लाशों को बोकर उत्तराखंड के फूल उगाओ

विक्टर बनर्जी

मसूरी हत्याकांड का यह विवरण 4  सितम्बर 1994 के टाइम्स ऑफ़ इंडिया (दिल्ली) में छपा था. यहाँ उसका अनुवाद प्रस्तुत है. लेखक विक्टर बनर्जी प्रख्यात अभिनेता हैं.

मीलों दूर से पैदल दूध और सब्जी लाकर बेचने और गरीबी में निर्वाह करने वाले कास्तकारों की सेवाओं पर निर्भर, सीधे-साधे लोगों की बसासत वाला पहाड़ी सहर मसूरी शुक्रवार (2 सितम्बर 1994 ) को सतब्ध रह गया.

सिर्फ एक कमरे के लिए ! पहाड़ी पर बना एक छोटा सा कमरा, जिसमें उत्तराखंड राज्य संघर्ष समिट वाले रह रहे थे. इस विशाल उप महाद्वीप के मैदानी क्षेत्र के निवासियों को यह समझा पाना मुश्किल  होगा  की यह सेवानिवृत कर्मचारियों, घरेलू महिलाओं और छात्रों का समूह था. महिलाएं, जो यह समझती हैं की चाय के कप के साथ सहानुभूति भी बाँटी जा जा सकती है, दिन प्रतिदिन भविष्यहीन होते जाते वे छात्र, जुनके लिए बॉलीवुड का मायावी संसार ही रामराज्य है, जहाँ कलफदार वर्दी वाली पुलिस हवाई फायर करती, अश्रु गैस या पानी के गुब्बारे फेंकती, विदूषकों जैसा बर्ताव करती है. क्या मजा है! औरसरयू को लाल कर देने वाली तथा अल्प संख्यकों पर बाज की सी तत्परता से झपटने वाली उत्तर प्रदेश की पुलिस की असलियत से बहुत दूर थे.

भाड़ में जाये संयागे! कैसी विडम्बना है? किसका साहस है कि हमारे नेताओं की जोड़-तोड़ के पीछे असली मकसद ढूंढ सके। 30 अगस्त की रात मसूरी के थानेदार को एकाएक बगैर पूर्व सूचना के स्थानान्तरित कर दिया गया तथा बदले में एक ऐसे व्यक्ति को लाया गया, जो स्थानीय जनता के बारे में बिल्कुल नहीं जानता था। उसी रात एसडीएम जसोला, जो एक सम्मानित एवं ईमानदार गढ़वाली हैं, से कहा गया  िकवे अपने आप को मामले से अगल रखें। देहरादून से आये एक एसडीएम ने कमान सम्भाल ली।

अगली सुबह हफ्तों की अनवरत वर्षा के सूरज ने बादलों के बीच से झांका तो पहाड़ी जनता के सीले मनोबल में भी उत्साह और उल्लास भर गया। तभी पुलिस उस छोटे से कमरे में घुस आई और वहां बैठे मुट्ठीभर अनशनकारियों को बाहर धकेलकर वहां कब्जा कर लिया।

लोग घबराकर इधर-उधर बिखर गये। कोई सम्मोहक राजनेता उनके बीच नहीं था। चाय की दुकानों और पहाड़ियों में बैठे वे सोचने लगे कि अब क्या करें? बहुत छोटा-सा उत्तराखण्ड उनके पास था और वह भी उनसे छीन लिया गया था। उन अबोध बच्चों की तरह, जिन्हें उनके घर और सुरक्षा से वंचित कर दिया गया हो, टूटे दिलों के साथ वे अपनी चीज वापिस मांगने चले।

2 सितम्बर की सुबह ग्यारह बजे, जब पांच गाड़ियों भरकर छात्र पौड़ी में हो रहे रैली में भाग लेने चले गए, उनके परिवारों ने तय किया कि जुलूस के रूप में जाकर पुलिस से निवेदन करें कि उनका कमरा उन्हें वापस दे दिया जाये। औरत, लड़कियां, बच्चे, सेवा-निवृत्त अभिभावक तथा अन्य, जिन्होंने अपनी जिन्दगी में घास काटने वाली दरांती के अतिरिक्त कोई हथियार नहीं देखा था (मगर जिनके लोग देश के लिये वीर चक्र और परमवीर चक्र जीतने का हौसला रखते थे), हिम्मत के साथ आगे बढ़े।
(Mussoorie massacre)

कमरे के एकमात्र दरवाजे के आगे जुलूस रुका। अगुवाई कर रहे 70 वर्षीय वृद्धों ने भीड़ से कहा कि जबरन भीतर न घुसें। अन्ततः एक गृहिणी और एक अध्यापिका को पुलिस से बातचीत करने के लिय अन्दर भेजा गया। दुर्भाग्यवश, अपनी बात सुनाने के उत्साह में उनके पीछे पांच-छः छात्र भी उस संकरे दरवाजे से घुस गये।

बन्दूकें गरज उठीं। एक औरत की खोपड़ी फट गई और वह ठंडे फर्श में मुर्दा गिर गई।उसके तीन छोटे बच्चे उस पल पास ही ‘झूलाघर’ में झूलों का आनन्द ले रहे थे। दूसरी गृहिणी की आंख में गोली मारी गई और उसे वापस भीड़ के बीच फेंक दिया गया। उस छोटे से कमरे में भगदड़ मच गई। भय और आतंक में चलाई गई गोलियों में से एक पुलिस अफसर को भल लगी।

फिर पुलिस चली गई। सदमे (काश! निर्दोष दिल व दिमागों के साथ की गई बर्बर हिंसा के लिये कोई बेहतर शब्द होता) में डूबे कस्बाई लोग खून की धाराओं में पड़े मृतकों को लेकर बिलखने लगे। घायलों को अस्पताल पहुंचा दिया गया। उनकी हताशा अद्भुत ढंग से प्रकट हुई- उन्होंने पुलिस के सिपाहियों द्वारा छोड़े गये हथियारों का ढेर बनाया और उसमें आग लगा दी।

जो रह गये, वे भौचक्के थे। उनके शांत पहाड़ी समाज में ऐसी घटनाएं कभी नहीं घटी थीं। वे समझ नहीं पा रहे थे कि गलती कहां हुई।

दस मिनट बाद पुलिस कमरे पर दोबारा कब्जा करने लौटी। बारह खड़े लोगों पर अन्धाधुन्ध गोलियां बरसाई गईं। इस सबका आतंक मानवीय समझ से परे था। क्या राजनीतिज्ञों के अपने परिवार नहीं होते?

मगर बहशियत और हृदयहीन शत्रुता से प्यार से भरपूर पहाड़ी लोगों का दिल तो नहीं बदल सकता! चंद घंटों के भीतर रक्तदान करने तथा अपने मित्रों को सांत्वना देने के लिये लोग अस्पतालों में एकत्र हो गये। विवेकहीन नारेबाजी की एक भी आवाज नहीं उठी!

मुहब्बत के बाग में लाशें रोप दी जायेंगी और तब वे एक ऐसे उत्तराखण्ड के रूप में खिलेंगी, जो इससे चाहने वालों को अपनेपन का एहसास दे सकें। लेकिन हम राजनीतिक दलों को दूर ही रखें। कहीं वे अपने गन्दे नाखूनों से लाशों को खोदकर घृणा न फैलायें- इस भावना का हमारे हिमालयी अंचल में कोई स्थान नहीं है।
(Mussoorie massacre)

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