बेटू कल 15 अगस्त है
गीता गैरोला
कल 15 अगस्त है, हमारा स्वतंत्रता दिवस। पता नहीं क्यों मन बेकल है। कभी बाहर जाती हूँ और थोड़ी देर बाद ही वापस अंदर आ जाती हूँ। अपने जवान होते बेटे की तरफ बार-बार देखती हूँ जो बेफिक्र टेलीविजन देखने में मस्त है। उसे दो बार याद दिलाया, बेटू कल 15 अगस्त है ना। एकटक टीवी को देखते, रिमोट से चैनल बदलने में व्यस्त बच्चे ने हाँ बोलने का कष्ट भी नहीं किया। सहमति में सिर हिला दिया। मैं उसके मुंह से क्या सुनना चाहती हूँ? उसके चेहरे में क्या देखना चाहती हूँ। ऐसा क्या है, जो मुझे सुनाई नहीं दे रहा। दिखाई नहीं दे रहा है। वह कौन-सी फांस है, जो मुझे बैचेन बनाए है। अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले दादी की स्मृतियां, अपने बचपन के दिनों में चली जाती हैं। बालपन में सुनी ढेरों कहानियों, ढेरों शैतानियों के साथ सेरों में उगी जीरी (धान की किस्म) के भात का स्वाद दादी के मुंह में लौट-लौट आता। जाने उसके मन में ऐसा क्या उमड़ता रहता, जो अनजानी नजरों से हमारी तरफ देखकर कहना चाहती और कह नहीं पातीं। जो बच्चे, उसकी साँस की तरह उसे जीवनी-शक्ति देते थे, सब उसके लिए अजनबी हो गये थे।
तो क्या बढ़ती उम्र के साथ सभी सरपट बचपन की तरफ दौड़ लगाते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि बचपन की स्मृतियाँ बढ़ती उम्र के डर को घटाती हों।
अगस्त की उमसायी-अलसायी शामों की उदासी बिखराने के लिए खुली छत से रमणीक कोई जगह नहीं होती। मेरे घर की छत से कोहरे में लुका-छिपी करती मसूरी और सुरकण्डा की काली-हरियाली पहाड़ियाँ दिखाई देती हैं। शामों की उमड़-घुमड़ उदासी को काटने मैं अक्सर छत में चली जाती हूँ। कालोनी के पार्क में बच्चों की लुका-छिप्पी, पकड़म-पकड़ाई, चिल्ल-पौं मन का अवसाद धो-पोंछ देती है। सामने वाले पार्क में इक्के-दुक्के बच्चे छुपन-छुपाई खेल रहे हैं।
इतनी बड़ी कालोनी में बस इक्के-दुक्के बच्चे। ध्यान से देखती हूँ, अरे! ये तो घर के कामों में मेरा हाथ बंटाने वाली सुनीता के बच्चे हैं। सुनीता बिहार में नेपाल की सीमा से लगे किसी दूर दराज के जिले से अपने पति, तीन बच्चों के साथ रोजी-रोटी की तलाश में देहरादून आई है। उसका पति राम बाबू मजदूरी करता है और वह खुद कालोनी के बहुत सारे घरों में झाडू-पोंछा, बरतन साफ करने का काम करती है। एक और हुनर है उसके पास, वह बहुत अच्छी मालिश करती है। मालिश करने के 70 रु. रोज कमाती है। मैं हमेशा सुनीता की तुलना अपने जैसे लाखों पहाड़ियों से करती हूँ। हम भी तो रोजी की तलाश में परदेश आये हैं। सुनीता और हम जैसे भगोड़े पहाड़ियों में इतना ही फर्क है कि वह बोली-भाषा, रहन-सहन, तीज-त्यौहार मनाने में खालिश बिहारी है। पैसा कमा कर अपने गाँव लौट जाती है। वहाँ उसका घर है, नाते-रिश्ते हैं, रंग-बिरंगी पवनी (त्यौहार) है और हम अपनी जड़ों से कटे घर के रहे न घाट के। हमारे बच्चों ने पहाड़ के गाँव देखे तक नहीं हैं। गढ़वाली बोलने की आदत उन्हें नहीं है। कौन जाने छोेटापन समझते हों। वे अंग्रेजी बोलने में ही अपना भविष्य देखते हैं। मुझे अपने जैसे लोगों को देखकर हमेशा पेड़ से टूटे, हवा में इधर-उधर डोलते पत्तों की याद आती है। बच्चों के शोर से मेरा भटकता मन फिर पार्क की तरफ मुड़ गया। कालोनी के बाकी बच्चे अपने घरों में टीवी देख रहे होंगें या ट्यूशन पढ़ रहे होंगे। बचपन की अतिरिक्त ऊर्जा खरचने के लिए पूरी कालोनी में चक्कर लगाने के साथ पार्क में छुपम-छुपाई खेलना सुनीता के बच्चों का सबसे प्यारा शगल है। सुनीता ने तीनों का नाम स्कूल मे लिखवाया है, पर इन्हें स्कूल जाते कभी देखा नहीं मैंने।
आँखें बरसात की गाढ़ी हरियाली के बीच कोहरे के फाहों में डोल रही हैं। दिल-दिमाग मन के ओने-कोनों में छिपे बचपन में कुलांचे भर रहा है। कल 15 अगस्त है, अभी तक कर्जू भैजी ने मेरा सलवार कुर्ता नहीं सिला। पांच दिनों से रोज उसके घर पर हाजिर हो जाती। जिस दिन अपनी सलवार सिलते देख आई तभी तसल्ली हुई। हर बार कह आई, कुर्ता जेब वाला सिलना, भूलना नहीं हो भैजी। दोनों तरफ जेब लगाना। आज तो वे सिल ही देंगे। 15-20 दिन हो गए कपड़ा दिये। कर्जू भैजी रोज आज-कल करके टरकाते रहे। परसों शाम ही कर्जू भैजी के घर जाकर रोना-धोना मचा आई। अगर नया सलवार कुर्ता नहीं सिला तो 15 अगस्त को प्रभात फेरी में क्या पहन कर जाऊँगी। सुबह की प्रभातफेरी के बाद दिन में मवाधार स्कूल भी जाना है। एक महीने पहले से ही दादा जी के साथ जाकर पाटीसैंण के बाजार से लाल रंग की कमीज और हरे रंग की सलवार का कपड़ा लाकर सिलने दे दिया था। ये कर्जू भैजी कपड़े सिलने में भौती नखरे दिखाते हैं।
(15 August)
सलवार-कुर्ते की सिलाई में बहुत देर होते देख, दादी से शिकायत करती- दादी, इस बार तू डडवार भी खूब देर से देना। ये भैजी कोई काम बिना खुशामद के नहीं करता। सुबह-शाम चक्कर लगाती हूँ। रोज ही मुझे टरका देते हैं। पता नहीं, कब सिलेंगे मेरे नये कपड़े।
ऐसा नहीं बोलते मेरी लाटी। खाली कपड़े सिलने के लिए ही हम डडवार नहीं देते। वह हर संग्रांद, मासांत को बड़ाई बजाता है। कोई शुभ काम कर्जू के ढोल बजाए बिना पूरा नहीं होता। डडवार उसका हक है, वह तो देना ही है। छोटे बच्चों के मुख से ऐसी बातें अच्छी नहीं लगतीं। उसके बिना हमारा काम नहीं चलता, हमारे बिना उसका काम नहीं चलता, दादी ने मेरा सिर मलासते हुए समझाया।
ये वो दिन थे, जब गाँव में कपड़े सिलने का काम औजी किया करते थे। गाँव के पूरे मवासे (परिवार) उनकी वृत्ति में बंटे रहते। हर परिवार में जैसे भाई-बांट (जमीन की बांट) होती, वैसी ही बांट औजी, लोहार, ओड़ (चिनाई करने वाले शिल्पकार) के परिवारों की भी होती। औजी अपनी वृत्ति के ढोल बजाने के साथ कपड़े सिलने का काम करते। लोहार कुटली, दरांती बनाने, अणसाला लगाकर पैनी करने के साथ कोल्हू में तेल पेरने का काम भी करते। उनकी जजमानी बंधी रहती। इसके बदले उन्हें मजदूरी देने का रिवाज नहीं था। प्रत्येक फसल में सूप के निश्चित माप से हर एक परिवार डडवार देता और सेवाएं लेता। हल लगाने तथा खेतों में काम करने का अतिरिक्त पैसा या अनाज दिया जाता।
हमारे हिस्से में कर्जू भैजी थे। सज्जन, मिठबोले और अपने हुनर के पक्के। दादाजी के लिए सर्ज का बास्केट वाला सूट, कर्जू भैजी ने ही सिला था। अपने अन्तिम दिनों तक दादा जी का यह सबसे प्रिय सूट था। आज दादा नहीं हैं और कर्जू भैजी भी नहीं रहे, पर कर्जू भैजी का सिला सूट के साथ का कोट पिताजी के पास आज भी दादा जी की समलौण रखा है।
वही कर्जू भैजी मेरा कुर्ता-सलवार सिलकर देने में इतनी आनाकानी कर रहे हैं। कभी छज्जे में बाहर, कभी रसोड़े में चक्कर लगाती रही। माँ ने सुबह-सुबह गरम पानी कर मेरे बालों को रगड़-रगड़ कर नहलाया। इतने घने बाल सूखने में पूरा दिन लगता। बाल सूखने के बाद सरसों का तेल लगा कर दादी सुलझायेगी। माँ तो झिंझोड़ ही देती है, दादी हौले-हौले एक-एक बाल अलग करके सुलझाती। परसों स्कूल की छुट्टी होते समय मास्टर जी ने याद दिलाया था, सभी बच्चे ठीक पांच बजे सुबह स्कूल में पहुंच जायेगें। चार गांवों में जाना होगा प्रभात फेरी करने। मैंने अपने सारे भाई-बहनों को इकट्ठा कर नारे लगाने की प्रैक्टिस कर ली। प्रभात फेरी में गाए जाने वाले गीतों को याद कर लिया। कोई मजाक बात नहीं है, सबसे आगे झण्डा उठा कर मुझे ही जाना है। मास्टर जी ने कहा, जो बच्चा स्कूल में सबसे पहले पहुँचेगा, वही प्रभातफेरी में झण्डा उठा कर सबसे आगे चलेगा। रूमक (रात) पड़ गई। अभी तक दूर-दूर तक कर्जू भैजी का नामोनिशान नहीं दिखता।
अंधेरा होने तक कर्जू भैजी ने सलवार-कुर्ता सिल कर दे ही दिया। वाह, क्या अच्छा सिला है। दोनों तरफ जेब लगाई है। मैंने अपने नये कपड़े तह कर सिरहाने रख दिये। सुबह जब इनको पहनूँगी तो ऐसा लगेगा जैसे प्रैस किये हों। 15 अगस्त मनाने की इतनी चौंप (उत्साह) लगी है कि ठीक से खाना भी नहीं खाया गया। देर तक करवटें बदलती रही, कहीं सुबह उठने में देर हो गई तो प्रभातफेरी में सबसे आगे झण्डा उठाने का मौका नहीं मिलेगा। दादा जी ने स्वतंत्रता आन्दोलन की पूरी कहानी सुना दी। चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव को दी गई फाँसी के बाद ही हम तिरंगा फहराने के लायक हो पाए। बेटा, ये हमारा सबसे बड़ा त्यौहार है। बहुत लोगों के शहीद होने के बाद हमें ये दिन देखने को मिला। महात्मा गाँधी के सत्याग्रह का पूरा किस्सा सुनाकर दादा जी एक गीत सुनाते है। दे दी हमें आजादी बिना खड्ग, बिना ढाल, साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल।
दादा जी ने जो भी कहा, कुछ सुनाई नहीं देता। ये कहानियाँ इतनी बार सुन ली कि अब मुँह जुबानी याद हो गई। बस इतना याद है कि कल 15 अगस्त को नए कपड़े पहन कर प्रभातफेरी में नारे लगाकर गीत गाने हैं।
(15 August)
अचानक मैं उठ कर बैठ गई। दादी तू, अभी मेरी दो चोटी बना दे, सुबह बाल बनाने में मुझे देर हो जाएगी। मेरा उतावलापन देख कर दादा जी जोर से हँसे, बोले- बेटा अगर दादी तेरे बाल अभी बना देगी, रात भर सोने के बाद सुबह तक बाल झण्डू जैसे हो जाएंगे। तू मुझ पर विश्वास करती है न, सो जा। सुबह जल्दी से उठा दूंगा। प्रभातफेरी में सबसे आगे तू ही झंडा उठाकर चलेगी। सुबह दादी ने मुझे उठाने के लिए हाथ लगाया ही था कि चड़ाक से उठ बैठी। फटाफट कुल्ला-पिचकारी कर लाल साबुन से रगड़ कर मुँह धोया। नए कपड़े पहने। दादी ने धीरे-धीरे बाल सुलझा कर लाल रिबन बाँध चोटी बनवाई। दादी चाय पीने के लिए आवाज देती रह गईं, मैं तो ये जा और वो जा। मास्टर जी और मैं एक साथ स्कूल में पहुंचे। धीरे-धीरे सब जमा हो गए। मास्टर जी ने लंबी-सी लाइन बना दी। सबसे आगे झंडा उठाए मैं चल रही हूं, मेरे साथ तीन और लड़के-लड़कियाँ गीत गा रहे हैं।
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा
झंडा ऊँचा रहे हमारा
शान न इसकी जाने पाए, चाहे जान भले ही जाए।
पीछे से चलने वाले सब बच्चे गीत दोहरा रहे हैं। हमारे स्कूल में तीन गांवों के बच्चे पढ़ते हैं- पलाई, गोकुल गाँव और भट्टी गाँव। हम प्रभातफेरी के लिए सबसे पहले स्कूल के नीचे वाले पलाई गाँव में जायेंगे। गाँव की सीमा लगते ही एक जना नारे लगाता है।
भारत माता की
जवाहर लाल नेहरू की
महात्मा गांधी की
अमर शहीदों की
सब एक जोर से कहते हैं- जय हो।
नगरगांव के स्कूल से प्रभातफेरी के गीत और नारों की आवाज आ रही है। पलाई गांव के पंचायत घर में सब बच्चे झूम-झूम कर गा रहे हैं। गाँव के बच्चे, बूढ़े, जवान, महिलाएं सभी लोग अपने घर से बाहर आ गए। भीड़ को देख कर बच्चे उत्साह में जोर-जोर से नारे लगाते हैं। गाँव के प्रधान जी झंडे के साथ बच्चों को पिठाई भी लगा रहे हैं। अपनी श्रद्घा और हैसियत के अनुसार गांव के कुछ लोग थाली में सिक्के डालते हैं तो कुछ बच्चों के लिए गुड़ लाए हैं। बच्चे गुड़ खाकर पानी मांगने लगे। थोड़ी-सी चढ़ाई पार कर गोकुल गांव जाना है और अंत में मेरा गाँव भट्टी गांव। वह गाँव जो आज भी मेरे सपने में आता है। अपने गांव की सीमा में आते ही मेरा उत्साह दुगुना हो गया। मैं नारे लगाने के लिए ऊँची जगह में चढ़ गई। दादा जी गाँव के प्रधान हैं। थाली में पिठाईं चावल से झण्डे के साथ सब बच्चों को टीका लगाते हैं। गांव के सब लोगों ने बच्चों के लिए एक गुड़ की भेली दी। दादा जी ने भी हम बच्चों के लिए एक गुड़ की भेली दी। लोग चाव और उत्साह से प्रभातफेरी के गीत सुनते हैं। प्रभात फेरी का अंत स्कूल में झंडारोहण से हुआ। बच्चों को गुड़ बांटा गया। थाली में जमा पैसे मास्टर जी की पिठाईं है। शिक्षको को वेतन ही कितना मिलता था। इस बहाने लोग अपने बच्चों के गुरु का सम्मान करते। अब बच्चे थके-थके से लग रहें हैं। मास्टर जी ने बच्चों को याद दिलाया, दिन में सब बच्चों को खाना खाकर भट्टी गांव के पंचायत घर में जमा होना है। बच्चे एक स्वर में जयहिंद का नारा लगाते हुए अपने घरों की तरफ सरपट दौड़ लगाते हैं। घर पहुंचते ही दादा जी ने मेरी पीठ थपथपाई। शाबास मेरी बेटी, कितनी बुलंद आवाज में नारे लगा रही थी। हर काम में अव्वल रहती है। मैंने तड़ी से अपने छोटे भाई-बहनों की तरफ देखा। आँखों को मटकाते हुए इशारा किया, देखा मेरा रुतबा।
(15 August)
माँ ने दालभात के साथ कद्दू के फूलों की पतौड़ बनाई। दादा जी ने हाथ-मुँह धुलाया। मैं नये कपड़े पहन कर ही खाने की जिद्द करती हूँ। दादी बोली- अरे छोरी, अभी मवाधार स्कूल जाना है, कपड़े बदल ले, नये कपड़े मैले हो जायेंगे। उतार कर, तह कर दे, तब खा भात। अच्छे बच्चों की तरह चुपचाप कपड़े उतार तह कर सिरहाने रख दिये। डट कर दाल-भात खा कर बिना ऊधम मचाये चुपचाप सो गई।
शायद 11 या 12 बजे का समय होगा। हमारे स्कूल के सब बच्चे पंचायत घर में जमा हो गए। दो-दो की पंक्ति में बच्चों की रंग-बिरंगी छटा गीत गाते मवाधार स्कूल की तरफ चली। (मवाधार आस-पास के कई गाँवों के बीच में अकेला जूनियर हाईस्कूल था। 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर तथा 5 सितम्बर शिक्षक दिवस को आसपास के सभी प्राइमरी स्कूलों के बच्चे मवाधार स्कूल में एकत्रित हो कर सांस्कृतिक कार्यक्रम करते। बच्चों के इन कार्यक्रमों को देखने के लिए सभी गाँवों के लोग मवाधार स्कूल उत्साह से आते। उस वक्त गाँव में झोड़ा, चौफला, थड़या गीतों की लोक परम्पराओं के अतिरिक्त स्कूलों में होने वाले कार्यक्रम, रामलीला तथा नाटक लोगों की जिंदगी में मनोरंजन का रस घोलने का एकमात्र जरिया थे।
नई-नई आजादी मिलने के दौरान हुआ संघर्ष लोगों का व्यक्तिगत अनुभव था। लोक त्यौहार तथा राष्ट्रीय त्यौहारों को मनाने का जज्बा एक जैसा होता। मवाधार स्कूल के ग्राउण्ड में स्कूल के लड़के दो लाइन बना कर स्वागत के लिए तैयार थे। दोनों लाइनों के बीच से निकलते हुए हम लड़कियों के लिए विशेष हिदायत होती कि हम बड़े लड़कों के बीच में से सिर झुका कर और नजरें जमीन पर गड़ाए चुपचाप जाएंगी। पता नहीं, ये हिदायत किसने, कब और कहां दी होगी, पर हम सब लड़कियाँ ऐसे ही करतीं।
मवाधार स्कूल के लड़के स्वागत गीत गाते- स्वागत है श्रीमान आपका स्वागत है। इस जूनियर हाईस्कूल में इक्की-दुक्की लड़कियाँ भी पढ़ा करतीं थीं। पर स्वागत गीत गाने के लिए लड़कियों को आगे करने का रिवाज तब तक नहीं था।
स्कूल के ग्राउण्ड में लड़के एक तरफ बैठते और लड़कियों की लाइन अलग होती। लड़कियों की लाइन पूरे समय चुपचाप सिर झुकाकर बैठी रहती। सिर झुकाये-झुकाये तालियाँ बजाना उनके स्कूल अनुशासन में शामिल था। आपस में जरा भी खुसर-पुसर करते देख मास्टर जी जोर से डांट लगाते, चुप रहो लड़कियो, शांति से बैठो। मवाधार स्कूल का संचालन एक मैनेंजिंग कमेटी करती थी। मेरे दादा जी उस मैनेजिंग कमेटी के मैनेजर थे। मैनेजिंग कमेटी के प्रमुख को अध्यक्ष न कह कर मैनेजर कहा जाता था। मैंने ऐसे ही सुना था। मैंनेजिंग कमेटी के प्रमुख होने के नाते दादा जी स्कूल के हैडमास्टर साहब के पास बीच वाली कुर्सी पर बैठते। बाकी सब बच्चों पर अपनी धाक जमाने के लिए, कई बार दादा जी के पास जाकर खड़ी हो जाती। यह जताने के लिए कि बीच वाली बड़ी कुर्सी पर मेरे दादा जी बैठे हैं। आठ-दस स्कूलों के बच्चों में लड़कियों की संख्या 15 से 20 तक थी। लड़कियों को स्कूल भेजने का रिवाज नहीं था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन पर एक भाषण दादा जी से लिखवा कर मैंने रट लिया था। उसकी प्रैक्टिस दादा जी ने घर में करवा दी थी। संचालन करने वाले मास्टर जी ने मेरा नाम पुकारा, अब गीता रानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन पर आधारित अपना भाषण देंगी। मैं शान से बच्चों के बीच से उठकर अपने दादा जी की कुर्सी का हत्था पकड़ कर खड़ी हो गई। सिर उठा कर चारों तरफ देख, आदरणीय गुरुजनो, उपस्थित सज्जनो, प्यारे भाई बहनो के सम्बोधन के बाद धाराप्रवाह बोलना शुरू किया। सबने जोर-जोर से ताली बजाई। दादा जी ने पीठ थपथपाकर शाबाशी दी और हेडमास्टर साहब ने एक रुपया ईनाम दिया। लोग जहां एक तरफ इतने सारे लोगों के बीच में मेरे धाराप्रवाह बोलने की तारीफ कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ मेरे बिगड़ जाने का डर भी जता रहे थे। पर मुझे और मेरे दादा जी को मेरे साहस और इनाम का नशा था। क्या मालूम दादा जी को लड़की के बिगड़ने का डर था या नहीं, पर उन्होंने न मेरी पढ़ाई रोकी न ही कभी मेरे उत्साह के प्रवाह को रोका।
(15 August)
सामने की पहाड़ियाँ सिलेटी रंग में रंगने के बाद काली परछाई बन गईं। बरसात की हल्की बूंदाबांदी होने लगी। मैं हूं कि अपने मनाए 15 अगस्त की तुलना आज के बच्चों से कर रही हूं। कुछ तो है जो बदल गया। 1996 में इसी 15 अगस्त को मैं कोटद्वार मालवीय उद्यान में अपनी बहन की छत पर खड़ी होकर झंडारोहण करते बच्चों को देख रही थी। छोटी बहन की बेटी चानी, पास में खड़ी खेल रही थी। उसकी दादी ने कहा- चानू बेटा, तू आज अपने स्कूल नहीं गई। तेरे स्कूल के बच्चे सभी प्रभातफेरी कर रहे होंगे। उसने अपनी दादी को ऐसे देखा जैसे दादी कितनी बुद्घूपने की बात कर रही है और बोली- बुद्घू दादी, अंग्रेजी स्कूल के बच्चे प्रभातफेरी नहीं करते। अरे, ये तो बेसिक स्कूल के बच्चों का काम है।
मैं हैरानी से पांच साल की बच्ची को देखती रह गई। किसने बताया इसे कि कान्वेन्ट स्कूल के बच्चे प्रभातफेरी नहीं करते, केवल बेसिक स्कूल के बच्चे ही करते हैं। मैं नीचे मालवीय उद्यान में झण्डारोहण करते बच्चों के बीच कान्वेन्ट स्कूल के बच्चों को ढूंढ़ने की कोशिश करने लगी थी। बड़ी क्लास के बच्चे शामिल तो थे। मैंने चानी को गोद में उठाकर ग्राउण्ड में खड़े उसके स्कूल के बच्चे दिखाये। वह तपाक से बोली- अरे मौसी, हमारी मैम ने कहा था कि बड़ी क्लास के बच्चे आयेंगे। छोटे बच्चों की छुट्टी है। ये अंतर इसने कहां से सीखा? हम तो ऐसी कोई बात घर में नहीं करते। मैंने उसे समझाने की कोशिश की, पर बेमन से। सुना है कई स्कूल तो 15 अगस्त और 26 जनवरी को छुट्टी रखते हैं। ऐसे कैसे मान लूं कि इन राष्ट्रीय त्योहारों को मनाने का उत्साह हमारी पीढ़ी का बचपन गुजरने के बाद इस नई फसल के लिए गये जमाने की गुजरी बात रह गई है।
(15 August)
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