उत्तरा कहना है : उत्तरा अप्रैल-जून 2017

इस वर्ष मार्च से ही शराबबन्दी के लिए पूरे उत्तराखण्ड में जिस तरह आन्दोलन हो रहे हैं, उसके पीछे मुख्यत: देश की सर्वोच्च अदालत का वह निर्णय रहा जिसके अनुसार राष्ट्रीय राजमार्गों से 500 मीटर की दूरी तक शराब की दुकानें न खोलने का आदेश जारी हुआ। इस फैसले के पीछे जो जनहित याचिका थी, उसमें कहा गया था कि शराब पीकर गाड़ी चलाने से हर साल तकरीबन डेढ़ लाख व्यक्ति मौत के शिकार हो रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने इस तथ्य को सही माना कि इसका दंश गाड़ी में सवार और दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति ही नहीं, बल्कि उनका परिवार भी सहता है। लिहाजा न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया कि इन हादसों को रोकने के लिए वह हाइवे से कम से कम 500 मीटर के भीतर की शराब की दुकानें बन्द करने के साथ-साथ वहाँ लगे शराब की दुकानों की ओर इशारा करने वाले साइनबोर्ड भी हटवाने का काम करे। इस फैसले पर पुनर्विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 20000 या उससे कम आबादी वाले वाले क्षेत्रों में यह दूरी 220 मीटर कर दी लेकिन फैसले को बदलने से इनकार कर दिया। यह फैसला पूरे देश के लिए है। अनुमान है कि इससे 50 हजार करोड़ की राजस्व-हानि होगी।

उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने एक और फैसला 8 दिसम्बर 2016 को दिया। तीर्थयात्रा से जुड़े हुए तीन जिलों- उत्तरकाशी, चमोली और रुद्रप्रयाग जो चारधाम यात्रा के केन्द्र हैं- में पूर्ण शराबबन्दी लागू कर दी। परन्तु आबकारी विभाग के अपील करने पर उच्चतम न्यायालय ने इस फैसले पर रोक लगा दी और राज्य सरकार ने राहत की सांस ली।

देखा जाय तो सरकार और जनता आमने सामने हैं। सरकार को राजस्व की चिन्ता है तो जनता को अपने जान-माल की, स्वास्थ्य और सुरक्षा की। सरकार ने आनन-फानन में लोक निर्माण विभाग के जरिये रास्ता निकाला कि राजमार्गों को जिलामार्ग घोषित कर दिया जाये। कैबिनेट की बैठक बुलाकर निर्णय ले लिया गया। 64 राजमार्गों को जिला मार्ग घोषित करने से 155 दुकानें स्थानान्तरित होने से बच गईं। बाकी दुकानें जो राजमार्गों पर थीं, वहां से हटकर बस्तियों के बीच स्थानान्तरित करने के प्रयास हुए। यही जनता के आक्रोश का मुख्य कारण बना। राजमार्गों पर बड़े-बड़े होटल हैं जिनमें बार भी हैं। उन्हें भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले से परेशानी हुई। उत्तराखण्ड में इस समय शराब की 536 दुकानें हैं और कुल राजस्व का 19 फीसदी शराब से मिलता है। शराब के कारोबार में निरन्तर बढ़ोत्तरी होती जाती है और उसी अनुपात में राजस्व में भी। राजस्व में कमी की बात किसी भी कीमत पर सरकार के गले नहीं उतरती, चाहे वह कांग्रेस की हो, भाजपा की, सपा या बसपा की। शराब के मुद्दे पर सभी पार्टियां एकजुट हैं। यहां तक कि उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के नेता भी शराब के खिलाफ बयान देने या एक स्पष्ट नीति रखने से कतराते रहे। शराब की बिक्री के प्रति सरकारों की तत्परता ने दैनिक लाइसेन्स जैसी नई धारणा पैदा कर दी। क्योंकि महीने भर का ठेका लेने से बिक्री में रुकावट होने पर ठेकेदारों को नुकसान हो रहा था। आबकारी आयुक्त का बयान आ गया कि शराब के ठेकों को चलाने के लिए सरकार अन्य विकल्पों पर विचार कर रही है। कार में बार चलाये जा रहे हैं।

जनता जानना चाहती है कि बात-बात पर देवभूमि-देवभूमि की रट लगाने वाली सरकार शराब पर पाबन्दी क्यों नहीं लगाती। तीर्थयात्रा, धार्मिक पर्यटन, चार धाम यात्रा, तमाम तरह के इनके जुमले हैं पर शराब पर पाबन्दी की बात उठते ही इनकी सांस अटकने लगती है। मुजफ्फरनगर काण्ड की पैरवी करने के लिए जनता द्वारा बनाये गये दबाव के बावजूद हीले-हवाले होते रहे लेकिन शराब के मामले में तत्काल निर्णय, तत्काल पैरवी, सब कुछ हो जाता है। सरकार के आगे राजस्व सबसे बड़ा है। जनता को बरगलाने के लिए सरकार कहती है कि यह राजस्व विकास के लिए है। क्या हमें अब साफ-साफ कहना होगा कि हमें यह विकास नहीं चाहिए। हमें उत्तराखण्ड के दुर्गम इलाकों में ये चौड़ी-चौड़ी सड़कें नहीं चाहिए। हमें हर मौसम में बद्री-केदार की यात्रा नहीं चाहिए। जब बड़े बांधों का विरोध हुआ तब भी बांध विरोधियों को विकास विरोधी कहा गया। अब शराब का विरोध करने पर भी विकास का विरोधी कहा जाय तो यह अजूबा नहीं। 2013 की आपदा ने साफ तौर पर समझा दिया है कि यह विकास हमारे लिए विनाश लेकर आया है। यह विकास उत्तराखण्ड में रहने वाली जनता के लिए नहीं, किन्हीं और के लिए है। शराब की बिक्री और बढ़ते प्रभाव के पीछे कौन ताकतें काम कर रहीं हैं, क्या महिलाएं इस बात को समझती हैं कि आखिर उनकी लड़ाई किसके खिलाफ है? शराब के कारोबार में होने वाली दिन दूनी रात चौगुनी वृद्घि भी गरीब जनता का खून चूसकर शराब के बड़े-बड़े कारोबारियों के लिए होती है, उन कारोबारियों के लिए जो एक सरकार को उखाड़कर दूसरी सरकार को बनाने की ताकत रखते हैं, सरकार और प्रशासन जिनके हितों की रक्षा के लिए तत्पर है। उनके आगे धरने पर दिन-रात बैठी महिलाओं की भला क्या हैसियत है।
(Editorial)

जब देश की सर्वोच्च अदालत राजस्व की तुलना में शराब से होने वाली जान और माल की क्षति को महत्व देती है तो अपने को जन कल्याणकारी कहने वाली सरकारें क्यों नहीं ऐसा करतीं? 64 राजमार्गों को जिला मार्ग घोषित करने से 155 दुकानें स्थानान्तरित होने से बच गईं लेकिन सुप्रीम कोर्ट की मूल भावना की अनदेखी हुई। महिलाएं भी जो संघर्ष कर रही हैं, उनकी भी मूल भावना की अनदेखी हो रही है। तो सरकार क्या देख रही है। सरकार अपना भविष्य और अपने भाग्यविधाताओं को देख रही है।

इस आन्दोलन का सकारात्मक पहलू यह है कि स्थानीय निकायों में जो जनप्रतिनिधि हैं, वे बढ़-चढ़कर शराब के खिलाफ संघर्ष में आम महिलाओं के साथ खड़े हैं। युवा वर्ग की भागीदारी भी दिखाई दे रही है। ब्लाक उप प्रमुख, ग्राम प्रधान, क्षेत्र पंचायत सदस्य, नगर पालिकाओं के सदस्य आदि के नाम समाचार पत्रों में बराबर आ रहे हैं। जन प्रतिनिधि महिलाएं तो जूझ ही रही हैं। अपने-अपने गांव, नगर या गली की शराब की दुकान हटाने के लिए हर साल ही मार्च-अप्रैल के महीनों में ज्ञापन, धरना और प्रदर्शन का सिलसिला चलता ही है पर इस वर्ष लगभग पूरे उत्तराखण्ड में यह चल रहा है। मजबूरन प्रशासन को कई जगह दुकानें सील करनी पड़ी हैं। इस फैलाव के कारण अनेक जगहों से यह आवाज उठने लगी है कि पूरे उत्तराखण्ड में नशाबन्दी हो। महिलाओं के दृष्टिकोण में व्यापकता स्वागतयोग्य है। भुजियाधाट की जनता ने स्पष्ट घोषणा की है कि शराब नहीं, शिक्षा, रोजगार और भयमुक्त समाज चाहिए।

आशा की एक किरण राजस्थान से भी दिखाई दे रही है। वहां विभिन्न सामाजिक संगठन मिलकर नशामुक्त भारत अभियान चला रहे हैं। मतदान के जरिये शराबबन्दी की पहल हुई है। जयपुर की आमेर तहसील के रोजदा गांव की पंचायत ने शराबबन्दी के पक्ष में 88 प्रतिशत मतदान करके शराबबन्दी लागू करवाई। इससे पूर्व राजसमंद में भी मतदान के द्वारा शराबबन्दी लागू हुई। राजस्थान की आबकारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 36 ब्लाकों में शराब कम बिकने से विभाग को 2200 करोड़ राजस्व का घाटा हुआ है। यह सरकार को जनता का जवाब है।

केरल और बिहार में जिस प्रकार शराबबन्दी चुनावी मुद्दा बना, उस प्रकार उत्तराखण्ड में कभी नहीं बन पाया जबकि बीसवीं सदी के छठे दशक से ही उत्तराखण्ड में शराब विरोधी आन्दोलन होते रहे और एक स्पष्ट मांग नशा नहीं रोजगार दो की उभर कर आई। अब जनता को शराबबन्दी को चुनावी मुद्दा बनाने की वर्जिश करनी पड़ेगी। राजनीतिक दलों से तो यह उम्मीद करना व्यर्थ है। इस बार जनता के दबाव में आकर हरीश रावत की सरकार में कैबिनेट मंत्री रहीं इन्दिरा हृदयेश को घोषणा करनी पड़ी कि जरूरत पड़ी तो धरने पर भी बैठैंगी। राज्य महिला आयोग की उपाध्यक्ष ने भी समर्थन देने की घोषणा की। लेकिन घोषणाएं पर्याप्त नहीं थीं। धरने पर बैठने की जरूरत थी। बिहार में शराबबन्दी के पीछे चुनाव से पहले महिलाओं का दबाव था। जिसके कारण नितीश कुमार ने वायदा किया और दृढ़ता के साथ लागू किया। 2017 के चुनाव में उत्तराखण्ड में भी महिला मतदाताओं का बढ़ा हुआ प्रतिशत भविष्य में उन्हें वोट बैंक के रूप में उभार सकता है। व्यापक जन समर्थन, जन प्रतिनिधियों का दबाव, युवा वर्ग की सक्रियता और महिलाओं की एकजुटता ही नशामुक्त उत्तराखण्ड का सपना पूरा कर सकती है। अलग-अलग जगहों पर किये जा रहे संघर्षों को एकजुट होकर एक आवाज बनना होगा और उसके लिए एक मजबूत नेतृत्व की जरूरत होगी, भले ही वह महिलाओं का हो। महिलाओं को खुद को इस स्थिति में लाना होगा कि वे सरकार पर दबाव बना सकें।
(Editorial)

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