उत्तरा का कहना है : जुलाई सितम्बर 2016
इरोम शर्मिला ने 16 वर्ष के लम्बे समय का अनशन तोड़ने का निर्णय लिया और साथ ही चुनाव में भागीदारी करने का भी। अपने इस फैसले पर उनका कहना था कि सरकार उनकी आवाज सुन नहीं रही है और आंदोलन को कुचलती रही है। इसलिये दिल्ली को सुनाने के लिए वह राजनीति में आयेंगी। 7 जनवरी 2015 को वॉल स्ट्रीट जर्नल से उन्होंने कहा था कि वे सामान्य जीवन में प्रवेश करना चाहती हैं। वे संत या देवी नहीं बनना चाहतीं। इरोम को लम्बे संघर्ष के बाद अपनी जिन्दगी अपनी तरह से और खुद के लिये भी जीने का हक है। लेकिन जो परिस्थितियाँ बन रही हैं उनसे साफ जाहिर है कि उनकी आगे की राह भी आसान नहीं है। यह समय है विचार करने का कि इरोम जो संघर्ष का पर्याय बन चुकी थी और जिसने अपने जीवन का सर्वस्व दाँव पर लगा दिया, जीवन के बेहतरीन वर्ष भेंट कर दिये, उसका हासिल आखिर क्या रहा?
इरोम के इस संघर्ष को जितना व्यापक जन समर्थन मिलना चाहिए था, नहीं मिला। जितनी गम्भीरता से उन्हें सुना जाना चाहिए था, उतनी गम्भीरता से उन्हें सुना नहीं गया। जब तक वह अनशन में रहीं, वह उनके धैर्य और दृढ़निश्चय की अद्भुत मिसाल थी। लेकिन इस पर बड़ी प्रतिक्रिया नहीं हुई। लोग उनका समर्थन तो कर रहे थे लेकिन उनके आन्दोलन को मंजिल तक पहुँचाने में उनके साथ नहीं थे । उनका यह आन्दोलन एक व्यक्ति तक सिमट कर रह गया। जबकि वह आम आदमी के मौलिक अधिकार, जीने के हक को लेकर लड़ रही थीं और लड़ रही हैं। वैसे यह भी सच है कि समूहों के आन्दोलनों को भी सत्ता द्वारा उपेक्षित ही किया जाता है या दबाया ही जाता है। इतना ही नहीं अब तो नागरिकों के प्रदर्शनों और आन्दोलनों को विकास विरोधी बताकर अनसुना किया जा रहा है। आन्दोलन व्यापक हो जाए तो दमन का रास्ता अपनाया जाता है।
दूसरी ओर इरोम के विवाह के फैसले पर उनके आन्दोलनकारी साथी उनसे नाराज हैं और उनके मंगेतर डेसमेंड पर उन्हें बहकाकर अफ्स्पा विरोधी आन्दोलन को कमजोर कराने का आरोप लगा रहे हैं। सवाल उठता है क्या हम यह मानकर चलते हैं कि आन्दोलनकारी की व्यक्तिगत जिन्दगी नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। उनकी अपनी इच्छाएँ या आकांक्षाएँ नहीं हो सकती? उन्हें भी अपनी जिन्दगी जीने और जीवन की खुशियाँ पाने का पूरा हक है। जो दूसरों की खुशियों और हक की लड़ाई लड़ रहा है खुद भी उन्हें हासिल करे तभी संघर्ष का हासिल पूरा होता है। हमें किसी को भी आदर्श बनाने के लिए उसे पत्थर का देवता नहीं बना देना चाहिए।
मणिपुर से अफ्स्पा अर्थात् विशेष सैन्य अधिकार बल अधिनियम को हटाने की मांग को लेकर किया गया यह अनशन अब तक का सबसे लम्बा अनशन रहा है। बाहरी रूप से लग सकता है कि यह व्यवस्था का विरोध है, लेकिन वास्तव में इरोम का यह संघर्ष लोकतंत्र पर आस्था और लोकतंत्र की बहाली का था। और इसीलिये अब इरोम ने चुनावी राजनीति में जाने का फैसला लिया है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
इरोम के इस लम्बे अनशन की कुछ उल्लेखनीय बातें हैं। इरोम ने यह निर्णय तब लिया जब 2 नवम्बर 2000 को मालोम बस स्टॉप पर सेना की फायरिंग में दस निहत्थे नागरिक जिनमें दो बच्चे, 62 वर्षीय एक महिला और बहादुरी के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित सिनम चन्द्रमणि भी शामिल थीं, मारे गये। इससे आहत होकर इरोम अपनी माँ का आशीर्वाद लेकर अनिश्चित कालीन अनशन पर बैठ गईं। उन्होंने तय किया कि वह तभी अपने घर जायेंगी और अपनी माँ से मिलेगी जब वह इस कानून को समाप्त करवा देंगी। वह अब भी इस पर कायम हैं। इस अवधि में उन्हें कई बार गिरफ्तार और रिहा किया गया। जबरन् नाक में नली डालकर भोजन दिया जाता रहा। उन पर आत्महत्या करने के प्रयास का मुकदमा भी चलाया गया।
अपने दृढ़ निश्चय के लिये आयरन लेडी (लौह महिला) के नाम से जानी जाने वाली इरोम अफ्सपा को हटाने के लिये राष्ट्रपति, तत्कालीन यू.पी.ए. सरकार और वर्तमान में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी कई पत्र लिख चुकी हैं। लेकिन उन्हें किसी का भी सकारात्मक रुख नजर नहीं आया। या कहें कि सरकार ने हमेशा उनकी मांग को अनदेखा ही किया। केन्द्रीय गुप्तचर संस्थाएँ हमेशा ही अफ्सपा के समर्थन में रिपोर्ट देती रही हैं। इन रिपोर्टों के मुताबिक यदि इन राज्यों से अफ्सपा हटा दिया गया तो इन राज्यों में कानून व्यवस्था के लिये संकट खड़ा हो सकता है।
(Editorial July Sept 2016)
विचारणीय है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने वाले भारत के कुछ हिस्सों में पिछले पाँच-छ: दशकों से यह कानून लागू है। सर्वप्रथम ब्रिटिश सरकार ने भारत छोड़ो आन्दोलन को कुचलने के लिए एक अध्यादेश पारित किया था। वह विदेशी शासक थे, यह उनका अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये उठाया गया कदम था। 1947 में भारत के आजाद हो जाने और देश का संविधान लागू होने के बाद 1958 में संसद ने मणिपुर सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम पारित किया और अलगाववाद तथा हिंसा से निपटने के लिए मणिपुर और असम में इसे लागू किया गया। 1972 में थोड़े संशोधन के बाद इसे उत्तरपूर्व के अधिकांश राज्यों में लागू कर दिया गया। आठवें-नवें दशक में पंजाब और कश्मीर में सुरक्षाबलों को विशेष अधिकार दिए गये। पंजाब से1997 में इसे वापस ले लिया गया, लेकिन कश्मीर में यह कानून आज तक लागू है।
सामान्यत: भी शासन-प्रशासन को आम जनता के हितों की रक्षा के लिये कुछ विशेषाधिकार मिले होते हैं और सुरक्षा बलों का दायरा इससे कुछ विस्तृत होता ही है। लेकिन इन विशेषधिकारों में जो केन्द्र में है, वह है आम जन का अधिकार। व्यवस्था का दायित्व इस अधिकार की रक्षा करना है। किसी भी व्यवस्था या अधिकारी को इसका हनन करने की छूट नहीं दी जा सकती।
सवाल यह है कि क्यों देश के कुछ हिस्से लगातार आपात्काल की स्थिति में हैं? क्या हमारी सरकारों को इस बात का जवाब नहीं देना चाहिए कि इतने लम्बे समय तक वह क्यों वहाँ की जनता को विश्वास में नहीं ले पायी/ मुख्यधारा से नहीं जोड़ पायी? अगर शासन की मानें तो क्यों नहीं शान्ति बहाल कर पायी? क्या किसी राज्य को इतने लम्बे समय तक बल प्रयोग कर ही अपने साथ जोड़ा जा सकता है? क्या राज्य और सरकारें वहाँ की जनता को विश्वास में लेने में असफल हैं? क्या सरकारों के लिये यही पहला और अन्तिम विकल्प है? इसका एक विकल्प हो सकता है इरोम का चुनाव लड़ने का फैसला। इरोम के लिये इसकी राह भी आसान नहीं है। अनशन समाप्त करने से उनके अपने समर्थक उनसे नाराज हैं। एक एन.आर.आई. से उनके विवाह के फैसले से स्थानीय लोग उनसे गुस्सा हैं। इन सबका तीखा विरोध उन्हें झेलना है।
हमें समझना चाहिए इरोम जो अहिंसक शान्तिपूर्ण विरोध प्रदर्शन की मिसाल बन गयी है, वह अब चुनाव में भागीदारी करने के फैसले के माध्यम से उन सभी के लिये उम्मीद की एक किरण है जो वहाँ शान्ति और सुकून की जिन्दगी चाहते हैं।
यह मान ही लेना चाहिए कि बल प्रयोग से सत्ता तो कायम रह सकती है लेकिन अगर लोगों के दिलों को जीतना है तो उन्हें अलग-थलग कर या देश के सामने अशान्त और अराजक तत्वों के रूप में नहीं वरन् देश के सम्मानित नागरिकों के रूप में स्थापित करना जरूरी है। इरोम यदि चुनाव जीत जाती है तो निश्चित ही बदलाव आयेगा। चुनावी राजनीति में इरोम र्शिमला कितनी जगह बना सकती है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन यह एक प्रश्न है कि क्या भारतीय राजनीति में आम जनता की आवाज को यूँ ही अनसुना किया जाता रहेगा? क्या सत्ता ही ताकत होती है?……………..फिर भी हम आशा /कामना करते हैं उन्हें व्यापक जन समर्थन मिले और वह सत्ता में आकर अपने संघर्ष को सकारात्मक परिणति में बदलें॥
(Editorial July Sept 2016)
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