तीन बैगन-कहानी
मधु जोशी
कैप्टेन पी़ वेंकट राम से मेरी जान-पहचान बहुत पुरानी नहीं है। हाँ, अक्सर मैं उनको और उनकी पत्नी वाणी को मॉर्निंग वॉक के समय देखती थी। जिस समय मैं सैर के लिए निकलती हूँ उस वक्त रात का धुंधलका सामान्यत: छंटा नहीं होता है अर्थात् भोर होने में अभी थोड़ा वक्त होता है। इसके मुख्यत: दो कारण हैं। पहला तो अंधेरा होने के कारण, समुद्र किनारे चलने के बावजूद, मुम्बई का मटमैला-गंदला समुद्र साफ दिखायी नहीं देता है। इसका फायदा उठाकर मैं खुद को यह विश्वास करने देती हूँ कि मैं साफ-सुथरे, नीले समुद्र के तट पर सैर कर रही हूँ। वैसे भी भुलावों-छलावों -दिलासाओं के सहारे ही तो हम सामान्यत: अपना अधिकांश जीवन बिता देते हैं। इसके अलावा उस समय ‘प्रौमैनाड’ में भीड़ भी बहुत कम होती है, बस चन्द एकान्त-प्रेमी लोग और पास के कैण्ट से वर्जिश के लिए निकले फौजी जवान।
फिर पौ फटने के साथ ही ‘प्रौमैनाड’ में भीड़-भाड़ बढ़ने लगती है- सैर के लिए स्मार्ट कपड़ों में तैयार नौसैनिक अधिकारी अपनी-अपनी पत्नियों के साथ, कुछ युवा लोग भी जॉगिंग के लिए आते हैं, लेकिन अमूमन ऐसे लोग इस भीड़-भाड़ वाले समुद तट से दूर ही रहते हैं। और इन सभी ‘मॉर्निंग वॉकर्स’ के आगमन के साथ ही भोर से पहले के अंधेरे में सैर करने वाले ‘अर्ली बर्ड्स’ वापिस लौटने लगते हैं।
कैप्टेन पी़ वेंकट राम और उनकी पत्नी वाणी से मेरी पहली बातचीत इसी ‘रिट्रीट’ के दौरान हुई थी। इससे पहले मैंने उन्हें देखा जरूर था। जब भी यह दम्पति मेरे पास से गुजरते थे मेरा ध्यान हरदम इस बात की तरफ जाता था कि जबकि पति हरदम अनवरत बोलते रहते थे, उनकी सौम्य-शान्त पत्नी यदा-कदा ही ‘‘यैस रामू” कह पाती थी। उस दिन शायद दोनों पति-पत्नी देर से सैर के लिए आये थे इसलिए जब पौ फटने के बाद मैं ‘प्रौमैनाड’ से वापिस लौटने लगी तभी मेरे कानों में थोड़ी दूरी पर किसी पुरुष की आवाज पहुँची। यद्यपि उन्होंने आवाज़ ऊँची नहीं की थी फिर भी यह स्पष्ट था कि वह तीखे स्वर में किसी को डाँट रहे हैं।
बिना सोचे-समझे मैं मुड़ने ही वाली थी कि देखूं माजरा क्या है, तभी मैंने सुना कि उनकी पत्नी कह रही हैं, ‘‘बट रामू वी हैव जस्ट कम।” दबी किन्तु कर्कश आवाज में तुरन्त ही उन्हें जवाब मिला, ‘‘स्टॉप बीइंग डम, यू फूल!” यह सोचकर कि यह पति-पत्नी का निजी मामला है मैं तुरन्त सामने देखकर चलती रही। वैसे भी पत्नी को मंद बुद्धि बेवकूफ मानकर झिड़कने वाले पतियों की यदि गणना की जाये तो अधिकांश पति सम्भवत: इस श्रेणी में शामिल हो जायेंगे!
तभी उन भद्र सज्जन को अहसास हो गया कि शायद उनकी बात मुझ तक पहुँच गयी है और मुझसे परिचय नहीं होने के बावजूद उन्होंने मुझसे कहा, ‘ओ’ ‘‘मैम, काश मैं आपको बता पता कि पत्नियों को खुश रख पाना कितना मुश्किल होता है। मेरी पत्नी को डॉक्टर ने भीड़-भाड़ वाली जगहों में जाने से मना किया है और मेरी ‘बैटर हॉफ’ वही करना चाह रही है। ओ, बाय द वे, मैं कैप्टेन पी़ वेंकट राम हूँ और यह है मेरी वाइफ वाणी।” उनकी पत्नी ने रुंआसे चेहरे के बावजूद तत्काल एक सौम्य मुस्कान के साथ मुझसे ‘‘हलो” कहा और इस तरह से उन दोनों से मेरा परिचय हो गया।
(Story by Madhu Joshi)
इसके बाद सैर के दौरान अक्सर उन दोनों से मुलाकात होती और हम एक दूसरे का अभिवादन करने लगे। पहली बार जब मैंने कैप्टेन पी़ वेंकट राम को सम्बोधित किया तो उन्होंने तत्काल मुझे टोका, ‘‘अरे, मैम मुझे रामू कहिये। वैसे भी हम दक्षिण भारतीयों के नाम बहुत लम्बे-चौड़े होते हैं। और हाँ, वाणी को हम वाणी ही कहते हैं। वैसे आप चाहें तो इसे ‘वा’ या फिर ‘णी’ भी कह सकती हैं!” इसके बाद उन्होंने जोर से ठहाका लगाया और उनकी पत्नी हल्के से मुस्कुरा दी।
धीरे-धीरे जैसे-जैसे कैप्टेन रामू और वाणी जी से मुलाकातें बढ़ती गयीं मुझे यह समझ में आने लगा कि जहाँ कैप्टेन रामू सदा एक खुशमिजाज़ इन्सान की छवि प्रस्तुत करते थे, वहीं उनकी पत्नी उनकी उपस्थिति में थोड़ी सतर्क-सशंकित लगती थीं। दिन के समय यदि वाणी जी से नोफ्रा मार्केट में भेंट होती तो वह अधिक सहज नजर आती थीं और खूब खुलकर बातें करती थीं। मुझे उनसे बातें करना अच्छा लगता था किन्तु सामान्यत: पति-पत्नी साथ ही मिलते थे और तब लगातार बोलने का काम कैप्टेन रामू सम्हालते थे और मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए उनकी बातों पर गर्दन हिलाकर सहमति प्रदर्शित करने का काम वाणी जी के जिम्मे होता था। इस दौरान अक्सर कैप्टेन रामू गर्व के साथ कहते थे, ‘‘मैं तो अपनी पत्नी के बिना कहीं नहीं जाता हूँ, मैम। सारे दोस्त मुझे जोरू का गुलाम कहते हैं!” और एक बार फिर जोर का ठहाका फिज़ा में तैरने लगता।
एक बात और मैंने कैप्टेन रामू के विषय में गौर की थी। जब भी वह मिलते, वह सभी को विस्तार से अपने जीवन से जुड़ी छोटी से छोटी बात बताने लगते। मसलन, ‘‘अरे यार, आज तो मैं गोल्फ खेलने आ ही नहीं सकता। मैडम को काला घोड़ा फैस्टिवल ले जाकर शॉपिंग करानी है नहीं तो यह नाराज़ हो जायेंगी।” या फिर, ‘‘मैम, हम सोच रहे हैं आज पारसी डेयरी की तरफ चले जायें। वहाँ का दही लाजवाब होता है और मैडम का हुक्म है कि आज वह हमें दही बड़े खिलायेंगी। और फिर, मैम, पारसी डेयरी में क्या खूब मिठाइयां मिलती हैं तो मुझे मैडम के लिए ढेर सारी मिठाइयां भी खरीदनी पड़ेंगी। आज तो मेरे पर्स का बैण्ड बजने वाला है!” उसके बाद एक बार फिर उनका चिर-परिचित ठहाका गूंजने लगता। यहाँ इस बात का उल्लेख अनुचित नहीं होगा कि अपनी इस आदत को लेकर कैप्टेन रामू को खुद पर नाज़ भी था। इसीलिए वह यह घोषणा करने में हिचकते नहीं थे, ‘‘छुपाना किस बात का- मेरा जीवन तो एक खुली किताब है।”
धीरे-धीरे कैप्टेन रामू और वाणी जी से मुलाकातों का सिलसिला बढ़ने लगा। एक सुबह कैप्टेन रामू ने मुझसे कहा, ‘‘आज आप हमारे साथ लंच कीजिये, मैम। मेरी सिस्टर भी सपरिवार आ रही हैं।
आप बता रही थीं ना कि आप अपने शोध-कार्य के लिए अक्सर हैदराबाद जाती थीं। मेरी बहन ने भी ओस्मानिया युनिवर्सिटी से इंग्लिश से पीएचडी की है। आप उससे मिलकर हैदराबाद की यादें ताजा कर लीजियेगा।” और इस तरह से मैं पहली बार कैप्टेन रामू के घर गयी।
वहाँ पर डोर-बेल बजाते ही दरवाजा कैप्टेन रामू ने खोला और हंसते हुए कहा, ‘‘वैलकम मैम। ऐज़ यू कैन सी, इस घर का दरबान भी मैं ही हूँ!” फिर उन्होंने मेरा परिचय अपनी बहन डॉ. श्रीनिधि, अपने बहनोई कमाण्डर वी. श्रीजेश और उनके बेटे कीर्तन से कराया। वहीं पहली बार मेरी मुलाकात उनकी बेटी सौन्दर्या से भी हुई।
लंच से पहले काफी देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं या फिर यह कहूँ कि अधिकांश समय कैप्टेन रामू का हास-परिहास चलता रहा। मैं अपने हैदराबाद कनैक्शन के कारण डॉ. श्रीनिधि से बातें करने को उत्सुक थी किन्तु जैसे ही हम, या फिर अन्य कोई कुछ कहना शुरू करता, कैप्टेन रामू मजाक-मजाक में बातचीत का रुख अपने चुटकुलों अथवा अपनी विशिष्टताओं की तरफ मोड़ देते थे। मैंने मन ही मन सोचा कि मुम्बई में प्रचलित उपमा ‘‘बोल-बच्चन’ कैप्टेन रामू पर पूरी तरह लागू होती है और फिर मैंने उनके धारप्रवाह ‘प्रवचन’ को ही सुनना शुरू कर दिया।
(Story by Madhu Joshi)
थोड़े ही देर में लंच सर्व हो गया। डायनिंग टेबल में मेरे एक तरफ कैप्टेन रामू बैठे और दूसरी तरफ डॉ. श्रीनिधि। मैंने सोचा कि अब मुझे श्रीनिधि जी से बातचीत का मौका मिलेगा और मैंने ठान ली कि यदि मुझे इसके लिए कैप्टेन रामू की तरफ पीठ भी करनी पड़ी तो मैं उनसे पीठ फेर लूंगी ! मेरे सामने वाणी जी बैठी थीं और उनके बांये हाथ की तरफ उनकी बेटी और दाहिने हाथ की तरफ कीर्तन और फिर कमाण्डर श्रीजेश।
हमने जैसे ही खाना लेना शुरू किया कैप्टेन रामू ने सबका ध्यान रखने वाले मेजबान की भूमिका निभानी शुरू कर दी। वह हमें सस्नेह साम्भर परोस ही रहे थे कि उनके फोन की घंटी बज उठी और वह बेहतर सिग्नल की प्रत्याशा में बाल्कनी की तरफ चले गये। जब तक वह लौटे हम सभी अपना खाना परोस चुके थे और उनका इन्तज़ार कर रहे थे।
लौटते ही उन्होंने अपने बहनोई से कहना शुरू किया, ‘‘वॉट टू डू यार, श्रीजी, ये ऑफिस वाले सण्डे को भी चैन से नहीं रहने देते हैं। जैसे सारी इण्डियन नेवी मेरे ही भरोसे चल रही़….” और अचानक वह चुप हो गये। इस दौरान वह अपनी प्लेट पर चावल का एक पहाड़ खड़ा कर चुके थे और अभी उन्होंने साम्भर के कैसरॉल में रखे चम्मच को थामा ही था। दो क्षण की चुप्पी के बाद उन्होंने अपनी पत्नी पर गुर्राना शुरू कर दिया, ‘‘वॉट इज़ दिस डैम मैस, वाणी। तुम जानबूझकर मेरी बातों को नज़रअन्दाज करती हो। कल मैं चुन-चुनकर साम्भर के लिए सब्जियां लाया था और आज तुमने साम्भर में कम सब्जियां डाली हैं। जरूर तुमने सब्जियां बचाई होंगी।”
अपनी कुर्सी को लगभग लात मारते हुए वह टेबल से उठकर फ्रिज की तरफ गये। फ्रिज खोलकर इधर-उधर टटोलने के बाद उन्होंने तीन छोटे बैंगन निकाले और उन्हें वाणी जी के चेहरे के सामने लहराते हुए उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा, ‘‘यह तीन बैंगन फ्रिज में क्या कर रहे हैं, यू स्टूपिड वुमन ?”
डरी-सहमी वाणी जी ने लगभग बुदबुदाते हुए कहा, ‘‘लेकिन रामू, दाल और बाकी सब्जियों के अनुपात में बैंगन ज्यादा थे तो मैंने कुछ कम़…”
उन्हें अपनी बात पूरी करने का मौका दिये बिना कैप्टेन रामू फट पड़े, ‘‘तुम जब देखो अपनी मनमानी करती हो। मेरी बात को नहीं सुनने का तो तुम्हें शौक है। पूरी दुनिया तुम्हें सीधी कहती रहे पर मैं तुम्हारी सच्चाई से वाकिफ़ हूँ। मेरा बस चले़….।”
इसके बाद वाणी जी की सहनशक्ति की सीमा समाप्त हो गयी और ‘‘एक्सक्यूज मी” कहते हुए वह सिर झुकाये अन्दर चली गयीं।
उनके पीछे-पीछे कैप्टेन रामू भी तीनों बैंगनों को लहराते हुए अन्दर चले गये। हम बाकी लोगों को तो मानो साप सूंघ गया था। हमें समझ नहीं आ रहा था कि हम भोजन शुरू करें या उठ कर चले जायें। कनखियों से मैंने सौन्दर्या की तरफ देखा तो वह डबडबायी आँखों से जड़वत अपनी प्लेट को देख रही थी। मेरे पास बैठी डॉ श्रीनिधि साम्भर में से चुनचुनकर बैंगन के टुकड़े किनारे पर रख रही थीं ताकि उनके भाई उन्हें ले सकें। मैं और कमाण्डर श्रीजेश चुपचाप बैठे रहे। बस एक कीर्तन ही टेढ़ी हंसी के साथ अपना सिर हिला रहा था। फिर उसने कहा, ‘‘किसी दुष्ट आदमी के कारण मैं क्यों भूखा रहूं।” और वह आराम से खाना खाने लगा। एक ग्रास खाने के बाद उसने अपनी ममेरी बहन सौन्दर्या से कहा, ‘कम ऑन एण्ड ईट, सिस। तू जानती है ना कि तेरी अम्मा दुनिया का सबसे बढ़िया साम्भर बनाती हैं- मेरी ममा से भी ज्यादा अच्छा!” और वह अपनी माँ की तरफ शैतानी से देखकर हंसने लगा।
(Story by Madhu Joshi)
इस तिनके का सहारा पाकर हम सबने भी फीकी हंसी हंस दी। तभी हमें कैप्टेन रामू की आवाज़ सुनायी दी। वह धीमी किन्तु क्रूरता से भरी आवाज़ में अपनी पत्नी को पुन: प्रताड़ित कर रहे थे, ‘‘नाउ विहेव यौरसैल्फ और खाना खाओ। और खाते समय यह याद रखना कि तुमने मेरा लंच बर्बाद कर दिया है।”
वाक्य पूरा होते-होते दोनों पति-पत्नी पुन: टेबल पर आकर बैठ गये। जैसे ही कैप्टेन रामू की नज़र साम्भर के कैसरॉल के किनारे डॉ श्रीनिधि द्वारा इकट्ठा किये गये बैंगनों की तरफ गयी वह खिलखिलाने लगे, ”अरे निधि जब तुम मेरा इतना ख्याल रखती हो तो मुझे बचपन के दिन याद आ जाते हैं। खैर अगर मैं यह सब सब्जियां नहीं लूंगा तो तुम्हें बुरा लगेगा इसलिए मैं यह सब ले लेता हूँ।” और चावल के पहाड़ के बोझ तले कराहती अपनी प्लेट पर साम्भर की नदी बहाते हुए कैप्टेन रामू ने हमसे कहा, ”अरे, खाइये-खाइये। नहीं तो खाना ठण्डा हो जायेगा।” फिर मेरी तरफ मुड़कर उन्होंने मुझसे कहा, ”मैम अगर अगर आप माइण्ड न करें तो मैं हाथ से खाना खा लूॅ। बाकी सब लोग तो मुझ तेलुगु-विड्डा की देहाती आदतों से परिचित हैं। चम्मच-कांटे से खाऊँ तो मुझ गंवार को साम्भर-चावल का मजा ही नहीं आता है।” और वह खुद अपनी बात पर जोर से हंस दिये।
अब वह ऐसा बर्ताव कर रहे थे कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो।
मैंने देखा कि उनकी पत्नी चुपचाप आसुंओं को जज़्ब करते हुए खाना मुँह में धकेल रही थीं। जब उनके भरसक प्रयास के बावजूद चन्द हठीले आँसू उनके गालों तक ढलक ही गये तो उन्होंने जल्दी से, कांपते हाथों से उन्हें पोंछ दिया और फिर डरकर अपने पति की तरफ देखा। गनीमत थी कि उस समय कैप्टेन रामू मेरी तरफ मुड़कर मुझे आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में बनने वाले साम्भर के बीच के अन्तर के विषय में बता रहे थे, इसलिए उनकी नज़र अपनी निरीह पत्नी के आंसुओं पर नहीं पड़ी।
बाकी का लंच बिना किसी व्यवधान के गुज़र गया। इसके बाद हम सभी ने कॉफी भी पी और वाणी जी द्वारा अत्यन्त स्नेह से परोसी बासुन्धी भी खायी। उसके बाद कमाण्डर श्रीजेश सपरिवार मेरे साथ ही कैप्टेन रामू के घर से विदा लेकर आ गये।
कैप्टेन रामू और वाणी जी ने हमें लिफ्ट तक छोड़ा। तब तक कैप्टेन रामू का हंसी-मजाक लगातार जारी रहा। मैं मन ही मन सोच रही थी कि आखिर यह बेशर्म और निर्दयी इन्सान बना किस मिट्टी का है, कि लिफ्ट का दरवाजा बन्द होते समय एक बार पुन: कैप्टेन रामू की कर्कश आवाज सुनायी दी, ‘‘डैम इट वाणी, आज तुम्हारे कारण मुझे भूखा रहना पड़ा। सारा मूड खराब कर दिया़….”
लिफ्ट चलते समय यह बात हमारे कानों तक पहुँची ही थी कि कीर्तन एक बार फिर से बोला, ‘‘आई हैट योअर स्टूपिड ब्रदर, ममा। कोई इन्सान अपनी वाइफ और बेटी को ऐसे ट्रीट कैसे कर सकता है। तभी सौन्दर्या बार-बार अपनी अम्मा से पूछती रहती है, ‘नान्ना का मूड तो ठीक है’, ‘नान्ना गुस्सा तो नहीं कर रहे हैं।’ डैड, अगर सौन्दर्या के डैड मेरे डैड होते तो मैं तो घर से भाग जाता।” कमाण्डर श्रीजेश ने बस चुपचाप अपने बेटे के कन्धे पर हाथ रख दिया।
डॉ. श्रीनिधि, अपने शान्त स्वभाव के बावजूद, चुप नहीं रह पायीं। ‘‘मैंने तो एक बार वाणी वदिना से यह तक कह दिया था कि अगर वह अन्ना को छोड़ने की हिम्मत कर लें तो मैं और श्रीजी पूरी तरह से उनके साथ खड़े रहेंगे। पता नहीं वदिना इतना कुछ सहन क्यों करती हैं।” बोलते-बोलते उनकी आवाज़ भर्रा गयी।
(Story by Madhu Joshi)
घर लौटने के बाद भी यह घटना मेरे मन-मस्तिष्क पर छायी रही। मुझे खयालों में खोया हुआ देख मेरी भतीजी ने शरारत से पूछा, ‘‘क्या आप अभी भी अपनी साउथ इण्डियन ट्रीट के बारे में सोच रही हैं, बुआ?”
बिना सोचे-समझे मेरे मुँह से तत्काल निकला, ‘‘मैं शादी नाम की संस्था के विषय में सोच रही थी। आपको शादी करने की कोई जरूरत नहीं है। यदि कोई मनपसन्द साथी मिल ही गया तो पहले तो अपने को इतना सक्षम बनाना कि आप उस पर किसी भी तरह से निर्भर न हो। और अब तो लिव-इन कम्पैनियन्स को भी पत्नी के समान अधिकार मिलते हैं। तो फालतू में किसी निर्दयी मूर्ख के साथ क्यों बंधना।”
मेरी भतीजी तो जोर-जोर से हंसने लगी किन्तु बातचीत को ‘खतरनाक’ मोड़ लेता देख, मेरी सीधी-सुशील, सदा अपनी ननद का सम्मान करने वाली भाभी खुद को रोक नहीं पायी: ‘‘बेटा, जरूरी नहीं है कि आप बुआ की सभी बातों को मानो!” और बात हंसी-मजाक में आयी-गयी हो गयी।
किन्तु अब जब भी मेरी मुलाकात कैप्टेन पी़ वेंकट राम तथा उनकी पत्नी से होती है, मुझे कैप्टेन साहब के चेहरे के स्थान पर तीन बैंगन दिखायी देते हैं। इधर मैं इस बात पर भी विचार कर रही हूँ कि या तो मैं अपने मॉर्निंग वॉक का स्थान बदल लूं या फिर समय।
(Story by Madhu Joshi)
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