य में वैज्ञानिक सोच की आवश्यकता
राहुल भट्ट
मानव सभ्यता के शैशव काल में ‘वैज्ञानिक सोच’ की कितनी आवश्यकता रही होगी, यह कयास लगाना शायद कठिन है। लेकिन जिस तरह सदियों से इंसानी कारवां धरती से आसमान तक आगे बढ़ रहा है, उसके मूल मे ऐसी ‘सोच’ के योयदान को नकारा नहीं जा सकता है। जाने-अनजाने यहीं ‘सोच’ हमारे आसपास को थोड़ा बेहतर बनाने की कोशिश करती है। वर्तमान परिस्थितियों में यह और भी प्रासंगिक है क्योंकि ‘आस-पास को बेहतर बनाने की’ शायद अधिक जरूरत है।
आज विज्ञान और तकनीक से उपजे ‘गैजट’ हमारे जीवन को पहले की अपेक्षा अधिक प्रभावित कर रहे हैं। लेकिन दैनिक जीवन में ‘अवैज्ञानिकता’ का जबर्दस्त बोलबाला है। ‘व्हाट्सप’, ‘फेसबुक’ पर किसी पाखंडी द्वारा फैलाये जा रहे झूठे तथ्य पर बिना सोचे विश्वास करने वालों की कमी नहीं है। हम मंगल ग्रह पर भेजे गये अंतरिक्ष-यान की खबर तो टेलिविजन पर देखकर आपस में चर्चा करते हैं, लेकिन अपने गली-मुहल्ले के पानी की समस्या के लिये हममें से अधिकांश के पास कोई विचार नहीं है।
महिलाओं के संदर्भ में यह शायद और भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि उनके विचारों में परिवर्तन हुये बिना किसी बदलाव की बात करना बेमानी है। महिलाओं के पसंदीदा बहुत से टीवी सीरियलों की लोकप्रियता इस बात पर निर्भर करती है कि उनमें कितना अंधविश्वास ठूँसा गया है। वैसे यह एक विशुद्घ मनोरंजन का मामला है लेकिन एक सच यह भी है कि ‘उत्तरा’ जैसी गंभीर पत्रिका को अपनी जगह बनाने के लिये बहुत ज्यादा संघर्ष करना पड़ता है! हो सकता है कि रोजमर्रा में खान-पान, चाल-ढाल, रंग-रूप, आदि से जुड़े मुद्दों का सामना करते हुये ‘वैज्ञानिक सोच का सवाल पीछे छूट जाता हो, लेकिन इसके बिना एक ‘बेहतर कल’ की कल्पना बहुत मुश्किल है।
(Scientific Thinking)
बहुत से लोग इस ‘सोच’ को विद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले ‘विज्ञान’ विषय से जोड़ देते हैं। यह मान लिया जाता है कि जिसने ‘विज्ञान’ नहीं पढ़ा उसे ‘वैज्ञानिक सोच’ से क्या मतलब। वैसे यह भी गौरतलब है कि स्कूल में विज्ञान के विद्यार्थी रहे कितने लोग, अपने दैनिक जीवन में ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ को आत्मसात कर पाते हैं। दरअसल स्कूली शिक्षा इसका सही पैमाना नहीं है। ‘रटने की प्रवृत्ति’ विकसित करने वाली वर्तमान शिक्षा-प्रणाली तो इसके लिये प्रतिकूल ही कहीं जायेगी।
केवल शिक्षा व्यवस्था को दोषी कहना शायद अतिशयोक्ति है! हमारे समाज में बरसों से जड़ें जमाये विश्वास, राजनीतिक व्यवस्था, विरासत में मिला एक गुलाम तंत्र, आदि अनेक कारण इसके लिये दोषी हो सकते हैं, लेकिन महिलाओं के संदर्भ में ‘पितृ-सत्तात्मक’ विचारधारा का पोषण भी एक कारण हो सकता है। विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी का कम प्रतिशत भी इसी तरफ इंगित करता है। आज भी बहुत से परिवारों में लड़कियों की ‘आजादी’ लडकों के बनिस्पत सीमित है। विषय या कैरियर चुनने में यह फर्क बहुत बार असरकारक होता है। हालांकि शिक्षा को ही तरह, कैरियर भी इस बात का परिचायक नहीं है कि व्यक्ति अपने व्यवहार में ‘वैज्ञानिक सोच’ रखता है या नहीं। यहाँ तक कि विज्ञान से जुडे़ कैरियर वाले बहुत से लोग भी अंधविश्वास के पोषक होते हैं।
इस सम्बन्ध में पहला सवाल तो यहीं उठता है कि क्या बला है ये ‘वैज्ञानिक सोच’? सामान्य भाषा में कहें तो यह एक ऐसा विचार है जो तर्क की कसौटी पर खरा उतरे, और जो किसी व्यक्तिगत अनुभव से परे सामूहिक प्रयोग द्वारा सिद्घ हो सके। यह किसी भी घटना के कारण को जानने की सहज प्रवृत्ति है, जो हमें अन्वेषण के लिये प्रेरित करती है और विवेकपूर्ण फैसला लेने मे सहायक होती है।
दरअसल यह विज्ञान के विकास की मूलभूत अवधारणा ‘वैज्ञानिक विधि’ से उपजा विचार है। यह शुरू होता है जिज्ञासा- मतलब जानने की इच्छा से। यह इच्छा ‘सवाल’ पैदा करती है। ‘क्यों’ और ‘कैसे’ जब तक नहीं पूछे जायेंगे, तब तक ‘विज्ञान’ नहीं शुरू होगा। कभी-कभी इसी बिन्दु पर परम्परागत ‘विश्वास’ से टकराव हो जाता है और विज्ञान-सम्मत ‘सोच’ विकसित होने से पहले ही दम तोड़ देती है। जिज्ञासा के साथ जुड़ा है अवलोकन- अर्थात देखना। बहुत बार हम देखते ही नहीं कि आसपास क्या हो रहा है या देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। ऐसे में सवाल उठाने की नौबत तो आती ही नहीं।
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‘वैज्ञानिक विधि’ में जिज्ञासा और अवलोकन के बाद होता है प्रयोग। जैसे भभूत लगाने से बुखार आता है या नहीं- यह एक प्रयोग हो सकता है। विषाणु-जनित मौसमी बुखार में हो सकता कि भभूत असरकारक प्रतीत हो (यह बुखार बहुत बार अपने आप ठीक हो ज्ञाता है), लेकिन बैक्टीरिया-जनित किसी बड़ी बीमारी में केवल भभूत देना घातक भी हो सकता है। ऐसा निष्कर्ष प्रयोग की व्यापकता और विवेचना पर निर्भर करता है। इसी विधि को अपनाकर विभिन्न प्रतिस्थापनाएँ बनती हैं जिनके अनुरूप पूर्वानुमान लगाये जाते हैं। पूर्वानुमान के अनेक प्रयोगों द्वारा सही सिद्ध होने पर ही यह एक वैज्ञानिक सिद्धांत कहलाता है। कोई भी प्रतिस्थापना आज कितनी भी सही लगे, वह तब तक ही मान्य होगी जब तक तर्क और प्रयोग की कसौटी पर खरी उतरे। उदाहरण के लिये पहले माना जाता था कि पृथ्वी ही समस्त ब्रह्माण्ड का केन्द्र है और सूरज इसकी परिक्रमा करता है, लेकिन बाद के प्रयोगों द्वारा यह प्रतिस्थापना गलत साबित हुयी। अब स्थापित सिद्धांत यह है कि पृथ्वी सूरज की परिक्रमा करती है।
दूसरे शब्दों में कहा जाय तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिये यह जरूरी है कि बिना प्रमाण के ‘विश्वास’ न किया जाय। अगर प्रमाण नहीं है तो संदेह किया जाय लेकिन दैनिक जीवन में हम अनेक बार बिना प्रमाण के ही विश्वास कर लेते हैं। खासकर विभिन्न तथाकथित बाबाओं का समाज में बढ़ता प्रभाव इसी प्रवृत्ति का परिचायक है। महिलाओं में इस तरह के विश्वास की ऐसे ‘तथाकथित’ महानुभावों द्वारा अनुचित लाभ उठाने की ‘खबरें’ भी इसी का एक परिणाम है।
वैसे ‘वैज्ञानिक सोच’ के अभाव का पुरुषों तथा स्त्रियों में वर्गीकरण करना ठीक नहीं है, लेकिन विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी पर कुछ शोध हुये हैं। जिनसे मस्तिष्क विज्ञान के क्षेत्र के कुछ अध्ययनों को आधार बनाया गया है।
सामान्यतया स्त्री की दिमागी संरचना पुरुष से भिन्न पायी गयी है। एक अध्ययन के अनुसार पुरुष मस्तिष्क का वजन महिला मस्तिष्क से लगभग (40 ग्राम अधिक या लगभग 10 प्रतिशत अधिक) पाया गया है। एक अन्य अध्ययन के अनुसार दोनों के मस्तिष्क के तारों तथा बायें हिस्सों में और इनके बीच के अन्तर्सम्बन्ध में भी अंतर होता है। आनुवंशिक रूप से भी दोनों के गुणसूत्र में अंतर होता है। लगभग प्रत्येक नर मस्तिष्क सेल (कोशिका) में एक ‘वाइ’ ८ गुणसूत्र होता है जबकि महिला दिमाग मे साधारणतया कोई भी ‘वाइ’ गुणसूत्र नहीं होता। ऐसे ही कुछ कारणों को आधार बनाकर पुरुष और महिला व्यवहार को परिभाषित करने की कोशिश की जाती है। जैसे ‘नर मस्तिष्क’ शक्तिशाली भूमिका के लिये अधिक उपयुक्त है और ‘महिला मस्तिष्क’ देखभाल करने के लिये बना है। और जैसे पुरुषों की तकनीकी दक्षता महिलाओं से बेहतर होती है। उदाहरण के लिये ‘गूगल’ कम्पनी के एक ‘साफ्टवेयर इंजीनियर’ जेम्स ने ‘Ideological Echo Chamber’ नामक एक दस्तावेज (इंटरनेट में उपलब्ध) में यह कहा कि महिलायें ‘टैक-उद्योग’ की कठिनाइयों का सामना करने के लिये जैविक रूप से सक्षम नहीं हैं।
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इस तरह के अनुमान तर्कसंगत नहीं हैं। वास्तव में वैज्ञानिक शोध से यह समझने में मदद मिलती है कि मानव प्रजाति के नर एवं मादा किस तरह परस्पर सहयोग तथा संवाद से विकसित हुये हैं और जैविक रूप से किस तरह एक दूसरे के पूरक हैं। इससे दोनों की बौद्धिक या तकनीकी क्षमता का आकलन नहीं लगाया जा सकता है। शायद इसी कारण ‘गूगल’ ने जेम्स को उसके अतार्किक अनुमान के लिये नौकरी से निकाल दिया! लेकिन वर्तमान भारतीय परिवेश में जेम्स जैसी विचारधारा वाले अनेक लोग हैं। बहुत बार तो महिलाएँ किसी तकनीकी या अधिक प्रयोगशाली कार्य के लिये स्वयं को ही काबिल नहीं समझती हैं। एक महिला द्वारा दूसरी की क्षमता पर संदेह इसी मानसिकता का परिचायक है। रोड पर गाड़ी चला रही अनजान महिला के ‘ड्राइविंग स्किल’ पर संदेह इसका एक सामान्य उदाहरण है। कई पंचायतों में महिला प्रधान का कार्य पति द्वारा किया जाना भी इसी का एक दूसरा पहलू है। इस तरह की अनेक परिस्थितियों में ऐसी मानसिकता ही समाज की मुख्यधारा होती है। विभिन्न अंधविश्तास और पूर्वाग्रहों के लिये भी यहीं बात एक हद तक सच है।
ऐसे में ‘वैज्ञानिक सोच’ विकसित होना आसान नहीं है। प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना आम बात है। कभी-कभी तो इस गुस्ताखी के लिये दंड तक मिलने को संभावना रहती है और यह बचपन में घर से ही शुरू हो जाता है। बहुत छोटे बच्चों के पास सवालों का भंडार होता है लेकिन घर के बडे़ उनके प्रत्येक सवाले को सुनें, ये जरूरी नहीं। हाल ही में ‘दिल्ली मेट्रो’ में सफर के दौरान मुझे ऐसा ही वाकया देखने को मिला।
लगभग 5 या 6 साल का बच्चा बार-बार मेट्रो में लगे एक विज्ञापन में छपे ‘T&C’ को पढ़ते हुये उसका मतलब अपनी माँ से पूछ रहा था। शुरू में तो माँ ने अनसुना कर दिया, फिर बच्चे को हल्का-सा झिड़क दिया कि चुप रहे, लेकिन जब बच्चे ने ज्यादा जिद की तो जोर से डपटते हुये उसे थप्पड़ मारने की धमकी दी गयी। देखने में यह भले ही छोटी बात लगे लेकिन इसी तरह का व्यवहार धीरे-धीरे हमारे अंदर मौजूद जन्मजात जिज्ञासा को दिल के किसी कोने में दफन कर देता है। व्यापक सामाजिक संदर्भ की बात करें तो धर्म, जाति, व्यवस्था, आदि से सम्बन्धित सवाल करना बहुत बार खतरे से खाली नहीं होता। यह भी शायद हमारे चारों तरफ व्याप्त ‘अवैज्ञानिकता’ का ही एक तकाजा है।
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हमारे संविधान निर्माताओं को यह भान रहा होगा। इसीलिये संविधान के अनुच्छेद 51 ए के अंतर्गत ”वैज्ञानिक दृष्टिकोण” का विकास करना एक मौलिक कर्तव्य है। लेकिन कितने लोग इस कर्तव्य के बारे में जानते हैं- यह सोचनीय है।
कर्तव्य के साथ यह आवश्यकता की बात भी है। आज विकास की गाड़ी के दौड़ने के साथ-साथ चुनौतियाँ और संकट भी बढ़ रहे हैं। मसलन आज की बुजुर्ग पीढ़ी जब स्कूल में पढ़ रही थी तब किसी भी विषय में स्नातकोत्तर शिक्षा का मतलब रोजगार की गारंटी था। आज बहुत से विषयों में ऐसा नहीं है। यहाँ तक कि तकनीकी शिक्षा (जिसको प्राप्त करना ही कठिन था और जो आज अधिक पैसे खर्च करने पर लगभग सर्वसुलभ ही है) के बाद भी आजकल अधिकांश युवाओं के लिये रोजगार पाना आसान नहीं है। इसके साथ ही यह बात भी है कि बहुत अच्छी नौकरी का मतलब विदेशी मूल की मल्टीनेशनल कंपनी में काम पाना है। यह ‘काम’ अधिकांशतया विकसित देशों की आवश्यकता के लिये किया जाता है- हमारे देश के लिये नहीं। एक प्रकार से देखा जाय तो कुछ बेहतर अवसर प्राप्त युवा विदेशों के भले की सोच रहे हैं और अनेक नौजवान पढ़-लिखकर भी ‘अयोग्य’ ही हैं।
इसी कारण हमारे आसपास की आवश्यकताओं के लिये ठोस विचारों की अत्यंत कमी है। सबसे चिंताजनक बात तो यह है कि कोई विमर्श ही नहीं है इस बारे में। अपने अधिकारों के लिये तो बहुत से लोग सड़क पर हंगामा करने को तैयार हो जाते हैं लेकिन ‘वैज्ञानिक ‘दृष्टिकोण’ के कर्तव्य की बात लगभग गैरजरूरी-सी हो गयी है। जब सोच ही नहीं है तो फिर सही योजना, कार्यान्वयन आदि तो बहुत दूर को कौड़ी हुई। लेकिन हमारी आवश्यकताओं के लिये हम खुद नहीं सोचेंगे तो अमेरिका और यूरोप वाले तो सोचने से रहे।
बहुत से छोटे कस्बे अब बडे़ शहर बनते जा रहे हैं- ऐसे शहर जिसमें पानी की समस्या है और जहाँ हवा जहरीली होती जा रही है। साथ ही ट्रैफिक, नाली, सीवर, कूड़ा निस्तारण आदि की चुनौतियाँ पहले की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़ गयी हैं। केवल सरकार ही इस बारे में कुछ करेगी- यह मानसिकता बहुत घातक है! स्कूल, कालेज आदि से इस पर क्यों कोई विचार नहीं पनपता। विकसित देशों में रोजमर्रा की जरूरतों से सम्बधित बहुत से आविष्कारों के मूल विचार ऐसे ही स्कूल-कालेज के छात्र सोचते हैं। आवश्यकता और आविष्कार की अगली कड़ी रोजगार सृजन होती है, और इस तरह शुरू हुयी बहुत-सी कंपनियाँ अब दुनियाभर में अपना सिक्का जमा रहीं हैं। क्या ऐसी सोच वाली संस्कृति हमारे यहाँ नहीं उग सकती? आखिर क्या कमी है हमारी वैचारिक मिट्टी में।
(Scientific Thinking)
कहीं घर में माँ ही तो विमुख नहीं कर दे रही ऐसी सोच से! बच्चों को लकीर के फकीर बनाने में ही तो नहीं जुटी है वह? और बच्चे खुद क्या सोचते हैं इस बारे में? इन सवालों के जवाब आसान नहीं है।
अक्टूबर माह में पिथौरागढ़ में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान मुझे स्कूल व कलेज के विद्यार्थियों से इस बारे में संवाद करने का अवसर मिला। मुझे याद आया कि कैसे पिथौरागढ़ में पढ़ते हुए मुझे चेरापूँजी का नाम भारत में सबसे अधिक बारिश वाले स्थान के रूप में रटा हुआ था, लेकिन पिथौरागढ़ में कितनी बारिश होती है- इसके बारे मे कोई ज्ञान न था। आज भी कमोबेश यहीं स्थिति है। किसी भी विद्यार्थी ने नहीं सोचा कि बारिश को भी नापा जा सकता है।
स्कूल के कुछ विद्यार्थियों ने जिज्ञासावश अपने घर के पास की मिट्टी की जाँच करायी लेकिन अब जाँच के बाद क्या और कुछ किया जा सकता है- इस बारे में वे नहीं सोच पा रहे थे। वैसे यह उचित ‘गाइडेन्स’ के अभाव का भी सवाल है, लेकिन ‘सोच’ का भी अकाल है। कालेज के एक विद्यार्थी का कहना था कि हमें ‘कोर्स’ की पढ़ाई से ही फुर्सत नहीं मिल पाती तो ऐसी ‘अन्य’ बातें कहाँ से सोचें। यह अलग बात है कि ‘व्हाटसप’ और ‘फेसबुक’ के लिये उनमें से अधिकांश के पास पर्याप्त वक्त होता है। एक और गौरतलब बात यह थी कि ‘सवाल पूछने की आदत’ लड़कियों में क्या विकसित हो पाती है?। मुझे नहीं पता कि ये कितना सच है – लेकिन आप अपने घर में देखिये कि ऐसा हो रहा है या नहीं।
सब कुछ निराशाजनक है- ऐसा भी नहीं है। व्यक्तिगत रूप से बहुत-सी कोशिशें हो रही हैं। कुछ संस्थाएँ भी जुटीं हैं ‘वैज्ञानिक चेतना’ जगाने और सही ‘शिक्षा’ देने को कोशिशों में। महिलाओं की बात की जाय तो- खासकर गाँव-कस्बे से निकलकर बडे शहर में पढ़ रहीं लड़कियों में एक जबर्दस्त आत्मविश्वास आया है। विभिन्न परंपरागत क्षेत्रों में लड़कियाँ लडकों से होड़ ले रहीं हैं। लेकिन ‘वैज्ञानिक सोच’ के मामले में मंजिल अभी दूर है। वैसे तो यह स्त्री-पुरुष दोनों के लिये समान रूप से आवश्यक है, लेकिन अंधविश्वास, पूर्वाग्रह, आदि से मुक्ति महिलाओं के लिये कतिपय अधिक बड़ी चुनौती है। कितने रीति-रिवाज, व्रत-उपवास आदि सार्थक हैं और कितने थोपे गये हैं- ये उन्हें खुद ही तय करना है। और फिर पुरुषों के साथ मिलकर आसपास की समस्याओं पर कुछ चिंतन हो जिसमें घर के बच्चों की भी सक्रिय भागीदारी हो तो बात बने। शायद ‘सोच’ खुले तो कुछ ‘विज्ञान’ जिंदगी में भी ढले।
(Scientific Thinking)
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