माया
मधु जोशी
माया तामांग से मैं तीन-चार वर्ष पहले मुम्बई में मिली थी। वह लगभग चालीस वर्ष की नेपाली महिला हैं जो पिछले दो दशकों से मुम्बई में रहती हैं और भविष्य में नेपाल के धादिंग जिले में स्थित अपने गाँव गैरा वापिस जाने के सपने देखती हैं। यदि मुझसे कहा जाये कि मैं एक शब्द में माया जी को र्विणत करूं तो मैं अंग्रेजी भाषा से एक शब्द उधार लेने की अनुमति चाहूंगी- स्मार्ट। फादर कामिल बुल्के के अंग्रेजी हिन्दी कोश में स्मार्ट शब्द खोजती हूँ तो इसके विभिन्न अर्थ मिलते हैं- तेज, सख्त, जोरदार, फुर्तीला, हाजिर-जवाब, प्रत्युत्पन्नमति, बना-ठना, साफ-सुथरा, सुव्यवस्थित, फैशनेबुल… और, वास्तव में यह सभी विशेषण किसी न किसी रूप में मायाजी पर सटीक बैठते हैं और अगर ‘स्मार्ट’ के साथ चन्द विशेषण और इस्तेमाल करूं तो माया जी हैं हिम्मती, समझदार, दृढ़ निश्चयी और व्यावहारिक।
पहले मायाजी के पति रोजगार के बेहतर अवसरों की तलाश में मुम्बई (तब बम्बई) आये और फिर 1994 में वह अपनी युवा पत्नी को भी मुम्बई ले आये। उस पहली यात्रा के विषय में बात करते हुए मायाजी हंस कर बताती हैं कि उस समय वह अपनी सहयात्री नेपाली महिला से बात नहीं कर पायी थीं क्योंकि उन्हें नेपाली भाषा नहीं आती थी और उस महिला को उनकी तामांग भाषा, जिसे वह स्वयं ”गाँव में बोली जाने वाली पहाड़ी भाषा” कहती हैं, नहीं आती थी। मुम्बई में पति-पत्नी ने कोलाबा की एक निर्धन बस्ती में छोटे से कमरे में गृहस्थी की शुरूआत की। उस दौर को याद करते हुए माया जी अजनबी शहर, प्रचण्ड गर्मी, नये माहौल, अपरिचित रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन की बात तो करती ही हैं, वह यह भी बताती हैं कि अन्य भारतीय पड़ोसियों से बात कर पाना तो दूर वह प्रवासी नेपाली लोगों से तक बातचीत नहीं कर पाती थीं क्योंकि वह उनकी नेपाली भाषा नहीं समझ पाती थीं। जल्दी ही उन्होंने इसका इलाज ढूंढ निकाला और भारत आकर उन्होंने सर्वप्रथम अपने देश के शहरी क्षेत्रों में बोली जाने वाली नेपाली भाषा सीखी। भाषा सीखने का सिलसिला यहीं नहीं रुका। नेपाली के बाद उन्होंने हिन्दी सीखी जिसमें आज भी मुम्बइया हिन्दी का पुट है और अब तो वह कतर, मलेशिया, मॉरीशस आदि में रहने वाले अपने भाइयों और देवर से ‘वॉट्स-ऐप’ पर बात करने के लिए रोमन लिपि का उपयोग करना भी सीख गयी हैं। उल्लेखनीय है कि माया जी कभी स्कूल नहीं गयीं। भारत आकर हिन्दी और अंग्रेजी भाषा सीखने के साथ ही उन्होंने अपने पति की सहायता से पहले देवनागरी और फिर रोमन अक्षर सीखे और फिर, उनके अपने शब्दों में, ”जोड़-जोड़ के” पढ़ना सीख लिया। आज वह फर्राटे से हिन्दी और अंग्रेजी भाषा पढ़ती हैं- यहाँ तक कि उनके पति अब उन्हें ”फेसबुक का कीड़ा” कहते हैं!
मुम्बई में कुछ वर्ष रहने और एक बेटे और एक बेटी के जन्म के बाद माया जी और उनके पति को लगने लगा कि वह जिस चाल में रहते हैं उसमें वह अपने बच्चों को उस तरह का जीवन नहीं दे पा रहे हैं जिस तरह का जीवन वह उन्हें देना चाहते हैं। तब माया जी ने पास में रहने वाली नौसेना में कार्यरत नर्सिंग सेवा से जुड़ी अधिकारी के घर में कार्य करना शुरू कर दिया। इस तरह उनकी आमदनी तो बढ़ी ही उन्हें एक छोटी-सी दमघोंटू खोली की जगह एक सर्वेन्ट-क्वार्टर, जिसमें बिजली और पानी उपलब्ध थे, मिल गया। मूलत: केरल के रहने वाले इस परिवार के साथ मायाजी एक बार फिर एक नयी संस्कृति से रूबरू हुईं किन्तु उन्होंने पुन: अद्भुत अनुकूलनशीलता का परिचय दिया। आज वह इडली-डोसा-नारियल की चटनी आदि बनाने में पारंगत हैं।
इसी दौरान माया जी को पता चला कि उनका बेटा एक दुर्लभ बीमारी से ग्रस्त है और वह चलने-फिरने, उठने-बैठने और सामान्य जीवन जीने में सक्षम नहीं है। एक बार फिर उन्होंने और उनके पति ने बच्चों के बेहतर इलाज के लिए कमर कस ली। मुम्बई के महंगे जसलोक अस्पताल में उसे दिखाया, बॉम्बे अस्पताल में उसके इलाज की भरपूर कोशिश की, उसके सैम्पल अत्यन्त खर्चीले टैस्ट के लिए बंगलौर भिजवाये और इलाज की आशा में उसे सुदूर ऋषिकेश तक ले गये। इस समय र्आिथक तंगी के कारण उन्हें कान की बालियाँ तक गिरवी रखनी पड़ी। जैसे-जैसे बच्चे की उमर बढ़ी, उसकी कद-काठी के साथ-साथ उसकी बीमारी भी बढ़ती गयी और शीघ्र ही माया जी के लिए उसे गोद में उठा पाना सम्भव नहीं रहा। पति को रोज नौकरी के सिलसिले में दो घण्टे बस तथा ट्रेन से सफर करके अंधेरी जाना पड़ता था, सो माया जी अपने से लम्बे हो चुके बच्चे को पीठ पर दुपट्टे से बाँधकर मुम्बई की भीड़-भाड़ वाली बसों से टैस्ट और चैकअप के लिए अस्पताल ले जाने लगीं। माया जी और उनके पति के समस्त, प्रयासों के बावजूद अन्तत: दस वर्ष की आयु में माया जी के पुत्र को सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिल गयी।
(Maya)
इस भयावह आघात के बावजूद माया जी टूटी नहीं। उन्होंने अपना ध्यान अपनी बेटी के लालन-पालन में लगा दिया। बच्ची को कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ाया, उसके बाद अच्छे कालेज में भेजा और आज उनकी बेटी एक प्रतिष्ठित संस्थान से होटल मैनेजमेंट का त्रिवर्षीय कोर्स कर रही है। उसको पढ़ाने-लिखाने के साथ माया जी ने उसे अच्छे संस्कार भी दिये हैं और वह गृह कार्य में अपनी माँ की भरसक मदद भी करती है। वह हिन्दी, अंग्रेजी, नेपाली, तामांग और मराठी भाषाएँ बोल लेती है और अपने होटल मैनेजमेंट इन्स्टीट्यूट में अब फ्रेंच भी सीख रही है। वह यह भी कहती है कि वह उस दिन की प्रतीक्षा कर रही है जिस दिन वह अपने देश नेपाल वापिस जाकर किसी अच्छे होटल में नौकरी करेगी ताकि उसके माँ-बाप आराम की जिन्दगी जी सकें। किन्तु मायाजी का खाली बैठकर आराम की जिन्दगी जीने का इरादा नहीं है। वह तो सपना देखती हैं कि नेपाल वापिस जाकर वह और उनके पति, या उनके शब्दों में कहूं तो ”हम दोनों बुढा-बुढी”, चाउमिन और मोमो का एक छोटा सा ढाबा खोलेंगे।
बेटे की बीमारी और बेटी की शिक्षा में होने वाले खर्च के कारण जब तामांग परिवार का हाथ तंग होने लगा था तो माया जी ने अन्य घरों में पार्ट टाइम काम भी किया। उनके पति भी सुदूर अंधेरी से लौटकर, थके-मांदे होने के बावजूद, चायनीज भोजन के ठेले में काम करते थे। जब माया जी की केरल वाली मैडम का अन्यत्र स्थानान्तरण हो गया तो उन्होंने एक नौसेना अधिकारी के घर काम करना शुरू कर दिया और जल्दी ही वह उनकी माँग के अनुसार स्वादिष्ट भोजन बनाना सीख गयीं। इसके बाद जब वह उत्तराखण्ड के अधिकारी के घर में काम करने लगीं तो उन्होंने उत्तर-भारतीय जीवन शैली के साथ सामंजस्य स्थापित कर लिया।
मुम्बई में माया जी का परिवार ईसाई धर्म के सम्पर्क में आया और आज वह ईसाई धर्म की अनुयायी हैं। वह प्रत्येक रविवार उपासना के लिए गिरिजाघर जाती हैं और क्रिसमस और नववर्ष के अवसर पर विशेष रूप से बाइबिल के उपदेशों का प्रचार-प्रसार करने का भरसक प्रयास करती हैं। मुम्बई में दो दशकों के प्रवास के दौरान स्वयं माया जी का काया-कल्प हो गया है। वह सामन्यत: सलवार-कुर्ता तथा साड़ी पहनती हैं लेकिन छुट्टी के दिन घूमने जाते समय उन्हें जीन्स पहनने में भी कोई गुरेज नहीं होता है। नौसैनिक अधिकारियों के परिवारों के साथ रहने के कारण माया जी पास्ता-पीट्जा जैसे भोज्य पदार्थ तो बनाती ही हैं, वह ऑन-लाइन शॉपिंग भी करती हैं और उनके पास नवीनतम उपकरणों, सामाजिक प्रवृत्तियों और फैशन के विषय में भी अच्छी खासी जानकारी रहती है। वह शौक से डिस्कवरी जैसे चैनल देखती हैं और फिर बताती हैं कि कैसे ”बड़ी मच्छी ऐसे मुँह खोलकर छोटी मच्छी को खा जाती हैं। जब उन्हें उत्तरा की प्रति दी तो उन्होंने उसे अपने पति के साथ जोर-जोर से और बडे़ शौक से पढ़ा और कहा, ”कितनी अच्छी कहानियाँ और शायरियाँ लिखेला है। मेरा भी कहानी बनाने का।”
2015 में नेपाल में आये भूकम्प के कारण माया जी का गाँव में बनवाया पक्का मकान ढह गया जिसे उन्होंने और उनके पति ने पाई-पाई जोड़कर बनाया था। यह समाचार सुनकर, उनके गाँव तथा परिवार की कुशल क्षेम पूछने वाले लोगों के गले भले ही रुँध रहे थे, लेकिन वह इस त्रासदी का सकारात्मक पक्ष देखकर कहती रहीं, ”दिन का समय होने के कारण आख्खा फैमिली खेतों में काम कर रहेला था इसलिए घर तो खल्लास हो गयेला पर कोई ऑफ नहीं हुआ।”
विगत दो दशकों के दौरान माया जी ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं और उनके जीवन में अनेक बदलाव भी आये हैं। अगर उनके जीवन में कुछ नहीं बदला है तो वह है उनकी कर्मठता, आशावादिता, जुझारूपन, समझदारी और खुशमिजाजी। वह इतनी स्वाभिमानी हैं कि अगर कोई घरेलू काम में उनकी मदद करना चाहे तो वह हँसते हुए लेकिन दृढ़ता से तत्काल मना कर देती हैं। ”नहीं, यह मेरा काम है, मैं कर लेगी।” उल्लेखनीय है कि यदि मायाजी को किसी को दुआएँ देनी होती हैं तो वह कहती हैं, ”मैं प्रभु परमेश्वर से प्रार्थना करेगी कि आपका हाथ हमेशा देने के लिए उठे, लेने के लिए नहीं।” वह नयी चीजों को सीखने के लिए सदा तत्पर रहती हैं और इसके लिए अनेकानेक प्रश्न पूछने में भी नहीं हिचकिचाती हैं। घर का काम करते समय वह नेपाली गाने सुनती रहती है और उनके मुँह पर हरदम मुस्कुराहट तैरती रहती है।
मायाजी हैं तो एक साधारण पहाड़ी महिला जो अपने घर से हजारों किलोमीटर दूर पति के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर, कड़ी मेहनत कर रही हैं ताकि वह अपनी बेटी का भविष्य सवार सकें, लेकिन उनमें कुछ ऐसे असाधारण गुण हैं कि उनके लिए मन में आदर भाव स्वत: ही उत्पन्न हो जाता है। और, फिर वह देखती हैं सपने किसी दिन अपने ”मुल्क” नेपाल लौटने के। हताश-परेशान लोगों की दुनिया में, जब विशेषकर पहाड़ों से हो रहे पलायन की समस्या के विषय में सोचती हूँ, तो बरबस ही यह लगता है कि माया जी इन सभी समस्याओं के समाधान का जीता-जागता स्वरूप हैं जिनसे खुशहाल जीवन जीने के लिए बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
Maya
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