भारतीय- संयुक्त नन्दा देवी अभियान : पर्वतारोहण 18
चन्द्रप्रभा ऐतवाल
गतांक से आगे
कहाँ मेरा 13 सितम्बर को अन्तिम समय आ गया था। डॉक्टर पुनेकर की कृपा से 14 सितम्बर को सुबह उठकर अपने-आप धूप सेंकने को बाहर आयी। उन्होंने एक सुई और लगाई और मुझे समझाने लगे कि अब आराम से दूसरे दिन जा सकते हो।
15 सितम्बर को सुबह उठकर थोड़ा सा नाश्ता किया और लगभग 6 बजे सुबह ही चल पड़ी, क्योंकि मुझे मालूम था कि मैं बहुत कमजोर हूँ। अत: धीरे-धीरे समय पर आगे बढ़ना चाहिए। रास्ते में कैप्टन लखा सिंह (जो अब इस दुनिया में नहीं हैं) और खुशाल सिंह के साथ आई, क्योंकि उन्हें मालूम था कि मेरी तबियत ठीक नहीं है। अत: अनानास का जूस लेकर आये थे। उस दिन मैंने कोई सामान नहीं उठाया था। जूस का बोतल व हाथ में लाठी थी जो केवल आईस फॉल तक लेकर गयी। आईस फॉल में पत्थरों से बचते हुए मैं द्वितीय शिविर की ओर बढ़ती गयी। अब मेरे मन में यहाँ तक पहुँचने की खुशी थी। इस प्रकार लगभग 4 बजे के करीब द्वितीय शिविर पहुँची। उसी समय पैरा वालों के रास्ते से लखा आदि सदस्य भी अपने लिये रास्ता बनाते हुए द्वितीय शिविर पहुँचे। द्वितीय शिविर में डॉ. सन्धू और रसोई वालों का एक सदस्य था। लखा ने लोगों के लिये चाय का प्रबन्ध किया और कुछ देर तक आराम किया, फिर लखा लोग वापस प्रथम शिविर चले गये।
द्वितीय शिविर में मैंने अपने सामान को चेक किया तो पता चला कि पहले वाले सदस्य मेरे विन्डप्रूफ सूट ही लेकर चले गये हैं। इस सूट के बिना हवा से अपने आपको बचा पाना बहुत ही मुश्किल था। खैर किसी प्रकार दूसरी विन्डप्रूफ पैन्ट लेकर आगे बढ़ने की तैयारी की।
शाम को खाने के लिये चावल और दाल आया। डॉक्टर की अनुमति से मैंने थोड़ा सा खा लिया, किन्तु सारी रात नींद नहीं आयी। डॉक्टर ने नींद की एक गोली भी दी, पर नींद का नाम नहीं था। सारी रात परेशान रही। सुबह 7 बजे के लगभग उठकर बाहर गयी। उस समय तक पेट बिल्कुल ठीक था किन्तु 8.30 बजे के लगभग तृतीय शिविर जाने की तैयारी करने लगी कि पेट गड़बड़ करने लगा, किसी प्रकार दो, तीन बार बाहर जाकर फिर आगे के लिये चल पड़ी। किन्तु जैसे-जैसे आगे बढ़ते गये मेरी हालत बिगड़ती गयी। यहाँ तक कि तृतीय शिविर के नजदीक पहुँचने तक मेरा बुरा हाल हो गया था।
कुछ देर आराम करने के बाद जब मैंने अपना यहाँ छोड़ा हुआ सामान चेक किया तो पता चला कि सामान में से फैदर जैकेट, फैदर पैन्ट, फैदर ग्लब्ज आदि मुख्य-मुख्य सामान हमारे अग्रिम प्रशिक्षण वाले लेकर चले गये हैं। मेरा मन बहुत खराब हो गया। खैर किसी प्रकार शान्त रही और अन्दर ही अन्दर घुटकर रह गयी। शाम को एक शेरपा चतुर्थ शिविर से वापस तृतीय शिविर आया। उसके आने पर पता चला कि चतुर्थ शिविर के सभी सदस्यों ने चोटी फतह नहीं की है और कुछ लड़कियाँ वापस आने वाली हैं। जब इस बात का पता चला तब लीडर ने कहा कि अब उनके वापस आने पर ही उनसे सामान लेकर तुम आगे जा सकती हो। उस समय मुझे कुछ शान्ति मिली ।
17 की सुबह मौसम बहुत साफ था, फिर धीरे-धीरे शाम को खराब होना शुरू हो गया। चतुर्थ शिविर से भारती, सुषमा व कुमकुम वापस आये। उनसे पता चला कि चतुर्थ शिविर से इन लड़कियों को साथ ले जाने को पुरुष सदस्य तैयार नहीं थे। इस कारण चार दिन तक ये लोग चतुर्थ शिविर में ही बैठे थे। अन्त में उन लोगों ने सोचा कि यहाँ अधिक रुकना ठीक नहीं है, अत: वापस आये।
(Indo-Joint Nanda Devi Campaign)
उन्होंने कहा कि तुम्हें किसी भी प्रकार से जाना है, यदि तुम्हारे पास सामान नहीं है तो हमारा सामान ले लो। उन लोगों ने मुझे जिस-जिस सामान की आवश्यकता थी, वह दिया। 18 सितम्बर को तृतीय शिविर से सबसे पहले मैं रवाना हुई । डॉ. सन्धू व लीडर बाद में आये। मैं धीरे-धीरे आगे की ओर बढ़ती जा रही थी। मैं आधा रास्ता तय कर चुकी थी कि मैंने अपने ठीक ऊपर लाल, पीला टैन्ट-सा या झण्डे के आकार सा फहराते हुए किसी वस्तु को आते हुए देखा। मैंने सोचा चतुर्थ शिविर से हमारे सदस्यों ने चोटी को फतह कर लिया है और वापस टैन्ट या झण्डे फहराते हुए वापस तृतीय शिविर की ओर आ रहे हैं। अब मुझे कहीं यहीं से वापस लौटना न पड़े। इस कारण मैं जल्दी-जल्दी ऊपर को चढ़ने की कोशिश करने लगी। किन्तु उस स्थान पर पहुँचकर देखा तो उसमें कुछ भी नहीं था, पर मेरे मन में यही विचार आया कि माँ नन्दा की ही कुछ कृपा होगी जो मुझे जल्दी-जल्दी चढ़ने के लिये प्रेरणा दे रही है।
चतुर्थ शिविर में सभी सदस्य टैन्ट में आराम कर रहे थे। केवल सनम पलजोर ही बाहर घूम रहा था। उसी ने मेरे लिये चाय का प्रबन्ध किया। ऐसा लग रहा था कि सदस्य मेरे आने पर खुश नही हैं। इस अभियान में जो पहले सदस्य जाते थे, उनको अपना स्लीपिंग बैग उसी शिविर में छोड़कर आने की योजना थी। इससे सामान पहुँचाने के झंझट से बच जाते थे। मैंने सोचा कि तीन सदस्य वापस आये थे। अत: स्लीपिंग बैग होगा ही पर मुझे चतुर्थ शिविर में स्लीपिंग बैग नहीं मिला। इस कारण मुझे हर्षा बिष्ट के साथ एक ही स्लीपिंग बैग में सोना पड़ा। रात भर परेशानी में रहे। सुबह लगभग 4 बजे चोटी फतह के लिये रवाना हो गये। उस शाम मेरे पहुँचने के दो घण्टे बाद लीडर व डॉक्टर भी चतुर्थ शिविर पहँुच गये थे। उनके पहुँचने पर सभी सदस्य बाहर निकलकर आये। फिर चाय नाश्ता करने के बाद कल किसी भी प्रकार चोटी फतह करनी है आदि बातें हुई।
लगभग 4 बजे के समय नन्दू, लीडर आदि सभी उठ गये थे। डॉक्टर व नन्दू को चोटी फतह हेतु जाने से मना कर दिया। अत: लीडर का आशीष लेकर चल पड़े। जहाँ तक रस्सियाँ लगी थी वहाँ से मैं आगे चलती चली गयी, क्योंकि जुमार की सहायता से चलना था। जहाँ लगाई हुई रस्सियाँ खत्म हुई वहाँ कुछ स्नोबार आदि पड़े हुए थे। वहीं जाकर रुक गयी। अब एक-एक करके सभी सदस्य यहाँ पहुँच गये थे। वहाँ पहुँचकर लाटू और सनम पलजोर की आपस में बात होने लगी कि इस बुढ़िया को कौन ले जायेगा। लाटू कहने लगा कि ये बुढ़िया तुम्हारे माथे पड़ गयी है। वे लोग सब तिब्बती में बोल रहे थे, पर मैं थोड़ा-थोड़ा तिब्बती जानती थी, अत: समझ गयी कि इनको मुझे ले जाने में तकलीफ है। क्या ये मुझे अपनी पीठ पर लाद कर ले जायेंगे ? पर मैं अनजान ही बनी रही। इतने में सनम पलजोर कहने लगा कि मेरे हाथ का आईस एक्स उसका है, जबकि चतुर्थ शिविर में वह मुझे नन्दू ने दिया था और लगाई हुई रस्सियाँ तक मैं लेकर आयी थी। परन्तु मैंने बोलना उचित नहीं समझा और उसे दे दिया। मैंने एक स्नोबार उठाया और उसी को लेकर चलने लगी।
लगाई हुई रस्सियाँ खत्म हो गयी थीं और आईस एक्स की ही मदद से आगे बढ़ना था, परन्तु अब मेरे पास वह भी नहीं था। खैर माँ नन्दा का नाम लेकर धीरे-धीरे स्नोबार से ही चलती चली गयी। यहाँ से लाटू व रेखा, रतन व हर्षा तथा सनम पलजोर और मैं रस्सियों से बंधे हुए थे। मेरे अन्दर ही अन्दर मन में ग्लानि सी हो रही थी कि अपनी कमजोरी के कारण आज इनके सामने झुकना पड़ रहा है, लेकिन बोली कुछ भी नहीं। जहाँ भी आवश्यकता होती मैं सनम पलजोर को रस्सियों की जो भी मदद होती उसे देती रहती थी, पर सनम पलजोर कभी भी रस्सियों को बन्द करना नहीं जानता था और रत्तीभर भी मदद नहीं करता था। जबकि पहले जाने वाला व्यक्ति पीछे वाले को रस्सी की सहायता से बहुत मदद कर सकता है, पर ये बात यहाँ बिल्कुल भी नहीं थी। इस कारण बार-बार गे्रम डिंगल को याद करती थी।
(Indo-Joint Nanda Devi Campaign)
लाटू व रेखा का दल सबसे आगे थे, उसके बाद रतन सिंह व हर्षा का था, सनम पलजोर और मेरा समूह सबसे बाद में चल रहे थे। इस प्रकार जब तक वे लोग निकल नहीं जाते थे तब तक हमें रुके रहना पड़ता था, इस कारण चोटी तक पहुँचने में हमें सबसे अधिक देर हो गयी थी और अंधेरा भी होने लग गया था। जहाँ हमें बड़ा सा पत्थर मिला। उसी के पास सनम पलजोर अपने साथ पूजा का जो सामान लाया था उसे निकालकर माँ नन्दा की पूजा की। साथ ही भगवान को धन्यवाद दिया, जिसने हमें यहाँ तक पहुँचाया है। फिर अधिक न रुककर हमने भी लौटने की तैयारी की।
वापसी में हमने रतन सिंह के समूह को पकड़ लिया था। पर रतन सिंह हमें वापसी में आगे जाने की अनुमति नहीं दे रहे थे। कभी-कभी जल्दी-जल्दी पैर पड़ जाता था तो चिल्लाने लगते थे। वापसी में सनम पलजोर बाद में था और उसे रस्सियों को बन्द करना तो आता नहीं था, इसलिये एक जगह चट्टान पर हमारी रस्सी फँस गयी, उसे बाहर निकालने की बहुत कोशिश की पर वह निकल नहीं पायी। अन्त में उसे पत्थर से मार-मारकर तोड़ दिया, फिर जितनी बची रस्सी थी उसी में रस्सियों से बँधे।
लाटू और रेखा कहाँ पहुँचे यह कुछ पता नहीं था, पर रतन सिंह का दल आगे बढ़ नहीं रहा था। इस कारण वापसी में बहुत समय लग गया। इस समय रास्ते के आधे हिस्से में चाँदनी फैली हुई थी। इतने में सनम पलजोर गिर गया। मैं चिल्लाने लगी सनम आईस एक्स लगाओ, पर वह सुनता ही नहीं था। इस कारण दोनों ही काफी दूर तक पलटा खा गये। उस समय मुझे लगा अच्छा हुआ, हमारी रस्सी कट गयी थी और हम दोनों के बीच की दूरी कम थी। यदि पूरी रस्सी होती तो पता नहीं सनम पलजोर के गिरते समय उसका झटका कितना भयंकर होता और हम बच पाते या नहीं। मुझे लगा बचाने वाला ऊपर है इसीलिये रस्सी काटने से हमारी दूरी कम हुई और हम बच गये।
मेरे हाथ का स्नो स्टिक गिर चुका था। अत: वापसी में बिना आईस एक्स या स्नो स्टिक के ही आ रही थी। एक जगह आकर मैं दोनों हाथों की अंगुलियों को बर्फ पर गाड़ती हुई फिसलकर आई थी। इस फिसलन के कारण हम रतन सिंह के दल से आगे हो गये थे। अब रतन सिंह कहने लगे कि हम चारों एक ही रस्सी में बंधे, उसे मानकर चारों एक ही रस्सी में बँधे हुए थे। हम एक दूसरे की मदद करते हुए आगे बढ़ते आ रहे थे कि इतने में हमारा एक सदस्य इतनी जोर से फिसला कि हम सब बर्फ का एवलांच सा बनाकर चारों एक ही साथ गिरते चले आये। पर उस समय मुझे बड़ा ही अच्छा लगा क्योंकि अब हम सीधे अंधेरे से चाँदनी फैली जगह पर पहुँच गये थे और सारी दूरी क्षण भर में ही पार हो चुकी थी। सभी अपनी जगह से उठकर बर्फ झाड़ने लगे, पर हर्षा नहीं उठी और कहने लगी मेरी चारपाई यहीं पर लगा दो, मैं सोना चाहती हूँ। इतने में रतन सिंह कहने लगे दीदी आप आगे जाकर लाटू को बताओ। मैं आगे बढ़ने लगी चारों तरफ चाँदनी रात थी और चाँद अपनी सफेद चादर चारों ओर फैलाये हुए था। अब धीरे-धीरे करके लगाई हुई रस्सियों पर सभी उतरने लगे। यहाँ से सभी पुरुष एक-एक करके उतर चुके थे। रतन सिंह ने सबसे पहले हर्षा का कैराविनर रोप पर लगा दिया और एक ही रस्सी उतर पायी थी कि कहने लगी मेरा सीट हार्नेस टूट गया है, अत: मैं आगे नहीं जा सकती। उसके पीछे मैं थी और मेरे पीछे रेखा।
(Indo-Joint Nanda Devi Campaign)
मैं हिम्मत करके हर्षा के पास पहुँची और उसका सीट हार्नेस देखा तो सब ठीक था, फिर उसे साथ-साथ नीचे लाने की कोशिश की और उसे बार-बार समझाया कि सीट हार्नेस टूटा नहीं है। तब वह आगे जाने को राजी हुई। तभी रेखा कहने लगी कि उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है, पर सभी लगभग टेन्ट के पास पहुँचने वाले थे और सुबह के 4 बजे थे। नन्दलाल हमारे लिये चाय तैयार कर रहे थे। इस तरह किसी प्रकार 24-25 घण्टे के बाद हम चतुर्थ शिविर पहुँच पाये थे। चतुर्थ शिविर में चाय पीकर थोड़ा आराम किया। फिर सभी धीरे-धीरे तृतीय शिविर की ओर जाने की तैयारी करने लगे। अब धीरे-धीरे लगाई हुई रस्सियों पर सभी अपनी-अपनी मर्जी से उतर रहे थे, तो मैं भी उतरने लगी। अंधेरा होना शुरू हो गया था। लगभग 9 बजे रात द्वितीय शिविर पहुँचे। दूसरे दिन 21 सितम्बर को द्वितीय शिविर से वापस आधार शिविर की ओर चल पड़े। वापसी में आईस फॉल वाले रास्ते को छोड़कर पैरा वालों के रास्ते से आये। प्रथम शिविर की हालत काफी खराब थी। पत्थरों के गिरने से सारे टेन्ट फटकर बेहाल हो रखे थे। खैर जो सामान ठीक थे उसे एक जगह रखकर आधार शिविर की ओर वापस आये। लखा लोगों का शिविर रास्ते से दूर था अत: दूर से ही शुभ कामना देकर आधार शिविर की ओर चल पड़ी।
आधार शिविर में हम लोगों के लिये खाना तैयार था। खाना खाकर आराम किया। अब सभी सदस्य धीरे-धीरे आधार शिविर पहुँच रहे थे किन्तु नन्दलाल अभी तक आया नहीं था। पहाड़ पर जो रस्सियाँ लगा रखी थी उसे सीधा पैरा वालों को हस्तान्तरित किया गया था। साथ ही टेन्ट सभी पैरा को ही हस्तान्तरित किया था और जो कुछ सामान आधार शिविर तक पहुँचा था। उस सब सामान को फैलाकर बन्द करने की कोशिश कर रहे थे। मैं रस्सी को सम्भाल रही थी कि लीडर आकर मुझे डाँटने लगे। कहने लगे कि जो सामान कीमती है उसे देखो, पर उस समय मुझे खास पता नहीं था कि क्या कीमती है और क्या सस्ता? मुझे तो लगता था कि सभी सामान मूल्यवान है।
द्वितीय शिविर में ही पता चल गया था कि रतन सिंह के पैर में सूजन आ गयी है, पर उन्होंने वहाँ जूता खोला ही नहीं और दूसरे दिन उनको लीडर ने कुली पर जाने को कहा, पर वह द्वितीय शिविर से आधार शिविर तक पैदल ही चलकर आये। इससे सूजन और बढ़ गयी थी। आधार शिविर में उनके पैर पर गर्म पानी से सेक कराया, पर उनकी दो अंगुली व अंगूठे पर नील पड़नी शुरू हो गयी थी। दूसरे दिन उनको कुली द्वारा सरसों पातल तक पीठ पर ले गये और वहाँ हेलीकाप्टर का इन्तजार करने लगे, पर दो दिन तक हेलीकाप्टर नहीं आया। बेचारे रतन सिंह को वहीं रुकना पड़ा।
(Indo-Joint Nanda Devi Campaign)
हमारे दल वालों ने काफी देरी कर दी थी जिस कारण पैरा वालों के अभियान को काफी देर हो चुकी थी। जैसे ही हम पहाड़ से उतरे उनका दल चढ़ने लगा, किन्तु तृतीय शिविर व चतुर्थ शिविर के बीच में शेरपा लोगों ने कुछ रस्सियां निकाल दी थी। जिसके पैरा दल वालों को धोखा हुआ। इस कारण उनके दल में दुर्घटना भी हुई। बेचारा लखा इतना मेहनती था, पर अपने को उसी चोटी में समर्पित कर दिया और वापस नहीं लौट पाया। पैरा वाले अभियान के तीन सदस्य पूर्वी नन्दा देवी पर तथा दो मुख्य नन्दा देवी पर हादसे के शिकार हुये। इस खबर से मन इतना दु:खी हुआ कि अब भी उस क्षेत्र की ओर जाने की हिम्मत नहीं होती है।
वापसी में जोशीमठ से सेना के ही थ्रीटन की गाड़ी पर रायवाला तक आये। वहाँ से हम लोग ऋषिकेश में नाश्ता करके देहरादून गये। वहाँ खाना खाने के बाद स्थानीय गाड़ी में सामान चढ़ाया, फिर दिल्ली की ओर चल पड़े। रास्ते भर गाते, बजाते, सोते हुए आगे बढ़ते चले गये। दिल्ली में भारतीय पर्वतारोहण संस्थान में पहुँचे। सामान की संख्या जितना हमें मिला था, लिखी, जिनमें काफी सामान कम था। उसमें कुछ सामान तो पैरा वालों को हस्तान्तरित किया और कुछ खो चुका था और कुछ फट गया था।
सभी टीम को बधाई दे रहे थे। प्रधानमंत्री जी को मिलने गये। देखा कि इतनी गर्मी में उनके कमरे में पंखा तक नहीं चल रहा था और उन्होंने कहा कि जो खादी को धारण नहीं करता मैं उनको अपना हस्ताक्षर (आटोग्राफ) नहीं देता। ये कितने बड़े और सिद्घान्त के पक्के थे। मेरे स्वास्थ्य ठीक न होने पर भी मां नन्दा देवी की कृपा और हितैषियों की मंगल कामना से यह अभियान व्यक्तिगत सफलता एवं नये अनुभवों के लिये सुखान्त था।
(Indo-Joint Nanda Devi Campaign)
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