स्त्री स्वतंत्रता और लव जिहाद
रेनू
दिसम्बर 2014 में लालकुआँ में एक छोटी-सी प्रेम सम्बन्ध की घटना को जिस तरह से साम्प्रदायिक रंग देने का काम किया गया, उससे इन साम्प्रदायिक ताकतों के भावी इरादों का कुछ अनुमान लग सकता है। पूरे देश में इनकी सक्रियता केंद्र में सरकार बदलने के बाद लगातार बढ़ रही हैं और उसी का परिणाम पिछले दिनों सहारनपुर, दिल्ली के बवाना इलाके और अन्य स्थानों पर होने वाले साम्प्रदायिक दंगे हैं। लालकुआँ में भी इसी तरह की एक साजिश का प्रयास पिछले दिनों किया गया। 10 दिसम्बर को एक 16 वर्षीय बालिका स्कूल से लंच टाइम पर जाने के बाद उस शाम अपने घर नहीं पहुंची, तो लड़की के घर वालों ने उसी कस्बे के एक मुस्लिम लड़के (उम्र लगभग 17 वर्ष) के द्वारा लड़की का अपहरण किये जाने की रिपोर्ट थाने में लिखवायी। इसी बीच आर.एस.एस., बजरंग दल और अन्य फासीवादी ताकतें इसे सांप्रदायिक रंग देने के काम में जुट गयीं। वास्तव में लड़का और लड़की काफी समय से एक दूसरे से परिचित थे और कुछ समय से उनके बीच प्रेम सम्बन्ध भी था, तथा दो बार पहले भी शहर से बाहर साथ में घूमने जा चुके थे। उसके बावजूद भी परिवार वालों ने अपहरण की रिपोर्ट दर्ज करायी। किशोरी ने भी लौटने के बाद स्वयं अपनी मर्जी से लड़के के साथ जाने की बात स्वीकारी। इस सारे माहौल में मीडिया भी सच्चाई की बिना पड़ताल किये बार-बार खबरों में लड़के को अपहरणकर्ता ही लिखता रहा। अगले दो दिन तक संघ और भाजपा के साम्प्रदायिक तत्व पुलिस थाने में और बाहर से पुलिस प्रशासन के खिलाफ और लड़के को फाँसी देने के पक्ष में नारेबाजी कर हंगामा करते रहे। 14 दिसम्बर को लालकुँआ में इसी क्रम में एक महापंचायत बुलाई गयी। लालकुँआ निवासी व प्रगतिशील महिला एकता केंद्र (प्र.म.ए.के.) व परिवर्तनकर्मी छात्र संगठन(पछास) की तीन महिला कार्यकर्ता भी आयोजकों के सभी नगरवासियों को दिए गए आमंत्रण के बाद वहां पहुंची। उस सभा में लगभग 200-250 लोग इकठ्ठा हुए थे, जिनमें से इन तीन महिलाओं के अलावा सभी पुरुष थे। आश्चर्य की बात यह है कि जो सभा महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर बुलवाई गयी थी, उसमें नगर की अन्य कोई महिला मौजूद नहीं थी।
भाजपा, कांग्रेस, सपा, आर.एस.एस., अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्, इन सभी संगठनों के लोग अपने मुस्लिम विरोधी भड़काऊ भाषणों से इस घटना को साम्प्रदायिक रंग देने का भरपूर प्रयास करते रहे। इसी बीच प्र.म.ए.के. की बिंदु गुप्ता व पछास की ज्योति ने साहसिक कदम उठाते हुए सभा में अपनी बात रखी। उन्होंने साम्प्रदायिक माहौल खराब न करने और धैर्य बनाये रखने की अपील की। साथ ही उन्होंने महिला विरोधी अश्लील संस्कृति व छेड़खानी के विरुद्घ मुहिम चलाने की भी बात कही। इसके बाद वहाँ मौजूद लोगों ने उनके साथ अभद्रता और गाली-गलौच शुरू कर दी और पछास के साथी महेश के साथ मारपीट भी की। ये सारा मामला थाने में पहुँचने पर पुलिस उन पर समझौता करने का दबाव बनाती रही। जब सफल नहीं हो पाई तो उसने अपना चिर-परिचित चरित्र दिखाते हुए दोनों पक्षों की शिकायत पर दोनों पक्षों की एफ.आई.आर. दर्ज करके अपने काम की इतिश्री कर ली। प्रेम सम्बन्ध को लव जिहाद का मामला बताकर उससे सांप्रदायिक हिंसा भड़काने की यह पहली कोशिश नहीं थी। मेरठ, मुजफ्फरनगर और अन्य कई स्थानों पर ऐसी कोशिशें हो चुकी हैं। उत्तर प्रदेश में पिछले उपचुनावों में भाजपा ने इस मुद्दे से चुनावी फायदा उठाने का भी भरपूर प्रयास किया। परन्तु बहुत सफलता हाथ नहीं लगी। लव जिहाद के तथाकथित मामलों को यदि हम देखें तो इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके माध्यम से भी महिलाओं को केवल परिवार की इज्जत से जोड़कर ही देखा जाता है। उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं समझा जाता है। परिवार में महिला को चाहे कोई सम्मान प्राप्त न हो परन्तु अगर कोई महिला अपनी मर्जी से किसी दूसरे धर्म में शादी कर ले तो उस परिवार की इज्जत खराब हो जाती है और अगर कोई दूसरे धर्म की लड़की उनके धर्म के पुरुष से विवाह कर ले, तो ये सांप्रदायिक उसे इज्जत बढ़ने की बात मानते हैं। क्योंकि असल में सामंती मान्यताओं के हिसाब से महिला का अपना कोई धर्म या जाति तो नहीं होती। वह जिस धर्म या जाति के पुरुष से शादी करे, वह वही बन जाती है।
इस विचार के हिसाब से विवाह में प्रेम का कोई स्थान नहीं होता। वह केवल इज्जत का आदान-प्रदान मात्र ही है। पुरातनपंथी पितृसत्तात्मक धार्मिक मान्यतायें स्त्री को परिवार की इज्जत के प्रतीक व प्रजनन यंत्र से अधिक कोई खास अहमियत नहीं देती हैं। वे उसकी यौन शुचिता को उसके जीवन से भी अहम मानती हैं और उसकी देह को भी नियंत्रित करने का प्रयास करती हैं। आर.एस.एस. बजरंग दल जैसे कट्टरपंर्थी हिंदुत्ववादी संगठन और कई इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन इसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। हमारे जैसे संकीर्ण समाज में जहाँ इस तरह की मानसिकता पहले से ही है वहाँ इन संगठनों को समर्थन भी आसानी से प्राप्त हो जाता है। याद कीजिये हमारे देश में कितनी ही बार महिलाओं की इज्जत का हवाला देकर सांप्रदायिक हिंसा भड़काई गयी है। लव जिहाद के नाम पर इन संगठनों द्वारा जारी प्रचार की एक बानगी देखिये- एक ऑडियो सन्देश में एक महिला बता रही है कि कैसे एक मुस्लिम युवक हिन्दू नाम रखकर युवतियों को प्रेमजाल में फँसा रहा है। यदि कोई मुस्लिम युवक एक या दो महिलाओं से शादी करे तो मुस्लिमों की आबादी कितनी ज्यादा बढ़ सकती है, और करीब 24 से 40 सालों में ये आबादी भारत में हिन्दुओं की आबादी से भी ज्यादा हो जाएगी। यहाँ तक कि इसमें मुस्लिम फिल्मी कलाकारों के हिन्दू लड़कियों से शादी करने को भी लव जिहाद का हिस्सा बताया गया है। इन प्रचारों में जारी किये गए पोस्टरों में आमिर खान और सैफ अली खान जैसे फिल्मी सितारों को लव जिहादियों की सूची में शामिल किया गया है। यहाँ तक कि ये कई जगह जातीय कट्टरता को छोड़कर एक धर्म विशेष के खिलाफ संगठित होने कि बात कर रहे हैं।
Women’s freedom and love jihad
इस सारे प्रचार को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे हिन्दू लडकियों में बुद्घि नाम की चीज ही नहीं है और उन्हें आसानी से धोखा दिया जा सकता हैं और उनकी रक्षा करना हिन्दू पुरुषों का कर्तव्य है। वास्तव में प्रेम के लिए फँसना या फँसाना जैसे घटिया शब्दों का इस्तेमाल करना समाज में एक आम बात है। अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक प्रेम संबंधों में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल और अधिक होता हैं। ये समाज की सामंती और प्रेम विरोधी मानसिकता का ही परिचायक है। पिछले कुछ समय से महिलाओं का इस्तेमाल कर दो धर्मों के बीच नफरत फैलाये जाने की पड़ताल करने वाली इतिहासकार चारू गुप्ता एक साक्षात्कार में कहती हैं कि सबसे पहले तो यह साफ हो जाना चाहिए कि लव जिहाद जैसा कोई शब्द नहीं है। ऐसा कोई जेहाद नहीं चलाया जा सकता है। इस शब्द का इस्तेमाल बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत हिन्दुत्ववादी संगठनों ने ——- के आसपास करना शुरु किया। यह पूरी सोच ही प्रेम और स्त्री की स्वतंत्रता के खिलाफ है। यह मानकर चला जाता है कि स्त्री के पास प्रेम करने की, चुनाव करने की बुद्घि ही नहीं है। यह शब्द बनाया हुआ है, वरना प्रेम और जेहाद दो अलग दुनिया के शब्द हैं। पहले इस अभियान को कोई नाम नहीं दिया गया था और न ही इतने संगठित तरीके से इसे चलाया जा रहा था, लेकिन चाहे वह पहले का दौर हो या मौजूदा समय, इस तरह के अभियान में हमें बहुत समानता दिखाई देती है। उस समय जेहाद शब्द का इस्तेमाल बेशक नहीं किया गया था, लेकिन हिन्दू महिलाओं का मुसलमान ‘गुंडों’ के द्वारा अपहरण, बलात्कार और धर्म परिवर्तन करने वाले पर्चे-पोस्टर आदि को बाँटा जाता था। बैठकों में इस पर चर्चा की जाती थी। आज इसका पैमाना बहुत बढ़ गया है, डरावना हो गया है। अब इसे एक धार्मिक युद्घ से जोड़कर बड़ी साजिश का हिस्सा स्थापित करने की कोशिश की जा रही है, जबकि जहाँ प्यार है, वहाँ जेहाद कहाँ और जहाँ जेहाद है वहां प्यार की कल्पना नहीं की जा सकती। इस मुद्दे पर मुख्यधारा के मीडिया की भी प्रवृति बिना जाँच-पड़ताल किये इन घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने और अपनी खबर को सनसनीखेज और चटपटा बनाने की ही रही है। मेरठ की एक हिन्दू युवती के साथ हुई घटना को मीडिया ने बिना सही जानकारी जुटाए सांप्रदायिक ताकतों की भाषा में ही जनता के सामने पेश किया। इस मामले में कलीम नामक युवक के साथ 10 मुस्लिम युवाओं को गिरफ्तार किया गया। बाद में जब लड़की ने बयान दिया कि उसने ये रिपोर्ट इन लड़कों के खिलाफ अपने परिवार वालों के दबाव में लिखाई थी, तो मीडिया ने इस बात को तवज्जो देना उचित नहीं समझा। समाज में विवाह के बाद महिलाओं के साथ धोखाधड़ी के मामले सामने आते रहते हैं, परन्तु ये सब केवल किसी धर्म विशेष के पुरुषों के द्वारा दूसरे धर्म की महिलाओं के साथ ही किये जा रहे हों, ऐसा नहीं है। हो सकता है कि धोखाधड़ी के छिटपुट मामले मुस्लिम युवकों द्वारा भी किये गए हों, पर वह किसी सुनियोजित साजिश का हिस्सा हों, ऐसे प्रमाण तो अभी तक सामने नहीं आये हैं।
कई बार परिवारों के द्वारा काफी जाँच-पड़ताल के बाद तय की गयी शादियों में भी धोखाधड़ी की घटनायें सामने आती हैं। दहेज उत्पीड़न के तो अधिकांश मामले तयशुदा शादियों में ही देखने को मिलते हैं। हमारे समाज में आज भी इतनी संकीर्णता है कि अंतर्जातीय व अंतर्धार्मिक विवाह परिवारों द्वारा बहुत कम ही स्वीकार किये जाते हैं। क्या हमें इस बात पर शर्म नहीं आनी चाहिए कि हमारे समाज में अधिकांश परिवारों में इतना गैर जनवादी माहौल रहता है कि प्रेम जैसी अत्यंत मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए भी हमारे किशोर-किशोरियों को घरों से भागने का या आत्महत्या का सहारा लेना पड़ता है? हो सकता है किशोरों द्वारा कुछ फैसले अपरिपक्व उम्र में ले लिए जाते हों, परन्तु हमारे परिवारों में डर का ऐसा माहौल होता है कि युवा विशेषकर लड़कियाँ अपने परिवार में प्रेम के विषय में कोई बात ही नहीं कर सकतीं। समाज में महिलाओं की सुरक्षा, शिक्षा और रोजगार के लिए संघर्ष करने की बजाय हम इस तरह की पुरातनपंथी साम्प्रदायिक बातों से समाज में उनकी स्थिति को पीछे ही धकेलेंगे। जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, उसने चमकते नारे देने के सिवाय जनता के हित में कोई काम नहीं किया है। साथ ही श्रम कानूनों को और अधिक लचीला बनाकर और भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन कर पिछली सरकारों की तरह ही मेहनतकश जनता के खिलाफ साजिश कर रही है। इसलिए जनता को भ्रमित करने के लिए इस तरह के सांप्रदायिक प्रचार बहुत ज्यादा जरूरी हो जाते हैं। केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद से ही ये सारा सांप्रदायिक खेल और तेज कर दिया गया है और मोदी इस पर सोची-समझी चुप्पी साधे हुए हैं। ऐसे समय में शहीद भगत सिंह के विचारों को याद करना बड़ा प्रासंगिक जान पड़ता है। अपने एक लेख ‘सांप्रदायिक दंगे और इनका इलाज’ में उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात कही है कि लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ नहीं करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों में लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी। वास्तव में महिला को एक इन्सान न मानकर, उसके प्रेम करने के अधिकार को अस्वीकार करना, उसे इज्जत का सवाल बनाना उस पितृसत्तात्मक सोच का ही प्रतीक है, जो स्त्री को पुरुष की सम्पत्ति मानती है। हम सभी शिक्षित और प्रगतिशील महिलाओं को इस सामंती और साम्प्रदायिक सोच का विरोध करते हुए महिलाओं की सच्ची मुक्ति के लिए, सभी के लिए सम्मानजनक रोजगार के लिए, और पितृसत्तात्मक सामंती व बाजारवादी महिला विरोधी संस्कृति के खिलाफ संघर्ष करना होगा, तभी हम एक सच्ची जनवादी व्यस्वस्था को स्थापित करने की ओर कदम बढ़ा पाएंगे।
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