गौरांशी चमोली की कविताएँ
बेडियां
कुछ अनपहचानी भावनाएं
कुछ जान-बूझ कर थोपी गयी मानसिकताएं
रीति-रिवाजों और समाजों के नाम पर चिपका दिए गए स्टिकर
बांध देते हैं हमारी इच्छाओं को
हमारी क्षमताओं के पंखों को कुतरते हैं
और हौसलों पर बिना रुके डाली जाती है
शंकाओं की खाद
जैसे एक फूल का खिलना
निर्भर करता हो
पानी के रंग पर।
एक कहानी हूं मैं
मैं पहाड़ की चोटी पर उगा सबसे ऊंचा पेड़ हूं
जो उगते सूरज की पहरेदारी करता है
मैं मिट्टी में सबसे नीचे दबा बीज हूं
जो भीतर के पौधे के बाहर आने की जिद से परेशान है
मैं नदी और पेड़ के बीच हुई बात हूं
मैं मंगल मिस्त्री की बनायी पहली कुर्सी हूं
जो एक टांग छोटी होने की वजह से आज भी चिढ़ी हुयी है
मैं बलबहादुर का बनाया आखिरी पुल हूं
जो आज भी शान से खड़ा है
मैं डिब्बे से अभी-अभी बाहर निकली तितली हूं
जिसने शायद अक्षत को अपनी मां समझा था
मैं नंदू की टूटी हुई पिचकारी हूं
जो किसी को नहीं भिगो पायी
मैं बिट्टू के दो साइज बडे़ जूते हूं
जो अब उसे गिराने का मजा नहीं उठा पाते
मैं अमरूद चुराते बच्चों के लिए मालिक की दी हुई गाली हूं
खटाई में डाला जाने वाला नमक हूं
बारिश में मोहल्ले की नाली में उतरी नाव हूं
तूफान में धागे से बंधी प्लास्टिक की थैली हूं
बिस्तर के नीचे छुपायी अपमानित रोटी हूं
पहली डायरी के पन्नों के साथ खेलती पत्ती हूं
मैं एक कहानी हूं
परियों, राजकुमारों, भगवान या भूतों वाली नहीं
पेडों, पहाडों, पत्थरों, नदियों, फूलों, कुत्ते-बिल्लियों, झरनों, समंदर वाली कहानी
एक भूखी चिड़िया को दाने से मिलाने वाली कहानी
मैं ऊंची इमारतों के बीच अपना वजूद खोजती घुघुती, संटुली, गौरेया हूँ।
Poems of Gauranshi Chamoli
बच्चियां
मुसाफिर हो जाने से
जगह के साथ
नाम बदलते हैं
संस्कृति बदलती है
पत्तों की खुशबू बदलती है
धान का रंग बदलता है
मिट्टी में पानी बदलता है
चिड़ियों की आवाज बदलती है
बस स्त्रियां एक-सी मिलती हैं
सबसे पहले उठकर
सबसे बाद में सोने वाली
जंगलों के गीत गाने वाली
भैंस के बच्चे को प्यार करने वाली
बच्चियां भी एक-सी मिलती हैं
प्यारी चुलबुली
बेवजह उग आने वाली घास जैसी।
जंगल का रखवाला
जंगल का रखवाला होना
आसान नहीं होता
क्योंकि जंगल का रखवाला होने से
जंगल की दावेदारी नहीं आती
आपको लड़ना पड़ता है
जंगल से
व्यवस्था से
जिसके पास ताकत है
दावेदारी ले लेने की
बाजार से
जो जब-तब खरीद सकता है दावेदारी।
जंगल
जंगल हूं मैं
नदी का पाला हुआ
कभी बर्फ से ढका
कभी चीड़-सा सूखा
खूबसूरत हूं
सड़क किनारे हुआ वृक्षारोपण नहीं
बे बुनी
तुम्हारी पहुंच से परे
मेरी खूबसूरती खलेगी तुम्हें
चुभन देगी आंखों को
क्योंकि बांध नहीं पाओगे मुझे
जानती हूं मैं
समझती हूं
जंगल हो जाना
तुम्हारी खूबसूरती के मायनों से परे है
तुम्हें आंगन के पेड़ पसंद हैं।
वो काम नहीं करती
वो गंवार है
चूल्हा जलाती है
कमजोर है
घड़े का भार उठाती है
मूर्ख है
जंगल बचाती है
अनपढ़ है
धरती चीर के धान उगाती है
कम अक्ल है
नदी के गीत गाती है
वो कहते हैं
उसमें सामथ्र्य नहीं
इसलिए काम नहीं करती ।
14 अक्टूबर 2000 को जन्मी गौरांशी चमोली उत्तरकाशी में रहती हैं और जीव विज्ञान में स्नातक स्तर की छात्रा हैं। उन्हें यात्रा करना, चित्रकारी, क्राफ्ट वर्क, पढ़ना और कविता लिखना प्रिय है।
Poems of Gauranshi Chamoli
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