अनन्त जी से मुलाकात: संस्मरण 9

Memoir by Uma Anannt 9

-उमा अनन्त

माननीय श्री गोविन्द बल्लभ पंत अब भी कोमा में थे। कोठी के प्रांगण में पहाड़ से आये शुभचिन्तकों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। जो देश के हित में अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर देते हैं, वे सदैव पूजनीय रहते हैं। मैं भीतर से बहुत ही उदास थी। माननीय पंत जी इतनी देर तक कैसे रूठे रह सकते हैं। कभी-कभी तुच्छ विचार भी मन में कौंधने लगते कि आपने तो मेरे पिता को आश्वासन दिया था कि मेरे ‘हवाघर’ में पहाड़ से पहुंचे मेधावी पात्र से उमा का विवाह सम्पन्न करेंगे। (Memoir by Uma Anannt 9)

कभी-कभी विचार आता कि प्रार्थना में बहुत शक्ति होती है। वे अवश्य कोमा से बाहर निकल आयेंगे। मैं नहीं जानती थी कि उन्हीं के चरणों में मेरे अधूरे कार्य सम्पन्न होंगे। मसूरी से दयानन्द अनन्त, जो वहां एक प्रख्यात अंग्रेजी विद्यालय में कार्यरत थे और ‘मसूरी सोविनियर’ भी निकालते थे, माननीय पंत जी के स्वास्थ्य के सम्बन्ध में जानकारी लेने अपने मित्र नन्दकिशोर नौटियाल, जो ‘हिन्दी ब्लिट्ज’ में थे, दिल्ली में स्थित पंत जी की कोठी में पहुचेंगे। उन्होंने मेरे पिताजी के सम्बन्ध में नन्दकिशोर नौटियाल से जानकारी लेते हुए पूछा कि ये पुलिस के उच्च अधिकारी क्रिश्चियन से प्रतीत होते हैं। नन्दकिशोर नौटियाल ने बताया कि ये गंगाप्रसाद नौटियाल हैं और अपनी बड़ी बेटी के लिए पहाड़ी वर की तलाश में हैं। अनन्त जी ने कहा कि एक पहाड़ी उपयुक्त पात्र मैं भी हो सकता हूं। नन्दकिशोर ने पंडित गंगाप्रसाद जी से बातचीत की। मेरे पिताजी ने नन्दकिशोर और अनन्त जी को घर पर आमंत्रित किया। अनन्त जी सेब की पेटी लेकर घर पहुंचे। किसी कार्यवश मैं जरा देर से घर पहुंची। बातचीत के दौरान मेरी मंझली बहन ने कहा कि वे एक धनाढ्य व्यक्ति से विवाह करना चाहती हैं। मेरी छोटी बहन की पसंद एक मिलिट्री अफसर था। वहीं मेज पर रखी एक पुस्तक की ओर इशारा करते हुए अनन्त जी ने पूछा समरसेट मॉम की ‘लस्ट फॉर लाइफ’ कौन पढ़ रहा है? तपाक से दोनों बहनों ने कहा कि किताबें पढ़ने का शौक तो बस उमा को ही है।

पहली बार अनन्त जी को मैंने देखा। गौर वर्ण, घने छत्ते से-घुंघराले बाल, दुबला-पतला शरीर, अल्पभाषी। इतना गोरा रंग मुझे आतंकित करता था। मैं ऐसे सुन्दर लड़कों को हल्के व्यक्तित्व का समझती थी। मैंने मां से कहा कि मैं इतने सुन्दर लड़के से विवाह नहीं करना चाहती। हां, गेहुएं वर्ण के लड़के नन्दकिशोर नौटियाल से, जो हिन्दी ब्लिट्ज में कार्यरत है, मेरी बात ठहरा लो। मां ने जब बाबा को मेरी भावनाओं से अवगत कराया तो क्रोध से मेरे बाबा ने माथा पीट लिया। उन्होंने कहा कि वह लड़का तो विशेष रूप से उमा का ही हाथ मांग रहा है। रही नन्दकिशोर नौटियाल से विवाह की बात तो यह संभव ही नहीं है क्योंकि हमारे पहाड़ में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित है।

अगले सप्ताह बाबा ने अनन्त जी को घर पर आमंत्रित किया। अनन्त जी एक पेटी सेब लेकर घर आये। बाबा ने एक नारियल और सवा रुपया रखकर मेरी सगाई अनन्त जी से सम्पन्न की। अनन्त जी ने बाबा से प्रार्थना की कि वे उमा से बातचीत करना चाहते हैं। बहुत ही कठिनता से पिताजी बाहर ले जाने के कार्यक्रम पर राजी हुए, वह भी  इस शर्त पर कि आप दोनों सुबह दस बजे से सायंकाल पांच बजे तक ही बाहर रह सकेंगे।

हम दोनों इंडिया गेट पर फव्वारे के पास एक पेड़ के नीचे बैठ गये। अनन्त जी ने अपने परिवार और अपनी जीवनगाथा विस्तार से सुनाई। उनका निर्णय था कि मैं अपना जीवन लेखन को समर्पित करना चाहता हूँ। तुम अगर साथ हो तो मेरा हाथ थाम सकती हो। उनके विचारों ने मेरे हृदय तक पैठ बना ली थी। मैंने उनके लेखन कार्य में पूर्णरूप से सर्मिपत होने का आश्वासन दिया। अनन्त जी ने अपनी कुछ रचनाएं मुझे पढ़ने को दीं। ‘गुइयां गले न गले’ कहानी में नैनीताल जैसी चकाचौंध में डूबी नगरी में उनकी कहानी का एक पात्र कैसे घोर गरीबी का दंश और असहाय जीवन जीने पर विवश है, पढ़ते-पढ़ते इस कहानी के पन्नों को मेरी आंखों से गिरे आंसुओं ने धूमिल कर दिया। इस कहानी के पात्र रामू ने दरिद्रता की भीषण त्रासदी को भोगा है। इसका दंश उसे भीतर तक सालता रहा है पर फिर भी वह बेईमान नहीं है। ‘बेमांटी’ शब्द उसके शब्दकोश में नहीं है। वह बराबरी से टक्कर लेने को आमादा है।

हमारे परिवार में अचानक एक बवंडर ने उथल-पुथल मचा दी। श्रीमती लीला भट्ट से जो मुल्तान में मेरे पिताजी के पड़ोस में रहती थीं, अचानक कनाटप्लेस में मुलाकात हो गई। पिताजी ने अगले दिन उनको घर पर आमंत्रित कर लिया। वे अपनी बीस वर्षीया बेटी के साथ घर पर पहुंची। दोनों परिवारों को रिश्ता पसंद आ गया। सप्ताह में ही दोनों के विवाह की घोषणा कर दी गई। वह कन्या हिन्दी प्रभाकर और कत्थक नृत्य में दक्ष थी। कृष्णा दा ने भी हामी भर दी।
(Memoir by Uma Anannt 9)

लीला भट्ट ने एक चारपाई पर चादर बिछाकर उस पर सौ तोला सोना सजा दिया। पिताजी ड्यूटी से लौटे तो यह सब देखकर बेहद कुपित हुए और क्रोधवश सब गहने जमीन पर पटक दिये। दहेज के प्रति घोर घृणा देखकर लीला भट्ट ने क्षमा याचना की। तभी यह विवाह सम्पन्न हो सका। हम सब बहुत प्रसन्न थे। भाभी ने गर्भधारण किया है सुनकर खुशी द्विगुणित हो गई। इन दिनों भाभी कुछ दुबली-सी प्रतीत हो रही थी। एक दिन सुबह ग्यारह बजे के करीब पिताजी को प्रधानमंत्री निवास में बुलाया गया। हॉल में पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री मथाई उपस्थित थे। श्री मथाई ने पिताजी से अत्यन्त क्रोधित स्वर में कहा कि गंगा प्रसाद, तुमने अपनी पुत्रवधू को ईसामसीह की तरह सूली पर लटका रखा है। उसे इस तरह कष्ट देकर उसके प्रति घोर अन्याय किया है। उसे खाने को भी नहीं मिलता। वह दीवार से सफेदी चूना खुरच-खुरच कर खाती है। ऐसा अत्याचार बर्दाश्त से बाहर है। तभी ठंडे स्वर में श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा कि उसे इस परिवार से जल्दी ही बाहर निकालो।

पिताजी स्तब्ध थे कि यदि लीला भट्ट को किसी प्रकार की शिकायत थी तो उन्हें उनसे बात करनी चाहिए थी। ऑफिस तक यह बात नहीं पहुंचनी चाहिए थी। अपनी पुत्रवधू से पिताजी को बेहद लगाव था। सायंकाल पिताजी के निवेदन से सहमत होते हुए श्रीमती इंदिरा गांधी ने सुझाव स्वीकार कर लिया कि कृष्णा दा किसी दूसरी जगह पर अपनी गृहस्थी बसायेंगे। हमारे परिवार के लिए यह फैसला एक वज्रपात के समान था। अत्यन्त गमगीन वातावरण में रविवार के दिन कृष्णा दा अपना सामान लेकर इस घर से विदा हो गए।

भाभी-भावज के घर से चले जाने के बाद मैंने मन बना लिया था कि मैं कृष्णा दा से ऑलइंडिया रेडियो स्टेशन पर भेट करूंगी। गेट पास बनवाकर कृष्णा दा से मिलने उनके ऑफिस पहुंची। कृष्णा दा मुझे ऑल इंडिया की कैन्टीन में ले गये। सबसे किनारे खम्भे के पास लगी कुर्सियों पर हम बैठ गये। कुछ देर तो हम दोनों मौन रहे। कृष्णा दा ने घर में सबकी खैर-खैरियत दरियाफ्त की। फिर विभिन्न विषयों पर चर्चा करते रहे। तभी कृष्णा दा ने मेरा एक महिला से परिचय कराया कि ये तेजी बच्चन हैं और  तेजी जी यह मेरी छोटी बहन उमा है।

मैं पन्द्रह-बीस दिनों में कृष्णा दा से मिलने अवश्य जाती। कैन्टीन में खम्भे के पास कुर्सी पर उनका इंतजार करती। एक दिन तेजी जी ने उत्साह से मुझे हैलो कहा और मेरे समीप आकर बैठ गई। वे जानती थी कि मैं अपने भाई से मिलने पन्द्रह-बीस दिनों में अवश्य आती हूं। तभी तेजी जी ने मुझसे प्रश्न किया कि क्या घर के सदस्यों को पता है तुम यहां आती हो। मैंने कहा घर में सभी को पता है कि मैं अपने भाई से मिलने यहां आती हूँ। तेजी जी, मेरे बड़े भाई कृष्णा दा सिर्फ मेरे बड़े भाई ही नहीं हैं बल्कि मेरे गुरु हैं। मेरे व्यक्तित्व पर उनका गहरा प्रभाव है। उन्हीं के मार्गदर्शन में मैंने माम, मोपासाँ, चेखव, गोर्की, दोस्तोवस्की और टॉलस्टॉय को पढ़ा है। बाल्यकाल में उर्दू पढ़ने के कारण वे हिन्दी साहित्य से परिचित नहीं थे। उन्होंने देवकीनन्दन खत्री के उपन्यासों भूतनाथ और चन्द्रकान्ता सन्तति से हिन्दी को मनोयोग से पढ़ा। अब वे हिन्दी भी धारा प्रवाह पढ़ते हैं। उनके पसंदीदा कवि अमीर खुसरो, कबीर, रहीम और बिहारी हैं। उन पर लिखे अपने आलेख सर्वप्रथम मुझको सुनाते हैं। बंगाली भाषा के अध्ययन के पश्चात अब वे चीनी भाषा भी सीख रहे हैं। तेजी जी ने कहा, उमा तुम बहुत गहराई से रिश्तों का विश्लेषण करती हो। तेजी जी से एक भावनात्मक रिश्ता हो गया था। कॉफी के प्याले पर एक दिन मैंने तेजी जी से प्रश्न किया कि आपका नाम तेजी है, इसका क्या अर्थ है? वे ठहाका मारकर हँसने लगीं, उन्होंने कहा कि या तो मैं अपने माता-पिता को प्रकाशपुंज के समान प्रतीत हुई या मैं उन्हें अत्यन्त तेज-तर्रार लगी। हम दोनों अपनी हंसी नहीं रोक पाये। उन्होंने भी हंसते हुए पूछा कि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारा नाम उमा क्यों रखा? मैंने बताया कि मेरी मां को फिल्मों में उमा, शशि और के.एल. सहगल की जोड़ी बहुत पसंद थी। उन्होंने सोचा यदि कन्या ने जन्म लिया तो मैं उसका नाम उमा शशि ही रखूंगी। फिर मैंने गम्भीर होते हुए कहा कि मैं जानती हूँ, आपने भी अवसाद में डूबे बच्चन जी का हाथ थामकर उन्हें अपने सान्निध्य से तेजोमय कर दिया।

तेजी जी ने स्नेहिल नेत्रों से मुझे देखते हुए मेरे हाथों पर अपना हाथ रखते हुए कहा कि अच्छा उमा, तुमसे बात करके अच्छा लगता है। मिलते रहना।
(Memoir by Uma Anannt 9)

क्रमश: …

पिछली कड़ी यहां देखें : महापुरुषों के सान्निध्य में: संस्मरण 8

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