कविताएँ
लौटती चिड़िया के झुण्ड
मृदुल जोशी
चहचहाती चिड़ियों के
झुण्ड के झुण्ड लौट रहे हैं
अपने-अपने घरों की ओर
साँझ के घिरते ही।
हँसते-बतियाते/कोलाहल करते
लौट रहे हैं/ये/रोमांच से भरे
अपने-अपने अनुभव समेटे
हर्ष या विषाद से घिरे।
बहुत कुछ है इनके पास
दिन-भर की स्मृतियों-अनुभूतियों के भण्डार
बाँट लेना चाहते हैं/ जिन्हें ये/ जल्दी-जल्दी
उतावली के साथ।
कुछ के हिस्से आयी है आज
ढेरों खुशियाँ/ढेरों खिलखिलाहट
एक मीठे-गुदगुदाते दिन की
कभी न भूल सकने वाली याद!
अलमस्त ये चिड़ियाँ
सूरज की किरणों को पकड़कर
झूली हैं /इस लता से उस लता तक
वृक्ष की फुनगियों से/धम्म-धम्म
कूदी हैं/ इस शाख से उस शाख तक।
पंखों को लहराकर नापा है
सारा-आकाश दौड़ते-दौड़ते
हुड़दंग मचाया है खेतों में
शरारती खिलंदड़ों-सा।
बिखरे दानों और रेंगते कीड़ों की
छककर-उड़ायी हैं दावतें
झर-झर बहती नदी से बुझायी है प्यास
चोंच भर-भर।
नदी में तैरकर/नहाकर
झटकारते पंखों से/शिला में बैठकर
सुस्ताया है फुर्सत भर।
कुछ के हिस्से आयी है ढेरों उदासी
वे उतरी थीं जिस नदी में
घुटक गयीं ढेर-सा तेजाब
गले को ठंडक के बदले मिली है
आज/सड़न-बदबू और चीरती जलन।
मीलों का चक्कर काट
कुछ चिड़ियाँ उतरीं थीं
जिस वृक्ष पर सुस्ताने
सूखती फुनगियों/छटपटाती शाखाओं ने
रो-रोकर सुनायी है/ अपनी आप-बीती
पीले पड़ते चेहरे और छिली खाल की कसक लिये
लौट रहीं ये भारी मन से।
सीमेंट के घनघोर जंगलों से गुजरते हुए
कुछ चिड़ियाँ उतर पड़ीं थीं आज
छतों/छज्जों और मुंडेरों पर
पुरखों की बातों पर/भरोसा था उन्हें
कि बिखरा देते हैं चावल-बाजरे-गेहूँ के दाने
कुछ भले लोग।
कि कुछ भले लोग/पंछी-पथिकों के लिए
रख छोड़ते हैं पानी बर्तन भर-भर।
आज इनके हिस्से आयी है
एक तीखी कसमसाती कसैले दिन की
कभी न भूल सकने वाली याद
कि एक दाना भी
नहीं उतरा है आज इनके गलों से।
रोते-बिलखते
कुछ मासूमों को घेरकर
लौट रहा है एक झुण्ड
जिनकी माताएँ छिन गईं हैं आज
कि पिता छटपटाते छूट गए हैं
कहीं बहुत पीछे
गुलेल या गोली के निशानों पर
या बहेलियों के जाल में उलझे हुए।
निस्पन्द आँखों/टूटते पंखों की
तड़प समेटे लौट रहे हैं ये
अपने-अपने घरों की ओर
साँझ के घिरते ही।
(Poems of M Joshi & R Barthwal)
धड़कना मना है
रश्मि बड़थ्वाल
जब मैंने होश संभाला
मेरे दिल ने धड़कने की अनुमति चाही
‘अनुमति?’
मैंने देखा चतुर्दिक
एक भयावह सन्नाटे ने घेर लिया था दिशाओं को
मानो यह तूफान के आने की पूर्व सूचना हो
तब मैं रटने लगी पहाड़े
और हिटलर और औरंगजेब
विश्व इतिहास में कहीं नहीं था प्रेम
था तो युद्घों का कारण
उफ्
तब घबराकर मेरे दिल ने धड़कने की अनुमति चाही
‘अनुमति?’
मैंने पूछा धरती से आकाश से
धरती ने दंश दिए तलुवों को
आकाश ने सर पर बरसाई आग
फिर खगोल और भूगोल के बीच
पिसती रही मैं बिना उफ् किये
धरती ने मुझे घर दिया आकाश ने बच्चे
और फिर मेरे दिल ने धड़कने की अनुमति चाही
‘अनुमति?’
मैंने पूछा घर से बच्चों से
घर ने उठा दिया आसमान सर पर
बच्चों ने धकेल दिया मुझे आंसुओं के समुद्र में
फिर मैं चुपचचाप अपने बालों पर बुनती रही चांदी
और चुनती रही सीपियों से मोती
मोतियों को कस कर बांधा आंचल में
फिर जब मैं मोती चुगाना चाहती थी हंस को
मेरे दिल ने धड़कने की अनुमति चाही
‘अनुमति?’
मैंने पूछा हंस से
और हंस के होंठों पर
चमक गया व्यंग्य विद्युत
तब मेरे दिल ने बहुत ही शिथिल हाथों से
टुकड़े-टुकड़े कर डाला अपना प्रार्थना पत्र।
(Poems of M Joshi & R Barthwal)
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