एक किसानिन की संघर्ष गाथा- किताब
उमा भट्ट
नारीवादी आन्दोलनों से जुड़ी लेखिका दीप्तिप्रिया मेहरोत्रा की अपने शोध कार्य के दौरान की गई खोजों के परिणामस्वरूप किसानिन जग्गी देवी की संघर्ष गाथा एक पुस्तक के रूप में हमारे सामने है। जग्गी देवी उन अनेक व्यक्तियों में से है जो एक धुन में सवार हो जीवन भर संघर्ष करते रहे पर इतिहास के पन्नों में जिन्हें जगह न मिल सकी। लेखिका का शोध विषय था- उत्तर प्रदेश के किसान आन्दोलन में महिलाओं की भूमिका (1917-1947)। इसी शोध के दौरान उन्हें जग्गी देवी के विषय में ज्ञात हुआ और 1988-89 में वे प्रतापगढ़ जिले की पट्टी तहसील में तीन बार जग्गी देवी से उनके गांव दाउदपुर कुण्डा जाकर मिलीं। 96 पृष्ठ की इस पुस्तक में लेखिका ने कई स्रोतों से सामग्री जुटाकर जग्गी देवी का पूरा जीवनवृत्त देने तथा इतिहास में उनकी जगह तलाशने का प्रयास किया है।
प्रतापगढ़ जिले के पारा गांव में माँ धिराजी तथा पिता काशी कुर्मी के घर 1917 में जग्गी का जन्म हुआ। काशी व धिराजी जमींदार के खेतों में मजदूरी करके जीवनयापन करते थे। दोनों किसान कार्यकर्ता थे। उन्होंने जीवन भर किसानों के हित में संघर्ष किया। जग्गी ने अपने बचपन में यही देखा था। दो-ढाई वर्ष की उम्र से वह मां-बाप के साथ किसान आन्दोलन में गांव-गांव घूमती थीं। लेकिन बीमारी के कारण काशी की अचानक मृत्यु हो गई। धिराजी को पारा गांव से बेदखल कर दिया गया और वह अपने ससुराल के गांव में आकर रहने लगीं पर उसने किसान आन्दोलन नहीं छोड़ा। जग्गी ने अपनी मां को एक हिम्मती और मजबूत औरत के रूप में देखा। वे गांव-गांव घूमती थीं। उन दिनों महिलाओं ने किसान सभा की तर्ज पर किसानिन सभा बनाई थी।
लगभग 12 वर्ष की उम्र में जग्गी का विवाह किसान नेता बाबा रामचन्द्र से हुआ, जो जाति से ब्राह्मण थे तथा उम्र में जग्गी से काफी बड़े थे। लेकिन दोनों ने एक-दूसरे को स्वीकार किया और पूरी तरह देश सेवा में लग गये। बारह साल की उम्र से जग्गी पति के साथ सामाजिक-राजनीतिक कार्यों में भाग लेती रहीं। जग्गी की पहली सन्तान पुत्र गोविन्दनारायण की सात साल की उम्र में मृत्यु हो गई। दो बेटियां ललिता और विजया हुईं। परिस्थितिवश जग्गी चाहते हुए भी बेटियों को पढ़ा न सकी। जग्गी की माँ धिराजी जग्गी के साथ ही रहती थीं। घर और बच्चों की जिम्मेदारी माँ ने संभाल ली। इस कारण जग्गी आन्दोलनों में पति के साथ और पति की मौत के बाद भी भागीदारी करती रहीं। किसानिनों को जोड़ने के लिए वे निरन्तर गांव-गांव घूमती रहीं। भूमिहीन महिलाओं के शोषण के खिलाफ वे बोलती रहीं। जमीदारों द्वारा औरतों के यौनशोषण के खिलाफ भी आवाज उठाई। उन दिनों समाज में यह रिवाज था कि लड़कियों की कई बार शादी कर दी जाती थी। जग्गी ने इसके खिलाफ पर्चा निकाला। लड़कियों की शिक्षा पर भी उन्होंने जोर दिया। उन्होंने सब जाति की महिलाओं से एक होने का भी आह्वान किया। 1948 में उनके दूसरे पुत्र ने जन्म लिया जिसका नाम स्वतंत्र भारत रखा गया। 1950 में बाबा रामचन्द्र का देहान्त हो गया। तब भी जग्गी ने हिम्मत न हारी। दोनों बेटियों का उसने विवाह कर दिया। स्वतंत्र भारत पढ़ाई के बाद रोजगार के लिए इन्दौर जाकर बस गया। जग्गी की देखभाल के लिए बाद में बड़ी बेटी ललिता उनके पास आकर रहने लगी।
(Struggle Story of Jaggi Devi)
पत्नी और मां का कर्तव्य निभाते हुए भी जग्गी कभी एक आन्दोलनकारी होने से पीछे नहीं हटीं। उन्हें महात्मा गांधी का यह हुक्म अच्छा नहीं लगा कि गर्भवती तथा बच्चों वाली महिलाएं सत्याग्रह में भाग न लें। उनके पति कई बार जेल गये पर उन्हें बाहर रहना पड़ा। 1942 में जग्गी और सुन्दरा देवी के खिलाफ वारंट था तो वे फरार भी रहीं। आजादी के बाद भी आजादी के लिए संघर्ष करने वाले आपस में मिलते रहे। जग्गी ने साथियों से सम्पर्क बनाये रखा। वे किसी पार्टी की सदस्य नहीं बनी लेकिन आम जनता की समस्याओं को लेकर आवाज उठाती रहीं और नेताओं, अधिकारियों से मिलती रहीं। अनेक मुद्दों पर स्वयं भी बैठकों का आयोजन किया करती थीं। लोग भी उन पर विश्वास करते थे। कांग्रेस पार्टी से भी धीरे-धीरे उनका मन उखड़ गया था। प्रतापगढ़ में हर कोई उन्हें जानता था और सबके बीच वे जग्गी नेता या जग्गी माता के रूप में प्रसिद्घ थीं। एक बार वे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से भी मिलीं पर दूसरी बार दिल्ली जाने पर भी नहीं मिल सकीं। इस प्रकार आजादी के बाद भी वे एक आन्दोलनकारी के रूप में सक्रिय रहीं तथा अपनी पहचान के प्रति सजग रहीं। उन्होंने अपने दौर के बड़े-बड़े राष्ट्रीय नेताओं को निकट से देखा था। जब जवाहरलाल नेहरू प्रतापगढ़ आये तो उस घटना के बारे में जग्गी देवी ने लेखिका को इस प्रकार बताया – यहीं तो जवाहरलाल ने आन्दोलन करना सीखा। यहां पहली बार घाम-पसीना बर्दाश्त किया।
(Struggle Story of Jaggi Devi)
लेखिका तीन बार जग्गी के गांव गई। जग्गी ने लेखिका को अपने पुराने साथियों तथा उनके परिवारों से मिलाया। सुन्दरा देवी, उत्तरा देवी, अभिलाखी देवी, सीताराम कुर्मी, महंतलाल आदि से लेखिका मिलीं, जो वर्तमान में अत्यन्त गरीबी में जी रहे थे परन्तु जिन्होंने लड़ाई लड़ी थी। वे लेखिका से बहुत-कुछ कहना चाहती थीं- आजादी के आन्दोलन के बारे में, किसानों के संघर्ष के बारे में, जमींदारों के उत्पीड़न के बारे में। लेखिका से बातें करके उन्हें तसल्ली हुई कि वे अपनी बातें पहुंचा सकीं। वे कलम के महत्व को जानती थीं। उनके पति बाबा रामचन्द्र आन्दोलन के विषय में लगातार लिखते थे। वे कहती थीं, बाबा कलम से लड़ाई लड़े। जग्गी देवी का चित्र खींचते हुए लेखिका लिखती हैं, ‘जग्गी का कद छोटा, बदन इकहरा और रंग गहरा था और दो चमकती हुई, नाचती हुई आंखें। उनकी पैनी सोच थी, सटीक बातें करती थीं, खूब सोचने-समझनेवाली औरत थीं। उनका साथ था जैसे तूफान का साथ या समुद्र का उफान।’ लेखिका दीप्तिप्रिया ने जग्गी की कहानी को एक संघर्षशील दलित महिला की जीवन गाथा कहा है। लेखिका मानती हैं कि एक दलित महिला का किसानिन के रूप में आजादी के लिए किया गया संघर्ष हमारे इतिहास का हिस्सा है। वे लिखती हैं- ‘जग्गी से मिलने का मतलब था इतिहास से, जीते जागते इतिहास से मिलना। उनकी स्मृतियां ताजी थीं। जग्गी तथा उनके संगी-साथियों की निराशा यह है कि जिस आजादी के लिए वे लड़े थे, वह उन्हें मिल न पाई। उस आजादी का फल उन्हें नहीं मिला। वे आज भी विपन्न स्थितियों में रह रहे हैं। उनके पास फटे-पुराने, धूल-धूसरित प्रमाण पत्र सहेज कर रखे हुए हैं, जो उनके स्वतंत्रता सेनानी होने की सनद हैं। रोजी-रोटी का कठिन संघर्ष उनके सामने है।’
जग्गी ने जो संघर्ष किया था, उसी के फलस्वरूप उनका दृष्टिकोण व्यापक हुआ था। गांव-गांव घूमना, बैठकों में भाग लेना, लोगों से मिलना, उनके दुख-दर्द को समझना, लोगों के घरों में रहना, इसी से उनके सोच में व्यापकता आई। वे निरन्तर आन्दोलन और संगठन के बीच रहीं। पर इतिहास में उनका नाम कहां दर्ज है? स्थानीय आन्दोलन के दस्तावेज जग्गी ने लम्बे समय तक संभाल कर रखे थे, पर बाद में वे राष्ट्रीय अभिलेखाकार दिल्ली भेज दिये गये। लेकिन इतिहास बनकर पुस्तक के रूप में वापस नहीं आये। लेखिका मानती हैं कि इस तरह के दस्तावेज स्थानीय स्तर पर भी उपलब्ध होने चाहिए। दीप्ति प्रिया लिखती हैं- ‘भारतीय इतिहास में शामिल जग्गी देवी जैसे इन्सानों का इतिहास समझना जरूरी है और उन आन्दोलनों का इतिहास भी। यह इतिहास स्थानीय इलाकों के लोगों की धरोहर है।’
किसानिन जग्गी देवी : स्वतंत्रता की राह पर, दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा, फरवरी 2013, पृष्ठ सं. 96, सहयोग राशि- 100 रु़ प्रकाशक – सम्पूर्णा ट्रस्ट, बी-26, स्वामी नगर, नई दिल्ली।
(Struggle Story of Jaggi Devi)
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