एवरेस्ट की अविजित विजय भारतीय एवरेस्ट अभियान- पर्वतारोहण
चन्द्रप्रभा ऐतवाल
अक्टूबर 1983 में 1984 के एवरेस्ट अभियान दल की घोषणा की गयी। एवरेस्ट अभियान के पुरुष सदस्यों में लीडर कर्नल डी0के0 खुलर, उप लीडर कर्नल पे्रमचन्द, डॉ. मीनू मेहता, लाटु दोर्जी, फुदोर्जी, रतन सिंह चौहान, सनम पलजोर, पलसंध छीरिंग, मेजर किरण कुमार, मेजर जय बहुगुणा, एन.डी. शेरपा, मगन विस्सा तथा श्रीधरण थे। महिला सदस्यों में डॉ. मीना अग्रवाल, रीता मारवा, हर्षवन्ती बिष्ट, रेखा शर्मा, शेरावत प्रभु, बचेन्द्री पाल तथा चन्द्रप्रभा ऐतवाल का नाम था। इस प्रकार कुल 20 सदस्यों की टीम थी। फोटोग्राफरों में सिद्घार्थ काक, संजीव सेठ, नन्दू, तथा दीपक हरलांकर थे।
जब से चयन की घोषणा हुई तब से तैयारी के लिए रोज सुबह 4 बजे गंगोरी पुल तक दौड़ती थी । छुट्टी के दिन रूकसेक में पत्थर भरकर नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के चट्टान आरोहण क्षेत्र तेखला तक जाती थी। वापसी में लकड़ी, छेती भरकर लाती थी। लोगों को पता नहीं था, वे कहते थे, कितनी कंजूस है। पानी गर्म करने के लिये लकड़ी ला रही है।
दिसम्बर में हमें दिल्ली बुलाया गया। वहाँ भी 4 बजे उठकर भारतीय पर्वतारोहण संस्थान से ताल कटोरा तक दौड़ने जाते थे, फिर वहाँ 4-5 घण्टे तक ठण्डे पानी में तैरते थे। पूरे माह हमारा यही कार्यक्रम चलता रहा। जनवरी 1984 में नर्म बर्फ पर चढ़ने-उतरने के लिये हमें गुलमर्ग ले गये। कर्नल पे्रमचन्द हमारे साथ थे। यहाँ बोझ उठाकर नर्म बर्फ पर रोज चढ़ते-उतरते थे। हमारे खाने व रहने की व्यवस्था सेना के हौज में कर रखी थी। एक दिन हमें ऊँचाई पर चढ़ने के लिये लीलीविटा ले जाने की योजना बनायी गयी। हम लोग अपने सामान के साथ खाने के राशन व बर्तन आदि को उठाकर चल पड़े। पर बर्फ नरम होने के कारण शिविर तक पहुँचना बहुत कठिन हो रहा था। ऊपर से बोझ के कारण और भी ज्यादा अन्दर घुसते जा रहे थे। कर्नन सर ही ज्यादा रास्ते खोल रहे थे। हम लोग तो थोड़ी ही देर में थक जाते थे।
अगले दिन सुबह नाश्ते के बाद काफी देर तक चढ़ते रहे। लगभग 2 बजे शिविर में वापस आये। शाम के समय आस-पास ही नरम बर्फ पर चलते रहे। तीसरे दिन वापस उसी नरम बर्फ को काटकर हौज के शिविर में आये। उस दिन कपड़े आदि साफ किये और शाम के समय थोड़ा स्कीइंग किया। स्कीइंग करने में बड़ा मजा आ रहा था, पर कर्नल सर ने हमें ज्यादा इजाजत नहीं दी, क्योंकि यदि गिरते तो पैर टूटने या मुड़ने का डर था। लगभग महीने भर तक गुलमर्ग में अभ्यास करने के बाद श्रीनगर आकर सेना के गेस्ट हाउस में रुके।
श्रीनगर से बस द्वारा आकर ऊधमसिंह नगर आये और दूसरे दिन सुबह ही हम वैष्णो देवी के दर्शन हेतु चल पड़े। रास्ते शार्टकट वाले लिये। माँ वैष्णो देवी के दर्शन कर वापस लौटे। रास्ते में कहीं भी रुकने का नाम नहीं लिया। अगली सुबह दिल्ली पहुँचे। स्टेशन से सीधा भारतीय पर्वतारोहण संस्थान गये।
फरवरी के अन्त में एक सप्ताह के लिये घर जाने की छुट्टी मिली। मैं सीधे उत्तरकाशी गयी, क्योंकि मेरे साथ मेरी दीदी के बच्चे उत्तरकाशी में रहते थे। हमारी प्रधानाचार्या बहुत अच्छी थीं। बच्चे भी समझदार थे उनको वहीं छोड़कर एक बार घर में बड़ी दीदी आदि लोगों से मिलने जाना जरूरी था।
(Indian Everest Expedition – Mountaineering)
1 मार्च, 1984 को उत्तरकाशी से घर की तरफ निकल पड़ी। रास्ते में ग्वालदम की बस पकड़ने के लिये भट्ट भैय्या की मोटर साइकिल से सुबह 4 बजे उत्तरकाशी से श्रीनगर हेतु चल पड़ी। कभी-कभी मुझे नींद की झपकी भी आ रही थी। बेचारा भट्ट भैय्या जो अब इस दुनिया में नहीं है, बार-बार कहता था, दीदी सोना नहीं। उनके ये शब्द मैं कभी भूल नहीं सकती हूँ। इस तरह सही समय पर श्रीनगर पहुँच गयी। मैं तीन साल बाद घर जा रही थी। अत: घर में पितृ पूजन किया और सभी रिश्तेदारों से भेंट की। घर में आकर हमेशा ही अपने माँ, पिता की याद आती है। इस कारण घर की तरफ बहुत ही कम आती थी। मेरी दीदी बहुत ही ज्यादा अंधविश्वासी है। हर जगह पूजा करने लगती है। उसे देखकर गुस्सा व प्यार दोनों ही आता है, क्योंकि बेचारी बहुत भोली है। धारचूला अब बहुत बड़ा कस्बा हो गया है।
दूसरे दिन सुबह 4 बजे की बस पकड़ कर दिल्ली के लिये रवाना हुई। पिथौरागढ़ रास्ते में पड़ता है। अत: अपनी ताऊ की लड़की को खड़े-खड़े ही मिल कर आयी। रास्ते भर अनेक प्रकार की कल्पना करती हुई टनकपुर पहुंची। टनकपुर में मुझे गाड़ी बदलनी थी। मेरी गाड़ी का समय शाम 7.30 का था। समय काटना मुश्किल सा हो रहा था कि 5 बजे देव सिंह चाचाजी मिल गये, मिलकर बड़ी ही खुशी हुई। वे मुझे होटल ले गये। वहां बड़े भाई साहब (रतन सिंह) भी आये हुये थे। रात कभी सोती तथा कभी जागती हुई 6 बजे दिल्ली पहुंची।
दिल्ली आई0एस0बी0टी0 से धौलाकुंआ हेतु 207 नं0 की बस चलती थी। धौलाकुंआ से भारतीय पर्वतारोहण संस्थान तक पैदल चलकर गयी। सभी सदस्यों के आने के बाद सामान बांधने का कार्य करने में लग गये।
आज उत्तरकाशी के मुकेश रतूड़ी मिलने आये, मिलने पर बहुत अच्छा लगा। हमे अशोका होटल से केक उठाकर लाना था। उसी समय मुकेश को लेकर अशोका होटल गये। सेना के वन-टन पर दो बार सामान लाये और पूरी रात सामान बांधने का ही कार्य करते रहे। रात में कभी-कभी चाय पीकर नींद भगाने की कोशिश करते थे। बार-बार यही लगता था कि 7 मार्च को रवाना हो पायेंगे या नहीं ? 5 मार्च की शाम को राजीव गांधी से मिलने गये। वहां वैजयन्ती माला व डॉ0 बाली मिले और उनके साथ फोटो खिंचवाया, बहुत अच्छा लगा।
6 मार्च सुबह से ही बहुत व्यस्त कार्यक्रम था। 8.30 बजे प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी से मिलने गये। वहां बहुत से अन्य लोग भी थे। वहीं से 9.30 पर बूटा सिंह, खेल मंत्री जी से मिलने गये। 11.30 पर राष्ट्रपति श्री ज्ञानी जैल सिंह से मिलने गये। ज्ञानी जी से मिलकर काफी अपनत्व का भाव महसूस किया। उन्होंने काफी प्रश्न पूछे,जिनके हमने उत्तर दिये। वापस आकर फिर सामान बांधने के कार्य में लग गये। आज की रात बहुत भयंकर रात थी। सारी रात सामान बांधने में ही लगे रहे, क्योंकि काम खत्म ही नहीं हो रहा था।
7 मार्च को सुबह से ही सामान को चढ़ाकर गाड़ी में बैठकर हवाई अड्डे गयी। वहां केवल रतन सिंह व पलजोर थे, जो गाड़ी के सामान को जहाज पर चढ़ा रहे थे। इस प्रकार 9 बजे तक रतन सिंह, सनम पलजोर और मैं तीनों ने ही सामान को जहाज पर चढ़ाया। किसी तरह 12 बजे दिल्ली से हवाई जहाज में चढ़कर नेपाल के लिये रवाना हुये। हवाई जहाज में सभी इतनी बुरी तरह से सोये कि किसी को जहाज से चारों ओर के दृश्य देखने का मौका ही नहीं मिला। लगभग 2 बजे काठमांडू पहुंच गये थे। यहां कैप्टन कोली, सरीन सर तथा ज्योति खन्ना हमें हवाई अड्डे पर लेने आये हुए थे। सरीन सर के साथ सीधे कार्यालय गये। वहां हाथ, मुंह धोकर चाय पी। सैनिक निवास में हमारा रहने का प्रबन्ध था। शाम को सरीन सर के यहां कौकटेल पार्टी थी। वहीं से ‘‘याक एण्ड यती” होटल में खाना खाने गये।
8 मार्च को कमल पोखरी में अपना सामान बांधने का कार्य करना था। सभी उसी कार्य में व्यस्त थे। आज मीना और मुझे उडलैण्ड होटल में रहने हेतु भेजा गया। होटल काफी अच्छा था। दो दिन लगातार ही सामान खरीदते और उसे बांधने का कार्य करते रहे। अपना आवश्यक सामान भी खरीदा। शाम चाचा जी लोगों के साथ पशुपति नाथ जी का दर्शन करने गये, वहां बन्दर ने मेरा प्रसाद खा दिया। मन में काफी बुरा लगा, फिर दुबारा प्रसाद खरीदकर चढ़ाया। आज महीराज मिला, उसने मेरे लिये फैदर की टोपी व फैदर के दस्ताने खरीदे। सारा दिन सामान खरीदने और उसे बांधने में ही बीत जाता था।
11 मार्च को होटल छोड़कर सभी पहले ‘‘इण्डियन ऐम्बेसी” सरीन सर के कार्यालय गये, फिर वहीं से बस द्वारा सीधे धूली खेत में नाश्ता करने रुके। सरीन सर कहने लगे जितना खातिर करानी है, करा लो। फिर बस में इन्द्रानी नदी तथा सोनकोसी नदी को पार किया। खाड़ी चोर में बस बदलकर जिरी के लिये रवाना हुये। रास्ते में बहुत से गांव दिखाई दिये जो काफी अच्छे और खेतों से भरपूर थे, किन्तु थोड़ी देर के बाद अंधेरा होना शुरू हो गया। अंधेरे में ही जिरी पहुंचे।
(Indian Everest Expedition – Mountaineering)
जिरी में सामान उठाने हेतु कुली आये हुए थे। उनमें बहुत सी महिलायें भी थी। सभी कुलियों को बोझ देकर उनका नाम लिस्ट में लिखा जा रहा था। ये काम जय बहुगुणा को सौंपा गया था। नाश्ता करने के बाद हम लोग भी चल पड़े। चारों ओर का दृश्य बहुत सुन्दर था। कहीं-कहीं का रास्ता बिल्कुल अपने यहां का रास्ता लगता था। आज का शिविर शिवालिया में था। यहां का शिविर क्षेत्र बहुत अच्छा था।
शिवालिया से थोड़ा-थोड़ा चढ़ाई चढ़ते हुये देवराली पास में पहुंचे। वहां चीज की फैक्ट्री है। यहां रिज होने के कारण दोनों तरफ के क्षेत्र को आराम से देख सकते हैं। चंगमा का इलाका बहुत ही सुन्दर है। देवराली से हिमालय पर्वत भी दिखाई देता था। धीरे-धीरे उतरते हुए चंगमा पहुंचे। यहां कृषक खेती की बुवाई का कार्य कर रहे थे। पूछने पर पता चला कि धान के खेत की तैयारी कर रहे हैं। अब मुझे अकेले चलने की आदत हो गयी थी। अत: जूते के निशान या रास्ते में किसी से पूछकर चलती जाती थी। रास्ते में पहली बार झूला पुल पार किया और कीन्जा में खाना खाया। यहां से चढ़ाई शुरू हो गयी और हवा भी चल रही थी। अत: चढ़ाई मेंं अधिक तकलीफ नहीं हो रही थी। आज का शिविर सैठे में था। यहां शेरपा लोग रहते हैं। शेरपा लोगों के घर में दही और आलू खाया। ये लोग सीधे होते हैं। यहां शिविर का क्षेत्र साफ नहीं था।
15 मार्च को सैठे से 7.25 पर रवाना हुये। मेरे साथ मीना भी थी। आज पूरा रास्ता चढ़ाई का था, पर सुबह होने के कारण आराम से चल रहे थे। गोयाक में खाना खाया और खाना खाने के बाद लोपसंग शेरपा के साथ चल दी। तीन घण्टे तक बिना रुके चलती चली गयी। कुछ देर चलने के बाद लोपसंग भी चला गया और मैं रास्ता भूल गयी, पर 7 बजे जुनवेसी पहुंच गयी। यहां का शिविर क्षेत्र भी काफी सुन्दर था। जुनवेसी में हिलेरी द्वारा बनाया गया जूनियर हाईस्कूल है, जहांं लड़के व लड़कियां साथ-साथ पढ़ते हैं।
यहां लोग नेपाली या अंग्रेजी में बात करते हैं और हिन्दी कम जानते हैं।
अगले दिन हम आराम से उठे, क्योंकि आज यहीं रुकना था। हम लोगों ने अपना सामान ठीक किया, स्नान किया और कपड़े धोये। फिर सभी घूमने निकल गये। आज होली थी। सभी ने आपस में होली खेली। रात को बच्चों का सांस्कृतिक कार्यक्रम देखा। बच्चों के हिसाब से यह अच्छा कार्यक्रम था। शेरपाओं के साथ हमारे सदस्य भी शेरपा डान्स करने लगे। सभी मस्त थे। 17 मार्च को 7.25 पर जुनवेसी से रवाना हुए। शुरू का रास्ता काफी अच्छा था। आराम से नीचे की ओर उतरते चले गये। नदी के किनारे एक अच्छी सी जगह पर दोपहर का भोजन किया। खाना खाने के बाद सीधी चढ़ाई चढ़नी थी। दूर से तिकसन्तो चीज फैक्ट्री देखी। उसके बाद 9000 फीट की ऊंचाई के पास को पार करके छायादार पेड़ों से घिरे रास्ते से होकर गुजरे। रास्ते में वर्षा शुरू हो गयी। 2.15 के लगभग नून थाली पहुंचे। आज हमें यहीं रुकना था। जिन कमरों में हम रहे, उनमें रात को काफी कीड़े काटने लगे। इन कमरों में हमसे पहले भी लोग ठहरे थे और सफाई ठीक से नहीं की गई थी।
अगले दिन लगभग 1 घण्टे के उतार के बाद दूधकोसी नदी को पार किया, फिर चढ़ाई शुरू हो गयी। यहां खेती में काफी बदलाव था और खेत अच्छे नहीं थे। जुम्दींग में खाना खाया। यहां हरी सब्जी बनी थी, पर मिर्च इतनी ज्यादा थी कि पेट में बल पड़ने लगे। यहां स्थानीय छ्यांग और रक्सी बहुत मिलती है। औरतें व मर्द दोनों ही खूब पिये हुए दिखे। यहां गांव के बीच में खारी खोला में शिविर है। गांव में काफी दुकानें भी थीं। अकेले होने के कारण मैं काफी शान्त होती जा रही हूं। भगवान की कृपा से अभी तक ठीक हूं।
खारी खोला से चढ़ाई शुरू हो जाती है, पर रास्ता छायादार पेड़ों वाला है। अब रास्ते में होटल काफी दूरी पर हैं। कहीं-कहीं पर बहुत से पेड़ कटे हुए थे। यहां से छोयू, कोगदे, चज्यूरबखां, जेज्यूगरखां आदि चोटियां दिखाई देती हैं। बहुत पहले भारतीय महिला मिश्रित अभियान में छोयू गयी थी, जिसमें लाटू की श्रीमती डोमा शेरपा, तेंजीग की लड़की आदि थे। पर उस अभियान में फ्रान्स की एक लड़की की मृत्यु हो गयी थी। यहां से चोटी बहुत सुन्दर दिखती थी। पुया नामक जगह पर शिविर किया और शाम को कुलियों के साथ एक छोटी सी बैठक की।
(Indian Everest Expedition – Mountaineering)
पुयां से 7.30 बजे रवाना हुये। 1.30 पर अन्य सदस्यों के लिये रुकी। रास्ते में एक शेरपा के घर गयी। उनके परिवार के साथ फोटो खींचा। रास्ते में बहुत से विदेशी दिखाई दिये। एक लड़की तो पूरी तिब्बती बोल रही थी। पूछा तो कहने लगी 1 माह में सीख ली थी। मुझे ताज्जुब हो रहा था कि इतनी जल्दी कैसे सीखी होगी ? आज हमारा शिविर दूध कोसी नदी के किनारे घाट नामक स्थान पर था। हमारा फिल्म वाला दल लोकला चला गया क्योंकि उन्हें काठमांडू काम से जाना था। अब पहाड़ों की ऊंचाई बढ़ रही थी और अधिक चट्टान दिखाई दे रही थी।
घाट से 7.40 पर रवाना हुई। रास्ते में आज सबसे ज्यादा पथारोही दिखाई दिये जिनमें सबके सब विदेशी थे। एक जापानी पथारोही से काफी बातें की क्योंकि वह भी अकेला था। दो घण्टे बाद दोपहर के भोजन का स्थान आ गया था। 2 घण्टे वहीं आराम किया। रास्ते में नेपाल सरकार का एक चैक पोस्ट था। उसका नाम असरोला था। काफी दूरी पर लम्बा सा झूला पुल था। उसे पार करके सीधी चढ़ाई चढ़कर नामचै बाजार पहुंचा जाता है। नामचै बाजार की ऊंचाई 11300 फीट है। यहां संसार की सभी चीजें मिल जाती हैं। हालांकि कीमत बहुत ज्यादा है। पुल पार करने के बाद थोड़ी चढ़ाई चढ़ने के बाद मैने पहली बार अपने लक्ष्य (एवरेस्ट) को देखा। काफी देर तक उसे निहारती रही। उसके बाद धीरे-धीरे नामचै बाजार की ओर चल पड़ी। आज का शिविर हमारा नामचै बाजार में ही था।
नामचै बाजार के पास में ही एक म्यूजियम है, जिसमें स्थानीय लोगों के व्यवसाय, एवरेस्ट अभियान में चोटी को फतह करने वाले लोगों के फोटो, एवरेस्ट का इतिहास आदि सभी का वर्णन था। यदि इस म्यूजियम में कमरे अधिक होते और टिकट की प्रणाली होती तो और अच्छा रहता, ऐसा मेरा विचार है। पास में ही ‘‘सागर माथा नेशनल पार्क’’ है जिसमें काफी जानवर दिखते हैं। इसे काफी ठीक करने की आवश्यकता है। नमचै बाजार के पास पानी बहुत है, पर साफ नहीं। सभी सदस्यों ने एक-एक कनस्तर गर्म पानी 10-10 रु. में खरीदकर नहाया। फिर दूर-दूर तक घूमने गये। नमचै बाजार के पास ही बहुत बड़ा अस्पताल है जो विदेशी सरकार की मदद से बना है। यहां बड़े-बड़े होटल भी हैं। यहां खेती खास नहीं होती, बस आलू ही यहां की मुख्य खेती है, पर बाजार में हर प्रकार का चट्टान आरोहण का सामान उपलब्ध है। एक दिन यहां स्थानीय बाजार लगता है, जिसमें आस-पास के गांव वाले सामान खरीदने व बेचने आते हैं। यहां ताजा मांस भी बाजार में बिकता है।
नमचै बाजार से दूसरे दिन तांगमूचै के लिये चल पड़े। आज का रास्ता काफी संकरा व ढलान वाला है, किन्तु पहुंचते समय काफी चढ़ाई है। इससे पहले इमजा खोला को पार करना पड़ता है। तांगमूचै की ऊँचाई 12,000 फीट के लगभग है। यहां इस इलाके का सबसे बड़ा गुम्बा (मन्दिर) है। यहां जापानी पर्वतारोही (कांटों) का स्मारक बना है। आज हम लोग ‘‘टे्रकर लॉज” में रहे, जहां बड़े-बड़े कमरे हैं। यहां से एवरेस्ट का दृश्य बहुत ही सुन्दर दिखाई देता है। दूसरे दिन हम लोगों ने यहीं आराम किया। नाश्ता करने के बाद एक-दो हजार फीट तक की चढ़ाई की। तागमूचै यहां से और भी सुन्दर दिखाई देता है। सामने अमांडब्लप पर्वत अपनी सुन्दरता को बिखेरजा हुआ सीधा खड़ा है। बहुत से पर्वतारोहियों ने इसे फतह किया है। तांगमूचै एक समतल मैदान पर बसा है, जहां आस-पास बहुत से लॉज हैं।
अगले अंक में समाप्त
(Indian Everest Expedition – Mountaineering)
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